पद्मा सचदेव की प्रसिद्ध कविताएँ, Padma Sachdev Poem in Hindi

Padma Sachdev Poems in Hindi : यहाँ पर आपको Padma Sachdev ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. पद्मा सचदेव का जन्म 17 अप्रैल 1940 में जम्मू के पुरमंडल गांव के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण राजपुरोहित परिवार में हुआ था. इन्होने 12 – 13 वर्ष की उम्र में ही डोगरी भाषा में कविता और लोकगीत लिखना शुरू कर दिया था. कुछ समय के लिए इन्होने मुंबई रेडियो में भी कार्य किया. इनकी 1969 में एक कविता संग्रह ‘मेरी कविता मेरे गीत’ प्रकाशित हुई. जिसके लिए पद्मा सचदेव को 1971 का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें : डोगरी कविताएँ, तवी ते झँना, न्हेरियाँ गलियाँ (जम्मू-कश्मीर सांस्कृतिक अकादमी से पुरस्कृत), पोटा पोटा निंबल, उत्तरवाहिनी (प्रकाशनाधीन), डोगरी से हिंदी में अनूदित कविता-संग्रह: मेरी कविता मेरे गीत, सबद मिलावा; साक्षात्कार: दीवानखाना; गोद भरी (कहानियाँ)।

Padma Sachdev Poems in Hindi

हिन्दी कविताएँ – पद्मा सचदेव (Hindi Poetry – Padma Sachdev)

1. सांझ जब घिरती है

सांझ जब घिरती है, कहीं कहीं रुकती है
कहीं ये ठहरती है- सांझ जब घिरती है
कमर से लगाकर सूरज की रश्मियों को
कंधे से लगाकर रोशनी की किरणों को
मलती है सिर के बिखरे हुए बालों पर
घुंघराली लटों को मलती है हाथों से
फिर सुला देती है, कहानियों में लोरी बुनकर
अंधेरों को सुलाती है, रोशनी बुलाती है
मिलाती है कहीं जाकर आकाश को धरती से
सांझ इसे कहते हैं

सांझ जब घिरती है
सांझ में मिलने वाले जागते हैं सायों के परदे में
आती-जाती खलकत के जाने के समय सांस रोक लेते हैं
पीठ कर लेते हैं लोग न पहचान लें

सांझ जब घिरती है
चांद से निकालती है दोहरा घूंघट यह
चांद न पहचान ले, अंधेरा न जान ले
दीवार से चिपककर सांझ सोयी रहती है
करीब से एकदम अंधेरा निकल जाता है
गलियों के भ्रम में निकलता है गलियों में
घुस जाता है रास्तों में
गलती से घुस जाता है बच्चों के स्कूल बैग में
होमवर्क बाकी है
सांझ मिटती जाती है अंधेरे के अंतरतम में,
वहां जा के रहती है सांझ जब घिरती है.

2. सच्च बताना साईं

सच्चो सच्च बताना साईं
आगे-आगे क्या होना है

खेत को बीजूँ न बीजूँ
पालूँ या न पालूँ रीझें
धनिया-पुदीना बोऊँ या न बोऊँ
अफ़ीम ज़रा-सी खाऊँ या न खाऊँ
बेटियों को ससुराल से बुलाऊँ
कब ठाकुर सीमाएँ पूरे
तुम पर मैं क़ुरबान जाऊँ
आगे-आगे क्या होना है।

दरिया खड़े न हों परमेश्वर
बच्चे कहीं बेकार न बैठें
ये तेरा ये मेरा बच्चा
दोनों आँखों के ये तारे
अपने ही हैं बच्चे सारे
भरे रहें सब जग के द्वारे
भरा हुआ कोना-कोना है
आगे-आगे क्या होना है।

बहे बाज़ार बहे ये गलियाँ
घर-बाहर में महकें कलियाँ
तेरे-मेरे आंगन महकें
बेटे धीया घर में चहकें
बम-गोली-बन्दूक उतारो
इन की आँखों में न मारो
ख़ुशबुओं में राख उड़े न
आगे आगे क्या होना है

जम्मू आँखों में है रहता
यहाँ जाग कर यहीं है सोता
मैं सौदाई गली गली में
मन की तरह घिरी रहती हूँ
क्या कुछ होगा शहर मेरे का
क्या मंशा है क़हर तेरे का
अब न खेलो आँख मिचौली
आगे आगे क्या होना है

