Krishan Betab Poem in Hindi – यहाँ पर Krishan Betab Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. कृष्ण बेताब का जन्म 1 अगस्त 1933 को उत्तराखंड के मसूरी में हुआ था. इन्होनें 1980 से लेकर 1989 तक “बाल विदिअक जोत” मैगज़ीन का संपादन भी किया. यह पंजाबी और उर्दू साहित्य जगत में एक कहानीकार के तौर पर जाने जाते हैं.
आइए अब यहाँ पर Krishan Betab ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.
Poetry in Hindi – Krishan Betab
1. प्यासी रूह
रूह कई जन्म से प्यासी है मेरी
दो दिन में प्यास तुम बुझा सकते नहीं
चाह है जिस आग की मुझे मेरे नदीम
वह आग तुम सीने में लगा सकते नहीं
बुध औ ईसा जिस राह पर गए हैं गुज़र
उस राह पर तुम मुझको ला सकते नहीं
अज़ल से इश्क की शमा जो रौशन है
अबद तक तुम उस को बुझा सकते नहीं
मैं वह ‘बेताब’ शरर हूं बिछड़ा हुआ
उस शोले से तुम मुझको मिला सकते नहीं
(नदीम=दोस्त, अज़ल=शुरु से, अबद=
अंत, शरर=चिंगारी)
2. पैग़ाम-ए-अमन
(३ सितम्बर २००७ को पाकिस्तान के दयाल सिंह
कलचरल आडीटोरियम में पढ़ी गई)
हवा मिट्टी फल फूल दरिया
रौशन किरनों से सुनहरी सवेरा
जशन मेले लिबास ज़बां दसतूर
सांझे हैं सभी ज़माने में मशहूर
फिर ये झगड़ा ये ख़राबा क्यों है ?
सरहद पे आख़िर ये तनाजा क्यों है ?
कौन कहता है पराया, तुम हमसाया हो
भाई से बढ़कर मां-जाया हो
तेरे घर के धुएं से दम घुटता है
जब महके चमेली तो दिल खिलता है
अर्थी हो या जनाजा दर्द वही है
लाश तो हर हाल में लाश रही है
मन्दर में लगे गिल या मस्जिद में लगे
ज़ात तो मिट्टी की मिट्टी ही रही है
ख़ता किसी की सज़ा हम क्यों पाएं ?
रोज़ जियें हम रोज़ क्यों मर जाएं ?
मुबतिला-ए-रंज रहें ये मन्जूर नहीं
हमने जो चाही थी ये वोह तसवीर नहीं
बेहतर तो यही है अब निपटारा कर लें
अब चाहे कुछ हो जाए हम गुज़ारा कर लें
ये तफ़रीक नहीं वाजिब बहुत हो ली
बाहम मिल के मनाएं हम ईद और होली
आयो कि हम मस्जिद में दीप जलाएं
मन्दर से अपने यज़दां को बुलाएं
नानक औ चिश्ती का फ़रमान यही है
‘कुदरति के सभ बन्दे’ क्या ख़ूब कही है
तलवार से अमन की खेती नहीं पकती
जंग किसी भी सूरत हो अच्छी नहीं होती
फूल मुहब्बत के अब तो ऐ दोस्त ! खिला दें
मोजिजा ये दुनिया को करके दिखला दें
बच्चों के लिए हम कुछ तो कर जाएं
उमर कम है ‘बेताब’ अब तो सुधर जाएं
(तनाजा=झगड़ा, गिल=मिट्टी, मुबतिला-ए-रंज=
दुख में फंसे हुए, तफ़रीक=फ़र्क, यज़दां=रब,
अल्लाह, मोजिजा=कारनामा,करामात)
3. सफ़दर हाशमी के कत्ल पर
सफ़दर हाशमी !
तेरे ख़ून से सने
कदमों के निशां
गांव-गांव शहर-शहर
हर दहलीज़ पर आन पहुंचे हैं
नकली रंग से नहीं
तूने परचम इन्कलाब का
अपने ख़ूं से रंगा है ।
फुटपाथ का आदमी है हकीकत में तू
तुझको सजदा है
सलाम है
ऐ मर्द-ए-मुजाहिद !
तेरे ख़ूं की आबरू रखेंगे
हम अपने ख़ूं की सयाही से
हाशमी !
