Dushyant Kumar Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Dushyant Kumar Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितम्बर 1931 को उत्तरप्रदेश राज्य के बिजनौर जिले के नवादा गांव में हुआ था. इन्होने अलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए हिंदी की पढाई की थी. इन्होने बहुत सारे कविताएँ, गजल, लघु कहानियां, नाटक और उपन्यास लिखी हैं. इनका एक गजल संग्रह साये में धूप बहुत ही लोकप्रिय हैं. इनका काव्य रचनाएँ हैं. आवाजों के घेरे, सूर्य का स्वागत, जलते हुए बसंत और एक कंठ विषपायी (काव्य नाटिका). दुष्यंत कुमार की कविता समाज के लिए कड़वी दवा है. दुष्यंत कुमार का निधन 30 दिसंबर 1975 को हुआ.
दुष्यंत कुमार की रचनाएँ (दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध ग़ज़लें/कविताएँ)
साये में धूप : दुष्यंत कुमार (Saaye Mein Dhoop : Dushyant Kumar)
1. कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
2. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं
3. ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं,ऐसा हुआ होगा
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा
चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
4. इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है
5. देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली
कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में
मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली
चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली
तू परेशान है, तू परेशान न हो
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली
6. खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही
मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही
कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे
कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही
सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही
7. परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान-ओ-उपनिषद् खोले हुए हैं
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं
हमारे हाथ तो काटे गए थे
हमारे पाँव भी छोले हुए हैं
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं
हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
हमारे पैरहन झोले हुए हैं
चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं
8. अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ
अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ
ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ
अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ
समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ
9. भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।
क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।
इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।
10. फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है
फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है,
वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है
पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है,
जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है
हमको पता भी नहीं था , वो आग ठण्डी पड़ी थी,
जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है
जो आदमी मर चुके थे , मौजूद है इस सभा में,
हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है
ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहां पर,
हर आदमी घर पहुंचकर , कपड़े बदलने लगा है
बातें बहुत हो रही है , मेरे-तुमहारे विषय में,
जो रासते में खड़ा था परवत पिघलने लगा है
11. कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।
12. घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है
घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है
एक नदी जैसे दहानों तक पहुंचती है
अब इसे क्या नाम दें , ये बेल देखो तो
कल उगी थी आज शानों तक पहुंचती है
खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है
अब लपट शायद मकानों तक पहुंचती है
आशियाने को सजाओ तो समझ लेना,
बरक कैसे आशियानों तक पहुंचती है
तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो,
बात अपनों से बिगानों तक पहुंचती है
सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
बेज़ुबां सूरत , जुबानों तक पहुंचती है
अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है
चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुंचती है
13. नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं
वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं
चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना
ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं
कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी
कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं
ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं
14. तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया
किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े
हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया
अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया
मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है
हमने किसी अंगार को होंठों से छू लिया
घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये
पूरी हूई रदीफ़ अधूरा है काफ़िया
मैं भी तो अपनी बात लिखूं अपने हाथ से
मेरे सफ़े पे छोड़ दो थोड़ा सा हाशिया
इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
अब लोग टोकते है ग़ज़ल है कि मरसिया
15. मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
16. चांदनी छत पे चल रही होगी
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
17. ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो
दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल, लोगो
तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो
ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो
दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो
वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो
18. हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
19. आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख
ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख
राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख
20. मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा-सी तो लीजिए
अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो
महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए
पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए
ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर
कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए
ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू,
ये चीज़ ज़िन्दगी में नहीं थी तो लीजिए
फिरता है कैसे-कैसे सवालों के साथ वो
उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए
21. पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी
लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो—चार पत्थर फेंक दो तुम भी
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ बोल कुछ स्वर फेंक दो तुम भी
किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी
22. इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और
आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और
मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और
घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
आ-जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और
हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और
हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और
उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और
23. मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे
हौले-हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे
उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे
24. आज वीरान अपना घर देखा
आज वीरान अपना घर देखा
तो कई बार झाँक कर देखा
पाँव टूटे हुए नज़र आये
एक ठहरा हुआ सफ़र देखा
होश में आ गए कई सपने
आज हमने वो खँडहर देखा
रास्ता काट कर गई बिल्ली
प्यार से रास्ता अगर देखा
नालियों में हयात देखी है
गालियों में बड़ा असर देखा
उस परिंदे को चोट आई तो
आपने एक-एक पर देखा
हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी
चल पड़ी तो इधर-उधर देखा
25. वो निगाहें सलीब हैं
वो निगाहें सलीब हैं
हम बहुत बदनसीब हैं
आइये आँख मूँद लें
ये नज़ारे अजीब हैं
ज़िन्दगी एक खेत है
और साँसे जरीब हैं
सिलसिले ख़त्म हो गए
यार अब भी रक़ीब है
हम कहीं के नहीं रहे
घाट औ’ घर क़रीब हैं
आपने लौ छुई नहीं
आप कैसे अदीब हैं
उफ़ नहीं की उजड़ गए
लोग सचमुच ग़रीब हैं
26. बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया
बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया
कैसा शगुन हुआ है कि बरगद उखड़ गया
इन खँडहरों में होंगी तेरी सिसकियाँ ज़रूर
इन खँडहरों की ओर सफ़र आप मुड़ गया
बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये
रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया
दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया
लेकर उमंग संग चले थे हँसी-खुशी
पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया
जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से
उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया
27. अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला
अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला
मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला
इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला
लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है
इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला
आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं
इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला
सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की
दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला
28. अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन
मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए
29. ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है
राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है
आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है
पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है
मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं
इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है
30. ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए
जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए
चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए
यों पहले भी अपना-सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए
31. बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं ।
चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।
आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं ।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।
अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,
हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं ।
32. जाने किस-किसका ख़्याल आया है
जाने किस-किसका ख़्याल आया है
इस समंदर में उबाल आया है
एक बच्चा था हवा का झोंका
साफ़ पानी को खंगाल आया है
एक ढेला तो वहीं अटका था
एक तू और उछाल आया है
कल तो निकला था बहुत सज-धज के
आज लौटा तो निढाल आया है
ये नज़र है कि कोई मौसम है
ये सबा है कि वबाल आया है
इस अँधेरे में दिया रखना था
तू उजाले में बाल आया है
हमने सोचा था जवाब आएगा
एक बेहूदा सवाल आया है
33. ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती
इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं
जिनमें बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत-सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मयकशो मय ज़रूर है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
34. तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा-भरा
लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा
माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा
35. रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है
सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है
सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है
36. हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब
पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब
मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब
आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब
सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब
37. ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो
दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो
38. धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है
यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो
आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है
कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में
मीत अब यह मन नहीं है एक धरती है
कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा
एक चिड़िया इन धमाकों से सिहरती है
मैं तुम्हें छू कर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है
तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ
इस तरह की कल्पना मन में उभरती है
39. पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं
सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं
40. एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा
एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट-से नीचे आन गिरा
बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा
हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंज़र देख किया
चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की
सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा
सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में
कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया
धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा
41. ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ
ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ
मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ
ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे
तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ
मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ-साथ था मैं
तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ
तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ
कभी दिल में आरज़ू-सा, कभी मुँह में बद्दुआ-सा
मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ
मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ
यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है
कि ये बात क्या हुई है,जो मैं शे’र कह रहा हूँ
42. तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं
हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं
जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं
तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी
इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया
तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं
43. लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है
आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है
ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है
आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है
जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में-
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है
लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखे
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है
44. ये शफ़क़ शाम हो रही है अब
ये शफ़क़ शाम हो रही है अब
और हर गाम हो रही है अब
जिस तबाही से लोग बचते थे
वो सरे आम हो रही है अब
अज़मते-मुल्क इस सियासत के
हाथ नीलाम हो रही है अब
शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं
सुब्ह बदनाम हो रही है अब
जो किरन थी किसी दरीचे की
मरक़ज़े बाम हो रही है अब
तिश्ना-लब तेरी फुसफुसाहट भी
एक पैग़ाम हो रही है अब
45. एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो-
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी-ए-मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
46. बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई
बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई
सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई
बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से
कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई
कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही
मगर निजात की कोशिश तो एक मिसाल हुई
मेरे ज़ेह्न पे ज़माने का वो दबाब पड़ा
जो एक स्लेट थी वो ज़िंदगी सवाल हुई
समुद्र और उठा, और उठा, और उठा
किसी के वास्ते ये चाँदनी वबाल हुई
उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से
वो ख़ूँ बहा है कि ये गर्द भी गुलाल हुई
मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी
तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई
47. वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है
48. किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम
किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम
किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया
वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता
चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया
जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा
तसव्वुर ऐसे ग़ैर-आबाद हलकों तक चला आया
लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई
ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया
49. होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये
बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये
जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये
50. मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
51. अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार
रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार
हालते-इन्सान पर बरहम न हों अहले-वतन
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार
रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार
52. तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
सूर्य का स्वागत : दुष्यन्त कुमार (Surya Ka Swagat : Dushyant Kumar)
1. मापदण्ड बदलो
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।
ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है–
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
2. कुंठा
मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों-सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ’ वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा–कुँवारी कुंती!
बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा।
3. एक स्थिति
हर घर में कानाफूसी औ’ षडयंत्र,
हर महफ़िल के स्वर में विद्रोही मंत्र,
क्या नारी क्या नर
क्या भू क्या अंबर
माँग रहे हैं जीने का वरदान,
सब बच्चे, सब निर्बल, सब बलवान,
सब जीवन सब प्राण,
सुबह दोपहर शाम।
‘अब क्या होगा राम?’
कुछ नहीं समझ में आते ऐसे राज़,
जिसके देखो अनजाने हैं अंदाज़,
दहक रहे हैं छंद,
बारूदों की गंध
अँगड़ाती सी उठती है हर द्वार,
टूट रही है हथकड़ियों की झंकार
आती बारंबार,
जैसे सारे कारागारों का कर काम तमाम।
‘अब क्या होगा राम?’
4. परांगमुखी प्रिया से
ओ परांगमुखी प्रिया!
कोरे कागज़ों को रँगने बैठा हूँ
असत्य क्यों कहूँगा
तुमने कुछ जादू कर दिया।
खुद से लड़ते
खुद को तोड़ते हुए
दिन बीता करते हैं,
बदली हैं आकृतियाँ:
मेरे अस्तित्व की इकाई को
तुमने ही
एक से अनेक कर दिया!
उँगलियों में मोड़ कर लपेटे हुए
कुंतलों-से
मेरे विश्वासों की
रूपरेखा यही थी?
रह रहकर
मन में उमड़ते हुए
वात्याचक्रों के बीच
एकाकी
जीर्ण-शीर्ण पत्तों-से
नाचते-भटकते मेरे निश्चय
क्या ऐसे थे?
ज्योतिषी के आगे
फैले हुए हाथ-सी
प्रश्न पर प्रश्न पूछती हुई—
मेरे ज़िंदगी,
क्या यही थी?
नहीं….
नहीं थी यह गति!
मेरे व्यक्तित्व की ऐसी अंधी परिणति!!
शिलाखंड था मैं कभी,
ओ परांगमुखी प्रिया!
