Atal Bihari Vajpayee Poem – इस पोस्ट में आपको Atal Bihari Vajpayee Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. वाजपेयी जी एक कवि के साथ पत्रकार एवं एक प्रखर वक्ता थे. अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर के शिंदे छावनी में हुआ था.
अटल बिहारी वाजपेयी भारत के दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं. पहली बार 16 मई 1996 से 1 जून 1996 और दूसरी बार 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक वह भारत के प्रधानमंत्री थे. अटल बिहारी वाजपेयी को वर्ष 2014 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया. 16 अगस्त 2018 को इनका दिल्ली में निधन हो गया.
अब आइए नीचे कुछ Atal Bihari Vajpayee Poems in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएँ, Atal Bihari Vajpayee Poem
1. आओ फिर से दिया जलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
2. गीत नहीं गाता हूँ
बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ ।
गीत नही गाता हूँ ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ ।
पीठ मे छुरी सा चाँद,
राहु गया रेखा फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ ।
3. पहचान
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।
कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।
किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।
आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?
जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।
आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।
धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने।
आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है।
4. हरी हरी दूब पर
हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं।
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं।
क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदों को ढूंढूँ?
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?
सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी।
5. न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
6. आओ, मन की गांठें खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास–फूस का घर डाँडे पर,
गोबर से लीपे आँगन मेँ,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे-चौपाई रस घोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
बाबा की बैठक मेँ बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालोँ के मन मेँ
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, स्वयम से बोलें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे का चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें!
आओ, मन की गांठें खोलें!
7. मोड़ पर
मुझे दूर का दिखाई देता है,
मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ,
मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ पाता।
सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दिखाई देते हैं।
पर पांवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख
नज़र नहीं आती ।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ?
हर पच्चीस दिसम्बर को
जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ
नए मोड़ पर
औरों से कम
स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ।
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ,
मगर अपने को जवाब नही दे पाता,
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर,
जब जिरह करता है,
मेरा हल्फनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है,
तो मैं मुकद्दमा हार जाता हूँ,
अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ।
तब मुझे कुछ दिखाई नही देता,
न दूर का, न पास का,
मेरी उम्र अचानक दस साल बड़ी हो जाती है,
मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।
8. नए मील का पत्थर
नए मील का पत्थर पार हुआ।
कितने पत्थर शेष न कोई जानता?
अन्तिमनए मील का पत्थर पार हुआ।
कितने पत्थर शेष न कोई जानता?
अन्तिम कौन पडाव नही पहचानता?
अक्षय सूरज , अखण्ड धरती,
केवल काया , जीती मरती,
इसलिये उम्र का बढना भी त्यौहार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ।
बचपन याद बहुत आता है,
यौवन रसघट भर लाता है,
बदला मौसम, ढलती छाया,
रिसती गागर , लुटती माया,
सब कुछ दांव लगाकर घाटे का व्यापार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ।
9. हिरोशिमा की पीड़ा
किसी रात को
मेरी नींद अचानक उचट जाती है
आँख खुल जाती है
मैं सोचने लगता हूँ कि
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का
आविष्कार किया था
वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण
नरसंहार के समाचार सुनकर
रात को कैसे सोए होंगे?
दाँत में फँसा तिनका,
आँख की किरकिरी,
पाँव में चुभा काँटा,
आँखों की नींद,
मन का चैन उड़ा देते हैं।
सगे-संबंधी की मृत्यु,
किसी प्रिय का न रहना,
परिचित का उठ जाना,
यहाँ तक कि पालतू पशु का भी विछोह
हृदय में इतनी पीड़ा,
इतना विषाद भर देता है कि
चेष्टा करने पर भी नींद नहीं आती है।
करवटें बदलते रात गुजर जाती है।
किंतु जिनके आविष्कार से
वह अंतिम अस्त्र बना
जिसने छह अगस्त उन्नीस सौ पैंतालीस की काल-रात्रि को
हिरोशिमा-नागासाकी में मृत्यु का तांडव कर
दो लाख से अधिक लोगों की बलि ले ली,
हजारों को जीवन भर के लिए अपाहिज कर दिया।
क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही
ये अनुभूति नहीं हुई कि
उनके हाथों जो कुछ हुआ
अच्छा नहीं हुआ!
यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा
किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें
कभी माफ़ नहीं करेगा!
10. मैं सोचने लगता हूँ
तेज रफ्तार से दौड़ती बसें,
बसों के पीछे भागते लोग,
बच्चे सम्हालती औरतें,
सड़कों पर इतनी धूल उड़ती है
कि मुझे कुछ दिखाई नहीं देता ।
मैं सोचने लगता हूँ ।
पुरखे सोचने के लिए आँखें बन्द करते थे,
मै आँखें बन्द होने पर सोचता हूँ ।
बसें ठिकानों पर क्यों नहीं ठहरतीं ?
लोग लाइनों में क्यों नहीं लगते ?
आखिर यह भागदौड़ कब तक चलेगी ?
देश की राजधानी में,
संसद के सामने,
धूल कब तक उड़ेगी ?
मेरी आँखें बन्द हैं,
मुझे कुछ दिखाई नहीं देता ।
मैं सोचने लगता हूँ ।
11. राह कौन सी जाऊँ मैं?