तेरे कतल का इश्तिहार लिखेंगे
क्यों बेगुनाहों के
बेज़ुबानों के
कत्ल होते हैं
इसका हिसाब मांगेंगे ।
4. दीप नयन के जल उठते हैं
दीप नयन के जल उठते हैं जब भी शाम ढली है
करमजली के मन में कैसी बिरहा अगन जली है
तेरे मन की क्या जानूं मैं कैसी लगन लगी है
मेरी सांसों में तो अब तक तेरी बास घुली है
चैन न पल छिन तड़पत निसदिन ये घायल मन मेरा
सावन बरस रहा है रिमझिम फिर भी आग लगी है
बांह छुड़ा कर जाने वाले कुछ तो देख इधर भी
आंख उठा कर झांक रही उपवन की शोख़ कली है
ज़र्द चांद बरगद की ओट में कब से सुलग रहा है
जाने उसको किन जन्मों के पाप की सज़ा मिली है
नयन कटोरे बेबस होकर छलक गये हैं उस पल
अपनी ही आवाज़ भटक कर जिस दिन गले मिली है
जोबन-मदिरा छलक रही है जाने वाले सुन ले
सावन झुलस गया है अब तो रुत्त को आग लगी है
ठोकर, धक्के, आंसू, आहें, पीड़ा और निराशा
तेरे दर से देख ले हमको क्या सौगात मिली है
एक भिखारन लड़की का यूं झमके रूप सलोना
मैले जल पर सूरज की ज्यों चमचम धूप खिली है
टूटी चूड़ी के टुकड़े हैं झिलमिल करते तारे
इन तारों की छांव में ही अपनी प्रीत पली है
मदिरा के प्याले को ऐसे घूर के क्यों तकते हो
जीवन की सारी कड़वाहट इस में देख घुली है
और तो सब दरवाज़े तुम पर बन्द हो चुके कबके
इक मधुशाला की खिड़की ‘बेताब जी’ अभी खुली है
(बास=ख़ुशबू, निसदिन=रात-दिन, मदिरा=शराब,
ज़र्द=पीला, बरगद=वट वृक्ष, सलोना=सुन्दर, मधुशाला=
शराब-घर)
5. हिरोशिमा की तबाही पर
१
तालिब-ए-इलम
ये सोच कर
‘मैं सकूल जाऊंगा’
सबक अज़बर किया
मैडम का चेहरा
ख़्वाबों में लिए
वोह सो गया
‘मैडम चूम लेगी मुझे’
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी
२
किसी ने वायदा किया
प्यार का
बहार का
कोई परदेस में माशूक से मिलने
मीलों मील चलता गया
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी
३
मन्दरों में
राहिब
देवतायों को
सेजों पर सुला कर
बरामदों में
लोबान की ख़ुशबू
महका कर
सो गए
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी
४
दहकान खेतों को
संवार कर
बीजों को थाम कर
सो गया
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी
५
हर किसी ने
घरों में
दरों में
शहरों में
गांव में
सपने सजाए
गुंचे खिलाए
अरमानों के ।
महमानों को
मेज़बानों ने
दायवतनामे दिये
आयो मिलकर
हम मनाएं
दुनिया सजाएं
बच्चों ने
बूढ़ों ने
नौखेज़
कलियों ने
गुंचों ने
चटकने के लिए
अपने नाज़ुक
बदनों को कसमसाया
इसी उमीद पर
कि
कल सुबह होगी ।
६
परिन्दों ने
गीतों की
रिहर्सल की
ये सोच कर
गाएंगे
इठलाएंगे
परों को समेट कर
घोसलों में
लिपटकर सो गए
रात काटी
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी
७
चांद को नाज़ था
वह चांदनी से
लिपटकर
आवारा हुआ
आफ़ताब इतराता रहा
सूरजमुखी
मुंतज़िर है मेरा
आशिक है मेरा
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी ।
सूरज का इतराना
चांदनी का इठलाना
परिन्दों का चहचहाना
बच्चों का मुस्कुराना
आशिकों का
पुजारियों का
दहकानों का
ख़ाबों का
अरमानों का
मेज़बानों का
दायवतनामों का
जानते हो ?
क्या हुआ ?
सब अधजली
लाशों की तरह
जल गए
मिट्टी में मिल गए
जब हीरोशीमा की
सर ज़मीन पर
मौत का भयानक तांडव हुआ
ऐटम बंम गिरा
आधी आबादी
रात को सोते हुए
सपने बुनते हुए
अरमानों को
सीने में लिये
धीरे से
मौत की आगोश में
बेकफ़न
गहरी नींद में
सो गई ।
इतने ही घायल हुए
कराहते हुए
ख़ून से लथपथ
मुहज़्ज़िब कौम की
हैवानीयत का शिकार
नई तहज़ीब की यादगार ।
रोती रही
मरती रही
चीखती रही
कहती रही,
‘बेकसूर लोग
क्यों मारे गए ?’
