जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कविताएँ, Jaishankar Prasad Poem in Hindi

Jaishankar Prasad Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Jaishankar Prasad Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को काशी के गोवर्धनसराय में हुआ था. यह कवि, नाटककार, निबंधकार, एवं उपन्यासकार थे. हिंदी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक थे.

जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी पहली रचना 1901 में लिखा था. जो एक सवैया छंद हैं. इनकी कविता का पहला प्रकाशन 1906 में हुआ था. उनकी काव्य रचनाएँ हैं – महाराणा का महत्व, कानन-कुसुम, झरना, आंसू, लहर, कामायनी और प्रेम पथिक।

आइए अब यहाँ पर Jaishankar Prasad ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कविताएँ, Jaishankar Prasad Poem in Hindi

Jaishankar Prasad Poem in Hindi

झरना (Jharna) – Jaishankar Prasad

1. परिचय

उषा का प्राची में अभ्यास,
सरोरुह का सर बीच विकास॥
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
गगन मंडल में अरुण विलास॥

रहे रजनी मे कहाँ मिलिन्द?
सरोवर बीच खिला अरविन्द।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
मधुर मधुमय मोहन मकरन्द॥

प्रफुल्लित मानस बीच सरोज,
मलय से अनिल चला कर खोज।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
वही परिमल जो मिलता रोज॥

राग से अरुण घुला मकरन्द।
मिला परिमल से जो सानन्द।
वही परिचय, था वह सम्बन्ध
प्रेम का मेरा तेरा छन्द॥

2. झरना

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।

प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना

कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना-

बह चला, जैसे दृगजल ढरना।
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा

प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाँई में
बह चला झरना।

तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में॥

3. अव्यवस्थित

विश्व के नीरव निर्जन में।

जब करता हूँ बेकल, चंचल,
मानस को कुछ शान्त,
होती है कुछ ऐसी हलचल,
हो जाता हैं भ्रान्त,

भटकता हैं भ्रम के बन में,
विश्व के कुसुमित कानन में।

जब लेता हूँ आभारी हो,
बल्लरियों से दान
कलियों की माला बन जाती,
अलियों का हो गान,

विकलता बढ़ती हिमकन में,
विश्वपति! तेरे आँगन में।

जब करता हूँ कभी प्रार्थना,
कर संकलित विचार,
तभी कामना के नूपुर की,
हो जाती झनकर,

चमत्कृत होता हूँ मन में,
विश्व के नीरव निर्जन में।

4. पावस-प्रभात

नव तमाल श्यामल नीरद माला भली
श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,
अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में
भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।

अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती,
उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल
मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता
उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।

मुक्त व्योम में उड़ते-उड़ते डाल से,
कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी
निकल-निकल कर भूल या कि अनजान में,
लगती हैं खोजनें किसी को प्रेम से।

क्लान्त तारकागण की मद्यप-मंडली
नेत्र निमीलन करती हैं फिर खोलती।
रिक्त चपक-सा चन्द्र लुढ़ककर हैं गिरा,
रजनी के आपानक का अब अंत हैं।

रजनी के रंजक उपकरण बिखर गये,
घूँघट खोल उषा में झाँका और फिर
अरुण अपांगों से देखा, कुछ हँस पड़ी,
लगी टहलने प्राची के प्रांगण में तभी ॥

5. किरण

किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज,
रँगी हो तुम किसके अनुराग,
स्वर्ण सरजित किंजल्क समान,
उड़ाती हो परमाणु पराग।

धरा पर झुकी प्रार्थना सदृश,
मधुर मुरली-सी फिर भी मौन,
किसी अज्ञात विश्व की विकल-
वेदना-दूती सी तूम कौन?

अरुण शिशु के मुख पर सविलास,
सुनहली लट घुँघराली कान्त,
नाचती हो जैसे तुम कौन?
उषा के चंचल मे अश्रान्त।

भला उस भोले मुख को छोड़,
और चूमोगी किसका भाल,
मनोहर यह कैसा हैं नृत्य,
कौन देता सम पर ताल?

कोकनद मधु धारा-सी तरल,
विश्व में बहती हो किस ओर?
प्रकृति को देती परमानन्द,
उठाकर सुन्दर सरस हिलोर।

स्वर्ग के सूत्र सदृश तुम कौन,
मिलाती हो उससे भूलोक?
जोड़ती हो कैसा सम्बन्ध,
बना दोगी क्या विरज विशोक!

सुदिनमणि-वलय विभूषित उषा-
सुन्दरी के कर का संकेत-
कर रही हो तुम किसको मधुर,
किसे दिखलाती प्रेम-निकेत?

चपल! ठहरो कुछ लो विश्राम,
चल चुकी हो पथ शून्य अनन्त,
सुमनमन्दिर के खोलो द्वार,
जगे फिर सोया वहाँ वसन्त।

6. विषाद

कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा,
वृक्ष-पत्र की मधु छाया में।
लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं,
अमृत सदृश नश्वर काया में।

अखिल विश्व के कोलाहल से,
दूर सुदूर निभृत निर्जन में।
गोधूली के मलिनांचल में,
कौन जंगली बैठा बन में।

शिथिल पड़ी प्रत्यंचा किसकीस
धनुष भग्न सब छिन्न जाल हैं।
वंशी नीरव पड़ी धूल में,
वीणा का भी बुरा हाल हैं।

किसके तममय अन्तर में,
झिल्ली की इनकार हो रही।
स्मृति सन्नाटे से भर जाती,
चपला ले विश्राम सो रही।

किसके अन्तःकरण अजिर में,
अखिल व्योम का लेकर मोती।
आँसू का बादल बन जाता;
फिर तुषार की वर्षा होती ।

विषयशून्य किसकी चितवन हैं,
ठहरी पलक अलक में आलस!
किसका यह सूखा सुहाग हैं,
छिना हुआ किसका सारा रस।

निर्झर कौन बहुत बल खाकर,
बिलखाला ठुकराता फिरता।
खोज रहा हैं स्थान धरा में,
अपने ही चरणों में गिरता।

किसी हृदय का यह विषाद हैं,
छेड़ो मत यह सुख का कण हैं।
उत्तेजित कर मत दौड़ाओ,
करुणा का विश्रान्त चरण हैं ॥

7. बालू की बेला

आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला।
कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? – न हो भीड़ का जब रेला॥

दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ।
दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला।

कुछ कहते हो ‘कुछ दुःख नही’, हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम।
प्रश्न करो ढेड़ी चितवन से, किस किसको किसने झेला?

आने दो मीठी मीड़ो से नूपुर की झनकार, रहो।
गलबाहीं दे हाथ बढ़ाओ, कह दो प्याला भर दे, ला!

निठुर इन्हीं चरणों में मैं रत्नाकर हृदय उलीच रहा।
पुलकिल, प्लावित रहो, बनो मत सूखी बालू का वेला॥

8. चिह्न

इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान,
आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान।

मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम,
तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम।

आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास,
दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उल्लास।

द्रुतगति से था दौड़ लगाता, चक्कर खाता पवन हताश,
विह्वल-सी थी दीन वेदना, मुँह खोले मलीन अवकाश।

हृदय एक निःश्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम-निकेत,
जीर्ण कांड़ वृक्षों के हँसकर रूखा-सा करते संकेत।

बिखरते चुकी थी अम्बरतल में सौरभ की शुचितम सुख धूल,
पृथ्वी पर थे विकल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल।

गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट.
निर्मल चिति का दीप जलाकर छोड़ चला यह अपनी भेंट।

मधुर आँच से गला बहावेगा शैलों से निर्झर लोक,
शान्ति सुरसुरी की शीतल जल लहरी को देता आलोक।

नव यौवन की प्रेम कल्पना और विरह का तीव्र विनोद,
स्वर्ण रत्न की तरल कांति, शिशु का स्मित या माता की गोद।

इसके तल के तम अंचल में इनकी लहरों का लघु भान,
मधुर हँसी से अस्त व्यस्त हो, हो जायेगी, फिर अवसान॥

9. दीप

धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को।

गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था।

इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढाया हैं,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया हैं।

जला करेगा वक्षस्थल पर वहा करेगा लहरी में,
नाचेगी अनुरक्त वीचियाँ रंचित प्रभा सुनहरी में,

तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी,
सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी।

देख नग्न सौन्दर्य प्रकृति का निर्जन मे अनुरागी हो,
निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व समभागी हो।

किसी माधुरी स्मित-सी होकर यह संकेत बताने को,
जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाते को॥

10. कब ?

शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी?
वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी?

रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप हैं;
सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुड़ियाँ बिखरावेगी?

लम्बी विश्व कथा में सुख की निद्रा-सी इन आँखों में-
सरस मधुर छवि शान्त तुम्हारी कब आकर बस जावेगी?

मन-मयूर कब नाच उठेगा कादंबिनी छटा लखकर;
शीतल आलिंगन करने को सुरभि लहरियाँ आवेगी?

बढ़ उमंग-सरिता आवेगी आर्द्र किये रूखी सिकता;
सकल कामना स्रोत लीन हो पूर्ण विरति कब पावेगी?

11. स्वभाव

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।

12. असंतोष

हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द;
बरसता हैं मलयज मकरन्द।
स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द,
खेलता शिशु होकर आनन्द।
क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल;
उसी में मानव जाता भूल।

नील नभ में शोभन विस्तार,
प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार।
नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस
बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ।
जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति,
स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति।

प्रणय की महिमा का मधु मोद,
नवल सुषमा का सरल विनोद,
विश्व गरिमा का जो था सार,
हुआ वह लघिमा का व्यापार।
तुम्हारा मुक्तामय उपहार
हो रहा अश्रुकणों का हार।

भरा जी तुमको पाकर भी न,
हो गया छिछले जल का मीन।
विश्व भर का विश्वास अपार,
सिन्धु-सा तैर गया उस पार।
न हो जब मुझको ही संतोष,
तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष?

13. प्रत्याशा

मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।
आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-
स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।
शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से
बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।
कहते हो- “उत्कंठा तेरी कपट हैं।”
नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-
आधी खुली हुई खिड़की की राह से
जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।
दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,
हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।
तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-
वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।
सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-
ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।
क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे
हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।
किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!
होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।
चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।
हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।
चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से
बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।
मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

14. दर्शन

जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली।
अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला।
निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका,
बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी।
वंशी की स्वर लहरी नीरव व्योम में-
गूँज रही हैं, परिमल पूरित पवन भी-
खेल रहा हैं जल लहरी के संग में।
प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम में-
बहकाती हैं, और नदी उस ओर ही-
बहती हैं। खिड़की उस ऊँचे महल की-
दूर दिखाई देती हैं, अब क्यों रूके-
नौका मेरी, द्विगुणित गति से चल पड़ी।
किन्तु किसी के मुख की छवि-किरणें घनी,
रजत रज्जु-सी लिपटी नौका से वहीं,
बीच नदी में नाव किनारे लग गई।
उस मोहन मुख का दर्शन होने लगा।

15. हृदय का सौंदर्य

नदी की विस्तृत वेला शान्त,
अरुण मंडल का स्वर्ण विलास;
निशा का नीरव चन्द्र-विनोद,
कुसुम का हँसते हुए विकास।

एक से एक मनोहर दृश्य,
प्रकृति की क्रीड़ा के सब छंद;
सृष्टि में सब कुछ हैं अभिराम,
सभी में हैं उन्नति या ह्रास।

बना लो अपना हृदय प्रशान्त,
तनिक तब देखो वह सौन्दर्य;
चन्द्रिका से उज्जवल आलोक,
मल्लिका-सा मोहन मृदुहास।

अरुण हो सकल विश्व अनुराग
करुण हो निर्दय मानव चित्त;
उठे मधु लहरी मानस में
कूल पर मलयज का हो वास।

16. होली की रात

बरसते हो तारों के फूल
छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल
कोकिला कैसे रहती मीन।

चाँदनी धुली हुई हैं आज
बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज
मधुर उठती हैं तान असंख।

तरल हीरक लहराता शान्त
सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त
बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत
टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत
कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय
अरे अभिलाषाओं की धूल।
और ही रंग नही लग लाय
मधुर मंजरियाँ जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल
हृदय में जलन रहे, क्या हात!
स्नेह से जलती ज्वाला झेल
बना ली हाँ, होली की रात॥

17. रत्न

मिल गया था पथ में वह रत्न।
किन्तु मैने फिर किया न यत्न॥

पहल न उसमे था बना,
चढ़ा न रहा खराद।
स्वाभाविकता मे छिपा,
न था कलंक विषाद॥

चमक थी, न थी तड़प की झोंक।
रहा केवल मधु स्निग्धालोक॥
मूल्य था मुझे नही मालूम।
किन्तु मन लेता उसको चूम॥

उसे दिखाने के लिए,
उठता हृदय कचोट।
और रूके रहते सभय,
करे न कोई खोट॥

बिना समझे ही रख दे मूल्य।
न था जिस मणि के कोई तुल्य॥
जान कर के भी उसे अमोल।
बढ़ा कौतूहल का फिर तोल॥

मन आग्रह करने लगा,
लगा पूछने दाम।
चला आँकने के लिए,
वह लोभी बे काम॥

पहन कर किया नहीं व्यवहार।
बनाया नही गले का हार॥

18. कुछ नहीं

हँसी आती हैं मुझको तभी,
जब कि यह कहता कोई कहीं-
अरे सच, वह तो हैं कंगाल,
अमुक धन उसके पास नहीं।

सकल निधियों का वह आधार,
प्रमाता अखिल विश्व का सत्य,
लिये सब उसके बैठा पास,
उसे आवश्यकता ही नही।

और तुम लेकर फेंकी वस्तु,
गर्व करते हो मन में तुच्छ,
कभी जब ले लेगा वह उसे,
तुम्हारा तब सब होगा नहीं।

तुम्हीं तब हो जाओगे दीन,
और जिसका सब संचित किए,
साथ बैठा है सब का नाथ,
उसे फिर कमी कहाँ की रही?

शान्त रत्नाकर का नाविक,
गुप्त निधियों का रक्षक यक्ष,
कर रहा वह देखो मृदु हास,
और तुम कहते हो कुछ नहीं।

19. कसौटी

तिरस्कार कालिमा कलित हैं,
अविश्वास-सी पिच्छल हैं।
कौन कसौटी पर ठहरेगा?
किसमें प्रचुर मनोबल है?

तपा चुके हो विरह वह्नि में,
काम जँचाने का न इसे।
शुद्ध सुवर्ण हृदय है प्रियतम!
तुमको शंका केवल है॥

बिका हुआ है जीवन धन यह
कब का तेरे हाथो मे।
बिना मूल्य का , हैं अमूल्य यह
ले लो इसे, नही छल हैं।

कृपा कटाक्ष अलम् हैं केवल,
कोरदार या कोमल हो।
कट जावे तो सुख पावेगा,
बार-बार यह विह्वल हैं॥

सौदा कर लो बात मान लो,
फिर पीछे पछता लेना।
खरी वस्तु हैं, कहीं न इसमें
बाल बराबर भी बल हैं ॥

20. अतिथि

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।

लहर (Lehar) – Jaishankar Prasad

1. लहर

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे

सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे

प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे

चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे

2. लहर

उठ उठ री लघु लोल लहर!
करुणा की नव अंगड़ाई-सी,
मलयानिल की परछाई-सी
इस सूखे तट पर छिटक छहर!

शीतल कोमल चिर कम्पन-सी,
दुर्ललित हठीले बचपन-सी,
तू लौट कहाँ जाती है री
यह खेल खेल ले ठहर-ठहर!

उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिह्न बना जाती,
सिकता की रेखायें उभार
भर जाती अपनी तरल-सिहर!

तू भूल न री, पंकज वन में,
जीवन के इस सूनेपन में,
ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!
आ चूम पुलिन के बिरस अधर!

3. अशोक की चिन्ता

जलता है यह जीवन पतंग

जीवन कितना? अति लघु क्षण,
ये शलभ पुंज-से कण-कण,
तृष्णा वह अनलशिखा बन
दिखलाती रक्तिम यौवन।
जलने की क्यों न उठे उमंग?