दरगाह खुली, खुले हैं मन्दिर
ह्रदय खुले हैं बाहर भीतर
शिवालिक पर पुखराज है बैठा
माथे पर इक ताज है बैठा
सब को आश्रय दिया है इसने
ईर्ष्या कभी न की है इसने
प्यार बीज कर समता बोई
आगे आगे क्या होना है

3. जाल

सुनो
सुनो तो सही
मेरे आसपास बँधा हुआ ये जाल मत तोड़ो
मैंने सारी उम्र इसमें से निकलने का यत्न किया है
इससे बँधा हुआ काँटा-काँटा मेरा परिचित है
पर ये सारे हीं काँटे मरते देखते-देखते उगे हैं
रात को सोने से पहले
मैं इनके बालों को हाथो से सहलाकर सोयी थी
और सुबह उठते हीं
इनके वो मुँह तीखे हो गये हैं
तो दोष किसका है दोस्त!

सुनो,
मिन्नत करती हूँ सुनो तो सही
मुझे फूलों की ज़रूरत नहीं है
उनके रंगों को देखकर जो ख़ुश होती
वो नज़र नहीं रही
इस जाल की ख़ुशबू मेरी साँसों में बंध गयी है
मैं फूलों को लेकर क्या करूँगी

सुनो,
मैं तुम्हारी मिन्नत करती हूँ
सुनो, मेरा जाल मत काटो
मुझे परबस रहने दो
मुझे इस जाल के भीतर
बड़ा चैन मिलता है मित्तर!

इसमें से निकलने के जितने हीले
मुझे इसके बीच रहकर सूझते हैं
इसके बाहर वो कहाँ
उम्र की यह कठिन बेला
मुझे काटने दो इस जाल के भीतर दबकर
चलो, अब दूर हो जाओ
जाल के काँटों के बहुत-से मुँह
मेरे कलेजे में खुभे हुए हैं
जाल काटते हीं अगर ये मुझमें टूट गये
तो मत पूछो क्या होगा
बुजुर्ग कहते हैं-
टूटे हुए काँटों का बड़ा दर्द होता है.

4. गूजरी

मन की निर्मल तन की उजरी
ये मेरे शहर की गूजरी
धूप की तरह ये ढल आती
साँसों की तरह ये चढ़ आती
ऊँचे-ऊँचे कठिन ये पर्वत
गूजरी के बर्तनों में भरा है
विधना द्वारा निकाला हुआ शर्बत
इसके क़दम-क़दम के बोझ से
ऊँचे पर्वत को सुख लगता
पैरों से ये दबा देती है
उसका कसा हुआ स्वस्थ बदन सा
कहीं-कहीं छलक जाते हैं दूध के बर्तन
घूँघरू इसके बटनों के छिड़ जाते तो लौ होती है
थककर इसका इसका मुँह कहता तो दिन चढ़ जाता
इस गूजरी ने कसे-कसाये तन के साथ
बर्तन यूँ सिर पर रखे हैं
जैसे नाग उठाए सिर पर धरती सारी
गेंद की तरह पहाड़ों से उतरती है गूजरी
घी में बसी हुई बालों की मींडीयाँ
हिल-हिलकर चौक रही हैं
तवी दरिया में पहुँच मुँह को मारे छट्टे
उपर उठाती मगजी वाली काली सुत्थन
तवी से बचती जाती है
दूध बेचकर भाव कर रही घुँघरुओं का
काले हरे कुंडलुओं का.

5. काला मुंह

मुझे तो किसी ने भी नहीं बताया कि
जीने की राह
गेहूं के खेत में से होकर जाती है
पर जैसे मां का दूध पीना मैंने
अपने आप सीख लिया
वैसे ही एक दिन
मैं घुटनियों चलती
गेहूं के खेत में जा पहुंची
गेहूं के साथ-साथ चने भी उगे हुए थे
मेरी मां ने
हरे-हरे चने गर्म राख में भूनकर
मुझे खाने को दिए
मैंने मुंह में चुभला कर
हंसते-हंसते फेंक दिए
अभी मेरे दांत भी नहीं आए थे
भुने हुए चनों से मेरा सारा मुंह
काला हो गया
काली लार टपकने लगी
मां ने तो मुझे यह नहीं बताया था
कि जब भी दो रोटियों की आशा में
कोई आगे बढ़ता है
उसका मुंह ज़रूर काला होता है!