आज फिर सोचने का वक्त है
ऐ मरदे-मैदां
ऐ मरदे-कामिल
तेरे हाथ है
चाहे तू जन्नत बना
चाहे दोज़ख़
इस जहान को
मुंतज़िर है
इन्सानीयत
बेताब है ये जमीं
सांस रोके हुए
हर फ़रद-ओ-बशर की
धड़कने तेज हैं
इंतज़ार है
तेरे फैसले का
इमतहां है
तेरी फरासत का
नफ़ासत का
नज़ाकत का
लताफ़त का
करामत का
सच्च बता ।
6. लाज़िम है कि हर बात में
लाज़िम है कि हर बात में हो रंग-ए-असर भी
कि परदा-ए-ज़ुलमत में है तनवीर-ए-सहर भी
देता है जहां दाद मेरे इस अज़म-ए-जवां की
कि इस आबला पाई में हूं सरगरम-ए-सफ़र भी
हम हैं कि हैं नाकाम-ए-तमन्नां सरे-महफ़िल
दामन में मगर आपके गुल भी हैं समर भी
हर जाम बहुत ख़ूब है कुछ और सिवा हो
ऐ काश जो शामिल हो तेरी मसत-ए-नज़र भी
दिल का भी बुरा हाल है इस इश्क के हाथों
तसलीम कि रोते हैं मेरे दीदा-ए-तर भी
मजमूआ-ए-इज़दाद ये दुनिया-ए-फ़ानी
गुंचे भी हैं इस बज़म में ‘बेताब’ शरर भी
(ज़ुलमत=अंधेरा, तनवीर=रोशनी, आबला=छाला,
समर=फल, बज़्म=महफ़िल, शरर=अंगारे)
7. चांद से बादल हटाया कीजिये
चांद से बादल हटाया कीजिये
आग घूंघट में लगाया कीजिये
आंख की राह दिल में आया कीजिये
मेरी रग रग में समाया कीजिये
वक्त कुछ आराम से कट जाएगा
देख कर हां मुस्कराया कीजिये
खोटे सिक्के भी काम आ जाएंगे
राज़दां अपना बनाया कीजिये
है ख़ुशबख़ती निगेहबां खार हैं
हम से दामन न छुड़ाया कीजिये
कुछ नहीं दुनिया की नज़रों का कुसूर
नोक पलकें न बनाया कीजिये
मेरी ये इल्तिजा है परवरदिगार
इनसे चशम-ए-बद हटाया कीजिये
बारिशों में बिजलियां हैं पुरख़तर
रोते में न मुस्कराया कीजिये
कीमती हैं आपके आंसू बहुत
मोतियों को न लुटाया कीजिये
रोज़ तो हम आपको कहते नहीं
जब कभी फुरसत हो आया कीजिये
शेख़ जी चाहिये गर ज़िन्दगी का मजा
तो फिर मैकदे में आया कीजिये
पारसाई गर दरकार है तुम्हें
तो नज़र हसीनों से मिलाया कीजिये
ज़िन्दगी पहले ही इक अजाब है
रूठ कर न और तड़पाया कीजिये
आपके कदमों की है ‘बेताब’ ख़ाक
इसको न दिल से भुलाया कीजिये
(राज़दां=भेदी, खार=कंडे, इल्तिज़ा=
बेनती, मैकदे=शराब-घर, अजाब=
मुसीबत)
8. जला जा रहा हूं मैं सोज़-ए-तपां से
जला जा रहा हूं मैं सोज़-ए-तपां से
धुयां उठ रहा है मेरे आशियां से
तेरी रहमतों के काबिल नहीं हूं
चला तीर सदहा तू अपनी कमां से
चले आयो बैठा हूं कब से मैं तन्हा
वसल हो तुम्हारा निहां इस जहां से
गदागर हूं हूरों को शर्माने वाली
मिले भीख हमको तेरे आसतां से
क्यों शबनम ने मोती गुलों पर हैं टांके
‘बेताब’ ये पूछो ज़रा आसमां से
9. कुछ अपना शौक है
कुछ अपना शौक है जिसे जता रहे हैं हम
कदम मुहाज-ए-वफ़ा पे बढ़ा रहे हैं हम
तुम्हारा ज़ौर जो यूं आजमा रहे हैं हम
ये जान लो तुम्हें अपना बना रहे हैं हम
रह-ए-वफ़ा में हमारा ये काम है हमदम
हज़ार तीर कलेजे पे खा रहे हैं हम
ये मौज क्या ये गरदाब क्या क्या तूफ़ां
कि डूब जाने पे भी सर उठा रहे हैं हम
10. अन्दाज़ तेरा और भी बीमार न कर दे
अन्दाज़ तेरा और भी बीमार न कर दे
कुछ और मुझे ग़म का तलबगार न कर दे