हैं ऊँचा आज मगध शिर
पदतल में विजित पड़ा,
दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर,
क्यों गूँज रही हैं अस्थिर

कर विजयी का अभिमान भंग?

इन प्यासी तलवारों से,
इन पैनी धारों से,
निर्दयता की मारो से,
उन हिंसक हुंकारों से,

नत मस्तक आज हुआ कलिंग।

यह सुख कैसा शासन का?
शासन रे मानव मन का!
गिरि भार बना-सा तिनका,
यह घटाटोप दो दिन का

फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!

यह महादम्भ का दानव
पीकर अनंग का आसव
कर चुका महा भीषण रव,
सुख दे प्राणी को मानव
तज विजय पराजय का कुढंग।

संकेत कौन दिखलाती,
मुकुटों को सहज गिराती,
जयमाला सूखी जाती,
नश्वरता गीत सुनाती,

तब नही थिरकते हैं तुरंग।

बैभव की यह मधुशाला,
जग पागल होनेवाला,
अब गिरा-उठा मतवाला
प्याले में फिर भी हाला,

यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।

काली-काली अलकों में,
आलस, मद नत पलकों में,
मणि मुक्ता की झलकों में,
सुख की प्यासी ललकों में,

देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।

फिर निर्जन उत्सव शाला,
नीरव नूपुर श्लथ माला,
सो जाती हैं मधु बाला,
सूखा लुढ़का हैं प्याला,

बजती वीणा न यहाँ मृदंग।

इस नील विषाद गगन में
सुख चपला-सा दुख घन मे,
चिर विरह नवीन मिलन में,
इस मरु-मरीचिका-वन में

उलझा हैं चंचल मन कुरंग।

आँसु कन-कन ले छल-छल
सरिता भर रही दृगंचल;
सब अपने में हैं चंचल;
छूटे जाते सूने पल,

खाली न काल का हैं निषंग।

वेदना विकल यह चेतन,
जड़ का पीड़ा से नर्तन,
लय सीमा में यह कम्पन,
अभिनयमय हैं परिवर्तन,

चल रही यही कब से कुढंग।

करुणा गाथा गाती हैं,
यह वायु बही जाती है,
ऊषा उदास आती हैं,
मुख पीला ले जाती है,

वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।

आलोक किरन हैं आती,
रेश्मी डोर खिंच जाती,
दृग पुतली कुछ नच पाती,
फिर तम पट में छिप जाती,

कलरव कर सो जाते विहंग।

जब पल भर का हैं मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त हैं खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,

तब क्यों चटकीला सुमन रंग?

संसृति के विक्षत पर रे!
यह चलती हैं डगमग रे!
अनुलेप सदृश तू लग रे!
मृदु दल बिखेर इस मग रे!

कर चुके मधुर मधुपान भृंग।

भुनती वसुधा, तपते नग,
दुखिया है सारा अग जग,
कंटक मिलते हैं प्रति पग,
जलती सिकता का यह मग,

बह जा बन करुणा की तरंग,
जलता हैं यह जीवन पतंग।

4. प्रलय की छाया

थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की
सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में!
और उस दिन तो;
निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से
सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ।
दूरागत वंशी रव
गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से।
मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में
रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें
उसे उकसाने को-हँसाने को।
पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से
कस्तरी मृग जैसी।

पश्चिम जलधि में,
मेरी लहरीली नीली अलकावली समान
लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको,
और साँस लेता था संसार मुझे छुकर।
नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ
दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी।
मेरे तो,
चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से।
हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में
मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में
नत शिर देख मुझे।

कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की
हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में,
पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती।
नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला
अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ
आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा
जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती।
नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी
चरण अलक्तक की लाली से
जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा
पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को।

कितनी मादकता थी?
लेने लगी झपकी मैं
सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती;
जिसमें थी आशा
अभिलाषा से भरी थी जो
कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में
जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी।
“आँखे खुली;
देखा मैने चरणों में लोटती थी
विश्व की विभव-राशि,
और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी।
वह एक सन्ध्या था।”

“श्यामा सृष्टि युवती थी
तारक-खचिक नीलपट परिधान था
अखिल अनन्त में
चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ
ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी
बहती थी धीरे-धीरे सरिता
उस मधु यामिनी में
मदकल मलय पवन ले ले फूलों से
मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था।
चाँदनी के अंचल में।
हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा।

सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको
तारिकाएँ झाँकती थी।
शत शतदलों की
मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में
बहाती लावण्य धारा।
स्मर शशि किरणें
स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को
स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर।

अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में
गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,
तिरते थे
मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में।
पीते मकरन्द थे
मेरे इस अधखिले आनन सरोज का
कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था?
खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी
गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।”

“और परिवर्तन वह!
क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई
नीले मेघ माला-सी
नियति-नटी थी आई सहसा गगन में
तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।”
“पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था
आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति
सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना
सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा
गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन;
उन्नत हुआ था भाल
महिला-महत्त्व का।

दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का
ऊर्जित आलोक
आँख खोलता था सबकी।
सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ
जीवन का अपने भविष्य नये सिर से;
उसी दिन
बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता।
देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि
व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से
जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से।

मै भी थी कमला,
रूप-रानी गुजरात की।
सोचती थी
पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी
वह दवानल ज्वाला
जिसमें सुलतान जले।
देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती
मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध।
आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी?
स्पर्द्धा थी रूप की
पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी,
मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के
सन्मुख नगण्य थी।

देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का
तुलना कर उससे,
मैने समझा था यही।
वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की
फिर भी कुछ कम थी।
किन्तु था हृदय कहाँ?
वैसा दिव्य
अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की
लधुता चली थी माप करने महत्त्व की।

“अभिनय आरम्भ हुआ
अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर
चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में
गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे।
नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात
किसको प्रमत्त नहीं करते
धैर्य किसका नहीं हरते ये?
वही अस्त्र मेरा था।
एक झटके में आज
गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो।

क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा
दावानल बनकर
हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का।
बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की
आर्तवाणी,
क्रन्दन रमणियों का,
भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा
होने लगा गुर्जर में।
अट्टहास करती सजीव उल्लास से
फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में।

वही कमला हूँ मैं!
देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में,
मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे
बाधा, विध्न, आपदाएँ,
अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती
हँसते वे देख मुझे
मै भी स्मित करती।
किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में?
संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में
छोड़ना पड़ा ही उसे।
निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे,
किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था।

“वह दुपहरी थी,
लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली।
थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों
तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा।
मेरे गुर्ज्जरेश !
आज किस मुख से कहूँ?
सच्चे राजपूत थे,
वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही
गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में
दूर वे चले गये,
और हुई बन्दी मै।

वाह री नियति!
उस उज्जवल आकाश में
पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर
व्यंग्य-हास करती थी।
एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर
आज भी नचाता वही,
आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती-
“अनुकरण कर मेरा”
समझ सकी न मैं।
पद्मिनी की भूल जो थी समझने को
सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर
सन्मुख सुलतान के
मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई।

उस अभिमान में
मैने ही कहा था – छाती ऊँची कर उनसे –
“ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ”
वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी!
कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था?
उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का।
रूप यह!
देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी
कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ?

बन्दिनी मैं बैठी रही
देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी।
यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की
एक छलना-सी, सजने लगी थी सन्ध्या में।
कृष्णा वह आई फिर रजनी भी।
खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति
अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में ।
जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में!

कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का
कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति
क्षणभर चाहती जगाना मैं
सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में,
नारी मैं!
कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की!

साहस उमड़ता था वेग-पूर्-ओघ-सा
किन्तु हलकी थी मैं,
तृण बह जाता जैसे
वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती।
कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की
इस मेरे रूप की।

आज साक्षात होगा कितने महीनों पर
लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं
अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में
एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी
पहुँची समीप सुलतान के।
तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा
मेरे ही घुटनों पर,
किन्तु अविचल रही।
मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो
चमकी वह सहसा
मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को।
किन्तु छिन गई वह
और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी,
अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती।

अन्त करने का और वहीं मर जाने का
मेरा उत्साह मन्द हो चला।
उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं-

“जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।”
चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी
प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय
अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो
“जीवन अनन्त हैं,
इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?”
जीवन की सीमामयी प्रतिमा
कितनी मधुर हैं?
विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही।

कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:-
अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी,
माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा
क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी
माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा
जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से।
व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से
भोर में ही माँगता हैं
“जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी।
जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य है।”

रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई
“मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम?
मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो
और मैं हूँ बन्दिनी।
राज्य हैं बचा नहीं,
किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं
इतनी मैं रिक्त हूँ ?”
क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही।

शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की
अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में।
“देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का
एक गीत-भार हैं!
रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में
पद्मिमी को खो दिया हैं
किन्तु तुमको नहीं!
शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर
निज कोमलता से-मानस की माधुरी से!
आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में
सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम
ठहरो विश्राम करों।”
अति द्रुत गति से
कब सुलतान गये
जान सकी मैं न, और तब से
यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा।

“एक दिन, संध्या थी;
मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा
लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से।
यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में,
करुण विषाद मयी
बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी।
बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती
सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से।

सामने था
शैशव से अनुचर
मानिक युवक अब
खिंच गया सहसा
पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र
मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने।
जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन
अद्भुत कुतूहल औ’ हँसी की कहानी से।

मैने कहा:-
“कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?”
“मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में
आ गया हूँ रानी! -भला
कैसे मैं न आता यहाँ?”
कह, वह चुप था।
छूरे एक हाथ में
दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं
प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ।
सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े,
और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में ।

“मृत्युदंड!”
वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम
मरता है मानिक!
गूँज उठा कानों में-
“जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।”
उठी एक गर्व-सी
किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में
“उसे छोड़ दीजिए” – निकल पडा मुँह से।

हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं
जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में।
प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था?
अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए
कहा सुलतान ने-
“जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।”
हाय रे हृदय! तूने
कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष
और आकाश को पकड़ने की आशा में
हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में।

“अन्तर्निहित था
लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में
जीवन की दीनता में और पराधीनता में
पलने लगीं वे चेतना के अनजान में।
धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता
आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती;
चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की।
किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते
मेरे संवेदनो को।
यामिनी के गूढ़ अन्धकार में
सहसा जो जाग उठे तारा से
दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं
खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर।
बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं
शासन की कामना में झूमी मतवाली हो।

एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का
कितना अर्जित था?
जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव!
भेजा संदेश मुझे “शीध्र अन्त कर दो
जीवन की लीला।”
लालसा की अर्द्ध कृति-सी!
उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ
जीवित स्वयं हैं।

जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में?
बन्दिनी हुई मैं अबला थी;
प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका?
प्रेम कहाँ मेरा था?
और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था।
मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को।
रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की,
वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता
भारतेश्वरी का पद लेने को।

लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना
और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी
चिर पराजित सुलतान पद तल में।
कृष्णागुरुवर्तिका
जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में
एक धूम-रेखा मात्र शेष थी,
उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में
क्षीणगन्ध निरवलम्ब।
किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं!
यह उपहार हैं, शृंगार हैं।
मेरा रूप माधुरी का।

मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से
गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की
विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का
आज विजयी था रूप
और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का
रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता
जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा
व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर।
अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते ।
जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे
भवें बल खाती जब;
लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी
इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से
बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द।

रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से
कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ
बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी।
इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन
शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक
अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा
चलता था-
हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर
मंजु मीन-केतन अनंग का।
मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे
रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में।
हर में सुलतान की
देखती सशंक दृग कोरों से
निज अपमान को।”

“बेच दिया
विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे;
उसी मानवता के आत्म सम्मान को।”
जीवन में आता हैं परखने का
जिसे कोई एक क्षण,
लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के
उग्र कोलाहल में,
जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती।
सोचा था उस दिन:
जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने,
अन्त किया छल से काफूर ने
अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का।

आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी
रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए
प्राणी राज-वंश के
मारे गये।
वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी।
शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं
और फिर
बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का
सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं?
इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे
किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की।

जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने;
आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए;
अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट।

अन्त कर दास राजवंश का,
लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का
मानिक ने, खुसरु के नाम से
शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं।
उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति
मैं हूँ किस तल पर?
सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ
मैं जो करने थी आई
उसे किया मानिक ने।
खुसरु ने!!

उद्धत प्रभुत्व का
वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में
कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह!
“नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं
जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।
जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए,
अपना अस्तित्व हैं पुकारते,
नश्वर संसार में
ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।”
“लूटा था दृप्त अधिकार में
जितना विभव, रूप, शील और गौरव को
आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है!
एक माया-स्पूत-सा
हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।”

देख कमलावती।
ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी
सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की।
हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी
छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ
करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में ।
ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में
वेग भरी वासना
अन्तक शरभ के
काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से।
पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का-
गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा
असफल सृष्टि सोती-
प्रलय की छाया में।

5. ले चल वहाँ भुलावा देकर

ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।

जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।

श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !

6. निज अलकों के अंधकार में

निज अलकों के अन्धकार मे
तुम कैसे छिप आओगे?
इतना सजग कुतूहल! ठहरो,
यह न कभी बन पाओगे!

आह, चूम लूँ जिन चरणों को
चाँप-चाँपकर उन्हें नहीं
दुख दो इतना, अरे अरुणिमा
ऊषा-सी वह उधर बही।

वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर
यहीं पड़ी रह जावेगी ।
प्राची रज कुंकुम ले चाहे
अपना भाल सजावेगी ।

देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा?
लो सिर झुका हुआ।
कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे
यह दृग खुला हुआ ।

फिर कह दोगे;पहचानो तो
मैं हूँ कौन बताओ तो ।
किन्तु उन्हीं अधरों से, पहले
उनकी हँसी दबाओ तो।

सिहर रेत निज शिथिल मृदुल
अंचल को अधरों से पकड़ो ।
बेला बीत चली हैं चंचल
बाहु-लता से आ जकड़ो।

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?
इसमें क्या है धरा, सुनो,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित
मेरे क्षितिज! उदार बनो।

7. मधुप गुनगुनाकर कह जाता

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी,
मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी

इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास-
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास

तब बही कहते हो-काह डालूं दुर्बलता अपनी बीती !
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे – यह गागर रीती

किन्तु कहीं ऐसा ना हो की तुम खली करने वाले-
अपने को समझो-मेरा रस ले अपनी भरने वाले

यह विडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं
भूलें अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊं मैं

उज्जवल गाथा कैसे गाऊं मधुर चाँदनी रातों की
अरे खिलखिला कार हसते होने वाली उन बातों की

मिला कहाँ वो सुख जिसका मैं स्वप्न देख कार जाग गया?
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की
सीवन को उधेड कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?

छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूँ?
क्या ये अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय बही नहीं- थकी सोई है मेरी मौन व्यथा

8. अरी वरुणा की शांत कछार

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद
देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क,हृदय का कितना है अधिकार?

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार
दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार
सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़,जगत की ज्वाला करती शांत
तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार–
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

छोड़कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.
दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार
विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र
मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र

अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !

तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार
सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार
आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार

9. हे सागर संगम अरुण नील

हे सागर संगम अरुण नील!

अतलान्त महा गंभीर जलधि
तज कर अपनी यह नियत अवधि,
लहरों के भीषण हासों में
आकर खारे उच्छ्वासों में

युग युग की मधुर कामना के
बन्धन को देता ढील।
हे सागर संगम अरुण नील।

पिंगल किरनों-सी मधु-लेखा,
हिमशैल बालिका को तूने कब देखा!

कवरल संगीत सुनाती,
किस अतीत युग की गाथा गाती आती।

आगमन अनन्त मिलन बनकर
बिखराता फेनिल तरल खील।
हे सागर संगम अरुण नील!

