अलका ‘सोनी’ की प्रसिद्ध कविताएँ, Alka Soni Poem in Hindi

Alka Soni Poem in Hindi – यहाँ पर Alka Soni ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. अलका ‘सोनी’ का जन्म झारखंड में 23 नवम्बर 1986 को हुआ था. लेकिन यह मूल रूप से पश्चिम बंगाल की बर्नपुर के रहने वाली हैं. इनकी रचनाएँ देश विदेश के अनेकों पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं.

आइए अब यहाँ पर Alka Soni Famous Poems in Hindi में दिए गए हैं. इसको पढ़ते हैं.

अलका ‘सोनी’ की प्रसिद्ध कविताएँ, Alka Soni Poem in Hindi

Alka Soni Poem in Hindi

1. थोड़ी अनगढ़ रहने दो

मत तरासो इतना
थोड़ी अनगढ़ ही
रहने दो
ऊब गई रहकर
महलों में
अब ताप भी थोड़ा
सहने दो

अलंकारों का यह
बोझ उतारो
उन्मुक्त गगन में
उड़ने दो
नर ही रहे
तुम तो सदैव
मुझ को भी
नारी ही रहने दो

रख लो अपनी
पूजन सामग्री
और न देवी बनने दो
इंद्रधनुष से इस
जीवन में स्वयं
सप्त रंग
मुझे भरने दो

दुर्गा ,लक्ष्मी ,काली की
ये उपमाएं
तुम बस यह
अब रहने दो
मुझ में है वाणी
मूक नहीं मैं
प्रखर प्रवाह
बन मुझे बहने दो।

2. असुर

कई युग बीत गए
उसको मरे लेकिन
आज भी वो हँस रहा है
अट्टहास कर रहा है
बार बार अपने वापस
लौट आने पर,
मानों कह रहा हो कि
वो मर ही नहीं सकता

अब कोई श्राप,
ब्रह्मास्त्र या अवतार
उसका कुछ नहीं
बिगाड़ सकता
अमृत अब उसकी
नाभि से निकल कर
फैल चुका है ,
उसके पूरे शरीर में

अब उसका कोई भेदी नहीं
चारों तरफ बस
और बस वही है
उसका दम्भ है
वो व्याप्त हो चुका है
अनगिनत वेश धर
हर जगह,

अपनी पूर्व अवस्था छोड़
ले चुका है वह
रक्तबीज का रूप
जिसे किसी शस्त्र से
मारा नहीं जा सकता,
धरना होगा कालिका को
रौद्र रूप उसके
संहार के लिए
ताकि फिर पनप
न सके एक नया असुर……

3. मेरे अंदर

मेरे अंदर
रह रही है कोई
जैसे वर्षों से,
एक अरसा
बीत चुका है
बात किये उससे
शिकायतें है उसे,
मुझसे बहुत

प्रश्न भी कई हैं
उसके मन में,
अक्सर अनदेखा
कर दिया करती हूं
उसको मैं
अपनी धुन में खोई

शायद इसलिए अब
वह रुठ सी
गयी है मुझसे
अब अपरिचितों-सा
व्यवहार हो चला है
उसका भी

हर दिन एक नया
वचन देती हूं उसे
कि आज फुर्सत से
बात करूँगी उससे
लेकिन बीत जाता है
वो हर दिन,
हर दिन की तरह

मेरे बाहर
एक दुनिया जो
घूमती रहती है
मेरे इर्दगिर्द

कभी कभी मैं भी
भूल जाती हूँ
सबकुछ
उसके साथ घूमने में

अपनी ही धुरी पर
काट लेती हूं
कितने ही चक्कर
इस क्रम में

सूरज उग आता है
अपने नियत समय पर
लेकिन उसे उगता भी
कब देख पाती हूँ मैं

इस आपा- धापी में
असूर्यम्पश्या सी
सुबह से रात
हो जाती है मेरी
और वो फिर
रूठी ही रह जाती है
मेरे अंदर……