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
12. मौत से ठन गई
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
13. जीवन बीत चला
जीवन बीत चला
कल कल करते आज
हाथ से निकले सारे
भूत भविष्य की चिंता में
वर्तमान की बाज़ी हारे
पहरा कोई काम न आया
रसघट रीत चला
जीवन बीत चला
हानि लाभ के पलड़ों में
तुलता जीवन व्यापार हो गया
मोल लगा बिकने वाले का
बिना बिका बेकार हो गया
मुझे हाट में छोड़ अकेला
एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला
14. दूर कहीं कोई रोता है
दूर कहीं कोई रोता है ।
तन पर पैहरा भटक रहा मन,
साथी है केवल सूनापन,
बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का,
क्रंदन सदा करूण होता है ।
जन्म दिवस पर हम इठलाते,
क्यों ना मरण त्यौहार मनाते,
अन्तिम यात्रा के अवसर पर,
आँसू का अशकुन होता है ।
अन्तर रोयें आँख ना रोयें,
धुल जायेंगे स्वपन संजाये,
छलना भरे विश्व में केवल,
सपना ही सच होता है ।
इस जीवन से मृत्यु भली है,
आतंकित जब गली गली है,
मैं भी रोता आसपास जब,
कोई कहीं नहीं होता है ।
15. झुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
16. मन का संतोष
पृथिवी पर
मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है,
जो भीड़ में अकेला, और,
अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है ।
मनुष्य को झुण्ड में रहना पसंद है ।
घर-परिवार से प्रारम्भ कर,
वह बस्तियाँ बसाता है ।
गली-ग्राम-पुर-नगर सजाता है ।
सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में,
संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ,
प्रकृति पर विजय,
मृत्यु को मुट्ठी में करना चाहता है ।
अपनी रक्षा के लिए
औरों के विनाश के सामान जुटाता है ।
आकाश को अभिशप्त,
धरती को निर्वसन,
वायु को विषाक्त,
जल को दूषित करने में संकोच नहीं करता ।
किंतु, यह सब कुछ करने के बाद
जब वह एकान्त में बैठकर विचार करता है,
वह एकान्त, फिर घर का कोना हो,
या कोलाहल से भरा बाजार,
या प्रकाश की गति से तेज उड़ता जहाज,
या कोई वैज्ञानिक प्रयोगशाला,
था मंदिर
या मरघट ।
जब वह आत्मालोचन करता है,
मन की परतें खोलता है,
स्वयं से बोलता है,
हानि-लाभ का लेखा-जोखा नहीं,
क्या खोया, क्या पाया का हिसाब भी नहीं,
जब वह पूरी जिंदगी को ही तौलता है,
अपनी कसौटी पर स्वयं को ही कसता है,
निर्ममता से निरखता, परखता है,
तब वह अपने मन से क्या कहता है !
इसी का महत्त्व है, यही उसका सत्य है ।
अंतिम यात्रा के अवसर पर,
विदा की वेला में,
जब सबका साथ छूटने लगता है,
शरीर भी साथ नहीं देता,
तब आत्मग्लानि से मुक्त
यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है
कि उसने जीवन में जो कुछ किया,
सही समझकर किया,
किसी को जानबूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं,
सहज कर्म समझकर किया,
तो उसका अस्तित्व सार्थक है,
उसका जीवन सफ़ल है ।
उसी के लिए यह कहावत बनी है,
मन चंगा तो कठौती में गंगाजल है ।
17. दूध में दरार पड़ गई
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
18. कौरव कौन, कौन पांडव
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है।
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है।
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है।
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है।
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है।
19. ऊँचाई
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
20. गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
21. कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
22. पुनः चमकेगा दिनकर
आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;
कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर।
23. जीवन की ढलने लगी साँझ
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
24. एक बरस बीत गया
एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
25. आए जिस-जिस की हिम्मत हो
हिन्दु महोदधि की छाती में धधकी अपमानों की ज्वाला
और आज आसेतु हिमाचल मूर्तिमान हृदयों की माला ।
सागर की उत्ताल तरंगों में जीवन का जी भर कृन्दन
सोने की लंका की मिट्टी लख कर भरता आह प्रभंजन ।
शून्य तटों से सिर टकरा कर पूछ रही गंगा की धारा
सगरसुतों से भी बढ़कर हा आज हुआ मृत भारत सारा ।
यमुना कहती कृष्ण कहाँ है, सरयू कहती राम कहाँ है
व्यथित गण्डकी पूछ रही है, चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ है?
अर्जुन का गांडीव किधर है, कहाँ भीम की गदा खो गयी
किस कोने में पांचजन्य है, कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?
अगणित सीतायें अपहृत हैं, महावीर निज को पहचानो
अपमानित द्रुपदायें कितनी, समरधीर शर को सन्धानो ।
अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले पौरुष फिर से जागो
क्षत्रियत्व विक्रम के जागो, चणकपुत्र के निश्चय जागो ।
कोटि कोटि पुत्रो की माता अब भी पीड़ित अपमानित है
जो जननी का दुःख न मिटायें उन पुत्रों पर भी लानत है ।
लानत उनकी भरी जवानी पर जो सुख की नींद सो रहे
लानत है हम कोटि कोटि हैं, किन्तु किसी के चरण धो रहे ।
अब तक जिस जग ने पग चूमे, आज उसी के सम्मुख नत क्यों
गौरवमणि खो कर भी मेरे सर्पराज आलस में रत क्यों?
गत गौरव का स्वाभिमान ले वर्तमान की ओर निहारो
जो जूठा खा कर पनपे हैं, उनके सम्मुख कर न पसारो ।
पृथ्वी की संतान भिक्षु बन परदेसी का दान न लेगी
गोरों की संतति से पूछो क्या हमको पहचान न लेगी?
