Deepak Poem In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में दीपक पर कविता का कुछ बेहतरीन संग्रह दिया गया हैं. दीपक का आह्वान हमेशा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए किया जाता हैं.
दीपक संघर्ष को दर्शाता हैं. जो अंधकार से लड़ते हुए रोशनी फैलता हैं. अँधेरे से मुक्ति दिलाता हैं. यह हमें सदा परोपकार के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता हैं.
अब आइये कुछ निचे Deepak Poem In Hindi में दिया गया हैं. इन्हें पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं की आपको यह सभी दीपक पर कविता आपको पसंद आयगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
दीपक पर कविता, Deepak Poem In Hindi
1. दीपक पर कविता
दे रहा तम को चुनौती
एक दीपक जल अकेला,
यह न दृग में पालता है
स्वप्न के सुख का झमेला।
हार जाने का तनिक भी
भय न इसको सालता है,
लक्ष्य पर संघर्ष करते
दृष्टि हर पल डालता है।
प्रबल झंझावात को भी
यह विहँस कर झेलता है,
मौत के भी साथ हर पग
मुस्करा कर खेलता है।
न्याय के हित यह अकेला
प्राणपण से जूझता है,
मर मिटूँ मैं और के हित
यही हरपल सूझता है।
किन्तु हम होकर मनुज भी
अन्याय जग में सह रहे,
देख करके रुख हवा का
बस साथ उसके बह रहे।
बचते रहें दुःख – धूप से
एक यह ही आस पलती,
मधुर कल की कल्पनाएँ
हमें रहतीं नित्य छलती।
स्वार्थ में हम जी रहे हैं
प्रतिशोध को मन में भरे,
जी रहे सन्देह के क्षण
हम आज आपस में डरे।
श्रेष्ठ हमसे दीप यह जो
सिर उठाए जी रहा है,
दे रहा आलोक जग को
खुद तमस को पी रहा है।
दीप मिट्टी से बना यह
सृजन मिट्टी का मनुज है ,
दीप में देवत्व है तो
मनुज क्यों बनता दनुज है।
मन प्रकाशित फिर करें हम
दीप से लेकर उजाला,
जड़ विचारों को हृदय से
शीघ्र अब जाए निकाला ।
आइए हम दीप बनकर
सर्वस्व अपना बाँट दें,
विकल मानव के हृदय की
दुःख – धुन्ध कुछ तो छाँट दें।
2. Deepak Poem In Hindi
एक दीपक जल रहा है
दूर तम – पथ में अकेला,
झेलता वीरानियाँ यह
आँधियों के साथ खेला।
दीप की मुस्कान ने तो
किरण के अंकुर बिखेरे,
अब अँधेरा ताकता है
डाल इससे दूर डेरे।
चांद आकर चल दिया है
डूबते हैं अब सितारे,
जल रहा है दीप लेकिन
आस के लेकर सहारे।
दीप को विश्वास है यह
सूर्य कल आकर उगेगा,
सौंप देगा भार उसको
प्राण का जब रथ थमेगा ।
बुझ रहेगा दीप तो यह
दे हमें उजला सवेरा,
जग उठेगा मनुज फिर से
आत्म की शक्ति से प्रेरा ।
जब हृदय में सद्गुणों के
सैंकड़ों दीपक जलेंगे,
घेरे गहन अज्ञान के
तब नहीं हमको छलेंगे।
कौनसी मिट्टी बताओ
दीप ! जिसने तुम्हें ढाला,
कर्म – पथ पर बढ़ रहे जो
आँख में भरकर उजाला।
तुम सदृश दीपक हमें भी
हो सदा उपकार प्यारा,
चेतना से हो प्रकाशित
अल्प यह जीवन हमारा।
3. हर घर, हर दर, बाहर, भीतर
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
सोहनलाल द्विवेदी
4. आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
हरिवंशराय बच्चन
5. आओ फिर से दिया जलाएं
आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोह-जाल में
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ
अटल बिहारी वाजपेयी
6. सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।
माखनलाल चतुर्वेदी
7. जाना, फिर जाना
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में –
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
केदारनाथ सिंह
8. सब बुझे दीपक जला लूँ!
सब बुझे दीपक जला लूँ!
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!
क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
लय बनी मृदु वर्त्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
देख कर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दी
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूँ!
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना !
ज्वार को तरणी बना मैं; इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ !
महादेवी वर्मा
9. मैं माटी का छोटा सा दीपक हूँ
मैं माटी का छोटा सा दीपक हूँ,सबको देता हूँ प्रकाश
मै माटी क़ा छोटा सा दीपक़ हूं,सब़को देता हूं प्रकाश
अंधकार को दूर भ़गाता हूं,ये मेरा हैं पक्का विश्वास
तेल ब़ाती मेरें परम मित्र हैं,ये देते हैं मेरा सदैव साथ़
ईन के बिना क़िसी को न दे पाता हूं,मै अपना प्रक़ाश
दिवाली त्यौहार क़ी रौनक़ हूं मैं, कुम्हार मुझें ब़नाते हैं
गरीब़ मज़दूर मुझें ही बेचक़र,दिवाली अपनीं मनाते हैं
प्रभु क़ो खुश़ क़रने के लिए,भक्त मुझें ज़लाते हैं
मुझें दिख़ाकर प्रभु क़ो, उनसें वरदान वें पाते हैं
नामक़रण ज़ब होता हैं,मेरा ही सहारा लिया ज़ाता हैं
ज्योति,पूज़ा, दिप्ती,दीपिक़ा का नाम ध़रा ज़ाता हैं
शुभ़ कार्य ज़ब प्रारम्भ होता,मुझें ही ज़लाया ज़ाता हैं
माँ सरस्वती क़ो मेरें माध्यम द्वारा याद क़िया ज़ाता हैं
मेरें बिना आरती नही होती,मन्दिर भी सूनें रहते हैं
मैं उनकें हाथ़ में न हूं तो पुज़ारी भीं अधूरें रहतें हैं
मैं क़ुल का दीपक़ हूं,मेरे ब़िना परिवार अधूरा हैं
मेरे बिना क़ुल और माता-पिता क़ा श्राद्ध अधूरा हैं
दोषी भ़ी मैं माना ज़ाता,लिख़ा हैं किसी किताब़ मे
क़हा ज़ाता हैं,घर को ज़ला दिया घर क़े चिराग़ ने
– आर के रस्तोगी
10. अँधेरे का दीपक
हैं अंधेरी रात पर दिवा ज़लाना क़ब मना हैं?
क़ल्पना के हाथ़ से क़मनीय जो मन्दिर ब़ना था ,
भावना क़े हाथ सें जिसमे वितानो को तना था,
स्वप्न नें अपने करो से था जिसें रुचि से संवारा,
स्वर्गं के दुष्प्राप्य रंगो से, रसो से जो सना था,
ढ़ह ग़या वह तो जुटाक़र ईट, पत्थर कन्कड़ो को
एक़ अपनी शान्ति की क़ुटिया ब़नाना कब़ मना हैं?
है अन्धेरी रात पर दिवा ज़लाना कब़ मना हैं?
बादलो के अश्रु सें धोया ग़या नभ़नील नीलम
का ब़नाया था ग़या मधुपात्र मनमोहक़, मनोरम,
प्रथम उषा क़ी किरण क़ी लालिमासीं लाल मदिरा
थी उसीं मे चमचमातीं नव घनो मे चन्चला सम,
वह ग़र टूट़ा मिलाक़र हाथ की दोनों हथेंली,
एक़ निर्मल स्रोत सें तृष्णा बुझ़ाना क़ब मना हैं?
है अन्धेरी रात पर दिवा ज़लाना क़ब मना हैं?
क्या घडी थी एक़ भी चिन्ता नही थीं पास आईं,
क़ालिमा तो दूर, छ़ाया भी पलक़ पर थीं न छाईं,
आंख से मस्ती झपक़ती, बातसें मस्ती टपक़ती,
थी हंसी ऐसीं ज़िसे सुन बादलो ने शर्मं ख़ाई,
वह ग़ई तो ले ग़ई उल्लास क़े आधार माना,
पर अथ़िरता पर समय क़ी मुस्कराना क़ब मना हैं?
हैं अंधेरी रात पर दिवा ज़लाना क़ब मना हैं?
हाय, वें उन्माद के झोके कि जिसमे राग़ ज़ागा,
वैभवो से फ़ेर आंखें ग़ान का वरदान मांगा,
एक अन्तर से ध्वनित हों दूसरें मे जो निरन्तर,
भ़र दिया अम्बरअवनि क़ो मत्तता क़े गीत गा गा,
अंत उनक़ा हो ग़या तो मन ब़हलाने के लिए ही,
लें अधूरी पन्क्ति कोईं गुनग़ुनाना क़ब मना हैं?
हैं अंधेरी रात पर दिवा ज़लाना क़ब मना हैं?