फिर अबर-ए-करम झूम के मैख़ाने में आया
डर है कि ये दुनिया को गुनहगार न कर दे
मय क्या है जो बख़्शे न तबीयत को बुलन्दी
क्या जाम है जो रूह को शरशार न कर दे
मैं सोचता हूं इश्क का आज़ार-ए-मुसलसल
सोए हुए जजबात को बेदार न कर दे
मिलना तो ग़नीमत है किसी शोख़ का लेकिन
‘बेताब’ को रुसवा सरे-बाज़ार न कर दे
(अबर=बादल, बुलन्दी=उचाई, आज़ार=दुख,
बेदार=जगाना, रुसवा=बदनाम)
11. जनूं का सिलसिला कुछ ऐसे
जनूं का सिलसिला कुछ ऐसे बरहम होता जाता है
मेरा दर्द-ए-मुहब्बत इन दिनों कम होता जाता है
मुझे बख़्शी गई है इक नई वहश्त नई हसरत
जहां का ज़र्रा ज़र्रा मेरा महरम होता जाता है
हुआ है सामना बाद-ए-मुख़ालिफ़ का मुझे फिर से
चिराग-ए-आरजू-ए-ज़ीसत मद्धम होता जाता है
मुसर्रत इस से बढ़ कर और क्या होगी ज़माने में
जो ग़म मिलता है वुह इक मुस्तकिल ग़म होता जाता है
ये किसकी आमद आमद है कि फिर से गुलशन में
मुहब्बत आफ़रीं ‘बेताब’ फूलों का आलम होता जाता है
(बाद-ए-मुख़ालिफ़=उल्टी हवा, ज़ीसत=ज़िन्दगी,
मुसर्रत=ख़ुशी)
12. इश्क के कूचे में यूं
इश्क के कूचे में यूं सूरत कभी ऐसी न थी
ग़म कभी ऐसा न था राहत कभी ऐसी न थी
थी तो थी मुझसे लगावट कुछ तो हर अन्दाज में
आप को मुझसे मगर नफ़रत कभी ऐसी न थी
कारगर पहले भी था कुछ कुछ जनूं का सिलसिला
सर में यूं सौदा न था वहशत कभी ऐसी न थी
थी बराए नाम उनकी याद मेरे जिहन में
कोई आलम था मगर चाहत कभी ऐसी न थी
दिल-ए-बेताब कदर-ए-हौसला भी चाहिए
इश्क के हाथों तेरी हालत कभी ऐसी न थी
13. तिशनगी
न जाने किस शौक में
वादियों में तितलियों की तरह
दूर दूर शबिशतानों में
रंग-ओ-बू की तलाश में
भटका किया
मगर ख़ाब तो आख़िर ख़ाब हैं
सुराब तो आख़िर सुराब हैं
फूल तो नहीं-हां
अंगारों के गुलदस्तों ने
ख़ुश-आमदीद कहा मुझसे
हाथ भी दामन भी
जिस्म भी सब कुछ
नज़र-ए-आतिश हो गया
पांव के आबलों ने
दिल शिकनी तो की मगर
बफ़ूर-ए-शौक ने तिशनगी को
और भी भड़का दिया
मेरे आंगन में उगे पेड़
उसकी छांव और सिहर ने
जीने की तमन्ना को और भड़का दिया
मैं मायूस तो नहीं
दिल शिकशता भी हरगिज़ नहीं
मुझे तो जानिब-ए-मंज़िल चलना है अभी
आख़िर तो अंगारों में दफ़न होना है मुझे
वादी-ए-नार में सोना है अभी
यकीनन मेरे हिस्से की ज़मीं से
एक दिन
फूटेंगे गुलाबों के चमन
और मैं ख़ुशबू बन हर तरफ़
‘बेताब’ फैल जाऊंगा
हर किसी को
मुहब्बत का नग़मा सुनाऊंगा
14. आज भी
बदन सूरज का आज भी
मैली चादर से ढका है
आंसू ख़ून के
सुहाब कई वार रोया है
घटाएं आज भी
सरगरम-ए-सफ़र हैं उसी तरह
बच्चा आज भी बीमार पड़ा है
खपरैल के घरौंदे में
जगाता है मां को
खेंच कर बेकफ़न लाशा
बुलन्दियों से किस तरह
ग़ोताज़न है उकाब
नन्हीं चिड़ियों का शिकारी
गूंज कहकहों की आज भी
बिखरी है ईवानों में
फ़ानूस के हर शीशे में
रक्सां है बदसतूर
अक्स नौख़ेज़ कलियों का
कुंवारे बदनों का
बन्दूक से निकली सनसनाती कई वार
क्रांति, इन्कलाब, आज़ादी
वही आसमां वही ज़मीं
वही आफ़ताब वही माहताब