सच, इस समझौते ने बुरा किया,
बहुत बड़ा धक्का दिया है मुझे
कायर बनाया है।
फिर भी मैं क़िस्मत को
दोष नहीं देता हूँ,
घुलता हूँ खुश होकर,
चीख़कर, उठाकर हाथ
आत्म-वंचना के इस दुर्ग पर खड़े होकर
तुमसे ही कहता हूँ—
मुझमें पूर्णत्व प्राप्त करती है
जीने की कला;
खंड खंड होकर जिसने
जीवन-विष पिया नहीं,
सुखमय, संपन्न मर गया जो जग में आकर
रिस-रिसकर जिया नहीं,
उसकी मौलिकता का दंभ निरा मिथ्या है
निष्फल सारा कृतित्व
उसने कुछ किया नहीं।
5. अनुरक्ति
जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा
इसी विह्वलता से गाऊँगा।
इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर
बाल-रवि के दूसरे उदय तक
हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
सुख का होता स्खलन
दुख का नहीं,
अधर पुष्प होते होंगे—
गंध-हीन, निष्प्रभाव, छूछे….खोखले….अश्रु नहीं;
गेय मेरा रहेगा यही गर्व;
युग-युगांतरों तक मैं तो
इन्हीं शब्दों में कराहूँगा।
कैसे बतलाऊँ तुम्हें प्राण!
छूटा हूँ तुमसे तो क्या?
वाण छोड़ा हुआ
भटका नहीं करता!
लगूँगा किसी तट तो—
कहीं तो कचोटूँगा!
ठहरूँगा जहाँ भी—प्रतिध्वनि जगाऊँगा।
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
6. कैद परिंदे का बयान
तुमको अचरज है–मैं जीवित हूँ!
उनको अचरज है–मैं जीवित हूँ!
मुझको अचरज है–मैं जीवित हूँ!
लेकिन मैं इसीलिए जीवित नहीं हूँ–
मुझे मृत्यु से दुराव था,
यह जीवन जीने का चाव था,
या कुछ मधु-स्मृतियाँ जीवन-मरण के हिंडोले पर
संतुलन साधे रहीं,
मिथ्या की कच्ची-सूती डोरियाँ
साँसों को जीवन से बाँधे रहीं;
नहीं–
नहीं!
ऐसा नहीं!!
बल्कि मैं जिंदा हूँ
क्योंकि मैं पिंजड़े में क़ैद वह परिंदा हूँ–
जो कभी स्वतंत्र रहा है
जिसको सत्य के अतिरिक्त, और कुछ दिखा नहीं,
तोते की तरह जिसने
तनिक खिड़की खुलते ही
आँखें बचाकर, भाग जाना सीखा नहीं;
अब मैं जियूँगा
और यूँ ही जियूँगा,
मुझमें प्रेरणा नई या बल आए न आए,
शूलों की शय्या पर पड़ा पड़ा कसकूँ
एक पल को भी कल आए न आए,
नई सूचना का मौर बाँधे हुए
चेतना ये, होकर सफल आए न आए,
पर मैं जियूँगा नई फ़सल के लिए
कभी ये नई फ़सल आए न आए:
हाँ! जिस दिन पिंजड़े की
सलाखें मोड़ लूँगा मैं,
उस दिन सहर्ष
जीर्ण देह छोड़ दूँगा मैं!
7. धर्म
तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा–
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।
8. ओ मेरी जिंदगी
मैं जो अनवरत
तुम्हारा हाथ पकड़े
स्त्री-परायण पति सा
इस वन की पगडंडियों पर
भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ,
सो इसलिए नहीं
कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है,
या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ,
बल्कि इसलिए कि मैं पुरुष हूँ
और तुम चाहे परंपरा से बँधी मेरी पत्नी न हो,
पर एक ऐसी शर्त ज़रूर है,
जो मुझे संस्कारों से प्राप्त हुई,
कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।
पहले
जब पहला सपना टूटा था,
तब मेरे हाथ की पकड़
तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी।
सच,
वही तुम्हारे बिलगाव का मुकाम हो सकता था।
पर उसके बाद तो
कुछ टूटने की इतनी आवाज़ें हुईं
कि आज तक उन्हें सुनता रहता हूँ।
आवाज़ें और कुछ नहीं सुनने देतीं!
तुम जो हर घड़ी की साथिन हो,
तुमझे झूठ क्या बोलूँ?
खुद तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी
मुझे अरसा गुजर गया!
लेकिन तुम्हारे हाथों को हाथों में लिए
मैं उस समय तक चलूँगा
जब तक उँगलियाँ गलकर न गिर जाएँ।
तुम फिर भी अपनी हो,
वह फिर भी ग़ैर थी जो छूट गई;
और उसके सामने कभी मैं
यह प्रगट न होने दूँगा
कि मेरी उँगलियाँ दग़ाबाज़ हैं,
या मेरी पकड़ कमज़ोर है,
मैं चाहे कलम पकड़ूँ या कलाई।
मगर ओ मेरी जिंदगी!
मुझे यह तो बता
तू मुझे क्यों निभा रही है?
मेरे साथ चलते हुए
क्या तुझे कभी ये अहसास होता है
कि तू अकेली नहीं?
9. मैं और मेरा दुख
दुख : किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा
किंतु सुख : तमंचे की गोली जैसा
मुझको लगा है।
आप ही बताएँ
कभी आप ने चलती हुई गोली को चलते,
या अभी जन्मे बच्चे को उड़ते हुए देखा है?
10. शब्दों की पुकार
एक बार फिर
हारी हुई शब्द-सेना ने
मेरी कविता को आवाज़ लगाई—
“ओ माँ! हमें सँवारो।
थके हुए हम
बिखरे-बिखरे क्षीण हो गए,
कई परत आ गईं धूल की,
धुँधला सा अस्तित्व पड़ गया,
संज्ञाएँ खो चुके…!
लेकिन फिर भी
अंश तुम्हारे ही हैं
तुमसे पृथक कहाँ हैं?
अलग-अलग अधरों में घुटते
अलग-अलग हम क्या हैं?
(कंकर, पत्थर, राजमार्ग पर!)
ठोकर खाते हुए जनों की
उम्र गुज़र जाएगी,
हसरत मर जाएगी यह—
‘काश हम किसी नींव में काम आ सके होते,
हम पर भी उठ पाती बड़ी इमारत।’
ओ कविता माँ!