हम अपने को ही पहचाने आत्मशक्ति का निश्चय ठाने
पड़े हुए जूठे शिकार को सिंह नहीं जाते हैं खाने ।
एक हाथ में सृजन दूसरे में हम प्रलय लिए चलते हैं
सभी कीर्ति ज्वाला में जलते, हम अंधियारे में जलते हैं ।
आँखों में वैभव के सपने पग में तूफानों की गति हो
राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रुकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो ।
26. कण्ठ-कण्ठ में एक राग है
माँ के सभी सपूत गूँथते ज्वलित हृदय की माला।
हिन्दुकुश से महासिंधु तक जगी संघटन-ज्वाला।
हृदय-हृदय में एक आग है, कण्ठ-कण्ठ में एक राग है।
एक ध्येय है, एक स्वप्न, लौटाना माँ का सुख-सुहाग है।
प्रबल विरोधों के सागर में हम सुदृढ़ चट्टान बनेंगे।
जो आकर सर टकराएंगे अपनी-अपनी मौत मरेंगे।
विपदाएँ आती हैं आएँ, हम न रुकेंगे, हम न रुकेंगे।
आघातों की क्या चिंता है ? हम न झुकेंगे, हम न झुकेंगे।
सागर को किसने बाँधा है ? तूफानों को किसने रोका।
पापों की लंका न रहेगी, यह उचांस पवन का झोंका।
आँधी लघु-लघु दीप बुझाती, पर धधकाती है दावानल।
कोटि-कोटि हृदयों की ज्वाला, कौन बुझाएगा, किसमें बल ?
छुईमुई के पेड़ नहीं जो छूते ही मुरझा जाएंगे।
क्या तड़िताघातों से नभ के ज्योतित तारे बुझ पाएँगे ?
प्रलय-घनों का वक्ष चीरकर, अंधकार को चूर-चूर कर।
ज्वलित चुनौती सा चमका है, प्राची के पट पर शुभ दिनकर।
सत्य सूर्य के प्रखर ताप से चमगादड़ उलूक छिपते हैं।
खग-कुल के क्रन्दन को सुन कर किरण-बाण क्या रुक सकते हैं ?
शुध्द हृदय की ज्वाला से विश्वास-दीप निष्कम्प जलाकर।
कोटि-कोटि पग बढ़े जा रहे, तिल-तिल जीवन गला-गलाकर।
जब तक ध्येय न पूरा होगा, तब तक पग की गति न रुकेगी।
आज कहे चाहे कुछ दुनिया कल को बिना झुके न रहेगी।
27. मातृपूजा प्रतिबंधित
पुष्प कंटकों में खिलते हैं,
दीप अंधेरों में जलते हैं ।
आज नहीं , प्रह्लाद युगों से,
पीड़ाओं में ही पलते हैं ।
किन्तु यातनाओं के बल पर,
नहीं भावनाएँ रूकती हैं ।
चिता होलिका की जलती है,
अन्यायी कर ही मलते हैं ।
28. सत्ता
मासूम बच्चों,
बूढ़ी औरतों,
जवान मर्दों की लाशों के ढेर पर चढ़कर
जो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैं
उनसे मेरा एक सवाल है :
क्या मरने वालों के साथ
उनका कोई रिश्ता न था?
न सही धर्म का नाता,
क्या धरती का भी संबंध नहीं था?
पृथिवी मां और हम उसके पुत्र हैं।
अथर्ववेद का यह मंत्र
क्या सिर्फ जपने के लिए है,
जीने के लिए नहीं?
आग में जले बच्चे,
वासना की शिकार औरतें,
राख में बदले घर
न सभ्यता का प्रमाण पत्र हैं,
न देश-भक्ति का तमगा,
वे यदि घोषणा-पत्र हैं तो पशुता का,
प्रमाश हैं तो पतितावस्था का,
ऐसे कपूतों से
मां का निपूती रहना ही अच्छा था,
निर्दोष रक्त से सनी राजगद्दी,
श्मशान की धूल से गिरी है,
सत्ता की अनियंत्रित भूख
रक्त-पिपासा से भी बुरी है।
पांच हजार साल की संस्कृति :
गर्व करें या रोएं?
स्वार्थ की दौड़ में
कहीं आजादी फिर से न खोएं।
29. अमर है गणतंत्र
राजपथ पर भीड़, जनपथ पड़ा सूना,
पलटनों का मार्च, होता शोर दूना।
शोर से डूबे हुए स्वाधीनता के स्वर,
रुद्ध वाणी, लेखनी जड़, कसमसाता डर।
भयातांकित भीड़, जन अधिकार वंचित,
बन्द न्याय कपाट, सत्ता अमर्यादित।
लोक का क्षय, व्यक्ति का जयकार होता,
स्वतंत्रता का स्वप्न रावी तीर रोता।
रक्त के आँसू बहाने को विवश गणतंत्र,
राजमद ने रौंद डाले मुक्ति के शुभ मंत्र।
क्या इसी दिन के लिए पूर्वज हुए बलिदान?
पीढ़ियां जूझीं, सदियों चला अग्नि-स्नान?
स्वतंत्रता के दूसरे संघर्ष का घननाद,
होलिका आपात् की फिर माँगती प्रह्लाद।
अमर है गणतंत्र, कारा के खुलेंगे द्वार,
पुत्र अमृत के, न विष से मान सकते हार।
30. उनकी याद करें
जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।
याद करें काला पानी को,
अंग्रेजों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर से बलिदानी को।
याद करें बहरे शासन को,
बम से थर्राते आसन को,
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू
के आत्मोत्सर्ग पावन को।
अन्यायी से लड़े,
दया की मत फरियाद करें।
उनकी याद करें।
बलिदानों की बेला आई,
लोकतंत्र दे रहा दुहाई,
स्वाभिमान से वही जियेगा
जिससे कीमत गई चुकाई
मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,
युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,
कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी
मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।
अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में
क्यों अवसाद करें?