आज भी वैसा ही है सब कुछ
चंगेज़ हो कि हिटलर
हिन्दू हो या कि मुसलमां
इन्सान तो हर दौर में
भोला ही रहा है ठगा-सा
शातरों से जेब
कटवाता ही रहा है
आज भी
शराब तो वही है
मगर बोतलें बदल गई हैं
बीवियां तो वही हैं
हां मगर शहुर बदल गए हैं
दावा है राहबरों का
कि फासले कम हुए हैं
इनत्याज़ के, मगर
निगाह थक गई नाप कर फासले
जो बढ़ते गए हैं और भी
आख़िर सिमट आई अपने मरकज़ पर
निगाह-ए-बेताब लौट कर
अज़ल से ये सिलसिला यूं ही जारी है
मैं आज भी इसी उम्मीद पर
जिन्दा हूं
वह सुबह कभी तो आएगी आख़िर
जिसकी आगोश से फूटेगी सहर
15. कौम ईंटों से तामीर नहीं होती
कौम ईंटों से तामीर नहीं होती-
कौम को दौलत भी दरकार नहीं
बाग़, पुल, महल, तालाब और मुहल्ले
किले- बेशक कौम का सरमाया हैं
ख़ुशहाली के लिये लाज़िम है सख़त मेहनत भी
हिफ़ाजत के वास्ते फ़ौज भी ज़रूरी है
जवां-मर्द इन्सान भी चाहिएं
इलम, हुनर, कमाल, दोसती भी दरकार है
पर दामन में सच्च अगर नहीं आपके
कुर्बानी के लिये तड़प नहीं दिल में
तो बेकार हैं आपकी सारी काविशें
कौम ईंटों से तामीर नहीं होती-
कौम तामीर होती है कुर्बानियों से
जो गुरू अर्जन ने बताया हमें
यहां से शुरू होता है शहादतों का सिलसिला
जिसे रौशन किया था पीरान-ए-पीर नानक ने
जिनके दम से वतन पारस बना
आयो मिलकर दुया करें
अता हो फिर से वह तौफ़ीक हमें
हम कुर्बानियों के जाम पीते रहें
और सर उठाकर शान से जीते रहें
16. नारी के प्रती
शोषण मत्त कीजिये नारी का श्री मान
कद में है ये ऊंची, ऊंची इसकी शान
औरत दुर्बल जानके अच्छा नहीं अपमान
‘सो क्यों मन्दा आखीऐ जितु जंमह राजान’
हालत इसकी देखकर छाती फटती जाती है
‘वस्तु नहीं है भोग की’ ये गीता फ़रमाती है
जननी है, सिरजनहार है ये इन्सान सजाती है
ख़ुश अगर ये रहे तो धरती स्वर्ग बनाती है
इस धारा का अब रूप बदलना होगा
मंतर ये समाज को अब ख़ूब समझना होगा
सीता पहले भी राम के होते रोई बहुत
राम को अब सीता के पीछे रखना होगा
दूध तो बेशक आंचल में है नारी के
पर अब आंख में आंसू न होंगे प्यारी के
साहस हिंमत लाड प्यार के तुम रंग पायोगे
रूप अनेक अब देखोगे तुम बलिहारी के
17. कनाट पैलेस
कनाट पैलेस जिसे बारा खम्बा भी कहते हैं
हसीनों की जिसको हसीं गुज़रगाह भी कहते हैं
ये मरकज़-ए-हिन्द की इक रंगीन सी बसती है
हसीन इस पर और ये हसीनों पर मरती है
इसका बावक्त-ए-शाम कोई नज़ारा देखे
सुना हो जिसे अफ़सानों में वह शाहपारा देखे
लम्बी लम्बी कारें और उनकी रानाईयां
आ जाये गर कोई भूल जाए तनहाईयां
दुनिया के हर गोशे की तितली यहां होती है
थिरकती सुबकती यहां से वहां होती है
अंधेरा हो तो ईवां यूं जगमगाते हैं
महल में फ़ानूस जैसे मुस्कराते हैं
कुशादा सड़कों पे लहराती साड़ियों की रमक
हीरों की कहीं पन्नों की बिख़री है दमक
रिसमसाते आंचल हवा में मस्त लहराते हैं
जवां शानों से दुपट्टे सिरक सिरक जाते हैं
बारोअब दुकानें हैं बड़े बड़े शीशों की
लम्बी कतारें हैं देशों की बिदेशों की