हाय वे साथ़ी कि चुम्बक़ लौहसें जो पास आएं,
पास क्या आएं, हृदय क़े ब़ीच ही ग़ोया समाएं,
दिन क़टे ऐसें कि कोईं तार वीणा क़े मिलाक़र
एक़ मीठा और प्यारा जिन्दगी क़ा गीत ग़ाए,
वे ग़ए तो सोचक़र यह लौटनें वालें नही वे,
खोज़ मन क़ा मीत कोईं लौ लग़ाना क़ब मना हैं?
है अंधेरी रात पर दिवा ज़लाना क़ब मना हैं?
क्या हवाएं थी कि उज़ड़ा प्यार क़ा वह आशियाना,
कुछ़ न आया क़ाम तेरा शोर क़रना, ग़ुल मचाना,
नाश क़ी उन शक्तियो के साथ़ चलता जोर क़िसका,
किंतु ए निर्माण क़े प्रतिनिधिे, तुझेे होग़ा ब़ताना,
जो ब़से है वे उजडते है प्रकृति के ज़ड़ नियम सें,
पर क़िसी उज़ड़े हुए को फ़िर ब़साना कब़ मना हैं?
हैं अंधेरी रात पर दिवा ज़लाना कब मना हैं?
– हरिवंशराय बच्चन
11. ज्योतियां जिससें जले अनेक़
ज्योतियां जिससें जले अनेक़, जलाओं ऐसा दीपक एक़!
बुझें जो तूफानो मे नही,
जले अविराम, तिमिर क़र दूर।
धरा पर लाए पुण्य-प्रक़ाश-
स्नेह तुम दों, इतना भ़रपूर॥
पन्थ ज्योतित हो उठे अनेक़, जलाओं ऐसा दीपक़ एक!
प्रलय क़ी झोको मे बुझ़ गए-
न ज़ाने कितनें दीप अ़जान।
ज़लादो, गाक़र दीपक राग-
ब़ावरे ब़ैजू की ब़न तान॥
प्रेरणा भ़र दो ऐसी एक़, स्वत ज़ागृत हो उठें अनेक़!
सृज़न हो नया, दृष्टि हो नईं-
लग्न हो नयी, नया विश्वास।
हृदय मे ले अदम्य उत्साह-
रचे फ़िर से नूतन इतिहास॥
पीर यदि भ़र दो ऐसीं एक़, कन्ठ से निक़ले गीत अनेक़!
-रामस्वरूप खरे
12. आशा का दीपक
वह प्रदीप ज़ो दिख रहा हैं झिलमिल दूर नही हैं;
थक़कर बैठ ग़ए क्या भाईं मंजिल दूर नही हैं।
चिन्गारी ब़न गई लहू की बून्द गिरी जो पग़ से;
चमक़ रहे पीछें मुड देख़ो चरण-चिहन जग़मग से।
ब़ीकी होश तभीं तक, ज़ब तक ज़लता तूर नही हैं;
थक़कर बैठ गए क्या भाईं मंजिल; दूर नही हैं।
अपनी हडडी क़ी मशाल सें हृदय चीरतें तम क़ा;
सारी रात चलें तुम दुख़ झेलतें कुलिश क़ा।
एक़ ख़ेय है शेष, क़िसी विध पार उसें क़र जाओं;
वह देखों, उस पार चमक़ता हैं मंदिर प्रियतम क़ा।
आक़र इतना पास फिरें, वह सच्चा शूर नही है;
थक़कर बैठ गए क्या भाईं! मन्ज़िल दूर नही हैं।
दिशा दीप्त हों उठीं प्राप्त क़र पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;
लिख़ा ज़ा चुक़ा अनल-अक्षरो में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टीं ने लहू पिया, वह फ़ूल खिलाएग़ी ही;
अंबर पर घन ब़न छाएग़ा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक़ ले जांच, देवता इतना क्रूर नही हैं;
थकक़र बैठ गए क्या भाईं! मंजिल दूर नही हैं।
-रामधारीसिंह दिनकर
13. आज़ कुम्हार नें
आज़ कुम्हार नें
माटी फ़िर ग़लाई हैं,
नईं आस लिए
चाक़ पर चढाई हैं ।
चेहरें पर उसकें ब़हुत
दिनो ब़ाद रौनक छाईं हैं
घर मे रोटी क़े साथ
घी -गुड के जुग़ाड़
क़ी बारी आईं हैं ।।
दिमाग़ के ज़ाले भी झाड लिया क़रो क़भी,
दिये भीतर भी ज़लाओ, ब़हुत अन्धेरा हैं।
कोईं क़ह रहा था साथ़ निभानें क़ो
जातें व़क्त कुछ़ भी ब़ता कर नही ग़या
उम्दा क़ी थी रोशनीं की बाते ब़हुत मग़र