4. महके कमल-दल

दिग्भ्रमित हो रातभर
एक मधुप उड़ता रहा
मधुरस से भरे हुए अपने
कंवल को ढूंढता रहा
हिय था व्याकुल
और उदास
वन सघन उड़ता फिरा
था लिए मन में
मधुर मिलन की आस

चांदनी ने भी चिढ़ाया
परिहास कर उसने
भ्रमर को भरमाया
कलियों ने राहों को
बिछकर सजाया
मानी नहीं उसने हार
चुनौतियों को करता गया
वो सहज-सहर्ष स्वीकार

पहुंचा वह मानस सरोवर
थे खिले कई कमल -दल
कोमल, सुंदर और सरस
सुवासित थे निर्झर कल-कल

निज कमलिनी को देख मधुप
हर्षित हुआ वह प्रतिपल
बंद वह पंखुड़ियों में हो गया
रात भर महके कमल-दल।

5. सुबह आती है

हर दिन सुबह आती है
रात के गुजरने के
ठीक पहले
जैसे बड़ी जल्दी
पड़ी हो उसको
उन अंधेरों को मिटाने की
फैला रखा था
जिसे रात ने
आसमान पर
पूरे एकाधिकार से
एक योद्धा की तरह
वह जीत जाना
चाहती है लड़कर
उस तमस से
खोलकर बिखरा देना
चाहती है अपनी
सुनहरी अलकों को
क्षितिज के आखिरी बिंदु तक
हर दिन सुबह आती है
अपनी रेशमी किरणों की
चतुरंगिणी सेना लिए
और छोड़ देती है
उन्हें हर ओर
हर सोते को जगाने के लिए
अब कहीं कोई
शेष नहीं है साक्ष्य
निशीथ की कालिमा की
चारों तरफ पसरा है
प्रकाश …..बस प्रकाश।

6. ठूंठ और तृण

पत्रहीन एक ठूंठ के पास
छरहरा सा
एक नन्हा तृण
उग आया कहीं से
हरा भरा, धानी रंग
रूप, यौवन, कोमलता से
भरा हुआ

इठलाता ,बलखाता
वो बढ़ने लगा,
तेज़ धूप और घनी
बरसात में भी
हंसता रहा

एक सुबह आँखें मींचते
उसने देखा कि
उसके और सूरज के बीच
ओट सा है कोई खड़ा
तृण को जलने से
बचाने की ज़िद पर अड़ा

आँख खुलने पर उसने
वहाँ एक ठूंठ को पाया
जैसे किसी बुजुर्ग का
हो वह सरमाया
नन्हें से तृण को
उस ठूंठ ने सहलाया
आंख भर आयी उसकी

जैसे गोद में वो
तृण बालक बन आया
बरसों के एकांत के बाद
कोई उससे मिलने आया
मित्रता हो गई
उस तृण की, ठूंठ से
ठूंठ की नीरसता
दूर हुई और
जीवन फिर मुस्कुराया।

7. सफलता असफलता

सफलता…….
पूर्णमासी के चाँद तक
पंहुचने की सीढ़ी
हर दिन, हर रात
और हर कदम
उस तक पँहुचने का प्रयास
लक्ष्य से बंधी हुई हर सांस
और…..
कभी न टूटने वाली आस।

विफलता…..
एक अवसर
फिर से चाँद तक जाने का
एक मौका
उस तक पंहुचाने वाली
सीढ़ियों को जोड़ने का
एक और प्रयास
स्वयं को सिद्ध कर
कुछ कर जाने का
एक स्वीकारोक्ति
एक साहस
पुनः उस भूल को
न दोहराने का।

8. दर्द मधु है, आंसू साकी है

जीवन की इस मधुशाला में
दर्द मधु है
आंसू साकी है,
झूम उठेगा वो ही
जिसमें तेरी यादें बाकी हैं,
प्रथम मिलन की प्रथम झलक की
अब तक नयनों में झांकी है
झूम उठेगा वो ही
जिसमें तेरी यादें बाकी हैं,