आकुल अकूल बनने आती,
अब तक तो है वह आती,

देवलोक की अमृत कथा की माया
छोड़ हरित कानन की आलस छाया

विश्राम माँगती अपना।
जिसका देखा था सपना

निस्सीम व्योम तल नील अंक में
अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?
हे सागर संगम अरुण नील!

10. उस दिन जब जीवन के पथ में

उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,
मधु-भिक्षा की रटन अधर में,
इस अनजाने निकट नगर में,
आ पहुँचा था एक अकिंचन।

उस दिन जब जीवन के पथ में,
लोगों की आखें ललचाईं,
स्वयं माँगने को कुछ आईं,
मधु सरिता उफनी अकुलाईं,
देने को अपना संचित धन।

उस दिन जब जीवन के पथ में,
फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,
आँखें करने लगी ठिठोली;
हृदय ने न सम्हाली झोली,
लुटने लगे विकल पागल मन।

उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र में था भर आता
वह रस बरबस था न समाता;
स्वयं चकित-सा समझ न पाता
कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!

उस दिन जब जीवन के पथ में,
मधु-मंगल की वर्षा होती,
काँटों ने भी पहना मोती,
जिसे बटोर रही थी रोती
आशा, समझ मिला अपना धन।

11. आँखों से अलख जगाने को

आँखों से अलख जगाने को,
यह आज भैरवी आई है
उषा-सी आँखों में कितनी,
मादकता भरी ललाई है

कहता दिगन्त से मलय पवन
प्राची की लाज भरी चितवन-
है रात घूम आई मधुबन,
यह आलस की अंगराई है

लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल,
सागर का उद्वेलित अंचल
है पोंछ रहा आँखें छलछल,
किसने यह चोट लगाई है ?

12. आह रे, वह अधीर यौवन

आह रे, वह अधीर यौवन !

मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत,
बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत-
सिंधु वेला-सी घन मंडली,
अखिल किरणों को ढँककर चली,
भावना के निस्सीम गगन,
बुद्धि-चपला का क्षण–नर्तन-
चूमने को अपना जीवन,
चला था वह अधीर यौवन!
आह रे, वह अधीर यौवन !

अधर में वह अधरों की प्यास,
नयन में दर्शन का विश्वास,
धमनियों में आलिन्गनमयी–
वेदना लिये व्यथाएँ नयी,
टूटते जिससे सब बंधन,
सरस सीकर से जीवन-कन,
बिखर भर देते अखिल भुवन,
वही पागल अधीर यौवन !
आह रे, वह अधीर यौवन !

मधुर जीवन के पूर्ण विकास,
विश्व-मधु-ऋतु के कुसुम-विकास,
ठहर, भर आँखों देख नयी-
भूमिका अपनी रंगमयी,
अखिल की लघुता आई बन–
समय का सुन्दर वातायन,
देखने को अदृष्ट नर्तन
अरे अभिलाषा के यौवन !
आह रे, वह अधीर यौवन !!

13. तुम्हारी आँखों का बचपन

तुम्हारी आँखों का बचपन!

खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे, व्यतीत जीवन!

साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
गूँजता किलकारी निस्वन,
पुलक उठता तब मलय-पवन।

स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
बिछल,चल थक जाता जब हार,
छिड़कता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन।

आज भी हैं क्या नित्य किशोर
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
सरलता का वह अपनापन
आज भी हैं क्या मेरा धन!

तुम्हारी आँखों का बचपन!

14. अब जागो जीवन के प्रभात

अब जागो जीवन के प्रभात!

वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आँसू जो क्षोम भरे
ऊषा बटोरती अरुण गात!

तम-नयनो की ताराएँ सब
मुँद रही किरण दल में हैं अब,
चल रहा सुखद यह मलय वात!

रजनी की लाज समेटी तो,
कलरव से उठ कर भेंटो तो,
अरुणांचल में चल रही वात।

15. कोमल कुसुमों की मधुर रात

कोमल कुसुमों की मधुर रात !

शशि-शतदल का यह सुख विकास,
जिसमें निर्मल हो रहा हास,
उसकी सांसो का मलय वात !
कोमल कुसुमों की मधुर रात !

वह लाज भरी कलियाँ अनंत,
परिमल-घूँघट ढँक रहा दन्त,
कंप-कंप चुप-चुप कर रही बात.
कोमल कुसुमों की मधुर रात !

नक्षत्र-कुमुद की अलस माल,
वह शिथिल हँसी का सजल जाल-
जिसमें खिल खुलते किरण पात
कोमल कुसुमों की मधुर रात !

कितने लघु-लघु कुडलम अधीर,
गिरते बन शिशिर-सुगंध-नीर,
हों रहा विश्व सुख-पुलक गात

16. कितने दिन जीवन जल-निधि में

कितने दिन जीवन जल-निधि में

विकल अनिल से प्रेरित होकर
लहरी, कूल चूमने चलकर
उठती गिरती-सी रुक-रुककर
सृजन करेगी छवि गति-विधि में !

कितनी मधु-संगीत-निनादित
गाथाएँ निज ले चिर-संचित
तरल तान गावेगी वंचित!
पागल-सी इस पथ निरवधि में!

दिनकर हिमकर तारा के दल
इसके मुकुर वक्ष में निर्मल
चित्र बनायेंगे निज चंचल!
आशा की माधुरी अवधि में !

17. मेरी आँखों की पुतली में

मेरी आँखों की पुतली में
तू बनकर प्रान समा जा रे!

जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,
मन में मलयानिल चन्दन हो,
करुणा का नव-अभिनन्दन हो
वह जीवन गीत सुना जा रे!

खिंच जाये अधर पर वह रेखा
जिसमें अंकित हो मधु लेखा,
जिसको वह विश्व करे देखा,
वह स्मिति का चित्र बना जा रे !

18. जग की सजल कालिमा रजनी

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ
ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ
प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ
प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन – गीत सुना जाओ

स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो
जीवन-धन ! इस जले जगत को वृन्दावन बन जाने दो

19. वसुधा के अंचल पर

वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन-कन-सा गया बिखर?
जल शिशु की चंचल कीड़ा-सा,
जैसे सरसिज दल पर।

लालसा निराशा में ढलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह क्या है रे मानव जीवन?
कितना है रहा निखर।

मिलने चलने जब दो कन,
आकर्षण-मय चुम्बन बन,
दल के नस-नस मे बह जाती
लघु-लघु धारा सुन्दर।

हिलता-ढुलता चंचल दल,
ये सब कितने हैं रहे मचल
कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते।
कब रुकती लीला निष्ठुर।

तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?
यह रोष भरी लाली क्यों?
गिरने दे नयनों से उज्जवल
आँसू के कन मनहर।

वसुधा के अंचल पर।

20. अपलक जगती हो एक रात

अपलक जगती हो एक रात!

सब सोये हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता सम्बल में
चलती हो कोई भी न बात!

पथ सोये हों हरियाली में,
हों सुमन सो रहे डाली में,
हो अलस उनींदी नखत पाँत!

नीरव प्रशान्ति का मौन बना,
चुपके किसलय से बिछल छता;
थकता हो पंथी मलय-बात।

वक्षस्थल में जो छिपे हुए
सोते हों हृदय अभाव लिए
उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

21. जगती की मंगलमयी उषा बन

जगती की मंगलमयी उषा बन,
करुणा उस दिन आई थी,
जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी

भय- संकुल रजनी बीत गई,
भव की व्याकुलता दूर गई,
घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी

खिलती पंखुरी पंकज- वन की,
खुल रही आँख रिषी पत्तन की,
दुख की निर्ममता निरख कुसुम -रस के मिस जो भार आई थी

कल-कल नादिनी बहती-बहती-
प्राणी दुख की गाथा कहती-
वरूणा द्रव होकर शांति-वारि शीतलता-सी भर लाई थी

पुलकित मलयानिल कूलो में,
भरता अंजलि था फूलों में ,
स्वागत था अभया वाणी का निष्ठुरता लिये बिदाई थी

उन शांत तपोवन कुंजो में,
कुटियों, त्रिन विरुध पुंजो में,
उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी

मृग मधुर जुगाली करते से,
खग कलरव में स्वर भरते से,
विपदा से पूछ रहे किसकी पद्ध्वनी सुनने में आई थी

प्राची का पथिक चला आता ,
नभ पद- पराग से भर जाता,
वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिसने सृष्टि बनाई थी.
तप की तारुन्यमयी प्रतिमा,
प्रज्ञा पारमिता की गरिमा,
इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी

उस पावन दिन की पुण्यमयी,
स्मृति लिये धारा है धैर्यमयी,
जब धर्म- चक्र के सतत-प्रवर्तन की प्रसन्न ध्वनि छाई थी

युग-युग की नव मानवता को,
विस्तृत वसुधा की विभुता को,
कल्याण संघ की जन्मभूमि आमंत्रित करती आई थी

स्मृति-चिन्हों की जर्जरता में,
निष्ठुर कर की बर्बरता में,
भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी

22. चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर

चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर
वह कौन अकिंचन अति आतुर
अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश
ध्वनि कम्पित करता बार-बार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार

सागर लहरों सा आलिंगन
निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन
जल वैभव है सीमा-विहीन
वह रहा एक कन को निहार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार

अकरुण वसुधा से एक झलक
वह स्मृत मिलने को रहा ललक
जिसके प्रकाश में सकल कर्म
बनते कोमल उज्जवल उदार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार

फैलाती है जब उषा राग
जग जाता है उसका विराग
वंचकता, पीड़ा, घ्ह्रिना, मोह
मिलकर बिखेरते अंधकार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार

ढल विरल डालियाँ भरी मुकुल
झुकती सौरभ रस लिये अतुल
अपने विषद -विष में मूर्छित
काँटों से बिंध कर बार बार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कही प्यार

जीवन रजनी का अमल इंदु
न मिला स्वाति का एक बिंदु
जो ह्रदय सीप में मोती बन
पूरा कर देता लक्षहार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार

पागल रे ! वह मिलता है कब
उसको तो देते ही हैं सब
आँसू के कन-कन से गिन कर
यह विश्व लिये है ऋण उधर,
तू क्यों फिर उठता है पुकार ?
मुझको न मिला रे कभी प्यार

23. काली आँखों का अंधकार

काली आँखों का अन्धकार
तब हो जाता है वार पार,
मद पिये अचेतन कलाकार
उन्मीलित करता क्षितिज पार

वह चित्र! रंग का ले बहार
जिसमें हैं केवल प्यार प्यार!

केवल स्मितिमय चाँदनी रात,
तारा किरनों से पुलक गात,
मधुपों मुकुलों के चले घात,
आता हैं चुपके मलय वात,

सपनों के बादल का दुलार।
तब दे जाता हैं बूँद चार!

तब लहरों-सा उठकर अधीर
तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर,
सूखे किसलय-सा भरा पीर
गिर जा पतझड़ का पा समीर।

पहने छाती पर तरल हार।
पागल पुकार फिर प्यार प्यार!

24. अरे कहीं देखा है तुमने

अरे कहीं देखा हैं तुमने
मुझे प्यार करनेवाले को?
मेरी आँखों में आकर फिर
आँसू बन ढरनेवाले को ?

सूने नभ में आग जलाकर
यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर
जीवन सन्ध्या को नहलाकर
रिक्त जलधि भरनेवाले को ?

रजनी के लघु-तम कन में
जगती की ऊष्मा के वन में
उस पर पड़ते तुहिन सघन में
छिप, मुझसे डरनेवाले को ?

निष्ठुर खेलों पर जो अपने
रहा देखता सुख के सपने
आज लगा है क्या वह कँपने
देख मौन मरनेवाले को ?

25. शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा

शशि-सी वह सन्दुर रूप विभा
चाहे न मुझे दिखलाना।
उसकी निर्मल शीलत छाया
हिमकन को बिखरा जाना।

संसार स्वप्न बनकर दिन-सा
आया हैं नहीं जगाने,
मेरे जीवन के सुख निशीध!
जाते-जाते रूक जाना।

हाँ, इन जाने की घड़ियों
कुछ ठहर नहीं जाओगे?
छाया पथ में विश्राम नहीं,
है केवल चलते जाना।

मेरा अनुराग फैलने दो,
नभ के अभिनव कलरव में,
जाकर सूनेपन के तम में
बन किरन कभी आ जाना।

26. अरे ! आ गई है भूली-सी

अरे! आ गई है भूली-सी-
यह मधु ऋतु दो दिन को,
छोटी सी कुटिया मैं रच दूं,
नयी व्यथा-साथिन को!

वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,
नीड़ अलग सबसे हो,
झारखण्ड के चिर पतझड में
भागो सूखे तिनको!

आशा से अंकुर झूलेंगे
पल्लव पुलकित होंगे,
मेरे किसलय का लघु भव यह,
आह, खलेगा किन को?

सिहर भरी कपती आवेंगी
मलयानिल की लहरें,
चुम्बन लेकर और जगाकर-
मानस नयन नलिन को

जवा- कुसुम -सी उषा खिलेगी
मेरी लघु प्राची में,
हँसी भरे उस अरुण अधर का
राग रंगेगा दिन को

अंधकार का जलधि लांघकर
आवेंगी शशि- किरणे,
अंतरिक्ष छिरकेगा कन-कन
निशि में मधुर तुहिन को

एक एकांत सृजन में कोई
कुछ बाधा मत डालो,
जो कुछ अपने सुंदर से हैं
दे देने दो इनको

27. निधरक तूने ठुकराया तब

निधरक तूने ठुकराया तब
मेरी टूटी मधु प्याली को,
उसके सूखे अधर माँगते
तेरे चरणों की लाली को।

जीवन-रस के बचे हुए कन,
बिखरे अम्बर में आँसू बन,
वही दे रहा था सावन घन
वसुधा की इस हरियाली को।

निदय हृदय में हूक उठी क्या,
सोकर पहली चूक उठी क्या,
अरे कसक वह कूक उठी क्या,
झंकृत कर सूखी डाली को?

प्राणों के प्यासे मतवाले
ओ झंझा से चलनेवाले।
ढलें और विस्मृति के प्याले,
सोच न कृति मिटनेवाली को।

28. ओ री मानस की गहराई

ओ री मानस की गहराई !

तू सुप्त, शान्त कितनी शीतल
निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल
नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,
ओ पारदर्शिका! चिर चंचल
यह विश्व बना हैं परछाई !

तेरा विषाद द्रव तरल-तरल
मूर्च्छित न रहे ज्यों पिये गरल
सुख-लहर उठा री सरल-सरल
लधु-लधु सुन्दर-सुन्दर अविरल,
तू हँस जीवन की सुधराई !

हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,
हँस खिले कुंज में सकल सुमन,
हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,
बनकर संसृति के तव श्रम कन,
सब कहें दें ‘वह राका आई !’

हँस ले भय शोक प्रेम या रण,
हँस ले काला पट ओढ़ मरण,
हँस ले जीवन के लघु-लघु क्षण,
देकर निज चुम्बन के मधुकण,
नाविक अतीत की उत्तराई !

29. मधुर माधवी संध्या में

मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,
विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,

प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर
नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर

तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,
और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,

वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?
किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?

क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?
सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,

नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,
तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है ?