उनकी याद करें।
31. गगन मे लहरता है भगवा हमारा
गगन में लहरता है भगवा हमारा ॥
गगन मे लहरता है भगवा हमारा ।
घिरे घोर घन दासताँ के भयंकर
गवाँ बैठे सर्वस्व आपस में लडकर
बुझे दीप घर-घर हुआ शून्य अंबर
निराशा निशा ने जो डेरा जमाया
ये जयचंद के द्रोह का दुष्ट फल है
जो अब तक अंधेरा सबेरा न आया
मगर घोर तम मे पराजय के गम में विजय की विभा ले
अंधेरे गगन में उषा के वसन दुष्मनो के नयन में
चमकता रहा पूज्य भगवा हमारा॥१॥
भगावा है पद्मिनी के जौहर की ज्वाला
मिटाती अमावस लुटाती उजाला
नया एक इतिहास क्या रच न डाला
चिता एक जलने हजारों खडी थी
पुरुष तो मिटे नारियाँ सब हवन की
समिध बन ननल के पगों पर चढी थी
मगर जौहरों में घिरे कोहरो में
धुएँ के घनो में कि बलि के क्षणों में
धधकता रहा पूज्य भगवा हमारा ॥२॥
मिटे देवाता मिट गए शुभ्र मंदिर
लुटी देवियाँ लुट गए सब नगर घर
स्वयं फूट की अग्नि में घर जला कर
पुरस्कार हाथों में लोंहे की कडियाँ
कपूतों की माता खडी आज भी है
भरें अपनी आंखो में आंसू की लडियाँ
मगर दासताँ के भयानक भँवर में पराजय समर में
अखीरी क्षणों तक शुभाशा बंधाता कि इच्छा जगाता
कि सब कुछ लुटाकर ही सब कुछ दिलाने
बुलाता रहा प्राण भगवा हमारा॥३॥
कभी थे अकेले हुए आज इतने
नही तब डरे तो भला अब डरेंगे
विरोधों के सागर में चट्टान है हम
जो टकराएंगे मौत अपनी मरेंगे
लिया हाथ में ध्वज कभी न झुकेगा
कदम बढ रहा है कभी न रुकेगा
न सूरज के सम्मुख अंधेरा टिकेगा
निडर है सभी हम अमर है सभी हम
के सर पर हमारे वरदहस्त करता
गगन में लहरता है भगवा हमारा॥४॥
32. कोटि चरण बढ़ रहे ध्येय की ओर निरन्तर
यह परम्परा का प्रवाह है, कभी न खण्डित होगा।
पुत्रों के बल पर ही मां का मस्तक मण्डित होगा।
वह कपूत है जिसके रहते मां की दीन दशा हो।
शत भाई का घर उजाड़ता जिसका महल बसा हो।
घर का दीपक व्यर्थ, मातृ-मंदिर में जब अंधियारा।
कैसा हास-विलास कि जब तक बना हुआ बंटवारा?
किस बेटे ने मां के टुकड़े करके दीप जलाए?
किसने भाई की समाधि पर ऊंचे महल बनाए?
सबल भुजाओं में रक्षित है नौका की पतवार।
चीर चलें सागर की छाती, पार करें मंझधार।
…ज्ञान-केतु लेकर निकला है विजयी शंकर।
अब न चलेगा ढोंग, दम्भ, मिथ्या आडम्बर।
अब न चलेगा राष्ट्र प्रेम का गर्हित सौदा।
यह अभिनव चाणक्य न फलने देगा विष का पौधा।
तन की शक्ति, हृदय की श्रद्धा, आत्म-तेज की धारा।
आज जगेगा जग-जननी का सोया भाग्य सितारा।
कोटि पुष्प चढ़ रहे देव के शुभ चरणों पर।
कोटि चरण बढ़ रहे ध्येय की ओर निरन्तर।
33. जम्मू की पुकार
अत्याचारी ने आज पुनः ललकारा, अन्यायी का चलता है, दमन-दुधारा।
आँखों के आगे सत्य मिटा जाता है, भारतमाता का शीश कटा जाता है॥
क्या पुनः देश टुकड़ों में बँट जाएगा? क्या सबका शोणित पानी बन जाएगा?
कब तक दानव की माया चलने देंगे? कब तक भस्मासुर को हम छलने देंगे?
कब तक जम्मू को यों ही जलने देंगे? कब तक जुल्मों की मदिरा ढलने देंगे?
चुपचाप सहेंगे कब तक लाठी गोली? कब तक खेलेंगे दुश्मन खूं से होली?
प्रहलाद परीक्षा की बेला अब आई, होलिका बनी देखो अब्दुल्लाशाही।
माँ-बहनों का अपमान सहेंगे कब तक? भोले पांडव चुपचाप रहेंगे कब तक?
आखिर सहने की भी सीमा होती है, सागर के उर में भी ज्वाला सोती है।
मलयानिल कभी बवंडर बन ही जाता, भोले शिव का तीसरा नेत्र खुल जाता॥
जिनको जन-धन से मोह प्राण से ममता, वे दूर रहें अब ‘पान्चजन्य’ है बजता।
जो विमुख युद्ध से, हठी क्रूर, कादर है, रणभेरी सुन कम्पित जिन के अंतर हैं ।
वे दूर रहे, चूड़ियाँ पहन घर बैठें, बहनें थूकें, माताएं कान उमेठें
जो मानसिंह के वंशज सम्मुख आयें, फिर एक बार घर में ही आग लगाएं।
पर अन्यायी की लंका अब न रहेगी, आने वाली संतानें यूँ न कहेगी।
पुत्रो के रहते का जननि का माथा, चुप रहे देखते अन्यायों की गाथा।
अब शोणित से इतिहास नया लिखना है, बलि-पथ पर निर्भय पाँव आज रखना है।
आओ खण्डित भारत के वासी आओ, काश्मीर बुलाता, त्याग उदासी आओ॥
शंकर का मठ, कल्हण का काव्य जगाता, जम्मू का कण-कण त्राहि-त्राहि चिल्लाता।
लो सुनो, शहीदों की पुकार आती है, अत्याचारी की सत्ता थर्राती है॥
उजड़े सुहाग की लाली तुम्हें बुलाती, अधजली चिता मतवाली तुम्हें जगाती।
अस्थियाँ शहीदों की देतीं आमन्त्रण, बलिवेदी पर कर दो सर्वस्व समर्पण॥
कारागारों की दीवारों का न्योता, कैसी दुर्बलता अब कैसा समझोता ?