6. शिलुका

देह जलाकर मैं अपनी
लौ दूं अंधेरे को
जलती-जलती हंस पडूं
जलती ही जीती हूं मैं
जैसे बटोत के जंगल में
जल रही शिलुका कोई
देवदारों की धिया (बेटी)
चीड़ों की मुझे आशीष
अंधेरे की मैं रोशनी…
जंगल का हूं मोह मैं
जो तू है वही हूं मैं
अपनी मृत्यु पर रोई
यह बस्ती टोह ली
चक्की में डालकर
बांह पीसती हूं मैं
लोक पागल हो गया
तुझे कहां ढूंढता रहा
तू तो मेरे पास था
तभी तो जीती हूं मैं
मैं एक किताब हूं
लिखा हुआ हिसाब हूं
मैं पर्णकुटिया तेरी
लाज
तुम रखना मेरी
रमिया रहीमन हूं मैं
कुछ तो यक़ीनन हूं मैं!

(शिलुका=चीड़ की लकड़ी, जो मोमबत्ती की
तरह पहाड़ों में लोग घरों में जलाते हैं।)

7. ये रास्ता

तुम्हें मालूम था
यह राह वहां नहीं निकलती
जहां पहुंचना है मैंने
तुम उस तरफ जा भी नहीं रहे थे
फिर भी तुम चलते रहे
मेरे साथ-साथ
ये राह तो समाप्त नहीं हो रही
हम दोनों प्रतीक्षा में हैं
मैं अपनी मंज़िल की
तुम मेरी राह की
जाओ तुम वापिस चले जाओ
मैं अपनी राह खुद ही ढूंढ़ लूंगी
राह न मिली तो बना लूंगी
मुझे राह बनानी आती है!

8. पहला पहर

सुबह का पहर सुबह का आसमान
उठते ही कहता है
मैं आ गया मेरी जान
थोड़ी देर में खिल जाएगा सूरज
सामने वाली पहाड़ियों के सिरों पर
बिछ जाएगा सोना
चीड़ के दरख्तों की पत्तियां
लद जाएंगी सोेने के साथ
चीड़ों के दरख्तों के पत्ते लद जाएंगे
गहनों के साथ, सौदाई हो जाएंगे
बिस्तर त्याग कर लोग
तभी नहाने के लिए चल देंगे
बज उठेंगी घंटियां, शंख और खरताल
मंदिर की सीढ़ियां चढ़ कर
नदी के सिर पर लटकता घंटा बजा कर
डरा देंगे कबूतरों को
तोते और चिड़ियों से
भर जाएगा आसमान
पंखों की उडारी के साथ
पक्षियों को गोद में लेकर
आसमान कहता है
मैं नहीं खाली
मेरी गोद बाल बच्चों से भरी हुई है
मैं भारत का आसमान हूं।

9. गरमी

ठंड गई और गरमी आई
पहले आया फागुन
चिड़ियों ने चढ़ा लिए बंगले
उठ बैठी है रोगिन
खोद रही है मिट्टी कुम्हारिन
जगह बनाए बैठने की
सुंदर सुराही, प्याले और घड़े
घड़ेयाली पर शोभें
ठंडा पानी कुएं में, छेड़खानी करती गरमी
ठंडा पानी पीकर काम पर घर से जाता करमी
शाम को अनारदाने की खुशबू कई घरों से आती
पानी पिलाती सुराहियां बाहर भी भीगी रहतीं
बूंद-बूंद इक-इक पानी की देखो सृष्टि सारी
ओक लगा कर एक सांस में पीते सब संसारी
दिन बढ़ता जैसे बढ़ता कुएं का ठंडा पानी
गरमी में यह बात भला किसे है तुम्हें सुनानी।