30. अंतरिक्ष में अभी सो रही है

अंतरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला,
अरे खुली भी अभी नहीं तो प्राची की मधुशाला

सोता तारक-किरन-पुलक रोमावली मलयज वात,
लेते अंगराई नीड़ों में अलस विहंग मृदु गात,
रजनि रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला,
अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टुटा प्याला

गूंज उठी तेरी पुकार- ‘कुछ मुझको भी दे देना-
कन-कन बिखरा विभव दान कर अपना यश ले लेना’

दुख-सुख के दोनों डग भरता वहन कर रहा गात,
जीवन का दिन पथ चलने में कर देगा तू रात,

तू बढ़ जाता अरे अकिंचन,छोड़ करुण स्वर अपना,
सोने वाले जग कर देंखें अपने सुख का सपना

31. शेरसिंह का शस्त्र समर्पण

“ले लो यह शस्त्र है
गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं–
अब तो ना लेश मात्र
लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का
देख दिये देता है
सिहों का समूह नख-दंत आज अपना”

“अरी, रण – रंगिनी !
कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर

दुर्मद तुरंत धर्म दस्युओं की त्रासिनी–
निकल,चली जा त प्रतारणा के कर से”

“अरी वह तेरी रही अंतिम जलन क्या ?
तोपें मुँह खोले खड़ी देखती थी तरस से
चिलियानवाला में
आज के पराजित तो विजयी थे कल ही,
उनके स्मर वीर कल में तु नाचती
लप-लप करती थी –जीभ जैसे यम की
उठी तू न लूट त्रास भय से प्रचार को,
दारुण निराशा भरी आँखों से देखकर
दृप्त अत्याचार को
एक पुत्र-वत्सला दुराशामयी विधवा
प्रकट पुकार उठी प्राण भरी पीड़ा से–
और भी;

जन्मभूमि, दलित विकल अपमान से
त्रस्त हो कराहती थी
कैसे फिर रुकती ?”
“आज विजयी हों तुमऔर हैं पराजित हम
तुम तो कहोगे, इतिहास भी कहेगा यही,
किन्तु यह विजय प्रशंसा भरी मन की–एक छलना है.
वीर भूमि पंचनद वीरता से रिक्त नहीं.
काठ के हों गोले जहाँ
आटा बारूद हों;
और पीठ पर हों दुरंत दंशनो का तरस
छाती लडती हो भरी आग,बाहु बल से
उस युद्ध में तो बस मृत्यु ही विजय है.
सतलज के तटपर मृत्यु श्यामसिंह की–
देखी होगी तुमने भी वृद्ध वीर मूर्ति वह,
तोड़ा गया पुल प्रत्यावर्तन के पथ में
अपने प्रवंचको से
लिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से
छल में विलीन बल–बल में विषाद था —
विकल विलास का
यवनों के हाथों से स्वतंत्रता को छीन कर
खेलता था यौवन-विलासी मत्त पंचनद–
प्रणय-विहीन एक वासना की छाया में
फिर भी लड़े थे हम निज प्राण-पण से
कहेगी शतद्रु शत-संगरों की साक्षिणी,
सिक्ख थे सजीव–
स्वत्व-रक्षा में प्रबुद्ध थे
जीना जानते थे
मरने को मानते थे सिक्ख
किन्तु, आज उनका अतीत वीर-गाथा हुई–
जीत होती जिसकी
वही है आज हारा हुआ
“उर्जस्वित रक्त और उमंग भरा मन था
जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल
इतना भरा था जो
उलटता शतध्वनियों को
गोले जिनके थे गेंद
अग्निमयी क्रीड़ा थी
रक्त की नदी में सिर ऊँचा छाती कर
तैरते थे
वीर पंचनद के सपूत मातृभूमि के
सो गए प्रतारना की थपकी लगी उन्हें
छल-बलिवेदी पर आज सब सो गए
पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर ,
दूध भरी दूध-सी दुलार भरी माँ गोद
सूनी कर सो गए
हुआ है सुना पंचनद
भिक्षा नहीं मांगता हूँ
आज इन प्राणों की
क्योंकि, प्राण जिसका आहार, वही इसकी
रखवाली आप करता है, महाकाल ही;
शेर पंचनद का प्रवीर रणजीतसिंह
आज मरता है देखो;
सो रहा पंचनद आज उसी शोक में.
यह तलवार लो
ले लो यह थाती है”

32. पेशोला की प्रतिध्वनि


अरुण करुण बिम्ब !
वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड !
विकल विवर्तनों से
विरल प्रवर्तनों में
श्रमित नमित सा-
पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा
आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा-
सतत सहस्त्र कर माला से-
तेज ओज बल जो व्दंयता कदम्ब-सा


पेशोला की उर्मियाँ हैं शांत,घनी छाया में-
तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में
झोपड़े खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के-
दग्ध अवसाद से
धूसर जलद खंड भटक पड़े हों-
जैसे विजन अनंत में
कालिमा बिखरती है संध्या के कलंक सी,
दुन्दुभि-मृदंग-तूर्य शांत स्तब्ध, मौन हैं


फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में-
“कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की –
ठोंक कर लोहे से, परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन ?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से ?


कौन लेगा भार यह ?
जीवित है कौन ?
साँस चलती है किसकी
कहता है कौन ऊँची छाती कर, मैं हूँ-
मैं हूँ- मेवाड़ में,

अरावली श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका ?
बोलो कोई बोलो-अरे क्या तुम सब मृत हों ?


आह, इस खेवा की!-
कौन थमता है पतवार ऐसे अंधर में
अंधकार-पारावार गहन नियति-सा-
उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो !
खींच ले चला है-
काल-धीवर अनंत में,
साँस सिफरि सी अटकी है किसी आशा में


आज भी पेशोला के-
तरल जल मंडलों में,
वही शब्द घूमता सा-
गूँजता विकल है
किन्तु वह ध्वनि कहाँ ?
गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की
वही मेवाड़ !
किन्तु आज प्रतिध्वनि कहाँ है ?”

33. बीती विभावरी जाग री

बीती विभावरी जाग री !

अम्बर पनघट में डूबो रही
तारा-घट उषा नागरी ।

खग-कुल कुल कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी ।

अधरों में राग अमन्द पिये,
अलकों में मलयज बन्द किये
तू अब तक सोई है आली ।
आँखों मे भरे विहाग री !

कानन-कुसुम (Kanan-Kusum) – जयशंकर प्रसाद

1. प्रभो

विमल इन्दु की विशाल किरणें
प्रकाश तेरा बता रही हैं
अनादि तेरी अन्नत माया
जगत् को लीला दिखा रही हैं

प्रसार तेरी दया का कितना
ये देखना हो तो देखे सागर
तेरी प्रशंसा का राग प्यारे
तरंगमालाएँ गा रही हैं

तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को
तुम्हारे हँसने की धुन में नदियाँ
निनाद करती ही जा रही हैं
विशाल मन्दिर की यामिनी में
जिसे देखना हो दीपमाला
तो तारका-गण की ज्योती उसका
पता अनूठा बता रही हैं

प्रभो ! प्रेममय प्रकाश तुम हो
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली
असीम उपवन के तुम हो माली
धरा बराबर जता रही है
जो तेरी होवे दया दयानिधि
तो पूर्ण होता ही है मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके
यही तो आशा दिला रही है

2. वन्दना

जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करुणा नौका पार लगाती है
जयति महासंगीत ! विश्वल-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है
कादम्‍िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है
भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है

निर्विकार लीलामय ! तेरी शक्ति न जानी जाती है
ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है
गदगद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है
प्रभु ! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जनाती है

3. नमस्कार

जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है
जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है
जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे
जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे
उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को
नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्वि-गृहस्थ को

4. मन्दिर

जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में
तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में
फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है
वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है

जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते
परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते
कहकर सइस्त्र मुख से जब है वही बताता
फिर मूढ़ चित्त को है यह क्यों नही सुहाता

अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो
परमात्मा में उसमें नहिं भेद मानते हो
जिस पंचतत्व से है यह दिव्य देह-मन्दिर
उनमें से ही बना है यह भी तो देव-मन्दिर

उसका विकास सुन्दर फूलों में देख करके
बनते हो क्यों मधुव्रत आनन्द-मोद भरके
इसके चरण-कमल से फिर मन क्यों हटाते हो
भव-ताप-दग्ध हिय को चन्दन नहीं चढ़ाते

प्रतिमा ही देख करके क्यों भाल में है रेखा
निर्मित किया किसी ने इसको, यही है रेखा
हर-एक पत्थरो में वह मूर्ति ही छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है

इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे
धरता है वेश वोही जैसा कि उसको दिजे
यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया
लीला उसी की जग में सबमें वही समाया

मस्जिद, पगोडा, गिरजा, किसको बनाया तूने
सब भक्त-भावना के छोटे-बड़े नमूने
सुन्दर वितान कैसा आकाश भी तना है
उसका अनन्त-मन्दिर, यह विश्व ही बना है

5. करुण क्रन्दन

करुणा-निधे, यह करुण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये
कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये

हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं
हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं

सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही
पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं

सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं
कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही

संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं
तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं

झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में
है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में

गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो
वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो

हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो
है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो

ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं
कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं

हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में

6. महाक्रीड़ा

सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है
पूर्णिमा की रात्रि का शश्‍ाि अस्त अब होने को है

तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है
स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है

गा रहे हैं ये विहंगम किसके आने कि कथा
मलय-मारूत भी चला आता है हरने को व्यथा

चन्द्रिका हटने न पाई, आ गई ऊषा भली
कुछ विकसने-सी लगी है कंज की कोमल कली

हैं लताएँ सब खड़ी क्यों कुसुम की माला लिये
क्यों हिमांशु कपूर-सा है तारका-अवली लिये

अरूण की आभा अभी प्राची में दिखलाई पड़ी
कुछ निकलने भी लगी किरणो की सुन्दर-सी लड़ी

देव-दिनकर क्या प्रभा-पूरित उदय होने को हैं
चक्र के जोड़े कहो कया मोदमय होने को हैं

वृत आकृत कुंकुमारूण कंज-कानन-मित्र है
पूर्व में प्रकटित हुआ यह चरित जिसके चित्र हैं

कल्पना कहती है, कन्दुक है महाशिशु-खेल का
जिसका है खिलवाड़ इस संसार में सब मेल का

हाँ, कहो, किस ओर खिंचते ही चले जाओगे तुम
क्या कभी भी खेल तजकर पास भी आओगे तुम

नेत्र को यों मीच करके भागना अच्छा नहीं
देखकर हम खोज लेंगे, तुम रहो चाहे कहीं

पर कहो तो छिपके तुम जाओगे क्यों किस ओर को
है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को

बनके दक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते
अलि बने मकरन्द की मीठी झड़ी हो झेलते

गा रहे श्यानमा के स्वर में कुछ रसीले राग से
तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से

देके ऊषा-पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी
भाल के कुंकुम-अरूण की दे दिया बिन्दी खरी

नित्य-नूतन रूप हो उसका बनाकर देखते
वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते

7. करुणा-कुंज

क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है
मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है
भारी भोझा लाद लिया न सँभार है
छल छालों से पैर छिले न उबार है

चले जा रहे वेग भरे किस ओर को
मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को
किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं
बालू के मैदान सिवा कुछ है नहीं

ज्वाला का यह ताप तुम्हें झुलसा रहा
मनो मुकुल मकरन्द-भरा कुम्हला रहा
उसके सिंचन-हेतु न यह उद्योग है
व्यर्थ परिश्रम करो न यह उपयोग है

कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है
मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है
खिली कुसुम की कली अलीगण घूमते
मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते

किन्तु तुम्हें विश्राम कहाँ है नाम को
केवल मोहित हुए लोभ से काम को
ग्रीष्मासन है बिछा तुम्हारे हृदय में
कुसुमाकर पर ध्यान नहीं इस समय में

अविरल आँसू-धार नेत्र से बह रहे
वर्षा-ऋतु का रूप नहीं तुम लख रहे
मेघ-वाहना पवन-मार्ग में विचरती
सुन्दर श्रम-लव-विन्दु धरा को वितरती

तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं
तुम्हें सुघर से दृश्यह दिखाते हैं नहीं
शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में
चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में

भ्रम-कुहेलिका से दृग-पथ भी भ्रान्त है
है पग-पग पर ठोकर, फिर नहि शान्त है
व्याकुल होकर, चलते हो क्यो मार्ग में
छाया क्या है नहीं कही इस मार्ग में

त्रस्त पथिक, देखो करुणा विश्वेगश की
खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की
शाीतातप की भीति सता सकती नही
दुख तो उसका पता न पा सकता कहीं

भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है
इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है
कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुंज है
शान्त-हेतु वह देखो ‘करुणा-कुंज है

8. प्रथम प्रभात

मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही,
अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में
नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा,
बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही

स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था
अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से
अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी,
(फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)-

आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें,
खूली आँख, आनन्द-दृश्य दिखला दिया
मनोवेग मधुकर-सा फिर तो गूँज के,
मधुर-मधुर स्वर्गीय गान गाने लगा

वर्षा होने लगी कुसुम-मकरन्द की,
प्राण-पपीहा बोल उठा आनन्द में,
कैसी छवि ने बाल अरुण सी प्रकट हो,
शून्य हृदय को नवल राग-रंजित किया

सद्यःस्नात हुआ फिर प्रेम-सुतीर्थ में,
मन पवित्र उत्साहपूर्ण भी हो गया,
विश्व विमल आनन्द भवन-सा बन रहा
मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था

9. नव वसंत

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही
इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं
युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा
हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा

कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं
शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है
है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये
और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये

मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है
लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है
क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया
सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया

घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में
थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में
धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ
माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ

ज्यो उधर मुख फेरकर देखा हटाने के लिये
आ गया मधुकर इधर उसके सताने के लिये
कामिनी इन कौतुकों से कब बहलने ही लगी
किन्तु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी

ध्यान में आया मनोहर प्रिय-वदन सुख-मूल वह
भ्रान्त नाविक ने तुरत पाया यथेप्सित कूल वह
नील-नीरज नेत्र का तब तो मनोज्ञ विकास था
अंग-परिमल-मधुर मारूत का महान विलास था

मंजरी-सी खिल गई सहकार की बाला वही
अलक-अवली हो गई सु-मलिन्द की माला वही
शान्त हृदयाकाश स्वच्छ वसंत-राका से भरा
कल्पना का कुसुम-कानन काम्य कलियों से भरा

चुटकियाँ लेने लगीं तब प्रणय की कोरी कली
मंजरी कम्पित हुई सुन कोकिला की काकली
सामने आया युवक इक प्रियतमे ! कहता हुआ
विटप-बाहु सुपाणि-पल्लव मधुर प्रेम जता छुआ

कुमुद विकसित हो गये तब चन्द्रमा वह सज उठा
कोकिला-कल-रव-समान नवीन नूमुर बज उठा
प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया
मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का कम हो गया

सौरभित सरसिज युगल एकत्र होकर खिल गये
लोल अलकावलि हुई मानो मधुव्रत मिल गये
श्वाअस मलयज पवन-सा आनन्दमय करने लगा
मधुर मिश्रण युग-हृदय का भाव-रस भरने लगा

दृश्यम सुन्दर हो गये, मन में अपूर्व विकास था
आन्तरिक और ब्राहृ सब में नव वसंत-विलास था

10. मर्म-कथा

प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए
प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए
हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ
हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ
कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो-
‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’
नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो
दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो
चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी कथा
बीती है, हे प्राण ! नई जितनी व्यथा
मेरा चुप रहना बुलवावेगा तुम्हें
मैं न कहूँगा, वह समझावेगा तुम्हें
जितना चाहो, शान्त बनो, गम्भीर हो
खुल न पड़ो, तब जानेंगे, तुम धीर हो
रूखे ही तुम रहो, बूँद रस के झरें
हम-तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें

11. हृदय-वेदना

सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है
तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है
मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा
वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा

हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है
तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है
कभी समझकर रूष्ट तुम्हें वह करके विनय मनाती है
तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है

जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो
पीड़ास्थल पर शीतल बनकर तब आँसू बरसाते हो
मूर्ति तुम्हारी सदय और निर्दय दोनो ही भाती है
किसी भाँति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है

कभी-कभी हो ध्यान-वंचिता बड़ी विकल हो जाती है
क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम ! बहुत सताती है
इसे तम्हारा एक सहारा, किया करो इससे क्रीड़ा
मैं तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीड़ा