हाथों में लेकर प्राण चलो मतवालों, सिने में लेकर आग चलो प्रनवालो।
जो कदम बाधा अब पीछे नहीं हटेगा, बच्चा – बच्चा हँस – हँस कर मरे मिटेगा ।
वर्षो के बाद आज बलि का दिन आया, अन्याय – न्याय का चिर – संघर्षण आया ।
फिर एक बात भारत की किस्मत जागी, जनता जागी, अपमानित अस्मत जागी।
देखो स्वदेश की कीर्ति न कम हो जाये, कण – कण पर फिर बलि की छाया छा जाए।
34. आज सिन्धु में ज्वार उठा है
आज सिंधु में ज्वार उठा है
नगपति फिर ललकार उठा है
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर
पांचजन्य हुँकार उठा है।
शत–शत आघातों को सहकर
जीवित हिंदुस्थान हमारा
जग के मस्तक पर रोली सा
शोभित हिंदुस्थान हमारा।
दुनियाँ का इतिहास पूछता
रोम कहाँ, यूनान कहाँ है
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के
व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा
किंतु चीर कर तम की छाती
चमका हिंदुस्थान हमारा।
हमने उर का स्नेह लुटाकर
पीड़ित ईरानी पाले हैं
निज जीवन की ज्योति जला–
मानवता के दीपक बाले हैं।
जग को अमृत का घट देकर
हमने विष का पान किया था
मानवता के लिये हर्ष से
अस्थि–वज्र का दान दिया था।
जब पश्चिम ने वन–फल खाकर
छाल पहनकर लाज बचाई
तब भारत से साम गान का
स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने
दिव्य ज्ञान का दान दिया था
अम्बर के ललाट को चूमा
अतल सिंधु को छान लिया था।
साक्षी है इतिहास प्रकृति का
तब से अनुपम अभिनय होता है।
पूरब से उगता है सूरज
पश्चिम के तम में लय होता है।
विश्व गगन पर अगणित गौरव
के दीपक अब भी जलते हैं
कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम
युग के शत–सपने पलते हैं।
किन्तु आज पुत्रों के शोणित से,
रंजित वसुधा की छाती,
टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित,
बलिदानी पुरखों की थाती।
कण-कण पर शोणित बिखरा है,
पग-पग पर माथे की रोली,
इधर मनी सुख की दीवाली,
और उधर जन-जन की होली।
मांगों का सिंदूर, चिता की
भस्म बना, हां-हां खाता है,
अगणित जीवन-दीप बुझाता,
पापों का झोंका आता है।
तट से अपना सर टकराकर,
झेलम की लहरें पुकारती,
यूनानी का रक्त दिखाकर,
चन्द्रगुप्त को है गुहारती।
रो-रोकर पंजाब पूछता,
किसने है दोआब बनाया,
किसने मंदिर-गुरुद्वारों को,
अधर्म का अंगार दिखाया?
खड़े देहली पर हो,
किसने पौरुष को ललकारा,
किसने पापी हाथ बढ़ाकर
माँ का मुकुट उतारा।
काश्मीर के नंदन वन को,
किसने है सुलगाया,
किसने छाती पर,
अन्यायों का अम्बार लगाया?
आंख खोलकर देखो! घर में
भीषण आग लगी है,
धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने,
दानव क्षुधा जगी है।
हिन्दू कहने में शर्माते,
दूध लजाते, लाज न आती,
घोर पतन है, अपनी माँ को,
माँ कहने में फटती छाती।
जिसने रक्त पीला कर पाला,
क्षण-भर उसकी ओर निहारो,
सुनी सुनी मांग निहारो,
बिखरे-बिखरे केश निहारो।
जब तक दु:शासन है,
वेणी कैसे बंध पायेगी,
कोटि-कोटि संतति है,
माँ की लाज न लुट पायेगी।
35. परिचय
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार।
डमरू की वह प्रलय-ध्वनि हूं जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार।
फिर अन्तरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं आदि पुरुष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर।
पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पी कर।
अधरों की प्यास बुझाई है, पी कर मैंने वह आग प्रखर।
हो जाती दुनिया भस्मसात्, जिसको पल भर में ही छूकर।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इस में कुछ संशय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं अखिल विश्व का गुरु महान्, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्ति-मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर, सागर के जल में छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं तेज पुंज, तमलीन जगत में फैलाया मैंने प्रकाश।
जगती का रच करके विनाश, कब चाहा है निज का विकास?
शरणागत की रक्षा की है, मैंने अपना जीवन दे कर।
विश्वास नहीं यदि आता तो साक्षी है यह इतिहास अमर।
यदि आज देहली के खण्डहर, सदियों की निद्रा से जगकर।
गुंजार उठे उंचे स्वर से ‘हिन्दू की जय’ तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
दुनिया के वीराने पथ पर जब-जब नर ने खाई ठोकर।
दो आंसू शेष बचा पाया जब-जब मानव सब कुछ खोकर।
मैं आया तभी द्रवित हो कर, मैं आया ज्ञानदीप ले कर।
भूला-भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जग कर।
पथ के आवर्तों से थक कर, जो बैठ गया आधे पथ पर।
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढ़ निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैंने छाती का लहू पिला पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझ को मानव में भेद नहीं, मेरा अंतस्थल वर विशाल।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती में जौहर अपार।
अकबर के पुत्रों से पूछो, क्या याद उन्हें मीना बाजार?
क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग में जलने वाला आग प्रखर?
