Poem On Wheat in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ गेहूं पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
गेहूं पर कविता, Poem On Wheat in Hindi
1. गेहूं पर कविता
हरी भरी बालियाँ
बजा रही तालियाँ
ओलों में अड़ि रहीं
कुहरे से जूझ गई
पाले में खड़ी रही
पत्थर की बालियाँ
जीत गई बाजियाँ
पकी पकी बालियाँ
खुशियों की तालियाँ
सूरज ने गर्मी दी
पूरी हमदर्दी दी
सोने की वर्दी दी
महक उठीं थालियाँ
चहक उठी बालियाँ
2. Poem On Wheat in Hindi
काँप रहीं खेतों में गेहूँ की बालियाँ
मेंड़ पर बैठा है भूमिजन चिलम पीता, खाँसता।
सोचती हैं बालियाँ—
‘यहाँ से हमें तोड़-तोड़
बच्चे ले जाएँगे,
जलाएँगे होली में
(गाएँगे गालियाँ
बजाएँगे तालियाँ)
याकि हमें जोड़-जोड़
खेतिहर अनजान
बेचेंगे किसी लाभकर्मी निरे ख़ुदग़र्ज़ बनिए को
(बोवेंगे यह कपास, वह जूट; हाय हम में ही फूट!)
बहुत कुछ जाएगा लगान
कुछ जाएगी क़र्ज-क़िस्त
बाक़ी रह जाएगी—
झोंपड़ियों की उन भूखी अँतड़ियों के लिए सूखी
एक बेर रोटी—!
क्या यह नीति खोटी नहीं?
गेहूँ के मोती-से दाने जो पसीने से
उगाए, अरे बदे हों उसी के भाग
आँसू के दाने सिर्फ़!
सींचे वही ख़ून जो लगाए वह सीने से,
और आँख मीच खाएँ वे कि जिन्हें जीने से
उतरने में कीमख़ाब गड़ती हो…!
छिः ऐसे जीने से बेहतर नहीं है क्या
होली में जल जाना?
होली में जल जाना क्या है बुरा?
क्या हैं बुरी गालियाँ?
सोचती हैं बालियाँ…
जब तक नहीं आसान मिलती हैं तालियाँ
मानव के कोष-दोष-जन्य घोर असंतोष
संचय की,
विनिमय के वैषम्य के मदहोश तालों की।
3. गेहूँ चाँस लगे
गेहूँ चाँस लगे
आँख के कितने पास
कि नत्थू घर में बैठे-बैठे
गिन लेता है
पीक
बालियाँ
दाने
क़ीमत
क़र्ज़ा
बचत।
और मेड़ पर नन्हे की अँगुली थामे चलता है
गेहूँ की चाँस के साथ-साथ
आगे जाता है
बेहद आगे
सोलह-सत्रह बरस आगे
नन्हे की शादी होती है
दुल्हन आती है
शक्कर-पूरी की पंगत में
मेले होते हैं
गाँव-बिरादरी के प्रेमी-जन
सब आते हैं
सब खाते हैं
ख़ूब बड़ा उत्सव होता है
वहीं मेड़ पर चलते-चलते।
सुई और तागा लेकर के
अब लछमी ने पिरो लिए हैं
मन ही मन गेहूँ के पौधे
बाँध लिए सारे शरीर में
आँख बंद करती है
सब चाँदी हो जाते हैं
सब सोना हो जाते हैं।
गेहूँ
नत्थू की नस में पकता है
रग-रग में गर्माता है
और पीक फोड़ता है लछमी की कोख में
गेहूँ
जैसे ही उगता है
खेत छोड़ देता है
जड़ें जमा लेता है लोगों के ख़याल में
और वहीं पलता है।
आसमान जितनी पानी की बूँदें देता है
धरती गिनती है
अंडों-सा उनको सेती है
और किसी समझौते-सा लौटा देती है।
जितनी बूँदें
उतने दाने।
नदियों में जितना पानी था
खलिहानों में उतना गेहूँ।
फिर भी भूखे गाँव
शहर के कोने भूखे
ख़ुद नत्थू भूखा
छह महीने तक भूखे घर के लोग।
गेहूँ
नत्थू का, नन्हे का, लछमी का
सगा गेहूँ
खलिहान से बाहर निकलते ही
काग़ज़ हो जाता है।
तेल, गुड़, नमक, मिर्च, कपड़ा, जूता
कितना कुछ नहीं होना पड़ता गेहूँ को
कोटवार, पटवारी, दरोग़ा, लेवी
कितने रूप रखता है गेहूँ।
बाक़ी का