12. ग्रीष्म का मध्यान्ह

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं

छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है

प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है

स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं

पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है

निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं

देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है

लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है

हरे-हरे पत्तेट वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं

धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है

13. जलद-आहृवान

शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें
ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें
है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना
शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना
मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता
लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता
जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा में मोद से
वास करते, खेलते है बालवृन्द विनोद से
पत्रहीना वल्लरी-जैसे जटा बिखरी हुई
उत्तहरीय-समान जिन पर धूप है निखरी हुई
शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते
ध्यान में काली घटा के नित्य ही अवगाहते
धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये
है फटी दूर्वादलों की श्या्म साड़ी देखिये
जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं
इसलिये उसका मनोगत-भाव-फूल खिला नहीं
नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दु,ख सारे भगें
शीघ्र आ जाओ जलद ! आनन्द के अंकुर उगें

14. भक्तियोग

दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे
उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे

वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो
भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो

जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं
वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं

सुख के सभी साथी दिखाते है अहो संसार में
हो डूबता उसको बचाने कौन जाता धार में

कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से
छोटी लहरियाँ उठ रही थी आन्तरिक आहृलाद से

पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो
सरिता बनी माया उसे कहती कि ‘तुम अनुरक्त हो’

वे वन्य वीरूध कुसुम परिपूरित भले थे खिल रहे
कुछ पवन के वश में हुए आनन्द से थे खिल रहे

देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है
है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है

स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पूरित भाव—मानस का भरा
उन अश्रुकण में एक भी उनमें न इस भव से डरा

वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा
पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा

था बुद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द-सा था खिल रहा
वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुंजार करता मिल रहा

प्रतिक्षण लहर ले बढ़ रहे थे भाव-निधि में वेग से
इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से

प्रति श्वाेस आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को
जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को

परमाणु भी सब स्तब्ध थे, रोमांच भी था हो रहा
था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा

आनन्द था उपलब्ध की सुख-कल्पना मे मिल रहा
कुछ दुःख भी था देर होने से वही अनमिल रहा

दुष्प्राप्य की ही प्राप्ति में हाँ बद्ध जीवनमुक्त था
कहिये उसे हम क्या कहें, अनुरक्त था कि विरक्त था

कुछ काल तक वह जब रहा ऐसे मनोहर ध्यान में
आनन्द देती सुन पड़ी मंजीर की ध्वनि कान में

नव स्वच्छ सन्ध्या तारका में से अभी उतरी हुई
उस भक्त के ही सामने आकर खड़ी पुतरी हुई

वह मुर्त्ति बोल-‘भक्तवर! क्यों यह परिश्रम हो रहा
क्यों विश्व का आनन्द-मंदिर आह! तू यों खो रहा

यह छोड़कर सुख है पड़ा किसके कुहक के जाल में
सुख-लेख मैं तो पढ़ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल में

सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले हाथ में
संसार यह सब सौंपना है चाहता तव हाथ में

फिर भागते हो क्यों ? न हटता यो कभी निर्भीक है
संसार तेरा कर रहा है स्वागत, चलो, सब ठीक है

उन्नत हुए भ्रू-युग्म फिर तो बंक ग्रीवा भी हुई
फिर चढ़ गई आपादमस्तक लालिमा दौड़ी हुई

‘है सत्य सुन्दरि ! तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा’
आनन्द के विह्वल हुए-से भक्त ने खुलकर कहा

‘जब ये हमारे है, भला किस लिये हम छोड़ दें
दुष्प्राप्य को जो मिल रहा सुख-सुत्र उसको तोड़ दें

जिसके बिना फीके रहें सारे जगत-सुख-भोग ये
उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये

उस ध्यान के दो बूँद आँसू ही हृदय-सर्वस्व हैं
जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है

उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है
संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है

फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख-दुःख यह सब कुछ नहीं
केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं

हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसाता है कभी
जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी

वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें
हम रूठते उससे कभी, फिर भी मनाता है हमें

हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनें
मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने

आनन्द आसन पर सुधा-मन्दाकिनी में स्नात हो
हम और वह बैठे हए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो

यह दे ईर्ष्या हो रही है, सुन्दरी ! तुमको अभी
दिन बीतने दो दो कहाँ, फिर एक देखोगी कभी

फिर यह हमारा हम उसी के, वह हमीं, हम वह हुए
तब तुम न मुझसे भिन्न हो, सब एक ही फिर हो गये

यह सुन हँसी वही मूर्ति करूणा की हुई कादम्बिनी
फिर तो झड़ी-सी लग गई आनन्द के जल की घनी

15. रजनीगंधा

दिनकर अपनी किरण-स्वईर्ण से रंजित करके
पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के

प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती
अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती

दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर

कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया

देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है

कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर

देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में

गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ लता का दृष्य दिखाती

मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है

मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया

तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई

स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का

देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया

सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर

कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में

मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है

रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर

अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर

कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में
निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में

‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका

16. सरोज

अरुण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है
प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है
गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने
दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है
तुम्हारा विकसित वदन बताता, हँसे मित्र को निरख के कैसे
हृदय निष्कपट का भाव सुन्दर सरोज ! तुझ पर उछल रहा है
निवास जल ही में है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी न होेते
‘मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे-सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है
उन्ही तरंगों में भी अटल हो, जो करना विचलित तुम्हें चाहती
‘मनुष्य कर्त्तव्य में यों स्थिर हो’-ये भाव तुममें अटल रहा है
तुम्हें हिलाव भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद-पूरित
तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरंग कहकर उछल रहा है
तुम्हारे केशर से हो सुगन्धित परागमय हो रहे मधुव्रत
‘प्रसाद’ विश्वेरश का हो तुम पर यही हृदय से निकल रहा है

17. मलिना

नव-नील पयोधर नभ में काले छाये
भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये

लहराती ललिता लता सुबाल लजीली
लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली

फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं
दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती

बुलबुल कोयल हैं मिलकर शोर मचाते
बरसाती नाले उछल-उछल बल खाते

वह हरी लताओ की सुन्दर अमराई
बन बैठी है सुकुमारी-सी छावि छाई

हर ओर अनूठा दृश्यर दिखाई देता
सब मोती ही-से बना दिखाई देता

वह सघन कुंज सुख-पुंज भ्रमर की आली
कुछ और दृश्यस है सुषमा नई निराली

बैठी है वसन मलीन पहिन इक बाला
पुरइन-पत्रों के बीच कमल की माला

उस मलिन वसन में अंग-प्रभा दमकीली
ज्यों घूसर नभ में चन्द्र-कला चमकीली

पर हाय ! चन्द्र को घन ने क्योंी है घेरा
उज्जवल प्रकाश के पास अजीब अँधेरा

उस रस-सरवर में क्यों चिन्ता की लहरी
चंचल चलती है भाव-भरी है गहरी

कल-कमल कोश पर अहो ! पड़ा क्यों पाला
कैसी हाला ने किया उसे मतवाला

किस धीवर ने यह जाल निराला डाला
सीपी से निकली है मोती की माला

उत्ताल तरंग पयोनिधि में खिलती है
पतली मृणालवाली नलिनी हिलती है

नहीं वेग-सहित नलिनी को पवन हिलाओ
प्यारे मधुकर से उसको नेक मिलाओ

नव चंद अमंद प्रकाश लहे मतवाली
खिलती है उसको करने दो मनवाली

18. जल-विहारिणी

चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा
खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा
सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है
सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है
रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो
शान्त है, कुछ भय नहीं है, कुछ समय तक मत टलो
अन्धकार घना भरा है लता और निकुंज में
चन्द्रिका उज्जवल बनाता है उन्हें सुख-पुंजमें
शैल क्रीड़ा का बनाया है मनोहर काम ने
सुधा-कण से सिक्त गिरि-श्रेणी खड़ी है सामने
प्रकृति का मनमुग्धकारी गूँजता-सा गान है
शैल भी सिर को उठाकर खड़ा हरिण-समान है

गान में कुछ बीण की सुन्दर मिली झनकार है
कोकिला की कूक है या भृंग का गुंजार है
स्वच्छ-सुन्दर नीर के चंचल तरंगो में भली
एक छोटी-सी तरी मन-मोहिनी आती चली

पंख फैलाकर विहंगम उड़ रहा अकाश में
या महा इक मत्स्य है, जो खेलता जल-वास में
चन्द्रमण्डल की समा उस पर दिखाई दे रही
साथ ही में शुक्र की शोभा अनूठी ही रही

पवन-ताड़ित नीर के तरलित तरंगों में हिले
मंजु सौरभ-पुंज युग ये कंज कैसे हैं खिले
या प्रशान्त विहायसी में शोभते है प्रात के
तारका-युग शुभ्र हैं आलोक-पूरन गात के

या नवीना कामिनी की दीखती जोड़ी भली
एक विकसित कुसुम है तो दूसरी जैसे कली
जव-विहार विचारकर विद्याधरो की बालिका
आ गई हैं क्या ? कि ये इन्दु-कर की मालिका

एक की तो और ही बाँकी अनोखी आन है
मधुर-अधरों में मनोहर मन्द-मृदु मुसक्यान है
इन्दु में उस इन्दु के प्रतिबिम्ब के सम है छटा
साथ में कुछ नील मेघों की घिरी-सी है घटा
नील नीरज इन्दु के आलोक में भी खिल रहे
बिना स्वाती-विन्दु विद्रुम सीप में मोती रहें
रूप-सागर-मध्य रेखा-वलित कम्बु कमाल है
कंज एक खिला हुआ है, युगल किन्तु मृणाल है
चारू-तारा-वलित अम्बर बन रहा अम्बर अहा
चन्द उसमें चमकता है, कुछ नही जाता कहा
कंज-कर की उँगलियाँ हैं सुन्दरी के तार में
सुन्दरी पर एक कर है और ही कुछ तार में
चन्द्रमा भी मुग्ध मुख-मण्डल निरखता ही रहा
कोकिला का कंठ कोमल राग में ही भर रहा
इन्दु सुन्दर व्योम-मध्य प्रसार कर किरणावली
क्षुद्र तरल तरंग को रजताभ करता है छली
प्रकृति अपने नेत्र-तारा से निरखती है छटा
घिर रही है घोर एक आनन्द-घन की-सी घटा

19. ठहरो

वेगपूर्ण है अश्वद तुम्हारा पथ में कैसे
कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे
देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता
दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता

‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत वह
यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह

उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो
अपना आश्रित जान गर्व से तुम मत फूलो
कुटिला भृकुटी देख भीत कम्पित होता है
डरने पर भी सदा कार्य में रत होता है

यदि देते हो कुछ भी उसे, अपमान न करना चाहिये
उसको सम्बोधन मधुर से तुम्हें बुलाना चाहिये

तनक न जाओ मित्र ! तनिक उसकी भी सुन लो
जो कराहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लो
कर्कश स्वर की बोल कान में न सुहाती है
मीठी बोली तुम्हें नहीं कुछ भी आती है

उसके नेत्रों में अश्रु है, वह भी बड़ा समुद्र है
अभिमान-नाव जिस पर चढ़े हो वह तो अति क्षद्र है

वह प्रणाम करता है, तुम नहिं उत्तर देते
क्यों, क्या वह है जीव नहीं जो रूख नहिं देते
कैसा यह अभिमान, अहो कैसी कठिनाई
उसने जो कुछ भूल किया, वह भूलो भाई

उसका यदि वस्त्र मलीन है, पास बिठा सकते नहीं
क्या उज्जवल वस्त्र नवीन इक उसे पिन्हा सकते नहीं

कुंचित है भ्रू-युगल वदन पर भी लाली है
अधर प्रस्फुरित हुआ म्यान असि से खाली है
डरता है वह तुम्हें देख, निज कर को रोको
उस पर कोई वार करे तो उसको टोको

है भीत जो कि संसार से, असि नहिं है उसके लिये
है उसे तुम्हारी सान्त्वना नम्र बनाने के लिये

20. बाल-क्रीड़ा

हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ
हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ
ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी
मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी

ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से
क्या क्रीड़ा करता है हृदय किसी स्वतंत्र विनोद से

उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग देखते
काँटे ऊँवे नहीं तुम्हें हैं एक लेखते
मिलने को उनसे तुम दौड़े ही जाते हो
इसमें कुछ आनन्द अनोखा पा जाते हो

माली बूढ़ा बकबक किया करता है, कुछ बस नहीं
जब तुमने कुछ भी हँस दिया, क्रोध आदि सब कुछ नहीं

राजा हा या रंक एक ही-सा तुमको है
स्नेह-योग्य है वही हँसता जो तुमको है
मान तुम्हारा महामानियो से भारी है
मनोनीत जो बात हुई तो सुखकारी है

वृद्धों की गल्पकथा कभी होती जब प्रारम्भ है
कुछ सुना नहीं तो भी तुरत हँसने का आरम्भ है

21. कोकिल

नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है
नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है
नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी
नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी

यद्यपि है अज्ञात ध्वनि कोकिल ! तेरी मोदमय
तो भी मन सुनकर हुआ शीतल, शांत, विनोदमय

विकसे नवल रसाल मिले मदमाते मधुकर
आलबाल मकरन्द-विन्दु से भरे मनोहर
मंजु मलय-हिल्लोल हिलाता है डाली को
मीठे फल के लिये बुलाता जो माली को

बैठे किसलय-पुंज में उसके ही अनुराग से
कोकिल क्या तुम गा रहे, अहा रसीले राग से

कुमुद-बन्धु उल्लास-सहित है नभ में आया
बहुत पूर्व से दौड़ा था, अब अवसर पाया
रूका हुआ है गगन-बीच इस अभिलाषा से
ले निकाल कुछ अर्थ तुम्हारी नव भाषा से

गाओ नव उत्साह से, रूको न पल-भर के लिये
कोकिल ! मलयज पवन में भरने को स्वर के लिये

22. सौन्दर्य

नील नीरद देखकर आकाश में
क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में
क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है
क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है

क्या हुआ जो देखकर कमलावली
मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली
कंटको में जो खिला यह फूल है
देखते हो क्यों हृदय अनुकूल है

है यही सौन्दर्य में सुषमा बड़ी
लौह-हिय को आँच इसकी ही कड़ी
देखने के साथ ही सुन्दर वदन
दीख पड़ता है सजा सुखमय सदन

देखते ही रूप मन प्रमुदित हुआ
प्राण भी अमोद से सुरभित हुआ
रस हुआ रसना में उसके बोेलकर
स्पर्श करता सुख हृदय को खोलकर

लोग प्रिय-दर्शन बताते इन्दु को
देखकर सौन्दर्य के इक विन्दु को
किन्तु प्रिय-दर्शन स्वयं सौन्दर्य है
सब जगह इसकी प्रभा ही वर्य है

जो पथिक होता कभी इस चाह में
वह तुरत ही लुट गया इस राह में
मानवी या प्राकृतिक सुषमा सभी
दिव्य शिल्पी के कला-कौशल सभी

देख लो जी-भर इसे देखा करो
इस कलम से चित्त पर रेखा करो
लिखते-लिखते चित्र वह बन जायेगा
सत्य-सुन्दर तब प्रकट हो जायेगा

23. एकान्त में

आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदों से था घिरा
संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा
यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला
ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला
हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है
मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है
यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली
निर्जन प्रशान्त सुशैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली
कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को
गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को
यह शैल-श्रृंग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की
कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की
स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा
ज्यों हरे धूँघट-ओट में है कामिनी हँसती अहा
किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से
जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से
अविराम जीवन-स्त्रोत-सा यह बन रहा है शैल पर
उद्देश्यी-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर
कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से
उत्तंग जो यह श्रृंग है उस पर खड़ा तरूराज है
शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है
होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन-वेग में
हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में
यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से
करूणा-कलित कैसी कला कमनीय कोमल कान्ति से
चल चित्त चंचल वेग को तत्काल करता धीर है
एकान्त में विश्रान्त मन पाता सुशीतल नीर है
निस्तब्धता संसार की उस पूर्ण से है मिल रही
पर जड़ प्रकृति सब जीव में सब ओर ही अनमिल रही