लो हमको अब
किसी गीत में गूँथो
नश्वरता के तट से पार उतारो
और उबारो—
एकरूप शृंखलाबद्ध कर
अकर्मण्यता की दलदल से।
आत्मसात होने को तुममें
आतुर हैं हम
क्योंकि तुम्हीं वह नींव
इमारत की बुनियाद पड़ेगी जिस पर।
शब्द नामधारी
सारे के सारे युवक, प्रौढ़ औ’ बालक,
एक तुम्हारे इंगित की कर रहे प्रतीक्षा,
चाहे जिधर मोड़ दो
कोई उज़र नहीं है—
ऊँची-नीची राहों में
या उन गलियों में
जहाँ खुशी का गुज़र नहीं है—;
लेकिन मंज़िल तक पहुँचा दो, ओ कविता माँ!
किसी छंद में बाँध
विजय का कवच पिन्हा दो, ओ कविता माँ!
धूल-धूसरित
हम कि तुम्हारे ही बालक हैं
हमें निहारो!
अंक बिठाओ,
पंक्ति सजाओ, ओ कविता माँ!”
एक बार फिर
कुछ विश्वासों ने करवट ली,
सूने आँगन में कुछ स्वर शिशुओं से दौड़े,
जाग उठी चेतनता सोई;
होने लगे खड़े वे सारे आहत सपने
जिन्हें धरा पर बिछा गया था झोंका कोई!
11. दिग्विजय का अश्व
“—आह, ओ नादान बच्चो!
दिग्विजय का अश्व है यह,
गले में इसके बँधा है जो सुनहला-पत्र
मत खोलो,
छोड़ दो इसको।
बिना-समझे, बिना-बूझे, पकड़ लाए
मूँज की इन रस्सियों में बाँधकर
क्यों जकड़ लाए?
क्या करोगे?
धनुर्धारी, भीम औ’ सहदेव
या खुद धर्मराज नकुल वगैरा
साज सेना
अभी अपने गाँव में आ जाएँगे,
महाभारत का बनेगा केंद्र यह,
हाथियों से
और अश्वों के खुरों से,
धूल में मिल जाएँगे ये घर,
अनगिन लाल
ग्रास होंगे काल के,
मृत्यु खामोशी बिछा देगी,
भरी पूरी फ़सल सा यह गाँव
सब वीरान होगा।
आह! इसका करोगे क्या?
छोड़ दो!
बाग इसकी किसी अनजानी दिशा में मोड़ दो।
क्या नहीं मालूम तुमको
आप ही भगवान उनके सारथी हैं?”
“—नहीं, बापू, नहीं!
इसे कैसे छोड़ दें हम?
इसे कैसे छोड़ सकते हैं!!
हम कि जो ढोते रहे हैं ज़िंदगी का बोझ अब तक
पीठ पर इसकी चढ़ेंगे,
हवा खाएँगे,
गाड़ियों में इसे जोतेंगे,
लादकर बोरे उपज के
बेचने बाज़ार जाएँगे।
हम कि इसको नई ताज़ी घास देंगे
घूमने को हरा सब मैदान देंगे।
प्यार देंगे, मान देंगे;
हम कि इसको रोकने के लिए अपने प्राण देंगे।
अस्तबल में बँधा यह निर्वाक प्राणी!
उस ‘चमेली’ गाय के बछड़े सरीखा
आज बंधनहीन होकर
यहाँ कितना रम गया है!
यह कि जैसे यहीं जन्मा हो, पला हो।
आज हैं कटिबद्ध हम सब
फावड़े लाठी सँभाले।
कृष्ण, अर्जुन इधर आएँ
हम उन्हें आने न देंगे।
अश्व ले जाने न देंगे।”
12. मुक्तक
(१)
सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं
क़दम क़दम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।
(२)
तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में, गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको क़ैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
(३)
गीत गाकर चेतना को वर दिया मैंने
आँसुओं से दर्द को आदर दिया मैंने
प्रीत मेरी आत्मा की भूख थी, सहकर
ज़िंदगी का चित्र पूरा कर दिया मैंने
(४)
जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।
13. दिन निकलने से पहले
“मनुष्यों जैसी
पक्षियों की चीखें और कराहें गूँज रही हैं,
टीन के कनस्तरों की बस्ती में
हृदय की शक्ल जैसी अँगीठियों से
धुआँ निकलने लगा है,
आटा पीसने की चक्कियाँ
जनता के सम्मिलित नारों की सी आवाज़ में
गड़गड़ाने लगी हैं,
सुनो प्यारे! मेरा दिल बैठ रहा है!”
“अपने को सँभालो मित्र!
अभी ये कराहें और तीखी,
ये धुआँ और कड़ुआ,
ये गड़गड़ाहट और तेज़ होगी,
मगर इनसे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं,
दिन निकलने से पहले ऐसा ही हुआ करता है।”
14. परिणति
आत्मसिद्ध थीं तुम कभी!
स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह
तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी
जिसमें रस था:
पर अब तो
बच्चों ने जैसे
चाकू से खोद खोद कर
विकृत कर दिया हो किसी आम के तने को
गोंद पाने के लिए:
सपनों के उद्वेलन
बचपन के खेल बनकर रह गए;
शुष्क सरिता का अंतहीन मरुथल!
स्थिर….नियत…..पूर्व निर्धारित सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,
शब्द गए
केवल अधर रह गए;
सुख-दुख की परिधि हुई सीमित
गीले-सूखे ईंधन तक,
अनुभूतियों का कर्मठ ओज बना
राँधना-खिलाना
यौवन के झनझनाते स्वरों की परिणति
लोरियाँ गुनगुनाना
(मुन्ने को चुपाने के लिए!)
किसी प्रेम-पत्र सदृश
आज वह भविष्यत्!
फ़र्श पर टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
क्षत-विक्षत!
15. वासना का ज्वार
क्या भरोसा
लहर कब आए?
किनारे डूब जाएँ?
तोड़कर सारे नियंत्रण
इस अगम गतिशील जल की धार—
कब डुबोदे क्षीण जर्जर यान?
(मैं जिसे संयम बताता हूँ)
आह! ये क्षण!
ये चढ़े तूफ़ान के क्षण!
क्षुद्र इस व्यक्तित्व को मथ डालने वाले
नए निर्माण के क्षण!