10. इंतजार

फागुन की ड्यौढ़ी के आगे
लग गया है पहाड़ सूखे पत्तों का
कोई तो सीधा पड़ा है
कोई गेंद-सा सिकुड़ा हुआ
कोई ले रहा है सांस धीरे-धीरे
कोई लगता बिल्कुल ही मरा हुआ
टहनियों पर नए अंकुर आने को आतुर बड़े
टहनियों पर जैसे हैं मोती जड़े
मोती उभरेंगे तभी तो इसमें आएगा निखार
हाथों की मुट्ठी है बंद
आंख बंद, मुंह मंद, कान बंद
निकलेंगे फिर धीरे-धीरे
हाथ, बाहें और इक छोटा-सा पेट
खिल गई पूरी बहार
फागुन को भी रहता है भई इंतजार
इसके आने का।

11. ये नीर कहाँ से बरसे है

ये नीर कहाँ से बरसे है
ये बदरी कहाँ से आई है

गहरे गहरे नाले गहरा गहरा पानी रे
गहरे गहरे नाले, गहरा पानी रे
गहरे मन की चाह अनजानी रे
जग की भूल-भुलैयाँ में -२
कूँज कोई बौराई है

ये बदरी कहाँ से आई है

चीड़ों के संग आहें भर लीं
चीड़ों के संग आहें भर लीं
आग चनार की माँग में धर ली
बुझ ना पाये रे, बुझ ना पाये रे
बुझ ना पाये रे राख में भी जो
ऐसी अगन लगाई है

ये नीर कहाँ से बरसे है …

पंछी पगले कहाँ घर तेरा रे
पंछी पगले कहाँ घर तेरा रे
भूल न जइयो अपना बसेरा रे
कोयल भूल गई जो घर -२
वो लौटके फिर कब आई है -२

ये नीर कहाँ से बरसे है
ये बदरी कहाँ से आई है

(चित्रपट/फ़िल्म–प्रेम पर्वत)बाल-कविताएँ पद्मा सचदेव

1. सो जा बिटिया, सो जा रानी

सो जा बिटिया, सो जा रानी,
निंदिया तेरे द्वार खड़ी।

निंदिया का गोरा है मुखड़ा
चांद से टूटा है इक टुकड़ा,
नींद की बांहों में झूलोगी
गोद में हो जाओगी बड़ी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

सपनों में बहलाएगी वो
परीलोक ले जाएगी वो,
बांहों में लेकर उड़ जाए
तुम्हें बनाकर एक परी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

निंदिया तुझे झुलाए झूला
तुझे दिखाए तेरा दूल्हा,
घोड़े पर ले जाएगा वो
अपनी दुलहिन उसी घड़ी।
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

2. जो कली सो गई रात को

जो कली सो गई रात को
फूल बन गई सुबह,
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

पत्तियों पै झुकी चांदनी
डालियों पै रुकी चांदनी,
नींद में चल रही है हवा।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

बादलों में हवा सो गई
रोशनी भी कहीं खो गई,
नींद से बुझता जाए दिया।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

रात बीतेगी, होगी सहर
फूल खिलके तू महकेगी फिर,
रंग लाएगा हर दिन नया।
मेरी लाडली, तू भी सो जा।

मेरी कविता मेरे गीत – पद्मा सचदेव

भादों

भादों ने गुस्से में आाकर जब खिड़कियाँ तोड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।

सावन की बौछारें भरी दुपहरी में चलकर आईं
मिट्टी की पूरी दीवार गीली हो गई
दीवार पर पूता मकील (स्फेद मिट्टी) रो उठा
बाहिर घड़ियाली (घड़ा रखने का ऊँचा स्थान) भी सीलन से भर उठी
बादल ने जब दीवार पर बनी लकीरें मिटा दीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।

बादल ने बेशुमार रंग बदले
कहीं सात रंगों वाली पेंग कहीं घनी बदली
मेरा ये दालान कभी चाँदनी से भर उठा, कभी अंधेरे से
बाहर कच्ची रसोई की मिट्टी ज़रा ज़रा गिरती रही
कहीं कुँआरी आशायों की उन्मुकत हँसी बिखर गई
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।

ऊपर के चोगान में जोर की बौछार पड़ी
मेरे घर के शाहतीरों का कोमल मन डर से काँप उठा
हवा के डर से कहीं आम की टहनियाँ श्रौर बेरी के दरख्त
जोर-जोर से आहें भरने लगे
निढाल और चूर हुई कूंजें एकाएक उड़ीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।