24. दलित कुमुदिनी

अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी
हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी
इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी
चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं
रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ
राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ
जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा
मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा
शीत पवन के मधुर स्पर्श से सिहर उठा करती थी जो
श्यापमा का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो
छोटी-छोटी स्वर्ण मछलियों का जिस पर रहता पहरा
स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा
जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में
सौरभ उसका फैलाता था रम्य सरोवर निर्मल में
जिसका मुग्ध विकास हदय को अहो मुग्ध कर देता था
सरज पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव पर देता था
किसी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा ! पद-दलित हुई
वही कुमुदिनी, ग्रीष्मताप-तापिज रज में परिमिलित हुई
छिन्न-पत्र मकरन्दहीन हो गई न शोभा प्यारी है
पड़ी कण्टकाकीर्ण मार्ग में, कालचक्र गति न्यारी है

25. निशीथ-नदी

विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के
नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा
प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं
देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका
दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं
शान्त पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है
दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा-सी
तारा-ज्योति मिल है तम में, कुछ प्रकाश है
कुल युगल में देखो कैसी यह सरिता है
चारों ओर दृश्य सब कैसे हरे-भरे हैं
बालू भी इस स्नेहपूर्ण जल प्रभाव से
उर्वर हैं हो रहे, करारे नहीं काटते
पंकिल करते नहीं स्वच्छशीला सरिता को
तरूगण अपनी शाखाओं से इंगित करके
उसे दिखाते ओर मार्ग, वह ध्यान न देकर
चली जा रही है अपनी ही सीधी धुन में
उसे किसी से कुछ न द्वेष है, मोह भी नहीं
उपल-खण्ड से टकराने का भाव नहीं है
पंकिल या फेनिल होना भी नहीं जानती
पर्ण-कुटीरों की न बहाती भरी वेग से
क्षीणस्त्रोत भी नहीं हुई खर ग्रीष्म-ताप से
गर्जन भी है नहीं, कहीं उत्पात नहीं है
कोमल कल-कलनाद हो रहा शान्ति-गीत-सा
कब यह जीवन-स्त्रोत मधुर ऐसा ही होगा
हृदय-कुसुम कब सौरभ से यों विकसित होकर
पूर्ण करेगा अपने परिमल से दिगंत को
शांति-चित्त को अपने शीतल लहरों से कब
शांत करेगा हर लेगा कब दुःख-पिपासा

26. विनय

बना लो हृदय-बीच निज धाम
करो हमको प्रभु पूरन-काम
शंका रहे न मन में नाथ
रहो हरदम तुम मेरे साथ
अभय दिखला दो अपना हाथ
न भूलें कभी तुम्हारा नाम
बना लो हृदय-बीच निज धाम

मिटा दो मन की मेरे पीर
धरा दो धर्मदेव अब धीर
पिला दो स्वच्छ प्रेममय नीर
बने मति सुन्दर लोक-ललाम
बना लो हृदय-बीच निज धाम

काट दो ये सारे दुःख द्वन्द्व
न आवे पास कभी छल-छन्द
मिलो अब आके आनँदकन्द
रहें तव पद में आठो याम
बना लो हृदय-बीच निज धाम
करो हमको प्रभु पूरन-काम

27. तुम्हारा स्मरण

सकल वेदना विस्मृत होती
स्मरण तुम्हारा जब होता
विश्वबोध हो जाता है
जिससे न मनुष्य कभी रोता

आँख बंद कर देखे कोई
रहे निराले में जाकर
त्रिपुटी में, या कुटी बना ले
समाधि में खाये गोता

खड़े विश्व-जनता में प्यारे
हम तो तुमको पाते हैं
तुम ऐसे सर्वत्र-सुलभ को
पाकर कौन भला खोता

प्रसन्न है हम उसमे, तेरी-
प्रसन्नता जिसमें होवे
अहो तृषित प्राणों के जीवन
निर्मल प्रेम-सुधा-सोता

नये-नये कौतुक दिखलाकर
जितना दूर किया चाहो
उतना ही यह दौड़-दौड़कर
चंचल हृदय निकट होता

28. याचना

जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे
सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे
ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों
उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो

जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से
हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से
जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में
तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में

जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी
जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी
जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से
जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से

जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में
इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में
करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में
मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में

हम हाें सुमन की सेज पर या कंटको की आड़ में
पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में
हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में
तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में

29. पतित पावन

पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे
पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे
पतित पदपद्म में होवे
ताे पावन हो जाता है

पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका
पतित होना कहो अब कौन-सा बाकी रहा उसका
पतित ही को बचाने के
लिये, वह दौड़ आता है

पतित हो चाह में उसके, जगत में यह बड़ा सुख है
पतित हो जो नहीं इसमें, उसे सचमुच बड़ा दुख है
पतित ही दीन होकर
प्रेम से उसको बुलाता है

पतित होकर लगाई धूल उस पद की न अंगों में
पतित है जो नहीं उस प्रेमसागर की तरंगो में
पतित हो ‘पूत’ हो जाना
नहीं वह जान पाता है

‘प्रसाद’ उसका ग्रहण कर छोड़ दे आचार अनबन है
वो सब जीवों का जीवन है, वही पतितों का पावन है
पतित होने की देरी है
तो पावन हो ही जाता है

30. खंजन

व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में
स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में
शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये
भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये

पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्लास से
हंस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से
मल्लिका महँकी, अली-अवली मधुर-मधु से छकी
एक कोने की कली भी गन्ध-वितरण कर सकी

बह रही थी कूल में लावण्य की सरिता अहो
हँस रही थी कल-कलध्वनि से प्रफुल्लितगात हो
खिल रहा शतदल मधुर मकरन्द भी पड़ता चुआ
सुरभि-संयच-कोश-सा आनन्द से पूरित हुआ

शरद के हिम-र्विदु मानो एक में ढाले हुए
दृश्यगोचर हो रहे है प्रेम से पाले हुए
है यही क्या विश्ववर्षा का शरद साकार ही
सुन्दरी है या कि सुषमा का खड़ा आकार ही

कौन नीलोज्ज्वल युगल ये दो यहाँ पर खेलते
हैं झड़ी मकरन्द की अरविन्द में ये झेलते
क्या समय था, ये दिखाई पड़ गये, कुछ तो कहो
सत्य क्या जीवन-शरद के ये प्रथम खंजन अहो

31. विरह

प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते
ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते
सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी
प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी

प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो
यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो
स्मृति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो
अविरल जलधारा अश्रु में भींगते हो

हृदय द्रवित होता ध्यान में भूत ही के
सब सबल हुए से दीखते भाव जी के
प्रति क्षण मिलते है जो अतीताब्धि ही में
गत निधि फिर आती पूर्ण की लब्धि ही में

यह सब फिर क्या है, ध्यान से देखिये तो
यह विरह पुराना हो रहा जाँचिये तो
हम अलग हुए हैं पूर्ण से व्यक्त होके
वह स्मृति जगती है प्रेम की नींद सोके

32. रमणी-हृदय

सिन्धु कभी क्याह बाड़वाग्नि को यों सह लेता
कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता
रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता
तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता
कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है
बालू में भी स्नेह कहाँ कैसे रहता है
फल्गू की है धार हृदय वामा का जैसे
रूखा ऊपर, भीतर स्नेह-सरोवर जैसे
ढकी बर्फ से शीतल ऊँची चोटी जिनकी
भीतर है क्या बात न जानी जाती उनकी
ज्वालामुखी-समान कभी जब खुल जाते हैं।
भस्म किया उनको, जिनको वे पा जाते हैं
स्वच्छ स्नेह अन्तर्निहित, फल्गूा-सदृश किसी समय
कभी सिन्धु ज्वालामुखी, धन्य-धन्य रमणी हृदय

33. हाँ, सारथे ! रथ रोक दो

हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को
यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को
यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका
जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का

जब था न कुछ परिचित सुधा से हृदय वन-सा था बना
तब देखकर इस कुंज को कुसुमित हुआ था वह घना
बरसा दिया मकरन्द की झीनी झड़ी उल्लास से
सुरभित हुआ संसार ही इस कुसुम के सुविकास से

जब दौड़ जीवन-मार्ग में पहली हमारी थी हुई
उच्छ्वासमय तटिनी-तरंगों के सदृश बढ़ती गई
था लक्ष्यहीन नवीन वर्षा के पवन-सा वेग में
इस कुंज ही में रूक गया था उस प्रबल उद्वेग में

जन्मान्तर-स्मृति याद कर औ’ भूलकर निज चौकड़ी
मन-मृग रूका गर्दन झुकाकर छोड़कर तेजी बड़ी
अज्ञात से पदचिन्ह का कर अनुसरण आया यहाँ
निज नाभि-सौरभ भूल फूलो का सुरस पाया यहाँ

सुख-दुःख शीतातप भुलाकर प्राण की आराधना
इस स्थान पर की थी अहो सर्वस्व ही की साधना
हे सारथे ! रथ रोक दो, स्मृति का समाधिस्थान है
हम पैर क्या, शिर से चलें, तो भी न उचित विधान है

34. गंगा सागर

प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो
जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’
गगन में ग्रह गोलक, तारका
सब किये तन दृष्टि विचार में
पर नहीं हम मौन न हो सकें
कह चले अपनी सरला कथा
पवन-संसृति से इस शून्य में
भर उठे मधुर-ध्वनि विश्व में
‘‘यह सही, तुम ! सिन्धु अगाध हो
हृदय में बहु रत्न भरे पड़े
प्रबल भाव विशाल तरंग से
प्रकट हो उठते दिन-रात ही
न घटते-बढ़ते निज सीम से-
तुम कभी, वह बाड़व रूप की
लपट में लिपटी फिरती नदी
प्रिय, तुम्हीं उसके प्रिय लक्ष्य हो
यदि कहो घन पावस-काल का
प्रबल वेग अहो क्षण काल का
यह नहीं मिलना कहला सके
मिलन तो मन का मन से सही
जगत की नीव कल्पित कल्पना
भर रही हृदयाब्धि गंभीर में
‘तुम नहीं इसके उपयुक्त हो
कि यह प्रेम महान सँभाल लो’
जलधि ! मैं न कभी चाहती
कि ‘तुम भी मुझपर अनुरक्त हो’
पर मुझे निज वक्ष उदार में
जगह दो, उसमें सुख में रहें’

35. प्रियतम

क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र
लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र
औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं
जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं
निर्दय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया
प्रेम नहीं, करूणा करने को क्षण-भर तुमने समय दिया
अब से भी वो अच्छा है, अब और न मुझे करो बदनाम
क्रीड़ा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम
स्मृति को लिये हुए अन्तर में, जीवन कर देंगे निःशेष
छोड़ो अब भी दिखलाओ मत, मिल जाने का लोभ विशेष
कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुझे बना लो, यही करो
रक्खो जब तक आँखो में, फिर और ढार पर नहीं ढरो
कोर बरौनी का न लगे हाँ, इस कोमल मन को मेरे
पुतली बनकर रहें चमकते, प्रियतम ! हम दृग में तेरे

36. मोहन

अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन
तेरे में अपने को हम जिसमें भुला दें मोहन
निज रूप-माधुरी की चसकी लगा दे मुझको
मुँह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन
सौन्दर्य विश्व-भर में फैला हुआ जो तेरा
एकत्र करके उसको मन में दिखा दे मोहन
अस्तित्व रह न जाये हमको हमारे ही में
हमको बना दे तू अब, ऐसी प्रभा दे मोहन
जलकर नहीं है हटते जो रूप की शीखा से
हमको, पतंग अपना ऐसा बना दे मोहन
मेरा हृदय-गगन भी तब राग में रँगा हो
ऐसी उषा की लाली अब तो दिखा दे मोहन
आनन्द से पुलककर हों रोम-रोम भीने
संगीत वह सुधामय अपना सुना दे मोहन

37. भाव-सागर

थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे
त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए
क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा
पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता
अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा
क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी
और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही
मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह
तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही
कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है
गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में
अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना
देख न शंकित होना, समझो ध्यान से
वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे
लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के
स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका
क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी
यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही
अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो
मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही

38. मिल जाओ गले

देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता
छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही
अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है
क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी
तुम्हें नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी
मेरा हृदय इन्ही काँटों के फूल में
जग की कृत्रिम उत्तमता का बस नहीं
चल सकता है, बड़ा कठोर हृदय हुआ
मानस-सर में विकसित नव अरविन्द का
परिमल जिस मधुकर को छू भी गया हो
कहो न कैसे यह कुरबक पर मुग्ध हो
घूम रहा है कानन में उद्देश्य से
फूलों का रस लेने की लिप्सा नहीं
मघुकर को वह तो केवल है देखता
कहीं वही तो नहीं कुसुम है खिल रहा
उसे न पाकर छोड़ चला जाता अहो
उसे न कहो कि वह कुरबक-रस लुब्ध है
हृदय कुचलने वालों से बस कुछ नहीं
उन्हें घृणा भी कहती सदा नगण्य है
वह दब सकता नहीं, न उनसे मिल सके
जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही
तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर
अब न और भटकाओ, मिल जाओ गले

39. नहीं डरते

क्या हमने यह दिया, हुए क्यों रूष्ट हमें बतलाओ भी
ठहरो, सुन लो बात हमारी, तनक न जाओ, आओ भी
रूठ गये तुम नहीं सुनोगे, अच्छा ! अच्छी बात हुई
सुहृद, सदय, सज्जन मधुमुख थे मुझको अबतक मिले कई
सबको था दे चुका, बचे थे उलाहने से तुम मेरे
वह भी अवसर मिला, कहूँगा हृदय खोलकर गुण तेरे
कहो न कब बिनती थी मेरी सच कहना की ‘मुझे चाहो’
मेरे खौल रहे हृत्सर में तुम भी आकर अवगाहो
फिर भी, कब चाहा था तुमने हमको, यह तो सत्य कहो
हम विनोद की सामग्री थे केवल इससे मिले रहो
तुम अपने पर मरते हो, तुम कभी न इसका गर्व करो
कि ‘हम चाह में व्याकुल है’ वह गर्म साँस अब नहीं भरो
मिथ्या ही हो, किन्तु प्रेम का प्रत्याख्यान नहीं करते
धोखा क्या है, समझ चुके थे; फिर भी किया, नहीं डरते

40. महाकवि तुलसीदास

अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा
सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा
इस शुभ सत्ता को जिसमे अनुभूत किया था
मानवता को सदय राम का रूप दिया था
नाम-निरूपण किया रत्न से मूल्य निकाला
अन्धकार-भव-बीच नाम-मणि-दीपक बाला
दीन रहा, पर चिन्तामणि वितरण करता था
भक्ति-सुधा से जो सन्ताप हरण करता था
प्रभु का निर्भय-सेवक था, स्वामी था अपना
जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना
प्रबल-प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का
अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का
राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की
‘राम-चरित-मानस’-कमल जय हो तुलसीदास की

41. धर्मनीति

जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद
कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद
वैध क्रम संयम को धिक्कार
अरे तुम केवल मनोविकार

वाँधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित नीति
भग्न हो उसका कुटिल प्रभाव, धर्म वह फैलावेगा भीति
भीति का नाशक हो तब धर्म
नहीं तो रहा लुटेरा-कर्म

दुखी है मानव-देव अधीर-देखकर भीषण शान्त समुद्र
व्यथित बैठा है उसके तीर- और क्या विष पी लेगा रूद्र
करेगा तब वह ताण्डव-नृत्य
अरे दुर्बल तर्कों के भृत्य

गुंजरित होगा श्रृंगीनाद, धूसरित भव बेला में मन्द्र
कँपैंगे सब सूत्रों के पाद, युक्तियाँ सोवेंगी निस्तन्द्र
पंचभूतों को दे आनन्द
तभी मुखरित होगा यह छन्द

दूर हों दुर्बलता के जाल, दीर्घ निःश्वासों का हो अन्त
नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिगन्त
तुम्हारा यौवन रहा ललाम
नम्रते ! करुणे ! तुझे प्रणाम