यही तो हैं—
मैं कि जिनमें
लुटा, खोया, खड़ा खाली हाथ रह जाता,
तुम्हारी ओर अपलक ताकता सा!
यह तुम्हारी सहज स्वाभाविक सरल मुस्कान
क़ैद इनमें बिलबिलाते अनगिनत तूफ़ान
इसे रोको प्राण!…
अपना यान मुझको बहुत प्यारा है!
पर सदा तूफ़ान के सामने हारा है!
16. एक पत्र का अंश
मुझे लिखना
वह नदी जो बही थी इस ओर!
छिन्न करती चेतना के राख के स्तूप,
क्या अब भी वहीं है?
बह रही है?
—या गई है सूख वह
पाकर समय की धूप?
प्राण! कौतूहल बड़ा है,
मुझे लिखना,
श्वाँस देकर खाद
परती कड़ी धरती चीर
वृक्ष जो हमने उगाया था नदी के तीर
क्या अब भी खड़ा है?
—या बहा कर ले गई उसको नदी की धार
अपने साथ, परली पार?
17. गीत तेरा
गीत तेरा मन कँपाता है।
शक्ति मेरी आजमाता है।
न गा यह गीत,
जैसे सर्प की आँखें
कि जिनका मौन सम्मोहन
सभी को बाँध लेता है,
कि तेरी तान जैसे एक जादू सी
मुझे बेहोश करती है,
कि तेरे शब्द
जिनमें हूबहू तस्वीर
मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है;
न गा यह ज़िंदगी मेरी न गा,
प्राण का सूना भवन हर स्वर गुँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहरियों में ज्वार आता है।
हमारे बीच का व्यवधान कम लगने लगा
मैं सोचती अनजान तेरी रागिनी में
दर्द मेरे हृदय का जगने लगा;
भावना की मधुर स्वप्निल राह–
‘इकली नहीं हूँ मैं आह!’
सोचती हूँ जब, तभी मन धीर खोता है,
कि कहती हूँ न जाने क्या
कि क्या कुछ अर्थ होता है?
न जाने दर्द इतना किस तरह मन झेल पाता है?
न जाने किस तरह का गीत यौवन तड़फड़ाता है?
न गा यह गीत मुझको दूर खींचे लिए जाता है।
गीत तेरा मन कँपाता है।
हृदय मेरा हार जाता है।
18. जभी तो
नफ़रत औ’ भेद-भाव
केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब।
मैंने महसूस किया है
मेरे घर में ही
बिजली का सुंदर औ’ भड़कदार लट्टू—
कुरसी के टूटे हुए बेंत पर,
खस्ता तिपाई पर,
फटे हुए बिस्तर पर, छिन्न चारपाई पर,
कुम्हलाए बच्चों पर,
अधनंगी बीवी पर—
रोज़ व्यंग्य करता है,
जैसे वह कोई ‘मिल-ओनर’ हो।
जभी तो—मेरे नसों में यह खून खौल उट्ठा है,
बंकिम हुईं हैं भौंह,
मैंने कुछ तेज़ सा कहा है;
यों मुझे क्या पड़ी थी
जो अपनी क़लम को खड्ग बनाता मैं?
19. मोम का घोड़ा
मैने यह मोम का घोड़ा,
बड़े जतन से जोड़ा,
रक्त की बूँदों से पालकर
सपनों में ढालकर
बड़ा किया,
फिर इसमें प्यास और स्पंदन
गायन और क्रंदन
सब कुछ भर दिया,
औ’ जब विश्वास हो गया पूरा
अपने सृजन पर,
तब इसे लाकर
आँगन में खड़ा किया!
माँ ने देखा—बिगड़ीं;
बाबूजी गरम हुए;
किंतु समय गुजरा…
फिर नरम हुए।
सोचा होगा—लड़का है,
ऐसे ही स्वाँग रचा करता है।
मुझे भरोसा था मेरा है,
मेरे काम आएगा।
बिगड़ी बनाएगा।
किंतु यह घोड़ा।
कायर था थोड़ा,
लोगों को देखकर बिदका, चौंका,
मैंने बड़ी मुश्किल से रोका।
और फिर हुआ यह
समय गुज़रा, वर्ष बीते,
सोच कर मन में—हारे या जीते,
मैने यह मोम का घोड़ा,
तुम्हें बुलाने को
अग्नि की दिशाओं को छोड़ा।
किंतु जैसे ये बढ़ा
इसकी पीठ पर पड़ा
आकर
लपलपाती लपटों का कोड़ा,
तब पिघल गया घोड़ा
और मोम मेरे सब सपनों पर फैल गया!
20. यह क्यों
हर उभरी नस मलने का अभ्यास
रुक रुककर चलने का अभ्यास
छाया में थमने की आदत
यह क्यों?
जब देखो दिल में एक जलन
उल्टे उल्टे से चाल-चलन
सिर से पाँवों तक क्षत-विक्षत
यह क्यों?
जीवन के दर्शन पर दिन-रात
पण्डित विद्वानों जैसी बात
लेकिन मूर्खों जैसी हरकत
यह क्यों?
21. मंत्र हूँ
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं!
एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको
ऊसर मैदानों पर
खेतों खलिहानों पर
काली चट्टानों पर….।
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
आज अगर चुप हूँ
धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन;
तो मैं नहीं
तुम ही हो उत्तरदायी इसके।
तुमने ही मुझे कभी
ध्यान से निहारा नहीं,
छुआ या पुकारा नहीं,
छिद्रों में फूँक नहीं दी तुमने,
तुमने ही वर्षों से
अपनी पीड़ाओं को, क्रंदन को,
मूक, भावहीन, बने रहने की स्वीकृति दी;
मुझको भी विवश किया
तुमने अभिव्यक्तिहीन होकर खुद!
लेकिन मैं अब भी गा सकता हूँ
अब भी यदि
होठों पर रख लो तुम
देकर मुझको अपनी आत्मा
सुख-दुख सहने दो,
मेरे स्वर को अपने भावों की सलिला में
अपनी कुंठाओं की धारा में बहने दो।
प्राणहीन है वैसे तेरा तन
तुमको ही पाकर पूर्णत्व प्राप्त करता है,
मुझको पहचानो तुम
पृथक नहीं सत्ता है!
