Poem On Beggar in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ भिखारी पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
भिखारी पर कविता, Poem On Beggar in Hindi
1. Poem On Beggar in Hindi
आज निकल के घर से बाहर गया,
तो देखा उन दीन-दुखियारो को,
नन्हे हाथो मे खाली कटोरी,
और नयनो से निकलते अश्रु धारो को।
जिन्हे देख हृदय पसीज गया,
मन मेरा बेबस हो गया ,
उनके हाथो के सिक्को को सुन,
आज मैं तो संगीत भूल गया।
जिन्हे देख सहसा मैं ठहरा,
मानो कुछ देर अमीर मैं बन गया,
उन्हे देकर चंद सिक्के मैं,
उनकी दुआओ से गरीब मैं बन गया।
-नीरज चौरसिया
2. भिखारी पर कविता
मैं भिखारी हूँ…….
भीख मांगना मेरा मजहब,
और भीख देने वाला है मेरा रब।
मैं सभ्य समाज की एक,
लाइलाज बीमारी हूँ।
मैं भिखारी हूँ……..
रेलवे प्लेटफॉर्म और रोडवेज,
मेरे बड़े इबादतगाह हैं।
भीड़-भाड़ वाले स्थलों पर,
मेरी रहती निगाह है।
जो दे देते हैं उनका भी,
आभारी हूँ।
और जो नहीं देते उनका भी,
आभारी हूँ।
मैं भिखारी हूँ……..
अब मैं भी हाईटेक हो गया हूँ।
एक हाथ में कटोरा तो,
दूसरे हाथ में मोबाइल लेकर,
अपने पेशे में सेट हो गया हूँ।
मैं चिल्लर पैसों का एक,
बदनाम ब्यापारी हूँ।।
मैं भिखारी हूँ……..
मेरे धंधे में भी घुस गए हैं,
कुछ बहुरूपिये।
मिल जाने पर भी हाथ फैलाये,
खड़े रहते हैं घटिये।
भिखमंगों की इज्ज़त को,
नीलाम करने वाले।
ऐसे लोगों का मैं,
नहीं पुजारी हूँ।
मैं भिखारी हूँ………
मान-अपमान मेरे,
जेब में रहते हैं।
सुबह से शाम तक,
जो कितनी बारआपस में,
अदलते-बदलते रहते हैं।
क्या बिगाड़ लेगा कोई मेरा,
मैं तो आलू-प्याज की तरकारी हूँ।
हाँ डंके की चोट पर कहता हूँ,
मैं भिखारी हूँ………
मेरे पेशे का नहीं होता है कोई,
सरकारी पंजीकरण।
न कोई विभाग ही बना है जो,
रोके हम लोगों का अवतरण।
न मैं प्राइवेट ही हूँ न कोई,
कर्मचारी सरकारी हूँ।
हाँ मैं भिखारी हूँ………
सभ्य समाज की लाइलाज,
बीमारी हूँ……..
मैं भिखारी हूँ………..
मैं भिखारी हूँ………..
कवि अरविन्द दुबे
3. बस्तियों के बीच शोरगुल सा माहौल था
बस्तियों के बीच शोरगुल सा माहौल था,
समां खामोश थी मौसम गमगीन था।
आते-जाते राहगीर देखकर थे हैरान,
इतनी शोर क्यों है इससे थे अंजान।
माहौल को चीरकर था किसी ने बोला,
आज मृतशय्या पर है जो था सबका मुंहबोला।
याद आयी मुझे उसकी जब मिला था अनजान राहों पर,
हाथ में कटोरे लिए बैठा था चौराहों पर।
दया की भीख सबसे था वो मांगता,
एक-एक,दो-दो रुपये राहगीर उसे देता रहता।
अचानक टूटा दु:खों का पहाड़ उसपर,
पल भर रुका फिर ढह गया अर्श से फर्श पर।
किसी ने न सुनी उसकी चीख पुकार,
शोर-शराबे में दबकर रह गयी उसकी करुण दहाड़।
लोगों ने सोंचा होगा कोई लावारिस,
कौन लाश को ठिकाने लगाए, है कोई वारिस।
जैसे तैसे पुलिस ले गयी लाश,
उसे अब न थी कफन की आश।
आत्मा अभी भी उसकी सोंचती होगी,
गरीब पैदा न होना यह सबसे कहती होगी।
– नवनीत कुमार
4. भीख मांगते मांगते हार गया वह इंसान
भीख मांगते मांगते हार गया वह इंसान
फिर भी वह ना रुका,ना झुका,वह इंसान
शब्द यूं कम पड़ जाएंगे उनके दुखों को बयां करने में
फिर भी वह खुश है जिंदगी जी रहे हैं
बेशक मखमली बिस्तर न हो उनके पास
पर फिर भी,वह चैन की नींद सो रहे हैं
हम यूं छोटी-छोटी बातों पर मुंह फुलाए,
खाने पर गुस्सा जाहिर किया करते हैं
पर वे बस एक रोटी की आस में
दर-दर भटका करते हैं
भीख मांगना उनकी कोई इच्छा नहीं मजबूरी है
एक दरवाजे से ठोकर खाकर फिर उठ खड़े होना,
उनकी ताकत नहीं देनीय स्थिति है
“मन के हारे हार है मन के जीते जीत”
यह सबने पढ़ा है, पर जिया बस इन्होंने ही है…
-अंजना कुमारी
5. बहुत सबेरे इस सर्दी में
बहुत सबेरे इस सर्दी में
एक फटा सा कुर्ता पहने
चिथड़ों की घुटनों तक धोती
कौन, ठिठुरता चला आ रहा
मांग रहा खाने को रोटी
ओ माँ बेचारे को दे दो
मैं भूखा ही रह जाऊँगा
वह घिघियाता चला आ रहा
अपने घर हैं कई बिस्तरे
हीटर गर्मी उगल रहा है
पर यह तो नंगा भूखा है
माँ कैसे यह रहता होगा
माँ कैसे यह बना भिखारी
किसने इसकी रोजी मारी
है यह बहुत गरीब बेचारा
दया करो, दुःख सहता होगा.
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