जब हाय सहस्रों माताएं, तिल-तिल जलकर हो गईं अमर।
वह बुझने वाली आग नहीं, रग-रग में उसे समाए हूं।
यदि कभी अचानक फूट पड़े विप्लव लेकर तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कब बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ीं?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं एक बिंदु, परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दू समाज।
मेरा-इसका संबंध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैंने पाया तन-मन, इससे मैंने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण।
मैं तो समाज की थाती हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
36. अमर आग है
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
उत्तर दिशि में अजित दुर्ग सा,
जागरूक प्रहरी युग-युग का,
मूर्तिमन्त स्थैर्य, धीरता की प्रतिमा सा,
अटल अडिग नगपति विशाल है।
नभ की छाती को छूता सा,
कीर्ति-पुंज सा,
दिव्य दीपकों के प्रकाश में-
झिलमिल झिलमिल
ज्योतित मां का पूज्य भाल है।
कौन कह रहा उसे हिमालय?
वह तो हिमावृत्त ज्वालागिरि,
अणु-अणु, कण-कण, गह्वर-कन्दर,
गुंजित ध्वनित कर रहा अब तक
डिम-डिम डमरू का भैरव स्वर ।
गौरीशंकर के गिरि गह्वर
शैल-शिखर, निर्झर, वन-उपवन,
तरु तृण दीपित ।
शंकर के तीसरे नयन की-
प्रलय-वह्नि से जगमग ज्योतित।
जिसको छू कर,
क्षण भर ही में
काम रह गया था मुट्ठी भर ।
यही आग ले प्रतिदिन प्राची
अपना अरुण सुहाग सजाती,
और प्रखर दिनकर की,
कंचन काया,
इसी आग में पल कर
निशि-निशि, दिन-दिन,
जल-जल, प्रतिपल,
सृष्टि-प्रलय-पर्यन्त तमावृत
जगती को रास्ता दिखाती।
यही आग ले हिन्द महासागर की
छाती है धधकाती।
लहर-लहर प्रज्वाल लपट बन
पूर्व-पश्चिमी घाटों को छू,
सदियों की हतभाग्य निशा में
सोये शिलाखण्ड सुलगाती।
नयन-नयन में यही आग ले,
कंठ-कंठ में प्रलय-राग ले,
अब तक हिन्दुस्तान जिया है।
इसी आग की दिव्य विभा में,
सप्त-सिंधु के कल कछार पर,
सुर-सरिता की धवल धार पर
तीर-तटों पर,
पर्णकुटी में, पर्णासन पर,
कोटि-कोटि ऋषियों-मुनियों ने
दिव्य ज्ञान का सोम पिया था।
जिसका कुछ उच्छिष्ट मात्र
बर्बर पश्चिम ने,
दया दान सा,
निज जीवन को सफल मान कर,
कर पसार कर,
सिर-आंखों पर धार लिया था।
वेद-वेद के मंत्र-मंत्र में,
मंत्र-मंत्र की पंक्ति-पंक्ति में,
पंक्ति-पंक्ति के शब्द-शब्द में,
शब्द-शब्द के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान-आलोक प्रदीपित,
सत्यं, शिवं, सुन्दरं शोभित,
कपिल, कणाद और जैमिनि की
स्वानुभूति का अमर प्रकाशन,
विशद-विवेचन, प्रत्यालोचन,
ब्रह्म, जगत, माया का दर्शन ।
कोटि-कोटि कंठों में गूँजा
जो अति मंगलमय स्वर्गिक स्वर,
अमर राग है, अमर राग है।
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी
अमर आग है, अमर आग है।
यही आग सरयू के तट पर
दशरथ जी के राजमहल में,
घन-समूह यें चल चपला सी,
प्रगट हुई, प्रज्वलित हुई थी।
दैत्य-दानवों के अधर्म से
पीड़ित पुण्यभूमि का जन-जन,
शंकित मन-मन,
त्रसित विप्र,
आकुल मुनिवर-गण,
बोल रही अधर्म की तूती
दुस्तर हुआ धर्म का पालन।
तब स्वदेश-रक्षार्थ देश का
सोया क्षत्रियत्व जागा था।
रोम-रोम में प्रगट हुई यह ज्वाला,
जिसने असुर जलाए,
देश बचाया,
वाल्मीकि ने जिसको गाया ।
चकाचौंध दुनिया ने देखी
सीता के सतीत्व की ज्वाला,
विश्व चकित रह गया देख कर
नारी की रक्षा-निमित्त जब
नर क्या वानर ने भी अपना,
महाकाल की बलि-वेदी पर,
अगणित हो कर
सस्मित हर्षित शीश चढ़ाया।
यही आग प्रज्वलित हुई थी-
यमुना की आकुल आहों से,
अत्यचार-प्रपीड़ित ब्रज के
अश्रु-सिंधु में बड़वानल, बन।
कौन सह सका माँ का क्रन्दन?
दीन देवकी ने कारा में,
सुलगाई थी यही आग जो
कृष्ण-रूप में फूट पड़ी थी।
जिसको छू कर,
मां के कर की कड़ियां,
पग की लड़ियां
चट-चट टूट पड़ी थीं।
पाँचजन्य का भैरव स्वर सुन,
तड़प उठा आक्रुद्ध सुदर्शन,
अर्जुन का गाण्डीव,
भीम की गदा,
धर्म का धर्म डट गया,
अमर भूमि में,
समर भूमि में,
धर्म भूमि में,
कर्म भूमि में,
गूँज उठी गीता की वाणी,
मंगलमय जन-जन कल्याणी।
अपढ़, अजान विश्व ने पाई
शीश झुकाकर एक धरोहर।
कौन दार्शनिक दे पाया है
अब तक ऐसा जीवन-दर्शन?