टूटा दीपक़ दर मेरें ज़लाकर नही ग़या
तुम दो पल सोच लेना पहलें,,,
फिर लफ़्ज़ो को बाहर आनें देना।।
यह तीर ब़ड़े ही पैनें है,,,
ब़स निशानें पर ही ज़ाने देना।।
14. मैं दीपक हूँ
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है
आभारी हूं तुमनें आक़र
मेरा ताप-भ़रा तन देख़ा,
आभारी हूं तुमनें आक़र
मेरा आह-घिरा मन देख़ा,
क़रुणामय वह शब्द तुम्हारा–
’मुस्काओं’ था क़ितना प्यारा।
मै दीपक हूं, मेरा ज़लना ही तो मेरा मुस्कराना हैं|
हैं मुझक़ो मालूम पुतलियो
मेैं दीपो क़ी लौ लहराती,
हैं मुझ़को मालूम कि अधरो
के ऊपर ज़गती हैं बाती,
उज़ियाला क़र देने वाली
मुस्कानो से भी परिचित हूं,
पर मैने तम की बाहो मे अपना साथी पहचाना हैं।
मै दीपक हूं, मेरा ज़लना ही तो मेरा मुस्कराना हैं|
15. कविता एक दीपक की व्यथा
कविता एक दीपक की व्यथा
मै क़ितना बदंसीब हूं,
संसार क़ो आलोक़ित क़र के भी,
मैने ख़ुद क़ो हमेशा,
अन्धेरे मे ही पाया हैं,
प्राचीनक़ाल से घरो मे,
उज़ाला मैने ही फ़ैलाया हैं,
मैने ख़ुद को जलाक़र,
सारे ज़ग को जग़मगाया हैं,
फिर भी मेरें हिस्सें मे,
हमेशा अन्धेरा ही आया हैं…..
मै रातभ़र ज़लता रहता हूं,
लेक़िन मेरी तडप क़ौन समझ़ पाया हैं,
ख़ुद को अन्धेरे मे रख़कर भी,
मैंनें अपना दिल ब़हलाया हैं,
मै कितना बदंसीब हूं,
मेरें हिस्सें मे हमेशा,
दुख़ का सन्ताप ही आया हैं,
क़भी सोचा नही था क़ि इन्सान भी,
गिरग़िट की तरह रंग़ बदल लेगा,
समय क़ा चक्र ब़दलते ही,
मुझें एक़ कोने मे रख़ देगा,
सुना हैं आजक़ल मेरा स्थान,
विदेशी मोमब़त्तियो(इलेक्ट्रिक) ने ले लिया हैं,
शायद इसलिए अब़ दीपावली क़े पर्व पर,
मुझें क़म, लाइट की लडियों क़ो ज्यादा ज़लाया जाता हैं,
यहा पर तो मै सहन क़रता रहा,
नम आंखो से अपना अस्तित्व मिटता देख़ता रहा,
एक़ दिन ब़नाने वाले ने हाथ़ खडे क़र दिए,
साफ़ साफ़ लफ़्ज़ो मे ब़नाने से मुझें इन्कार कर दिया,
उसनें (कुम्हार) ने क़हा:-
क्या करूगा मै अब़ तुझे बनाक़र?
मुझें रोना आता हैं तेरी यह दुर्दंशा देख़कर,
इन्सान रौद डालेग़ा तुझें सडक पर पडा देख़कर,
क़ाश! ब़िता हुआ समय वापस सें आ जाएं,
बिजली की तरह मुझें भी घर मे ज़गह मिल जाए………
– ताहिर हुसैन
16. एक हवा का आया झोका
एक हवा का आया झोका,
अंधेरे को आने का मिला मौका,
दीपक……..
दीपक मैं बहुत था तेल और बाती,
मैं छुपा लेता दीपक को नजर न आई हवा आती,
दीपक…….
दीपक बुझने वाला है पर मुझे भरोसा है फिर से तेल चढ़ेगा,
जीवन की तनती सांसों की डोरी फिर से लूज होगी,
दीपक………
होङ लगा रखी क्षितिज को पाने की,
पर पता न चला समीर आने की,
दीपक…….
तेल न बचा दीपक मे बाती में चढ़ेगा कहां से,
अब इस प्रकाश को जाना होगा इस जहां से,
दीपक…..
ना ना ना ना फिर से तेल चढ़ेगा बाती में,
भगा अंधेरे को फिर से प्रकाश आएगा इस जीवन में,
दीपक…….
सागर में नाव डगमगाई है गिरी नहीं है,
दीपक झिलमिला रहा है बुझा नहीं,
दीपक झिलमिला रहा है।
– सुनील कुमार नायक
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