42. गान

जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो
विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हों, पिता परम अविनाशी हो
दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली
सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली
शीतल मस्तक, गर्म रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी
हँसती हो कमला जिसके करूणा-कटाक्ष में, तिस पर भी
खुले-किवाड़-सदृश हो छाती सबसे ही मिल जाने को
मानस शांत, सरोज-हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को
जो अछूत का जगन्नाथ हो, कृषक-करों का ढृढ हल हो
दुखिया की आँखों का आँसू और मजूरों का कल हो
प्रेम भरा हो जीवन में, हो जीवन जिसकी कृतियों में
अचल सत्य संकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियों में
ऐसे युवक चिरंजीवी हो, देश बना सुख-राशी हो
और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो

43. मकरन्द-विन्दु

तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल
शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल
जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को
स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो
प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ को
नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को

हैं पलक परदे खिचें वरूणी मधुर आधार से
अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले दृग-द्वार से
चित्त-मन्दिर में अमल आलोक कैसा हो रंहा
पुतलियाँ प्रहरी बनीं जो सौम्य हैं आकार से
मुद मृदंग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में
कल्पना-वीणा बजी हर-एक अपने ताल से
इन्द्रियाँ दासी-सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध है
मिल रहा गृहपति-सदृश यह प्राण प्राणधार से

हृदय नहिं मेंरा शून्य रहे
तुम नहीं आओ जो इसमें तो, तब प्रतिबिम्ब रहे
मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे
करूण-व्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे

मिले प्रिय, इन चरणों की धूल
जिसमें लिपटा ही आया है सकल सुमंगल-मूल
बड़े भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे
बैठो, घबराओ मन, बोलो, रहो नहीं मन मारे
हृदय सुनाना तुम्हें चाहता, गाथाएँ जो बीतीं
गदगद कंठ, न कह सकता हूँ, देखी बाजी जीती

प्रथम, परम आदर्श विश्व का जो कि पुरातन
अनुकरणों का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन
उत्तमता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन
शक्ति-सुधा से सिचा, शांति से सदा हरा वन
परा प्रकृति से परे नहीं जो हिलामिला है
सन्मानस के बीच कमल-सा नित्य खिला है
चेतन की चित्कला विश्व में जिसकी सत्ता
जिसकी ओतप्रोंत व्योम में पूर्ण महत्ता
स्वानुभूति का साक्षी है जो जड़ क चेतन
विश्व-शरीरी परमात्मा-प्रभुता का केतन
अणु-अणु में जो स्वभाव-वश गति-विधि-निर्धारक
नित्य-नवल-सम्बन्ध-सूत्र का अद्भूत कारक
जो विज्ञानाकार है, ज्ञानों का आधार हैं
नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है

गज समान है ग्रस्त, त्रस्त द्रोपती सदृश है
ध्रुव-सा धिक्कृत और सुदामा-सा वह कृश है
बँधा हुआ प्रहलाद सदृश कुत्सिम कर्मों से
अपमानित गौतमी न थी इतनी मर्मों से
धर्म बिलखता सोचता
हम क्या से क्या हो गये
थक कर, कुछ अवतार ले
तुम सुख-निधि में सो गये

44. चित्रकूट

उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे
सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे

धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में
क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में

चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था
मन्दाकिनी-तरंग उसी से खेल रहा था

स्फटिक-शीला-आसीन राम-वैदेही ऐसे
निर्मल सर में नील कमल नलिनी हो जैसे

निज प्रियतम के संग सुखी थी कानन में भी
प्रेम भरा था वैदेही के आनन में भी

मृगशावक के साथ मृगी भी देख रही थी
सरल विलोकन जनकसुता से सीख रही थी

निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी
सच ही हैं श्रीमान् भोगते सुख वन में भी

चन्द्रतप था व्योम, तारका रत्न जड़े थे
स्वच्छ दीप था सोम, प्रजा तरू-पुज्ज खड़े थे

शान्त नदी का स्त्रोत बिछा था अति सुखकारी
कमल-कली का नृत्य हो रहा था मनहारी

बोल उठा हंस देखकर कमल-कली को
तुरत रोकना पड़ा गूँजकर चतुर अली को

हिली आम की डाल, चला ज्यों नवल हिंडोला
‘आह कौन है’ पच्चम स्वर से कोकिल बोला

मलयानिल प्रहारी-सा फिरता था उस वन में
शान्ति शान्त हो बैठी थी कामद-कानन में

राघव बोले देख जानकी के आनन को-
‘स्वर्गअंगा का कमल मिला कैसे कानन ने

‘निल मघुप को देखा, वहीं उस कंज की कली ने
स्वयं आगमन किया’-कहा यह जनक-लली ने

बोले राघव–‘प्रिय ! भयावह-से इस वन में
शंका होती नहीं तुम्हारे कोमल मन में’

कहा जानकी ने हँसकार–‘अहा ! महल, मन्दिर मनभावन
स्परण न होते तुम्हें कहो क्या वे अति पावन,

रहते थे झंकारपूर्ण जो तव नूपुरर से
सुरभिपूर्ण पुर होता था जिस अन्तःपुर में

जनकसुता ने कहा –‘नाथ ! वह क्या कहते हैं
नारी के सुख सभी साथ पति के रहते हैं

कहो उसे प्रियप्राण ! अभाव रहा फिर किसका
विभव चरण का रेणु तुम्हारा ही है जिसका

मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में
मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी

पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा
सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं

नील गगन सम राम, अहा अंक में चन्द्रमुख
अनुपम शोभधाम आभूषण थे तारका

खुले हुए कच-भार बिखर गये थे बदन पर
जैसे श्याम सिवार आसपास हो कमल के

कैसा सुन्दर दृश्य ! लता-पत्र थे हिल रहे
जैसे प्रकृति अदृश्य, बहु कर से पंखा झले

निर्निमेष सौन्दर्य, देख जानकी-अंग का
नृपचूड़ामणिवर्य राम मुग्ध-से हो रहे

‘कुछ कहना है आर्य’ बोले लक्ष्मण दूर से
‘ऐसा ही है कार्य, इससे देता कष्ट हूँ’

राघव ने सस्नेह कहा–‘कहो, क्या बात है
कानन हो या गेह, लक्ष्मण तुम चिरबन्धु हो

फिर कैसा संकोच ? आओ, बैठो पास में
करो न कुछ भी सोच, निर्भय होकर तुम कहो’

पाकर यह सम्मान, लक्ष्मन ने सविनय कहा–
‘आर्य ! आपका मान, यश, सदैव बढ़ता रहे

फिरता हूँ मैं नित्य, इस कानन में ध्यान से
परिचय जिसमें सत्य मिले मुझे इस स्थान का

अभी टहलकर दूर, ज्योंही मै लौटा यहाँ
एक विकटमुख क्रूर भील मिला उस राह में

मेरा आना जान, उठा सजग हो भील वह
मैने शर सन्धान किया जानकर शत्रु को

किन्तु, क्षमा प्रति बार, माँगा उसने नम्र हो
रूका हमारा वार, पूछा फिर–‘तुम कौन हो’

उसने फिर कर जोड़ कहा–‘दास हूँ आपका
चरण कमल को छोड़, और कहाँ मुझको शरण,

निषादपति का दूत मैं प्रेरित आया यहाँ
कहना है करतूत भरत भूमिपति का प्रभो

सजी सैन्य चतुरड़्ग बलशाली ले साथ में
किये और ही ढंग, आते हैं इस ओंर को’

पुलकित होकर राम बोले लक्ष्मण वीर से–
‘और नहीं कुछ काम मिलने आते हैं भरत’

सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से
ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से

केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं
मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं

ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर, सब निस्तब्ध थे
सब सो रहे; जैसे आभागों के दुखद प्रारब्ध थे

झरने पहाड़र चल रहे थे, मधुर मीठी चाल से
उड़ते नहीं जलकण अभी थे उपलखण्ड विशाल से

आनन्द के आँसू भरे थे, गगन में तारावली
थी देखती रजनी विदा होते निशाकर को भली

कलियाँ कुसुकम की थी लजाई प्रथम-स्मर्श शरीर से
चिटकीं बहुत जब छेड़छाड़ हुआ समीर अधीर से

थी शान्ति-देवी-सी खड़ी उस ब्रह्मवेला में भली
मन्दाकिनी शुभ तरल जल के बीच मिथिलाधिप लली

रजलिप्त स्वच्छ शरीर होता था सरोज-पराग से
जल भी रँगा था श्यामलोज्ज्वल राम के अनुराग से

जल-बिन्दु थे जो वदन पर, उस इन्दु मन्द प्रकाश में
द्रवचन्द्रकान्त मनोज्ञ मणि के बने विमल विलास में

आकराठ-मज्जित जानकी चन्द्रभमय जल में खड़ी
सचमुच वदन-विधु था, शरद-घन बीच जिसकी गति अड़ी

जल की लहरियाँ घेरती वन मेघमाला-सी उसे
हो पवन-ताड़ित इन्दु कर मलता निरख करके जिसे

कर स्नान पर्णकुटीर को अपने सिधारी जानकी
तब कंजलोचन के जगाने की क्रिया अनुमान की

रविकर-सदृश हेमाभ उँगाली से चरण-सरसिज छुआ
उन्निद्र होने से लगे दृगकज्ज, कम्प सहज हुआ

उस नित्यपरिचित स्पर्श से राघव सजग हो जग गये
होकर निरालस नित्यकृत्य सुधारने में लग गये

फलफूल लेने के लिए तब जानकी तरू-पुंज में
सच्चारिणी ललिता लता-सी हो गई घन-कुंज में

अपने सुकृत-फल के समान मिले उन्हें फल ढेर से
मीठे, नवीन, सुस्वादु, जो संचित रहे थे देर से

हो स्वस्थ प्रातःकर्म से जब राम पर्णकूटीर में
आये टहल मन्दाकिनी-तट से प्रभात-समीर में

देखा कुशासन है बिछा, फल और जल प्रस्तुत वहाँ
हैं जानकी भी पास, पर लक्ष्मण न दिखलाते वहाँ

सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को
तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को

‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’
प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे

‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका
देखो, अपने सौरभ से है सह छका’

लक्ष्मण ने यह कहा और अति वेग से
चले वृक्ष की ओर, चढ़े उद्वेग से

ऊँचा था तरूराज, सघन वह था हरा
फल-फूलों से डाल-पात से था भरा

लक्ष्मण तुरत अदृश्य उसी में हो गये
जलद-जाल के बीच विमल विधु-से हुऐ

टहल रहे थे राम उसी ही स्थान में
कोलाहल रव पड़ा सुनाई कान में

चकित हुए थे राम, बात न समझ पड़ी
लक्ष्मण की पुकार तब तक यह सुन पड़ी-

‘आर्य, आर्यं, बस धनुष मुझे दे दीजिये’
कुछ भी देने में विलम्ब मत कीजिये’

कहा राम ने–‘वत्स, कहो क्या बात है
सुनें भला कुछ, कैसा यह उत्पात है’

लक्ष्मण ने फिर कहा–‘देर मत कीजिये
आया है वह दुष्ट मारने दीजिये’

‘कौन ? कहो तो स्पष्ट, कौन अरि है यहाँ !’
कहा राम नें–‘सुनें भला, वह है कहाँ’

‘दुष्ट भरत आता ले सेना संग में
रँगा हुआ है क्रूर राजमद-रंग में

उसका हृद्गत भाव और ही आर्य है
आता करने को कुछ कुत्सित कार्य है’

सुनकर लक्ष्मण के यह वाक्य प्रमाद से–
भरे, हँसे तब राम मलीन विषाद से

कहा–‘उतर आओ लक्ष्मण उस वृक्ष से
हटो शीघ्र उस भ्र्रम-पूरित विषवृक्ष से’

लक्ष्मण नीचे आकर बोले रोष से–
‘वनवासी हुए हैं आप निज दोष से’

भरत इसी क्षण पहुँचे, दौड़ समीप में
बढ़ा प्रकाश सुभ्रातृस्नेह के दीप में

चरण-स्पर्श के लिए भरत-भुज ज्यों बढ़े
राम-बहु गल-बीच पड़े, सुख से मढ़े

अहा ! विमल स्वर्गीय भाव फिर आ गया
नील कमल मकरन्द-विन्दु से छा गया

45. भरत

हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने
खड़ा बताता है भारत के गर्व को
पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की
मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में
बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले
पारिजात का पराग शुचि धूलि है
सांसारिक सब ताप नहीं इस भूमि में
सूर्य-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ
हिम-सर में भी खिले विमल अरविन्द हैं
कहीं नहीं हैं शोच, कहाँ संकोच है
चन्द्रप्रभा में भी गलकर बनते नदी
चन्द्रकान्त से ये हिम-खंड मनोज्ञ हैं
फैली है ये लता लटकती श्रृंग में
जटा समान तपस्वी हिम-गिरि की बनी
कानन इसके स्वादु फलो से है भरे
सदा अयचित देते हैं फल प्रेम से
इसकी कैसी रम्य विशाल अधित्यका
है जिसके समीप आश्रम ऋषिवर्य का

अहा ! खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से
आर्यवृन्द के सुन्दर सुखमय भाग्य-सा
कहता है उसको लेकर निज गोद में —
‘खोल, गोल, मुख सिंह-बाल, मैं देखकर
गिन लूँगा तेरे दाँतो को है भले
देखूँ तो कैसे यह कुटिल कठोर हैं’

देख वीर बालक के इस औद्धत्य को
लगी गरजने भरी सिंहिनी क्रोध से
छड़ी तानकर बोला बालक रोष से–
‘बाधा देगी क्रीड़ा में यदि तू कभी
मार खायगी, और तुझे दूँगा नहीं–
इस बच्चे को; चली जा, अरी भाग जा’

अहा, कौन यह वीर बाल निर्भीक है
कहो भला भारतवासी ! हो जानते
यही ‘भरत’ वह बालक हैं, जिस नाम से
‘भारत संज्ञा पड़ी इसी वर भूमि की
कश्यप के गुरूकुल में शिक्षित हो रहा
आश्रम में पलकर कानन में घूमकर

निज माता की गोद मोद भरता रहा
जो पति से भी विछुड़ रही दुदैंव-वश
जंगल के शिशु-सिंह सभी सहचर रहे
राह घूमता हो निर्भीक प्रवीर यह

जिसने अपने बलशाली भुजदंड
भारत का साम्राज्य प्रथम स्थापित किया

वही वीर यह बालक है दुष्यन्त का
भारत का शिर-रत्न ‘भरत’ शुभ नाम है

46. शिल्प सौन्दर्य

कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह
महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा
अथवा तापों के मिस से हुंकार यह
करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा
नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित
हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा
आर्यमंदिरों के सब ध्वंस बचे हुए
धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में–
उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये
जिससे देख न सकते वे कर्तव्य-पथ
दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो
बालू की दींवाल मुगल-साम्राज्य की
आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी
जिसे, अपने कर से खोदा आलमगीर ने
मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल
कर कँपने-से लगे ! अहो यह क्या हुआ
मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से
धूमकेतु-से सूर्यमल्ल समुदित हुए
सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश
प्रतिहिंसा-पूरित वीरों की मण्डली
व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में
मुगल-महीपाें के आवासादिक बहुत
टूट चुके हैं, आम खास के अंश भी
किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ
रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल हैं
मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा-पूर्ण हे
सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो
मोती-मस्जिद के प्रांगण में है खड़े
भीम गदा है कर में, मन में वेग है
उठा, क्रुद्ध हो सबलज हाथ लेकर गदा
छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई
मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ
किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को
क्यों जी, यह कैसा निष्किय प्रतिरोध है
सूर्यमल्ल रूक गये, हृदय भी रूक गया
भीषणता रूक कर करूणा-सी हो गई।
कहा-‘नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से–
इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की
सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही
हो जायेगी लुप्त।’ बड़ा आश्चर्य है
आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने
जिसे करती कभी सहस्त्रों वक्तृता
अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही
कहीं वीरता बनती इससे क्रूरता
धर्म-जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नहीं
किया, विशेष अनिष्ट शिल्प-साहित्य का
लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के
साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये
तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को
रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो
हे भारत के ध्वंस शिल्प ! स्मृति से भरे
कितनी वर्षा शीताताप तुम सह चुके
तुमको देख करूण इस वेश में
कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया
शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये
किस मिट्टी की ईंटें हैं बिखरी हुई।