छोटे-छोटे पत्तों में ठंड उतर आई
मुए थर-थर काँपते हुए नीले हो गए
मानो माँ ने बाँह से पकड़कर जबरदस्ती नहलाया हो
और नहाने से सुन्दरता को और रूप चढ गया
बेलों से जब वृक्षों ने कलियाँ उधार माँगीं
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है ।

वारिश के जोर-जोर से दौड़ने की आवाज के सिवा सब सूना है
कोई और आवाज सुनाई नहीं पड़ती मानो सृष्टि सो रही है
टप-टप-टप किसी सवार के घोड़े की ठापों की आवाज है क्या?
ओह ये तो ऊपर के दालान से कोई पड़छत्ती चू रही है
मेरी तरह अपने-आपसे जब उसने बातें की
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।

वारिश के बाद आसमान निखर आया
पक्षी पंक्तिवद्ध होकर उड़े।
ड्योढ़ी की दहलीज से जब एड़ियाँ उठाकर दूर देखती हूं
तो पहाड़ों के ऊपर से होकर दूर तक जाते बादल दिखाई देते हैं
धूप ने परदेसियों के लिए जब गलियाँ संवार दी
तब मुझे यों लगा जैसे कोई आया है।

सखि वे दिन कैसे थे !

सखि वे दिन कैसे थे, वह वक्त कैसा वक्त था
जब कड़वी बात न किसी को कही थी न सुनी थी
चिन्ता चिता के समान न थी चिन्ता के विषय में कुछ पता न था
वे दिन कितने मीठे थे, सभी कुछ सुन्दर दिखाई देता था
घाव कभी होता ही न था, होता भी था तो झट भर जाता था
अब ये कैसे घाव लगे हैं, इनका मरहम नहीं मिलता
इनका रिसना बन्द नहीं होता, इनका दर्द खाए जाता है
सखि वे दिन कैसे थे !

स्वप्न में सारे आकाश की परिक्रमा ले लिया करते ये
रात, अपने सौंन्दर्य से छल जाती थी, दिन भी बड़े लुभावने थे
धरती छोटी-सी लगती थी, रोज ही पूरी नाप लेते थे
आकाश एक पतंग जितना था उसकी डोर बड़ी लंबी बनवाते थे
वृक्षों के सिरे पर चढकर कितने ही पत्ते नीचे गिराए थे
सब बटवारा कितना सच्चा था, प्यार के रंग कितने गाढ़े थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे !

वे दिन इतने खाली न थे जिन्दगी इतनी भारी न थी
दिन अपने परवश न थे, रातों पर किसी का अधिकार न था
चट्टानों पर भी नींद आकर मीठी लोरी सुनाती थी
सेन्थे (पौधा) की कलियाँ झुमके थे, कोई भी लकीर बिन्दीव थी
अपना सौन्दर्य अनोखा था बावड़ी में से झांककर देखते थे
आँखों में सुरमा डालने का ढंग चोरी-चोरी सीखते थे
सखि वे दिन कैसे दिन थे !

वे दिन कितने छोटे दिन थे चाँद और सूरज में साँझ थी
हर गुड़िया इक सुन्दर हीर थी, हर मनुष्य राँझा था
बड़े होने की एक आशा जगह-जगह छल जाती थी
हर आशा उम्र के संग बड़ी होकर उसकी तरह जवान होती जाती थी
विधाता की वह सुन्दर छलना आज भी याद आती है
बचपन में परवान चढ़ा हर महल मुंडेर गिरता लगता है
सखि वे दिन कैसे दिन थे !

बरछी बनकर वे यादें कलेजे में धंस रही हैं
दिन और रात बौराए हुए हैं, समय डंक मार रहा है
अब न वह वसन्तर आयगा, न ही वह गुलाबी वैसाखी
इस जन्म में वह उम्र अब मेरे घर कभी नहीं आएगी
सफर के शुरू में विधाता क्या रंग दिखाता है
बचपन के कोमल दिनों में क्या-क्या रोल खिलाता है
सखि वे दिन कैसे थे
वह वक्त कैसा था !