रीगल और प्लाज़ा की उफ़ क्या बहार होती है
बाग़-ए-हुस्न की हर कली पुर बहार होती है
मशरिक और मग़रिब का हुस्न यहां यकजा है
न ख़याल में किसी के मन्दर है न गिरजा है
रैसतोरां भरे हैं शोख़ सी हसीनों से
मस्तानी नाज़नीनों से दीवानी महज़बीनों से
ज़र्रे ज़र्रे से इतर की कितनी महक आती है
तबीयत बिलावज्हा ही तो बहक जाती है
मगर कुछ दूर जा कर ज़रा देखें अगर हम
शायद देखा न जाये थाम लें अपना जिगर हम
यहां मुयस्सर हैं महल शीशों के अमीरों को
ढूंढने से भी नहीं मिलते झोंपड़े ग़रीबों को
वह गरम कमरों में रेशमी बिस्तर में लिपटे हैं
ये देखो बदनसीब अख़बारों में सिमटे हैं
रानाई हर शै में जो यहां नज़र आती है
परछाईं इसमें दहकां की नज़र आती है
मैं भूले भटके से इक बार जो यहां आ गया
उलझ गया खो गया बस देख देख उकता गया
बेशक यहां की बातें अनोखी हैं निराली हैं
ग़रीब के लिये मगर ये ज़हर की प्याली हैं
मुझ से तो झूठे सपने यूं सजाए नहीं जाते
महल रेत के दिल में इस तरह बनाये नहीं जाते
सख़्त घिन है मुझे इनसे इनके किरदार से
नकली झूठे इनके इस हुस्न के बाज़ार से
मुझे न चाहिये ये ऐश न रंग न राग
मुझे मुबारक मकई की रोटी सरसों का साग
18. मुसलसल ख़िज़ां यूं छा गई है ज़िन्दगानी पर
मुसलसल ख़िज़ां यूं छा गई है ज़िन्दगानी पर
हमेशा के लिये पर लग गये हों बहारों को
हौलनाक रात ही रात छाई है माहौल पर
शब निगल गई हो जैसे इन उजालों को
कोई झील भी तो नज़र नहीं आती अब मुझे
जिसमें गिरा दूं मैं हसद की आबशारों को
कैसे भूल जायूं मैं माजी की तलख़ियां बता
कैसे जला दूं मैं ग़म के मरगज़ारों को
ज़िन्दगी है बहती हुई दर्द की इक नहर
रवां है मंज़िल की तरफ़ फिर भी इठलाती हुई
राह में कोई भी साथी नहीं न कोई हमदर्द
है दर्द से भरपूर फिर भी इतराती हुई
(मुसलसल=लगातार, ख़िज़ां=पतझड़, शब=रात,
हसद=ईर्षा, आबशार=झरना, माजी=गुज़रा
वक्त, मरगज़ारों=हरे-मैदान)
19. गिरे हैं जब भी अश्क उनकी आंखों से कभी
गिरे हैं जब भी अश्क उनकी आंखों से कभी
बिखरे हैं अंजुम टूटे हुए आसमां से कई
और कभी जब मौज में वह आके मुस्कराए हैं
एक साथ खिल गए गुल जैसे गुलसितां में कई
उनकी अंगड़ाई जैसे हो कौस-ए-कज़ा का उभार
बात करने का सलीका जैसे निकले सुराही से शराब
गुनगुनाना उनका ऐसे जैसे दूर सहरा में कहीं
चांदनी रात में धीरे से बजाता है कोई रबाब
चमक तेरी मुहब्बत की मुझे दरकार नहीं
मेरे जजबात की तुम मुझको और सजा न दो
करना ही है तो करम इतना ही फ़रमाईए
दूर से ही देख लो मुझको और बस मुस्करा दो
मैं वीराने में इक सज़र हूं तनहा
सूखी चन्द शाख़ों के सिवा कुछ भी नहीं
ज़माने की आंधी से जब गिर जाऊं मैं
मातम को आ जाना मट्टी के सिवा कुछ भी नहीं
(अंजुम=तारे, कौस-ए-कज़ा=इंद्र-धनुष, सहरा=मारूथल, सज़र=वृक्ष)
20. तेरी नज़र
मैं और तो कुछ तेरी नज़र कर सकता नहीं
मेरे पास चन्द अशआर हैं मेरी जवानी का निखार
ये तेरे कदमों पे निसार कर सकता हूं मैं
ये हीरे हो सकते हैं तेरे जोबन का शिंगार
मेरे अशआर मेरी दौलत हैं मेरा सरमाया हैं