–तुम ही हो जो मेरे माध्यम से
विविध रूप धर कर प्रतिफलित हुआ करते हो!
मुझको उच्चरित करो
चाहे जिन भावों में गढ़कर!
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
फेंको मुझको एक बूँद आँसू में पढ़कर!
22. स्वप्न और परिस्थितियाँ
सिगरेट के बादलों का घेरा
बीच में जिसके वह स्वप्न चित्र मेरा—
जिसमें उग रहा सवेरा साँस लेता है,
छिन्न कर जाते हैं निर्मम हवाओं के झोंके;
आह! है कोई माई का लाल?
जो इन्हें रोके,
सामने आकर सीना ठोंके।
23. अभिव्यक्ति का प्रश्न
प्रश्न अभिव्यक्ति का है,
मित्र!
किसी मर्मस्पर्शी शब्द से
या क्रिया से,
मेरे भावों, अभावों को भेदो
प्रेरणा दो!
यह जो नीला
ज़हरीला घुँआ भीतर उठ रहा है,
यह जो जैसे मेरी आत्मा का गला घुट रहा है,
यह जो सद्य-जात शिशु सा
कुछ छटपटा रहा है,
यह क्या है?
क्या है मित्र,
मेरे भीतर झाँककर देखो।
छेदो! मर्यादा की इस लौह-चादर को,
मुझे ढँक बैठी जो,
उठने मुस्कराने नहीं देती,
दुनियाँ में आने नहीं देती।
मैं जो समुद्र-सा
सैकड़ों सीपियों को छिपाए बैठा हूँ,
सैकड़ों लाल मोती खपाए बैठा हुँ,
कितना विवश हूँ!
मित्र, मेरे हृदय का यह मंथन
यह सुरों और असुरों का द्वन्द्व
कब चुकेगा?
कब जागेगी शंकर की गरल पान करने वाली करुणा?
कब मुझे हक़ मिलेगा
इस मंथन के फल को प्रगट करने का?
मूक!
असहाय!!
अभिव्यक्ति हीन!!
मैं जो कवि हूँ,
भावों-अभावों के पाटों में पड़ा हुआ
एकाकी दाने-सा
कब तक जीता रहूँगा?
कब तक कमरे के बाहर पड़े हुए गर्दख़ोरे-सा
जीवन का यह क्रम चलेगा?
कब तक ज़िंगदी की गर्द पीता रहूँगा?
प्रश्न अभिव्यक्ति का है मित्र!
ऐसा करो कुछ
जो मेरे मन में कुलबुलाता है
बाहर आ जाए!
भीतर शांति छा जाए!
24. दीवार
दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें
दीवार, दरारें बढ़ती जाती हैं इसमें
तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे
कब तक इंजीनियरों की दवा पिलाओगे
गिरने वाला क्षण दो क्षण में गिर जाता है,
दीवार भला कब तक रह पाएगी रक्षित
यह पानी नभ से नहीं धरा से आता है।
25. आत्म-वर्जना
अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे।
तुम अपने घर के पीछे
जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे
मिलती थीं, उनके साए
अब तक मुझ पर मँडलाए,
अब कभी न मँडलाएँगें।
दुख ने झिझक खोल दी
वे बिनबोले अक्षर
जो मन की अभिलाषाओं को रूप न देकर
अधरों में ही घुट जाते थे
अब गूँजेंगे, कविता कहलाएँगें,
पर हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगें।
26. दो पोज़
सद्यस्नात तुम
जब आती हो
मुख कुन्तलों से ढँका रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।
पर जब तुम
केश झटक देती हो अनायास
तारों-सी बूँदें
बिखर जाती हैं आसपास
मुक्त हो जाता है चाँद
तब बहुत भला लगता है ।
27. एक मनस्थिति का चित्र
मानसरोवर की
गहराइयों में बैठे
हंसों ने पाँखें दीं खोल
शांत, मूक अंबर में
हलचल मच गई
गूँज उठे त्रस्त विविध-बोल
शीष टिका हाथों पर
आँख झपीं, शंका से
बोधहीन हृदय उठा डोल।
28. पुनर्स्मरण
आह-सी धूल उड़ रही है आज
चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट-सा कुछ अटक गया होगा
मन-सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात
बात पर आ गई है बात
स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास होके जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी, ढलकी,
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, विदाई तमाम रात आई—
याद रह रह के’ कँपकँपाया गात
बात पर आ गई है बात
29. सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन
सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा।
लज्जा से अरुण हुई
तरुण दिशाओं ने
आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने
मुख-लाल कुछ उठाया
फिर मौन सिर झुकाया
ज्यों – ‘क्या मतलब?’
एक बार सहमी
ले कम्पन, रोमांच वायु
फिर गति से बही
जैसे कुछ नहीं हुआ!
मैं तटस्थ था, लेकिन
ईश्वर की शपथ!
सूरज के साथ
हृदय डूब गया मेरा।
अनगिन क्षणों तक
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं
क्षुब्ध हृदय लिए।
औ’ मैं स्वयं डूबने को था
स्वयं डूब जाता मैं
यदि मुझको विश्वास यह न होता –-
‘मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य
ज्योति-किरणों से भरा-पूरा
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को
जोतता-बोता हुआ,
हँसता, ख़ुश होता हुआ।’
ईश्वर की शपथ!
इस अँधेरे में
उसी सूरज के दर्शन के लिए
जी रहा हूँ मैं
कल से अब तक!
30. सत्य
दूर तक फैली हुई है जिंदगी की राह
ये नहीं तो और कोई वृक्ष देगा छाँह
गुलमुहर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या!
सत्य, यदि तुम मुझे मिल पाए नहीं तो क्या!
31. क्षमा
“आह!
मेरा पाप-प्यासा तन
किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में
बँध गया चुपचाप
मेरा प्यार पावन
हो गया कितना अपावन आज!
आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र
मेरी घुट रही आवाज़!
कैसे पी सका
विष से भरे वे घूँट…?