काश

जो मैं किसी अंधेरे वन के
एक कोने में भुर्जी होती
जो मैं उतनी धरती होती
जितनी पर प्रियतम तुम चलते
घास बनूं उग जाऊं तेरे सारे जूठे वरतन मल दूं
मार-पीटकर कोई मानव
मुझे बनाए कागज कोरा
हाथों से मुझको थामे तुम
गहरी सोच मुझी पर लिखते
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता

किसी कपास के पौधे की मैं कली जो होती
कोई मेरे-जैसी चरखा
कात-कातकर कपड़ा बुनती
कोई दर्जी कुरता सीकर
भरे बाज़ार में बोली देता
दो धागों की मिन्नत सुनकर
तुम अनजाने में ले लेते
पता तुम्हें कुछ भी न चलता
तेरे अंग संग मैं रहती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता

किसी पहाड़ी वन प्रदेश में
जो मैं इक झरना ही होती
सखियों को लेकर संग अपने
गाती-गाती आगे बढ़ती
पत्तों और पत्थर के ऊपर
लगा छलांगें खोह लांघती
तुम राही होते रस्ते के
दो घूंटों में होंठ छुआते
ठंडी-ठंडी हवा मैं बनकर
तेरे बालों को सहलाती
मेरी कामना पूरी होती
मेरा प्यार मुझे मिल जाता

डोली

अंधेरा पहाड़ी के ऊपर सहम-सहम कर चढ़ रहा है
पर्वतों की चोटियों पर चाँद का प्रकाश छन-छन कर आ रहा है
पहरा देते वृक्ष सुबह होने की प्रतीक्षा में हैं
इस जगह का सुनसान वातावरण किसी आशा में स्तब्ध है
हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता, कान में कोई आवाज नहीं पड़ती
क्या रानी क्या दासी सभी साँस रोके प्रतीक्षा में हैं
पहाड़ के पीछे से चाँद हँसता हुआ धीरे-धीरे ऐसे उगता है
जैसे नई दुलहिन मुँह दिखाने के लिए धीरे-धीरे घृंघट उठा रही हो
यह वासन्ती चाँद इसका अंग-अंग पीला है
किसी के वियोग में सूखकर कांटा हो गया है
या हो सकता है तपेदिक ने इसका ऐसा हाल किया हो
किसी का दिया हुआ शाप प्रत्यक्ष फल रहा है
जैसे जल्दी में कहार मेरी डोली लेकर दौड़ते हैं
वैसी ही जल्दी में ये भी संग-संग चलता है

इस राह में इतनी सुनसान है
कि कोई पत्ता तक नही हिलता
कहार जब तेजी से कदम उठाते हैं
तो मेरा मन काँप-काँप जाता है
इस अंधेरे में मैं वह हाथ ढूंढ रही हूँ
जो फेरों के समय मेरे हाथ में था
वह शब्द ढूंढ रही हूँ
जो आहुतियों के संग बोले गए थे
मैं वह गठबंधन ढूंढ रही हूँ
जो इस जीवन के साथ निभना है
मैं वह कहानी ढूंढ़ रही हूँ
जिसे यह कलम लिखेगी

माँ की पहचान

यदि वह किसी को देखकर हंसती है
तो तेरे होंठ अपने-आप खुल जाते हैं
अगर वह किसी को देखकर गुस्सा होती हैं
तो तेरे आँसू अनायास ही ढुलक पड़ते हैं
अगर वह खटोले पर बैठी दिखाई देती है
तो तुम भी वाही पकड़कर खड़े होने का यत्न करते हो
उसे खाली बैठी देखकर तुम उसके आंचल में छुप जाते हो
जब पीढ़ी पर डालकर झूलाती रहती है तो
कितने प्यार से कसकर तुम उसका हाथ थामे रहते हो
वह भी लोरियाँ गाते-गाते तेरी झाँखों में झाँकती रहती है

वह तुम्हें अकेले में कहीं छोड़ कर जाए तो
तुम झाँक-झाँककर बाहर देखते हो
चारपाई के नीचे, अन्दर बाहर पिछवाड़े में
आने-जाने वालों को परखते हो
थोड़ी देर में जब वह वापिस आती है
तो तुम उसकी आँखों में जग रही ममता की
अनोखी ज्योति से उसे पहचान जाते हो

मन उसका है ये छोटे-छोटे हाथ उसीके हैं
आशा से भरी झांकियाँ उसीकी हैं
मुंह में डाले हुए छोटे-छोटे पाँव
और काली विरारी लटें सब उसीकी हैं।