कालिन्दी के कल कछार पर
कृष्ण-कंठ से गूंजा जो स्वर
अमर राग है, अमर राग है।
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
37. स्वतंत्रता दिवस की पुकार
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥
38. क्षमा याचना
क्षमा करो बापू! तुम हमको,
बचन भंग के हम अपराधी,
राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी।
जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
टूटे सपनों को जोड़ेंगे।
चिताभस्म की चिंगारी से,
अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।
39. यक्ष प्रश्न
जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।
प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
40. नई गाँठ लगती
जीवन की डोर छोर छूने को मचली,
जाड़े की धूप स्वर्ण कलशों से फिसली,
अन्तर की अमराई
सोई पड़ी शहनाई,
एक दबे दर्द-सी सहसा ही जगती ।
नई गाँठ लगती ।
दूर नहीं, पास नहीं, मंजिल अजानी,
साँसों के सरगम पर चलने की ठानी,
पानी पर लकीर-सी,
खुली जंजीर-सी ।
कोई मृगतृष्णा मुझे बार-बार छलती ।
नई गाँठ लगती ।
मन में लगी जो गाँठ मुश्किल से खुलती,
दागदार जिन्दगी न घाटों पर धुलती,
जैसी की तैसी नहीं,
जैसी है वैसी सही,
कबिरा की चादरिया बड़े भाग मिलती ।
नई गाँठ लगती ।
41. सपना टूट गया
हाथों की हल्दी है पीली,
पैरों की मेहँदी कुछ गीली
पलक झपकने से पहले ही
सपना टूट गया।
दीप बुझाया रची दिवाली,
लेकिन कटी न अमावस काली
व्यर्थ हुआ आह्वान,
स्वर्ण सवेरा रूठ गया,
सपना टूट गया।
नियति नटी की लीला न्यारी,
सब कुछ स्वाहा की तैयारी
अभी चला दो कदम कारवां,
साथी छूट गया,
सपना टूट गया।
42. आओ! मर्दो नामर्द बनो
मर्दों ने काम बिगाड़ा है,
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फसाद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है
मर्दों की तूती बन्द हुई
औरत का बजा नगाड़ा है
गर्मी छोड़ो अब सर्द बनो।
आओ मर्दों, नामर्द बनो।
गुलछरे खूब उड़ाए हैं,
रस्से भी खूब तुड़ाए हैं,
चूँ चपड़ चलेगी तनिक नहीं,
सर सब के गए मुंड़ाए हैं,
उलटी गंगा की धारा है,
क्यों तिल का ताड़ बनाए है,
तुम दवा नहीं, हमदर्द बनो।
आयो मर्दों, नामर्द बनो।
औरत ने काम सम्हाला है,
सब कुछ देखा है, भाला है,
मुंह खोलो तो जय-जय बोलो,
वर्ना तिहाड़ का ताला है,
ताली फटकारो, झख मारो,
बाकी ठन-ठन गोपाला है,
गर्दिश में हो तो गर्द बनो।
आयो मर्दों, नामर्द बनो।
पौरुष पर फिरता पानी है,
पौरुष कोरी नादानी है,
पौरुष के गुण गाना छोड़ो,
पौरुष बस एक कहानी है,
पौरुषविहीन के पौ बारा,
पौरुष की मरती नानी है,
फाइल छोड़ो, अब फर्द बनो।
आओ मर्दो, नामर्द बनो।
चौकड़ी भूल, चौका देखो,
चूल्हा फूंको, मौका देखौ,
चलती चक्की के पाटों में
पिसती जीवन नौका देखो,
घर में ही लुटिया डूबी है,
चुटिया में ही धोखा देखो,
तुम कलां नहीं बस खुर्द बनो।
आयो मर्दो, नामर्द बनो।
43. जंग न होने देंगे
हम जंग न होने देंगे!
विश्व शांति के हम साधक हैं, जंग न होने देंगे!
कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी,
खलिहानों में नहीं मौत की फसल खिलेगी,
आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा,
एटम से नागासाकी फिर नहीं जलेगी,
युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा,
मुँह में शांति, बगल में बम, धोखे का फेरा,
कफन बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर,
दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हो उनकी चालें, ढंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हमें चाहिए शांति, जिंदगी हमको प्यारी,
हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी,
हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से,
आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी।
हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे
जंग न होने देंगे।
भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई, कितना महँगा सौदा,
रूसी बम हो या अमेरिकी, खून एक बहना है।
जो हम पर गुजरी, बच्चों के संग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
44. देखो हम बढ़ते ही जाते
बढ़ते जाते देखो हम बढ़ते ही जाते॥
उज्वलतर उज्वलतम होती है
महासंगठन की ज्वाला
प्रतिपल बढ़ती ही जाती है
चंडी के मुंडों की माला
यह नागपुर से लगी आग
ज्योतित भारत मां का सुहाग
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम
दिश दिश गूंजा संगठन राग
केशव के जीवन का पराग
अंतस्थल की अवरुद्ध आग
भगवा ध्वज का संदेश त्याग
वन विजनकान्त नगरीय शान्त
पंजाब सिंधु संयुक्त प्रांत
केरल कर्नाटक और बिहार
कर पार चला संगठन राग
हिन्दु हिन्दु मिलते जाते
देखो हम बढ़ते ही जाते ॥१॥
यह माधव अथवा महादेव ने