जँगली फूल सी सुकुमार औ’ निष्पाप
मेरी आत्मा पर बोझ बढ़ता जा रहा है प्राण!
मुझको त्राण दो…
दो…त्राण….”
और आगे कह सका कुछ भी न मैं
टूटे-सिसकते अश्रुभीगे बोल में
सब बह गए स्वर हिचकियों के साथ
औ’ अधूरी रह गई अपराध की वह बात
जो इक रात….।
बाक़ी रहे स्वप्न भी
मूक तलुओं में चिपककर रह गए।
और फिर
बाहें उठीं दो बिजलियों सी
नर्म तलुओं से सटा मुख-नम
आया वक्ष पर उद्भ्रान्त;
हल्की सी ‘टपाऽटप’ ध्वनि
सिसकियाँ
और फिर सब शांत….
नीरव…..शांत…….।
32. कागज़ की डोंगियाँ
यह समंदर है।
यहाँ जल है बहुत गहरा।
यहाँ हर एक का दम फूल आता है।
यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी व्यर्थ लगती है।
हम जो स्वयं को तैराक कहते हैं,
किनारों की परिधि से कब गए आगे?
इसी इतिवृत्त में हम घूमते हैं,
चूमते हैं पर कभी क्या छोर तट का?
(किंतु यह तट और है)
समंदर है कि अपने गीत गाए जा रहा है,
पर हमें फ़ुरसत कहाँ जो सुन सकें कुछ!
क्योंकि अपने स्वार्थ की
संकुचित सीमा में बंधे हम,
देख-सुन पाते नहीं हैं
और का दुख
और का सुख।
वस्तुतः हम हैं नहीं तैराक,
खुद को छल रहे हैं,
क्योंकि चारों ओर से तैराक रहता है सजग।
हम हैं नाव कागज़ की!
जिन्हें दो-चार क्षण उन्मत्त लहरों पर
मचलते देखते हैं सब,
हमें वह तट नहीं मिलता
(कि पाना चाहिए जो,)
न उसको खोजते हैं हम।
तनिक सा तैरकर
तैराक खुद को मान लेते हैं,
कि गलकर अंततोगत्वा
वहाँ उस ओर
मिलता है समंदर से जहाँ नीलाभ नभ,
नीला धुआँ उठता जहाँ,
हम जा पहुँचते हैं;
(मगर यह भी नहीं है ठीक से मालूम।)
कल अगर कोई
हमारी डोंगियों को ढूँढ़ना चाहे….
…………………….?
33. पर जाने क्यों
माना इस बस्ती में धुआँ है
खाई है,
खंदक है,
कुआँ है;
पर जाने क्यों?
कभी कभी धुआँ पीने को भी मन करता है;
खाई-खंदकों में जीने को भी मन करता है;
यह भी मन करता है—
यहीं कहीं झर जाएँ,
यहीं किसी भूखे को देह-दान कर जाएँ
यहीं किसी नंगे को खाल खींच कर दे दें
प्यासे को रक्त आँख मींच मींच कर दे दें
सब उलीच कर दे दें
यहीं कहीं—!
माना यहाँ धुआँ है
खाई है, खंदक है, कुआँ है,
पर जाने क्यों?
34. इनसे मिलिए
पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग
पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल
बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत
कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।
35. माया
दूध के कटोरे सा चाँद उग आया।
बालकों सरीखा यह मन ललचाया।
(आह री माया!
इतना कहाँ है मेरे पास सरमाया?
जीवन गँवाया!)
36. संधिस्थल
साँझ।
दो दिशाओं से
दो गाड़ियाँ आईं
रुकीं।
‘यह कौन
देखा कुछ झिझक संकोच से
पर मौन।
‘तुमुल कोलाहल भरा यह संधिस्थल धन्य!’
दोनों एक दूजे के हृदय की धड़कनों को
सुन रहे थे शांत,
जैसे ऐंद्रजालिक-चेतना के लोक में
उद्भ्रान्त।
चल पड़ी फिर ट्रेन।
मुख पर सद्यनिर्मित झुर्रियाँ
स्पष्ट सी हो गईं दोनों और दुख की।
फड़फड़ाते रह गए स्वर पीत अधरों में।
व्यग्र उत्कंठा सभी कुछ जानने की,
पूछने की घुट गई।
आँसू भरी नयनों की अकृतिम कोर,
दोनों ओर:
देखा दूर तक चुपचाप, रोके साँस,
लेकिन आ गया व्यवधान बन
सहसा क्षितिज का क्षोर–
मानव-शक्ति के सीमान का आभास,
और दिन बुझ गया।
37. प्रेरणा के नाम
तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी….,
किंतु–वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था–
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!
जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक…विवश…,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।
आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है–उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।
आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी–
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!
नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!
परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस–देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा।
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।
कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?
38. सूचना
कल माँ ने यह कहा–
कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर,
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किन्तु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हों मुझको
मेरा कमरा औ’ मेरा घर ।
39. समय
नहीं!
अभी रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन!
भूला भटका कोई स्वर
अब भी उठता है–आता है!
निस्वन हवा में तैर जाता है!
रोशनी भी है कहीं?
मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं,
नभ में एक तारा टिमटिमाता है!
अभी और सब्र करो!
जल नहीं, रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
अभी एक बूँद बाकी है!
सोतों में पहली सी धार प्रवहमान है!
कहीं कहीं मानसून उड़ते हैं!
और हरियाली भी दिखाई दे जाती है!
ऐसा नहीं है बन्धु!
सब कहीं सूखा हो!
गंध नहीं:
शक्ति नहीं:
तप नहीं:
त्याग नहीं:
कुछ नहीं–
न हो बन्धु! रहने दो
अभी यह पुकार मत उठाओ!
और कष्ट सहो।
फसलें यदि पीली हो रही हैं तो होने दो
बच्चे यदि प्यासे रो रहे हैं तो रोने दो
भट्टी सी धरती की छाती सुलगने दो
मन के अलावों में और आग जगने दो
कार्य का कारण सिर्फ इच्छा नहीं होती…!
फल के हेतु कृषक भूमि धूप में निरोता है
हर एक बदली यूँही नहीं बरस जाती है!