मधु हंसी में
मधु बोली में,
पहले छुअन की कोमलता
अब भी ताज़ी है
झूम उठेगा वो ही
जिसमें तेरी यादें बाकी हैं

कोई पावन धाम सा लगता
राधा के मोहन का नाम वो लगता
उन पांवों के निशान
मन के वृंदावन में
अब भी बाकी हैं,
दर्द मधु है
आंसू साकी है
झूम उठेगा वो ही
जिसमें यादें तेरी बाकी हैं….

9. कोरोना तुम लौट जाओ

अच्छे नहीं लगते
अब ये
ऊंघते -अनमने से दिन
कैद में हो जैसे जिंदगी
कट रही उमर
पल पल को गिन
बस भी करो
और न सताओ
कोरोना तुम लौट जाओ
पहले से ही थीं
इतनी दूरियां,
उनको और न बढ़ाओ
कोरोना तुम लौट जाओ
शांत मंदिर, न हो रही
उनमें दीया-बाती
दूर हो गए
सब साथी
बंधे हुए हैं
कर्मठ हाथ,
हो गए बोझिल
दिन और रात
बंदी बनी दुनिया
कुछ कर न पाती
भीतर ही भीतर कसमसाती
गुमसुम बचपन को
और न रुलाओ
कोरोना तुम लौट जाओ……

10. तुम एक देह हो

प्रकृति की अनुपम
कृति हो
जीवन का गान हो
रात के अंधेरे को
चीरते सूरज की
लालिमा का भान हो
धरती की छाती पर
उग आयी
लहलहाती हुई
हरी मखमली धान हो

घर को स्वर्ग बनाती
लक्ष्मी का रूप हो
मानवता को जन्म देती
मौत से खेलती
अपराजिता का स्वरूप हो
तुम ये हो…..
तुम वो हो……

लेकिन सत्य शायद
सहन कर पाओ कि
इस क्रूर जगत के लिए…..
तुम केवल एक ‘देह’ हो
अपने चारों ओर
खींची हुई लक्ष्मण रेखा को
आज तक तुम
लांघ नहीं पाई
तुम्हारी चंचलता, निश्छलता
कब किसी को
समझ आई…..
मानसिकता इस समाज की
अब भी वही है
जिसे नियति कभी
बदल नहीं पाई

11. अनुसंधान

नित्य नये अनुसंधानों ने
मिटा डाली हैं दूरियां
नक्षत्रों की,
सिमटा दिया है
विशाल धरा को
ग्रहों में भी जीवन
ढूंढ रहे हो तुम,
नाप लिया है
प्रकाश वर्ष में
सितारों के बीच की
दूरियों को…..

लेकिन क्या
कभी की है कोशिश
दो हृदयों के बीच
आयी दूरियों को
मिटाने की !!
निर्बल और सबल,
निर्धन और सधन के
बीच की खाई को
पाटने की,
उन आकाशीय पिंडों से
ज़्यादा जरूरी है कि
इस धरती को
रहने लायक बनाया जाय
उस स्वर्ग को
यहीं उतारा जाय।

12. रास्ते की नदियां

कल रास्ते में
बहती हुई
एक नदिया देखी,
नदिया देखी और उसमें
बहता हुआ
पानी देखी
बह रहा था जिसमें
जीवन एक ओर
दूसरी तरफ….
मृत्यु की निशानी देखी
एक तरफ
धुल रहे थे
नवजीवन के आगमन से
रक्तस्नात हुए कपड़े
ठीक उसी क्षण
नदिया के तट पर
जलती हुई चिता की
लहकती लपटें देखी
दृश्य भयंकर था
एक द्वंद्व सा कुछ
हृदय के अंदर था
लगने लगी
मिथ्या मुझको
अपनी ही काया
क्षणभंगुर जगत में
हमने अपने मन को
कितना है भरमाया
इस भरम को
भोली नदिया ने
मुझे खूब समझाया।