जटा जूट में धारण कर
मस्तक पर धर झर झर निर्झर
आप्लावित तन मन प्राण प्राण
हिन्दु ने निज को पहचाना
कर्तव्य कर्म शर सन्धाना
है ध्येय दूर संसार क्रूर मद मत्त चूर
पथ भरा शूल जीवन दुकूल
जननी के पग की तनिक धूल
माथे पर ले चल दिये सभी मद माते
बढ़ते जाते देखो हम बढ़ते ही जाते॥॥२॥
45. मनाली मत जइयो
मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में।
जइयो तो जइयो,
उड़िके मत जइयो,
अधर में लटकीहौ,
वायुदूत के जहाज़ में।
जइयो तो जइयो,
सन्देसा न पइयो,
टेलिफोन बिगड़े हैं,
मिर्धा महाराज में।
जइयो तो जइयो,
मशाल ले के जइयो,
बिजुरी भइ बैरिन
अंधेरिया रात में।
मनाली तो जइहो।
सुरग सुख पइहों।
दुख नीको लागे, मोहे
राजा के राज में।
46. अपने ही मन से कुछ बोलें
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
47. बबली की दिवाली
बबली, लौली कुत्ते दो,
कुत्ते नहीं खिलौने दो,
लम्बे-लंबे बालों वाले,
फूले-पिचके गालों वाले।
कद छोटा, खोटा स्वभाव है,
देख अजनबी बड़ा ताव है,
भागे तो बस शामत आई,
मुंह से झटपट पैण्ट दबाई।
दौड़ो मत, ठहरो ज्यों के त्यों,
थोड़ी देर करेंगे भौं-भौं।
डरते हैं इसलिए डराते,
सूंघ-सांघ कर खुश हो जाते।
इन्हें तनिक-सा प्यार चाहिए,
नजरों में एतबार चाहिए,
गोदी में चढ़कर बैठेंगे,
हंसकर पैरों में लोटेंगे।
पांव पसार पलंग पर सोते,
अगर उतारो मिलकर रोते;
लेकिन नींद बड़ी कच्ची है,
पहरेदारी में सच्ची है।
कहीँ जरा-सा होता खटका,
कूदे, भागे, मारा झटका,
पटका लैम्प, सुराही तोड़ी,
पकड़ा चूहा, गर्दन मोड़ी।
बिल्ली से दुश्मनी पुरानी,
उसे पकड़ने की है ठानी,
पर बिल्ली है बड़ी सयानी,
आखिर है शेरों की नानी,
ऐसी सरपट दौड़ लगाती,
कुत्तों से न पकड़ में आती ।
बबली मां है, लौली बेटा,
मां सीधी है, बेटा खोटा,
पर दोनों में प्यार बहुत है,
प्यार बहुत, तकरार बहुत है ।
लड़ते हैं इन्सानों जैसे,
गुस्से में हैवानों जैसे,
लौली को कीचड़ भाती है,
व्यर्थ बसंती नहलाती है।
लोट-पोट कर करें बराबर,
फिर बिस्तर पर चढ़ें दौड़कर,
बबली जी चालाक, चुस्त हैं,
लौली बुद्धू और सुस्त हैं।
घर के ऊपर बैठा कौवा,
बबली जी को जैसे हौवा,
भौंक-भौंक कोहराम मचाती,
आसमान सर पर ले आती।
जब तक कौवा भाग न जाता,
बबली जी को चैन न आता,
आतिशबाजी से घबराते,
बिस्तर के नीचे छुप जाते।
एक दिवाली ऐसी आई,
बबली जी ने दौड़ लगाई,
बदहवास हो घर से भागी,
तोड़े रिश्ते, ममता त्यागी।
कोई सज्जन मिले सड़क पर,
मोटर में ले गए उठाकर,
रपट पुलिस में दर्ज कराई,
अखबारों में खबर छपाई।
लौली जी रह गए अकेले,
किससे झगड़ें, किससे खेलें,
बजी अचानक घण्टी टन-टन,
उधर फोन पर बोले सज्जन।
क्या कोई कुत्ता खोया है ?
रंग कैसा, कैसा हुलिया है ?
बबली जी का रूप बखाना,
रंग बखाना, ढंग बखाना।
बोले आप तुरन्त आइए,
परेशान हूं, रहम खाइए;
जब से आई है, रोती है,
ना खाती है, ना सोती है;
मोटर लेकर सरपट भागे,
नहीं देखते पीछे आगे;
जा पहुंचे जो पता बताया,
घर घण्टी का बटन दबाया;
बबली की आवाज सुन पड़ी,
द्वार खुला, सामने आ खड़ी;
बदहवास सी सिमटी-सिमटी,
पलभर ठिठकी, फिर आ लिपटी,
घर में लहर खुशी की छाई,
मानो दीवाली फिर आई;
पर न चलेगी आतिशबाजी,
कुत्ता पालो मेरे भ्राजी।
48. अंतरद्वंद्व
क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर?
शव का अर्चन,
शिव का वर्जन,
कहूँ विसंगति या रूपांतर?
वैभव दूना,
अंतर सूना,
कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर?
49. बुलाती तुम्हें मनाली
आसमान में बिजली ज़्यादा,
घर में बिजली काम।
टेलीफ़ोन घूमते जाओ,
ज़्यादातर गुमसुम॥
बर्फ ढकीं पर्वतमालाएं,
नदियां, झरने, जंगल।
किन्नरियों का देश,
देवता डोले पल-पल॥
हरे-हरे बादाम वृक्ष पर,
लाडे खड़े चिलगोज़े।
गंधक मिला उबलता पानी,
खोई मणि को खोजे॥
दोनों बांह पसार,
बुलाती तुम्हे मनाली।
दावानल में मलयानिल सी,
महकी, मित्र, मनाली॥
50. रोते रोते रात सो गई
झुकी न अलकें
झपी न पलकें
सुधियों की बारात खो गई
रोते रोते रात सो गई
दर्द पुराना
मीत न जाना
बातों ही में प्रात हो गई
रोते रोते रात सो गई
घुमड़ी बदली
बूंद न निकली
बिछुड़न ऐसी व्यथा बो गई
रोते रोते रात सो गई
51. पड़ोसी से
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।
अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता।
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।
इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिनगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?
अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।
जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।
अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा ।
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