47. कुरूक्षेत्र

नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था
गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था
बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी
गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी
उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी
प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी
देख मोहन को न मोहे, कौन था इस भूमि में
रास की राका रूकी थी देख मुख ब्रजभूमि में !
धेनु-चारण-कार्य कालिन्दी-मनोहर-कूल में
वेणुवादन-कुंज में, जो छिप रहा था फूल में
भूलकर सब खेल ये, कर ध्यान निज पितु-मात का-
कंस को मारा, रहा जो दुष्ट पीवर गात का

थी इन्होने ही सही सत्रह कठोर चढ़ाइयाँ
हारकर भागा मगध-सम्राट कठिन लड़ाइयाँ
देखकर दौर्वृत्य यह दुर्दम्य क्षत्रिय-जाति का
कर लिया निश्चित अरिन्दन ने निपात अराति का
वीर वार्हद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को
और भी साम्राज्य-स्थापना की महा अभिसन्धि को
छोड़कर ब्रज, बालक्रीड़ा-भूमि, यादव-वृन्द ले
द्वारका पहुंचे, मधुप ज्यों खोज ही अरविन्द ले
सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पार्थ में
आप साम-भागी हुए तब पाण्डवों के स्वार्थ से
वीर वार्हद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से
आप संरक्षक हुए फिर पाण्डवों के, प्रीति से
केन्द्रच्युत नक्षत्र-मण्डल-से हुए राजन्य थे
आन्तरिक विद्वेष के भी छा गये पर्यन्य थे
दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन्न था
मलिनता थी व्याप्त कोई भी कहीं न प्रसन्न था
सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से
हो गई ऊषा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से
धर्मराज्य हुआ प्रतिष्ठित धर्मराज नरेश थे
इस महाभारत-गगन के एक दिव्य दिनेश थे
यो सरलता से हुआ सम्पन्न कृष्ण-प्रभाव से
देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से
हो गया सन्नद्ध तब शिशूपाल लड़ने के लिये
और था ही कौन केशव संग लड़ने के लिये
थी बड़ी क्षमता, सही इससे बहुत-सी गालियाँ
फूल उतने ही भरे, जितनी बड़ी हो डालियाँ
क्षमा करते, पर लगे काँटे खटकने और को
चट धराशायी किया तब पाप के शिरमौर को

पांडवों का देख वैभव नीच कौरवनाथ ने
द्युत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने
कुटिल के छल से छले जाकर अकिच्चन हो गये
हारकर सर्वस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये
कष्ट से तेरह बरस कर वास कानन-कुंज में
छिप रहे थे सूर्य-से जो वीर वारिद-पुंज में
कृष्ण-मारूत का सहारा पा, प्रकट होना पड़ा
कर्मं के जल में उन्हें निज दुःख सब धोना पड़ा
आप अध्वर्य्य हुए, ब्रह्म यधिष्ठिर को किया
कार्य होता का धनंजय ने स्वयं निज कर लिया
धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ में सच्ची स्त्रुवा
उस महारण-अग्नि में सब तेज-बल ही घी हुवा
बध्य पशु भी था सुयोधन, भार्गवादिक मंत्र थे
भीम के हुंकार ही उद्गीथ के सब तंत्र थे
रक्त-दुःशासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से
कृष्ण ने दीक्षित किया था धनुवैंदिक रीति से
कौरवादिक सामने, पीछे पृथसुत सैन्य है
दिव्य रथ है बीच में, अर्जुन-हृदय में दैन्य है
चित्र हैं जिसके चरित, यह कृष्ण रथ से सारथी
चित्र ही-से देखते यह दृश्य वीर महारथी
मोहनी वंशी नहीं है कंज कर में माधुरी
रश्मि है रथ की, प्रभा जिसमें अनोखी है भरी
शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से ब्रजभूमि में
नीरधर-सी धीर ध्वनि का शंख अब रणभूमि में
नील तनु के पास ऐसी शुभ्र अश्वों की छटा
उड़ रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर घटा
स्वच्छ छायापथ-समीप नवीन नीरद-जाल है
या खड़ा भागीरथी-तट फुल्ल नील तमाल है
छा गया फिर मोह अर्जुन को, न वह उत्साह था
काम्य अन्तःकरण में कारूण्य-नीर-प्रवाह था
‘क्यों करें बध वीर निज कुल का सड़े-से स्वार्थ से
कर्म यह अति घोर है, होगा नहीं यह रथ के वहाँ
सव्यासाची का मनोरथ भी चलाते थे वहाँ
जानकर यह भाव मुख पर कुछ हँसी-सी छा गई
दन्त-अवली नील घन की वारिधारा-सी हुई
कृष्ण ने हँसकर कहा-‘कैसी अनोखी बात है
रण-विमुख होवे विजय ! दिन में हुई कब रात है
कयह अनार्यों की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने
धर्मच्युत होना बताया एक छोटे स्वार्थ ने
क्यों हुए कादर, निरादर वीर कर्माें का किया
सव्यसाची ने हृदय-दौर्बल्य क्यों धारण किया
छोड़ दो इसको, नहीं यह वीन-जन के योग्य है
युद्ध की ही विजय-लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है
रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल-मान के
यह सभी परिवार अपने पात्र हैं सम्मान के
किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी
काल के ही गाल में मरकर पडे़ हैं ये कभी
नर न कर सकत कभी, वह एक मात्र निमित्त है
प्रकृति को रोके नियति, किसमें भला यह वित्त है
क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी
क्या न होंगे और आगे वीर ये सेनप सभी
आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी मान लो
नित्य चेतनसूत्र की गुरिया सभी को जान लो
ईश प्रेरक-शक्ति है हृद्यंत्र मे सब जीव के
कर्म बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के
कर्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये
पर न फल पर कर्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये
कर रहा हूँ मैं, करूँगा फल ग्रहण, इस ध्यान से
कर रहा जो कर्म, तो भ्रान्त है अज्ञान से
मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रान्त है
ईश से विनियुक्त जीव सुयंत्र-सा अश्रान्त है
है वही कत्त, वहीं फलभोक्ता संसार का
विश्व-क्रीड़ा-क्षेत्र है विश्वेश हृदय-उदार का
रण-विमुख होगे, बनोगे वीर से कायर कहो
मरण से भारी अयश क्यों दौड़कर लेना चहो
उठ खड़े हो, अग्रसर हो, कर्मपथ से मत डरो
क्षत्रियोचित धर्म जो है युद्ध निर्भय हो करो
सुन सबल ये वाक्य केशव के भरे उत्साह स
तन गये डोरे दृगों के, धनुरूष के, अति चाह से
हो गये फिर तो धनजंय से विजय उस भूमि में
है प्रकट जो कर दिखाया पार्थ ने रणभूमि में

48. वीर बालक

भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे
गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता
अरूण उदय होकर देता है कुछ पता
करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा
पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही
धर्म-घोषणा आज करेगा देश में
जनता है एकत्र दुर्ग के समाने
मान धर्म का बालक-युगल-करस्थ है
युगल बालकों की कोमल यै मूर्तियां
दर्पपूर्ण कैसी सुन्दर है लग रही
जैसे तीव्र सुगन्ध छिपाये हृदय में
चम्पा की कोमल कलियाँ हों शोभती

सूबा ने कुछ कर्कश स्वर से वेग में
कहा-‘सुनो बालको, न हो बस काल के
बात हमारी अब भी अच्छी मान लो
अपने लिये किवाड़े खोलो भाग्य के
सब कुछ तुम्हें मिलेगा, यदि सम्राट की
होगी करूणा। तुम लोगों के हाथ है
उसे हस्तगत करो, या कि फेंको अभी
किसने तुम्हें भुलाया है ? क्यों दे रहे
जाने अपनी, अब से भी यह सोच लो
यदि पवित्र इस्लाम-धर्म स्वीकार है
तुम लोगों को, तब तो फिर आनन्द है
नहीं, शास्ति इसकी केवल वह मृत्यु है
जो तुमको आशामय जग से अलग ही
कर देगी क्षण-भर में, सोचो, समय है
अभी भविष्यत् उज्जवल करने के लिये
शीघ्र समझकर उत्तर दो इस प्रश्न का’

शान्त महा स्वर्गीय शान्ति की ज्योति से
आलोकित हो गया सुवदन कुमार का
पैतृक-रक्त-प्रवाह-पूर्ण धमकी हुई
शरत्काल के प्रथम शशिकला-सी हँसी
फैल गई मुख पर ‘जोरावरसिंह’ के
कहा-‘यवन ! क्यों व्यर्थ मुझे समझा रहे
वाह-गुरू की शिक्षा मेरी पूर्ण है
उनके चरणों की आभा हृत्पटल पर
अंकित है, वह सुपथ मुझे दिखला रही
परमात्मा की इच्छा जो हो, पूर्ण हो’
कहा घूमकर फिर लघुभ्राता से–‘कहो,
क्या तुम हो भयभीत मृत्यु के गर्त से
गड़ने में क्या कष्ट तुम्हें होगा नहीं’
शिशु कुमार ने कहा–बड़े भाई जहाँ,
वहाँ मुझे भय क्या है ? प्रभु की कृपा से’

निष्ठुर यवन अरे क्या तू यह कह रहा
धर्म यही है क्या इस निर्मय शास्त्र का
कोमल कोरक युगल तोड़कर डाल से
मिट्टी के भीतर तू भयानक रूप यह
महापाप को भी उल्लंघन कर गया
कितने गये जलासे; वध कितने हुए
निर्वासित कितने होकर कब-कब नहीं
बलि चढ़ गये, धन्य देवी धर्मान्धते

राक्षस से रक्षा करने को धर्म की
प्रभु पाताल जा रहे है युग मूर्ति-से
अथवा दो स्थन-पद्म-खिले सानन्द है
ईंटों से चुन दिये गये आकंठ वे
बाल-बराबर भी न भाल पर, बल पड़ा–
जोरावर औ’ फतहसिंह के; धन्य है–
जनक और जननी इनकी, यह भूमि भी

सूबा ने फिर कहा-‘अभी भी समय है-
बचने का बालको, निकल कर मान लो
बात हमारी।’ तिरस्कार की दृष्टि फिर
खुलकर पड़ी यवन के प्रति। वीणा बजी-
‘क्यों अन्तिम प्रभु-स्मरण-कार्य में भी मुझे
छेड़ रहे हो ? प्रभु की इच्छा पूर्ण हो’

सब आच्छादित हुआ यवन की बुद्धि-सा
कमल-कोश में भ्रमर गीत-सा प्रेममय
मधुर प्रणव गुज्जति स्वच्छ होले लगा, ष्
शान्ति ! भयानक शान्ति ! ! और निस्तब्धता !

49. श्रीकृष्ण-जयन्ती

कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में
अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा
भीग रहा है नीरद अमने नीर से
मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में
रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें-
जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हें
जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है
उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम में
उसे उजेले में ले आने को अभी
दिव्य ज्योति प्रकटित होगी क्या सत्य ही

सुर-सुन्दरी-वृन्द भी है कुछ ताक में
हो करके चंचला घूमती हैं यहाँ –
झाँक-झाँककर किसको हैं ये देखती
छिड़क रहा है प्रेम-सुधा क्यों मेघ भी
किसका हैं आगमन अहो आनन्दमय
मधुर मेध-गर्जन-मृदंग है बज रहा
झिल्ली वीणा बजा रही है क्यों अभी
तूर्यनाद भी शिखिगण कैसे कर रहे
दौड़-दौड़कर सुमन-सरभि लेता हुआ
पवन स्पर्श करना किसको है चाहता
तरूण तमाल लिपटकर अपने पत्र में
किसका प्रेम जताता है आनन्द से
रह-रहकर चातक पुकारता है किसे-
मुक्त कंठ से, किसे बुलाता है कहो
रहो-रहो वह झगड़ा निबटेगा तभी
छिपी हुई जब ज्योति प्रकट हो जायगी
हाँ, हाँ नीरद-वृन्द, और तम चाहिये
कोई परदा वाला है यह आ रहा
परदा खोलेगा जो एक नया यहीं-
जगत-रंगशाला में। मंगल-पाठ हो
द्विजकुल-चातक और जरा ललकार दो-
‘अरे बालको इस सोये संसार के
जाग पड़ो, जो अपनी लीला-खेल में
तुम्हें बतावेंगे उस गुप्त रहस्य को-
जिसका सोकर स्वप्न देखते हो अभी
मानव-जाति बनेगी गोधन, और जो
बनकर गोपाल घुमावेंगे उन्हें-
वहीं कृष्ण हैं आते इस संसार में
परमोज्जवल कर देंगे अपनी कान्ति से
अन्धकारमय भव को। परमानन्दमय
कार्म-मार्ग दिखलावेंगे सब जीव को

यमुने ! अपना क्षीण प्रवाह बढ़ा रखो
और वेग से बहो, कि चरण पवित्र से
संगम होकर नील कमल खिल जायगा
ब्रजकानन ! सब हरे रहो। लतिका घनी-
हो-होकर तरूराजी से लिपटी रहें
कृष्णवर्ण के आश्रय होकर स्थित रहें
घन ! घेरो आकाश नीलमणि-रंग से
जितना चाहो, पर अब छिपने की नहीं
नवल ज्योति वह, प्रकटित होगी जो अभी
भव-बन्धन से खुलो किवाड़ो ! शीघ्र ही
परम प्रबल आगमन रोक सकती नहीं
यह श्रृंखला, तुम्हारे में हैजो लगी
दिव्य, आलौकिक हर्ष और आलोक का-
स्वच्छ स्त्रोत खर वेग सहित बहता रहे
खल दृग जिसको देख न सकें, न सह सकें

जलद-जाल-सा शीतलकारी जगत् को
विद्युद्वृन्द समान तेजमय ज्योति वह
प्रकट गई। पपिहा-पुकार-सा मधुर औ’-
मनमोहन आनन्द विश्व में छा गया
बरस पड़े नव नीरद मोती औ’ जुही

विविध रचनाएँ (Misc Poetry) – जयशंकर प्रसाद

1. हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं – बढ़े चलो बढ़े चलो।

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी।
अराति सैन्य सिंधु में – सुबाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो बढ़े चलो।

2. अरुण यह मधुमय देश हमारा

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।

सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।

लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।

बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।

3. आत्मरकथ्य

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्यआ जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंीग्यत मलिन उपहास
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्व् अपल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्ववप्नत देकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्याउ कर जो भाग गया।
जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्द र छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृ ति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्योंी मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा़ नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्याव तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मसकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्याथा।

4. सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है

5. आह ! वेदना मिली विदाई

आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

6. दो बूँदें

शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !

7. तुम कनक किरन

तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?

नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोन बने रहते हो क्यों ?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों ?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों ?

8. भारत महिमा

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत

बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

9. आदि छन्द

हारे सुरसे, रमेस घनेस, गनेसहू शेष न पावत पारे
पारे हैं कोटिक पातकी पंजु ‘कलाधार’ ताहि छिनो लिखि तारे
तारेन की गिनती सम नाहि सुजेते तरे प्रभु पापी विचारे
चारे चले न विरंचिह्न के जो दयालु ह्नै शंकर नेकु निहारे

10. पहली प्रकाशित रचना

सावन आए वियोगिन को तन
आली अनंग लगे अति तावन।
तापन हीय लगी अबला
तड़पै जब बिज्जु छटा छवि छावन।।

छावन कैसे कहूँ मैं विदेस
लगे जुगनू हिय आग लगावन
गावन लागे मयूर ‘कलाधर’
झाँपि कै मेघ लगे बरसावन।।

11. आशा तटिनी का कूल नहीं मिलता है

आशा तटिनी का कूल नहीं मिलता है।
स्वच्छन्द पवन बिन कुसुम नहीं खिलता।
कमला कर में अति चतुर भूल जाता है।
फूले फूलों पर फिरता टकराता है
मन को अथाह गंभीर समुद्र बनाओ।
चंचल तरंग को चित्त से वेग हटाओ
शैवाल तरंगों में ऊपर बहता है
मुक्ता समूह थिर जल भीतर रहता है।

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