13. बरगद

बरगद सुनो
युगों से तुम
रहे हो पूजनीय,
वंदनीय
पात-पात में तुम्हारी
देवताओं का
वास होता है
गात में तुम्हारी
प्रज्ञा का निवास
होता है
सिद्धार्थ को बुद्ध
तुमने बनाया
ज्ञान से परिचय कराया
तुम्हारी सघन जड़ें
धरती को फाड़कर
जा पंहुचती है
पाताल तक
आयु-यश -स्वास्थ्य की
कामना भी तुम
पूर्ण करते हो
तुम्हारी विस्तृत
छाया में जुड़ाते हैं
दूर के विहग-पथिक
इतने उदार, महान
होने के बाद भी
क्यों एक कलंक से
छूट नहीं पाते तुम
क्यों किसी नन्हे पौधे को
तुम्हारी इस विशाल
छाया के तले
पनपने नहीं दे पाते तुम
क्यों अपनी इस
वृहदता में तने रहते हो
एक स्नेहिल बुजुर्ग की
भांति अपना हाथ
उस नन्हे पौधे पर रख
अपने अनुभवों को
क्यों साझा नहीं कर
पाते हो तुम
इससे तुम्हारी बुजुर्गियत
और बढ़ जाती
नन्हें पौधों की आस
तुम से और बढ़ जाती।

14. आधुनिक

आधुनिक हूँ
मैं सोच से अपनी
यह मानती हूं
पहनावे से नहीं
आती किसी में
नवीनता

सजाना पड़े साज़
बाहरी या अलंकार कोई
फिर है कैसा यह
नयापन

तोड़ रूढ़ियाँ बढ़े
रुग्ण सोच की तो
कहलाए
अर्वाचीन नवीन
मांजे विचार
व्यवहार को
नूतनता से हो
सजा कर्म जिसका

अग्रसर हो नव्य
दिशा की ओर
लाये हमेशा एक उजास
और नई भोर
भय को छोड़।

15. मैं प्रहरी हूँ

ऐ वक़्त जरा
मुझको देखो
दिये दर्द जितने भी
तुमने कब
मैं डरी हूँ

हर घाव के
बाद और मजबूत ही
बनकर उभरी हूँ

शांत नदिया सी
बहती रहती सदा
नाप नहीं पाया तू कि
मैं कितनी गहरी हूँ

हाथ छुड़ाकर बढ़
जाने की आदत तो
है तेरी, मैं आज भी
अपनी ही
जगह पर ठहरी हूँ।

रख लो तिमिर-बंध
कठोर ये अपने
अन्तस् के उजियारे की
मैं प्रहरी हूँ।

16. सीता की अग्नि परीक्षा

असाधारण जन्म पाकर भी
कहो क्या मैंने था पाया ?
पृथ्वी से निकलकर, पिता
जनक, पति राम सा पाया

महलों में पली सुकुमारी थी
भाग्य जोगन का था पाया
जो धनु, धुरंधर हिला न पाये
उसको मैंने उंगली से उठाया

शील, गुण, रूप से भरी
सदा पतिव्रता धर्म निभाया
थे विष्णु अवतार राम तो,
मैं भी थी लक्ष्मी रूपा काया

चौदह वर्ष वनवास में भी
पति संग निज पाँव बढ़ाया
क्या गलती थी मेरी इसमें
एक छली -बली हर लाया

पति-विलग हो राक्षस कुल में
बंदिनी बन समय बिताया
पत्नी-विलग रहे तुम भी लेकिन
किसी ने तुम पर न प्रश्न उठाया

देनी पड़ी केवल मुझको ही
क्यों अग्नि परीक्षा समझ न आया
पति होने का कैसा धर्म निभाया

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