मेरी जवानी का निचोड़ मेरी जवानी का ख़ुमार
तेरे फूल से गालों की तरह शादाब हैं ये
ऐ मेरी जान-ए-तमन्ना ऐ मेरी जान-ए-बहार
इक बात कह दूं गर तू बुरा न माने
उमर भर तुझको ये कहीं रुलाते ही न रहें
क्योंकि पौशीदा है इन में मुहब्बत की महक
ग़म बढ़ जाये शायद तुझको हसाते ही रहें
यूं तो उमर भर तुमको मैं हमराह रख न सका
तुम इन अशआरों को ही सीने से लगाए रखना
मैं समझूंगा मुझको ही सीने से लगा रक्खा है
प्यार की जोत बस यूं ही जगमगाए रखना
अब भी याद है तुमने लिखा था इक बार मुझे
कि शहज़ादा हूं मैं तेरा मैं तेरा शाह हूं
यूं तो हूं मैं शुकरग़ुज़ार तेरे जजबात का
लेकिन मेरी जां मैं तो इक मुजस्सम आह हूं
अच्छा इक तरकीब है दिल को मनाने की
आयो ख़ाबों में हम नए रंग सजा दें
इक नए शाहकार की तशकील करें हम
उस में खो जाएं और माजी को भुला दें
(निसार=कुर्बान, तशकील=बनाना, माजी=
गुज़रा वक्त)
21. उनका जिस्म जैसे कोई कांच का बुत हो
उनका जिस्म जैसे कोई कांच का बुत हो
जाने कौन से सांचे में वह ढाले हैं
याद आई कभी उनकी ज़ुल्फ़ों की रमक
गोया नाग सपेरन ने सयाह पाले हैं
कभी आओ तुम तो मैं तुमको दिखला दूं
मैंने किस शौक से ये ग़म पाले हैं
कशीद कर ख़ूं रग-रग से तेरे लिए
अश्कों के भर भर के जाम निकाले हैं
चलो तुम न सही लिपटे मेरी गर्दन से
मेरे गले में उफ़कार के तो हाले हैं
ये छलनी करते हैं दिन रात जिहन को
फिर भी मरता ही नहीं कैसे ये भाले हैं
जहां पड़ते हैं कदम मेरे सनम के
वह मेरे मन्दिर हैं मेरे शिवाले हैं
इतनी की है मैंने इबादत फिर भी
दूर अब तक मुझसे मेरे उजाले हैं
22. मुसव्वर के नाम
मुसव्वर तस्वीर बना तू देखेगा रंग अजब
कितने रंग निखरेंगे कितने उभरेंगे नगीने
पर शामिल हो इसमें कामिल तेरी रूह का परतौ
फिर देखना कितने निकलेंगे सुनहरी ज़ीने
उन ज़ीनों से फिर दुनिया का नज़ारा करना
कितने हेच नज़र आएंगे तुमको दुनिया के नज़ारे
फिर बढ़के चाहे ख़ुदा से भी उलझ जाना
बना देना अपने हाथों से नये चांद नये सितारे
23. आज के इन्सान
मैं आज के इन्सानों की बात कहूं
ये सब हैं करंसी नोटों की तरह
कोई पाऊंड या चांदी का सिक्का नहीं
जज़बात से खाली हैं मशीनों की तरह
सुबह से शाम तक ये मेज़ों पे झुके रहते हैं
कुछ भी इन्हें मालूम नहीं दिन की कहानी
कब रात ने सूरज को सुलाया अपने आंचल में
ज़िन्दगी यूं मिटा दी काग़ज़ में लुटा दी जवानी
24. कतात
१
कई नामों से मैंने तुझको पुकारा
तू ख़ाईफ़ न हो मुझसे हिरासा न हो
मैं तो समझा हूं यही इक बात हबीब
मेरी आवाज़ जैसे कोई आवाज़ न हो
२
देखता हूं रोज़ उस तारे को
ये जाली में से यूं टिमटिमाता है
जैसे बारीक दुपट्टे में से
कोई बार बार नयन मिलाता है
३
ये मुहब्बत कोई घाटे का सौदा नहीं
ये तबादला है जवानी से जवानी का
आयो कुछ लम्हें हम भी चैन से गुज़ारें
अज़ल से चलता है ये किस्सा जवानी का
४
तेरे ख़तों में वह पहली सी गर्मी नहीं
जाने कहां उस गर्मी को बहा देती हो
कहीं ऐसा तो नहीं ओ सांवली दोशीजा !