जो नत्थू के घर जाना था
कहाँ गया है
जिससे उसे पेट भरना था
वह गेहूँ कहाँ भरा है
उसे पता है कि
सब जानते हैं
गेहूँ चाँस लगे
आँख के कितने पास
कि नत्थू घर में बैठे-बैठे
गिन लेता है
शादी-बियाह
तीज-त्यौहार
बहन-बेटी
एक टेम खाने
और
दोनों टेम भूखे रहने के दिन।
4. गेहूं के दाने क्या होते
गेहूं के दाने क्या होते
हल हलधर के परिचय देते,
देते परिचय रक्त बहा है
क्या हलधर का वक्त रहा है।
मौसम कितना सख्त रहा है
और हलधर कब पस्त रहा है,
स्वेदों के कितने मोती बिखरे
धार कुदालों के हैं निखरे।
खेतों ने कई वार सहे हैं
छप्पड़ कितनी बार ढहे हैं,
धुंध थपेड़ों से लड़ जाते
ढह ढहकर पर ये गढ़ जाते।
हार नहीं जीवन से माने
रार यहीं मरण से ठाने,
नहीं अपेक्षण भिक्षण का है
हर डग पग पर रण हीं मांगे।
हलधर दाने सब लड़ते हैं
मौसम पर डटकर अड़ते हैं,
जीर्ण देह दाने भी क्षीण पर
मिट्टी में जीवन गढ़तें हैं।
बिखर धरा पर जब उग जाते
दाने दुःख सारे हर जाते,
जब दानों से उगते मोती
हलधर के सीने की ज्योति
शुष्क होठ की प्यास बुझाते,
हलधर में विश्वास जगाते
मरु भूमि के तरुवर जैसे
गेहूं के दाने हैं होते।
5. इस रबी मैं चल रहा था खेत के मेड़ों के ऊपर
इस रबी मैं चल रहा था खेत के मेड़ों के ऊपर,
तभी देखा मैंने उसको मूंछ ताने सर के ऊपर|
यूं ही देखता रहा कुछ क्षण मैं ठिठककर,
उसने भी तानी थी आंखें सीना अकड़ कर ,
फिर भी मुग्ध था मैं उस अनोखे सौंदर्य पर,
ऐसा लगता था कि मानो खड़ी कोई सुंदरी हरी चादर ओढ़ कर ,
तभी गुजरा प्यारा हवा का एक झोंका,
खिलखिलाया वह किसी ने उसको ना रोका|
एक क्षण निहार कर मैं बढ़ चला अब घर की ओर,
पर देखता रहा वह जब तक मैं हुआ ना आंखों से दूर |
माघ की वह एक सुबह थी,
ओस भी काफी पड़ी पड़ी थी |
तभी मन में एक विचार यू आया
चल पड़ा मैं फिर से मेडो के ऊपर,
जहां वह था खड़ा मूछें ताने सर के ऊपर |
अब अकड़ उसकी ना थी पुरानी ,
सर पर उसके कुछ ऐसी काया थी जन्मी,
कुछ कोठियां उसके भीतर भी थी फूटी |
ऐसा लगता था कि वह तैयार है ,
व्याकुल बढ़ाने को अब वह परिवार है,
चाहता है समेटना उस हवा को जो उसे है लहराती ,
चाहता है भरना छाती जो है खाली |
लौट आया मैं फिर से घर की ओर ,
देखता रहा वह मेरी ही ओर |
फागुन के फाग गाए जा रहे थे ,
लोग मस्ती में झूमे जा रहे थे,
मैं भी मस्त था उन फागुन के फागों में ,
तभी आया वह मेरे विचारों में |
बस चल पड़ा मैं फिर से मेडो के ऊपर,
जहां था खड़ा वह मूछें ताने सर के ऊपर |
हो गई थी वह हवा अब काफी कठोर ,
जो फंसी थी कोठियों में भीतर की ओर |
लोग उनको कह रहे थे कि यह है दाने,
पर मुझे दिख रहे वह बच्चे जो उसने थे हैं पाले |
तभी एक आदमी हाथ में हथियार लेकर,
घुस गया उन मैंडो में कुछ विचार लेकर|
कट कर गिरने लगा वह उस हथियार उस से,
पर फिर भी लिपटे थे दाने उससे प्यार से |
मैं खड़ा था देखता उसके उस बलिदान को,
कट रहा पर उसकी उस मुस्कान को |
यह भी विधाता की ही नियति है ,
कटने के बाद जो उसको तोलती है |
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