गीत-भगवान्‌ मुझे, गर्मी का मौसम दो

भगवान्‌ मुझे, गर्मी का मौसम दो, दु:ख सुख दो
परन्तु मैके से हमेशा मुझे ठंडी हवा आए
सुख का संदेशा आवे

कोई उड़ता पक्षी कभी मेरे घर के ऊपर से गुजरे
या कोई योगी भिक्षा माँगता हुआ आवे
मेरी मां का कोई संदेशा हो तो यही हो
कि तेरे भाई राजी-खुशी हैं ।

ससुराल जाती बेटियों का मन कौन देख सका है
फिर आने की आशा कब है कौन जाने
मन छोटा-छोटा होता है, गले में कुछ फंस गया है
मेरी भाभी को ज़रा सी खरोंच भी न लगे

माँ मुझे पहाड़ों में रहने का चाव है
मुझे पहाड़ों की ठंडी हवा भेज दो
जो साथ में चंपा की महक भी लाए
मुझसे चंबा शहर का सुख संदेशा कहे

गाड़ी दौड़ रही है गलियाँ दूर हो गई हैं
बिना दोष के बेटियाँ परदेसी हो गई हैं
मैं देश विदेश की कूंजड़ी हूँ
मुझे अपने देश की ठंडी हवा आए ।

ये राजा के महले क्या आपके हैं?

ये राजा के महले क्या आपके हैं?

मैं घर से बेघर हो चुकी हूँ
मेरी आँखों की ज्योति छिन चुकी है
मुझे अंधी करके जो फेंक गए हैं
मेरे बागीचे से जो मेरा पौधा उखाड़ कर ले गए
मेरे पौधे को बौर भी पड़ा न था
मेरा साजन बहुत दूर भी तो न गया था
जिन्होंने काँपती टहनियाँ काट लीं
वे हँसुली वे दराँतियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

ये ऊँची दीवारें आकाश छूती हैं
महल माल व खजाने से मालामाल हैं
ये ईंटें इनका लाल रंग मन को भाता है
हमारे लहू की याद आती है
हमारे शरीर से पसीने की नदियाँ यहीं बही थीं
हमारे कंधों से शहतीर यहीं उतारे गये थे
धूप सहकर जिन्होंने ये दीवारें कायम कीं
क्या ये उनके महल आपके हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

बहरे कानों में भी तोप कह गई
मैं आज भी बारह बजा चुकी हूँ
मेरे चाँद के चढ़ने की बेला है
पर गली में कोई आहट नहीं हुई
न मेरे पाँव ही दौड़कर प्रियतम को लेने गये
प्रियतम की रोज़ ही सुनाई पड़ने वाली
आवाज़ सहन नहीं होती
आधे रास्ते ही से जो घेरकर ले गई
वे लोहे की कड़ियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

जिन्होंने हमारे खून के दिये जलाकर
अंधेरी रात में उजाला किया हुआ है
चाँद का गठबंधन थामे चाँदनी हँस रही है
हमें दूर से देखती है, और हमारी हँसी उड़ाती है
जब आसमान पर आतिशबाजियाँ
और गोले छोड़े जाते हैं
तब हमारे मन के तारे टूट जाते हैं
हमारे नन्हे बच्चे जिन्हें हैरान होकर देख रहे हैं
सौन्दर्य से भरपूर वे दीवालियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

जिन्हें खोद-खोदकर हमने बीज और खाद डाले
जिनके मिट्टी के घरौंदों का गँदला जल पिया
जिनको धूप में पानी देकर सीचा था
प्रियतम सूखा मुँह देखकर नाराज़ भी हुए थे
जिनके अंकुरित होने पर मन खिल उठा था
और बौर पड़ने पर हमारी दीवाली हुई थी
किसी की क्रोध से घूरती आँखों ने
हमारी आँखों से पूछा
ये सुन्दर क्यारियाँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

जिस पर किसी का अधिकार हो चुका है
छोटो अवस्था से ही जिसे कोई ले गया है
जिसे देखकर नयन हर्ष से खिल उठे हैं
जिसकी याद में दिन और रात में कोई अन्तर
नहीं दिखाई देता
जिसका नाम लेकर हर कोई छेड़ जाता है
जो कब की कौल-करार किये बैठी हैं
वे आत्माएँ क्या आपकी हैं?
ये राजा के महल क्या आपके हैं?