इस आग को आंखों से बहा देती हो
५
फासले बढ़ते हैं जिस कदर
मेरे दिल को करार आता है
इस ग़म के बहर-ए-बेकरां में
मेरे जुनूं पे निख़ार आता है
६
हम जियें या मरें इससे आप को क्या
ये हमीं हैं जो बेकरार रहते हैं
दर्द क्यों हो आप के सीने में हुज़ूर
आप के भला हम कौन होते हैं
७
न डर इन ज़ाहदों की बातों से
ये सब ही इस रंग में रंगे हैं
इन की पारसाई पर न जा नादान
इस हमाम में सब ही नंगे हैं
८
आख़िर ये भी तो फ़ितरत का इक शाहकार हैं
तलाश इनको भी रहती है दिल के सकूं की
क्या हुआ रात गए ये अगर कोठे पर जायें
इन को भी तो ज़रूरत है किसी बुत के फ़सूं की
25. रुबाईयात
१
क्या बतायूं कितने अरमां कुचल कर आ गए
हम जो यूं तेरी महफ़िल से निकल कर आ गए
मेरी आंखों से तो अचानक ख़ुद-ब-ख़ुद
कितने ही दरिया यूं उबल कर आ गए
२
तुझ बिन दिल बहलाना आ गया
हर ग़म अब भुलाना आ गया
ये न पूछो किस तरह
मुझको बस मुस्कराना आ गया
३
तुझको अब ये ज़हर पीना पड़ेगा
उसके बगैर अब जीना पड़ेगा
ये है मशक-ए-वफ़ा दिल-ए-नादां
गिरेबां चाक को सीना पड़ेगा
४
आंखों में जब तुम हो समाये
दिगर मजाल किसकी सनम जो आये
लाख हसीं हुआ करे कोई
तुम बिन ज़ालिमा न अब कोई भाये
५
गुनहगार मौसम के इशारे हैं
दिलनवाज़ शोख़ बेईमां नज़ारे हैं
क्या ज़ुल्म है सितम है कहर है ‘बेताब’
कम्बख़त तू नहीं और सारे हैं
६
उनसे उल्फ़त भी कोई उल्फ़त है
मुझ पे तारी ख़ुदाया ये कैसी वहशत है
उमर भर वह मेरे ही रहें फ़क्त मेरे ही
अजब ये अन्दाज़ है कैसी ये चाहत है
७
उनसे जुदा हुए अभी दो दिन हुए नहीं
लगता है यूं कभी बाहम जाने जिगर हुए नहीं
अभी से क्यों मरा जाता है ‘बेताब’ तू
मिल लेना दुश्मन जिन्दा हैं अभी मरे नहीं
८
फ़ुरसत में याद करना छोड़ दे
नग़मे सोज़ के गाना छोड़ दे
फिर भी न माने दिल अगर तो
दिल के तारों को ही तू तोड़ दे
੯
फिर हलचल मचाने ये कौन आ रहा है
बेदर्दी लुटेरा ये कौन आ रहा है
यूं फ़रश-ए-दिल पे ख़रामां ख़रामां
ये कौन आ रहा है, ये कौन आ रहा है
१०
किस बला के हसीन नज़र आते हो
मानिन्द-ए-माहताब नज़र आते हो
है तूफ़ान शायद आने वाला
तुम जो ख़ामोश नज़र आते हो
११
तू निगाहों के जाम लेके आ जा
मस्ती जो भी है तमाम ले के आ जा
प्यासे हैं हम इक उमर से हम साकी
ख़ुशी का कोई तो पैग़ाम लेके आ जा
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