तेरी बातें ही सुनाने आए (रुबाइयाँ) – पद्मा सचदेव

आये हैं पहाड़ जान आ गयी
देह में सुख मीठा-मीठा भर गयी
थक गयी है ज़िंदगी देते हिसाब
बीजों की तरह थे बिखरे घर कई

आज न आयी तो कल रखो उम्मीद
गुंजलक से भरी पगडंडी अजीब
देखा-देखी तो बलम हो जाने दो
तेरे हाथों में नहीं मेरा नसीब

उबली, खौलकर ये बाहर आयी है
कविता है उधार की न जाई है
पानियों के नीचे से भी कई हाथ
डूब कर होती ये पार आयी है

एक धारा दो जगह बहना पड़ा
एक दूजे को भी यूं उगना पड़ा
सासरे में मैके की चिन्ता रही
यहां सोई तो वहां जगना पड़ा

चाव से देखा कि चढ़ आया है दिन
धीरे-धीरे मुट्ठी से गिर आये खिन
धूप मुंह पर फिर मली तो यूं लगा
कम किया चढ़ता हुआ मृत्यु का ऋण

चित्त में यादें तेरी, मेरा स्वभाव
गूंगा कुछ तो मांगता है पर है क्या
यादों के आंगन में बेवजह बहसें
बातों के वो तथ्य क्या पाये भला

चुपचाप खड़ा है लम्बा खजूर
ख़्वाब में कोई परी या कोई हूर
तोड़ता है कौन पक्के फल वहां
जाग रहे हो या सोये हो हज़ूर

ज़िंदगी दुखती हुई एक रग़ मुई
आह भर कर बैठी हुई चीड़-सी
ये कभी भी उबलता चिनाब-सा
आज बहती मोरी से धारा कोई

ज़िंदगी में झूठ हैं सच हैं कई
तुझसे बढ़कर कई सच है ही नहीं
इससे-उससे सबसे ही ऊपर है तू
सोच कर देखा तो तू कुछ भी नहीं

ज़िंदगी ये समय गुज़र जाए बस
एक बार पार ही हो जाऊं बस
फिर कभी आना ही पड़े तो सजन
फांस कोई गले में न डालूं बस

झांकता पहाड़ियों से कौन है
मानो बुलाता मुझे एक मौन है
राहों के बल हो गयीं पगडंडियां
मेरी मति मार गया कौन है

तड़प कर रह गयी हूं इस जाल में
टहनी उग कर फंस गयी जंजाल में
वृक्ष का कन्धा या मां की कोख थी
अटक कर भटकी हूं मायाजाल में

तान कर जो पांव लेटा सो गया
धरती पर एक दाग़ जैसा हो गया
रहगुज़र ही रहगुज़र है समझ कर
सर झुका कर रहगुज़र ही हो गया

फट गया अम्बर तो सीने लगी हूं
उधड़ा था रिश्ता जो जीने लगी हूं
चांदनी आंगन के बिछती जा रही
चाक अंधेरों के सीने लगी हूं

बरसती बारिश ये ख़बर लाई है
झोंपड़ी एक मेह में ढह आयी है
रह गयी मलबे में दबी सांस एक
उड़ती-उड़ती हवा भी कह आयी है

मेरे आंगन चांद रहता खेलता
मां की रसोई में रोटी बेलता
आसमां पर बैठ चिढ़ाता मुझे
मैं तुझे क्या जानूं मुन्ना-सा मेरा

याद तेरी बारिशों की रात है,
पूरी रात में हुई इक बात है
टुकड़े-टुकड़े कर लो रात के सखि।
देखो कितनी लंबी यह कमजात है।

सांस ली वृक्षों ने पत्ते कांप गये
वादे जितने भी थे सारे मिट गये
पक्षियों ने हाथ सिकोड़े हैं जब
टहनियों के अंग सब घायल हुए

सांसों की कोसी सी गरमी छू गयी
कोंपलों पर हिलती पहछाई रही
चारों दिशाओं का भीगा है माहौल
हवा इधर उधर कुरलाती फिरी

हिल रहे पत्ते सभी यहां-तहां
लोग कुछ छुपे हुए शायद वहां
आसरा जिनका है डर उनका ही है
वो न शर्मिंदा करें कहां-कहां

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