बल्कि समय होता है!
40. आँधी और आग
अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।
41. अनुभव-दान
“खँडहरों सी भावशून्य आँखें
नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं।
बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं;
टूटी हुई जिंदगी
आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है;
कटी हुई पतंगों से हम सब
छत की मुँडेरों पर पड़े हैं।”
बस! बस!! बहुत सुन लिया है।
नया नहीं है ये सब मैंने भी किया है।
अब वे दिन चले गए,
बालबुद्धि के वे कच्चे दिन भले गए।
आज हँसी आती है!
व्यक्ति को आँखों में
क़ैद कर लेने की आदत पर,
रूप को बाहों में भर लेने की कल्पना पर,
हँसने-रोने की बातों पर,
पिछली बातों पर,
आज हँसी आती है!
तुम सबकी ऐसी बातें सुनने पर
रुई के तकियों में सिर धुनने पर,
अपने हृदयों को भग्न घोषित कर देने की आदत पर,
गीतों से कापियाँ भर देने की आदत पर,
आज हँसी आती है!
इस सबसे दर्द अगर मिटता
तो रुई का भाव तेज हो जाता।
तकियों के गिलाफ़ों को कपड़े नहीं मिलते।
भग्न हृदयों की दवा दर्जी सिलते।
गीतों से गलियाँ ठस जातीं।
लेकिन,
कहाँ वह उदासी अभी मिट पाई!
गलियों में सूनापन अब भी पहरा देता है,
पर अभी वह घड़ी कहाँ आई!
चाँद को देखकर काँपो
तारों से घबराओ
भला कहीं यूँ भी दर्द घटता है!
मन की कमज़ोरी में बहकर
खड़े खड़े गिर जाओ
खुली हवा में न आओ
भला कहीं यूँ भी पथ कटता है!
झुकी हुई पीठ,
टूटी हुई बाहों वाले बालक-बालिकाओं सुनो!
खुली हवा में खेलो।
चाँद को चमकने दो, हँसने दो
देखो तो
ज्योति के धब्बों को मिलाती हुई
रेखा आ रही है,
कलियों में नए नए रंग खिल रहे हैं,
भौरों ने नए गीत छेड़े हैं,
आग बाग-बागीचे, गलियाँ खूबसूरत हैं।
उठो तुम भी
हँसी की क़ीमत पहचानो
हवाएँ निराश न लौटें।
उदास बालक बालिकाओं सुनो!
समय के सामने सीना तानो,
झुकी हुई पीठ
टूटी हुई बाहों वाले बालकों आओ
मेरी बात मानो।
42. उबाल
गाओ…!
काई किनारे से लग जाए
अपने अस्तित्व की शुद्ध चेतना जग जाए
जल में
ऐसा उबाल लाओ…!
43. सत्य बतलाना
सत्य बतलाना
तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?
क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था?
क्या उनकी आँखों में घृणा का इरादा था?
क्या उनके माथे पर द्वेष-भाव ज्यादा था?
क्या उनमें कोई ऐसा था जो कायर हो?
या उनके फटे वस्त्र तुमको भरमा गए?
पाँवों की बिवाई से तुम धोखा खा गए?
जो उनको ऐसा ग़लत रास्ता सुझा गए।
जो वे खता खा गए।
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?
वे जो हमसे पहले इन राहों पर आए थे,
वे जो पसीने से दूध से नहाए थे,
वे जो सचाई का झंडा उठाए थे,
वे जो लौटे तो पराजित कहाए थे,
क्या वे पराए थे?
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोका?
क्यों नहीं बताई राह?
44. तीन दोस्त
सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में
खंदकों खाइयों में
रेगिस्तानों में, चीख कराहों में
उजड़ी गलियों में
थकी हुई सड़कों में, टूटी बाहों में
हर गिर जाने की जगह
बिखर जाने की आशंकाओं में
लोहे की सख्त शिलाओं से
दृढ़ औ’ गतिमय
हम तीन दोस्त
रोशनी जगाते हुए अँधेरी राहों पर
संगीत बिछाते हुए उदास कराहों पर
प्रेरणा-स्नेह उन निर्बल टूटी बाहों पर
विजयी होने को सारी आशंकाओं पर
पगडंडी गढ़ते
आगे बढ़ते जाते हैं
हम तीन दोस्त पाँवों में गति-सत्वर बाँधे
आँखों में मंजिल का विश्वास अमर बाँधे।
हम तीन दोस्त
आत्मा के जैसे तीन रूप,
अविभाज्य–भिन्न।
ठंडी, सम, अथवा गर्म धूप–
ये त्रय प्रतीक
जीवन जीवन का स्तर भेदकर
एकरूपता को सटीक कर देते हैं।
हम झुकते हैं
रुकते हैं चुकते हैं लेकिन
हर हालत में उत्तर पर उत्तर देते हैं।
हम बंद पड़े तालों से डरते नहीं कभी
असफलताओं पर गुस्सा करते नहीं कभी
लेकिन विपदाओं में घिर जाने वालों को
आधे पथ से वापस फिर जाने वालों को
हम अपना यौवन अपनी बाँहें देते हैं
हम अपनी साँसें और निगाहें देते हैं
देखें–जो तम के अंधड़ में गिर जाते हैं
वे सबसे पहले दिन के दर्शन पाते हैं।
देखें–जिनकी किस्मत पर किस्मत रोती है
मंज़िल भी आख़िरकार उन्हीं की होती है।
जिस जगह भूलकर गीत न आया करते हैं
उस जगह बैठ हम तीनों गाया करते हैं
देने के लिए सहारा गिरने वालों को
सूने पथ पर आवारा फिरने वालों को
हम अपने शब्दों में समझाया करते हैं
स्वर-संकेतों से उन्हें बताया करते हैं–
‘तुम आज अगर रोते हो तो कल गा लोगे
तुम बोझ उठाते हो, तूफ़ान उठा लोगे
पहचानो धरती करवट बदला करती है
देखो कि तुम्हारे पाँव तले भी धरती है।’
हम तीन दोस्त इस धरती के संरक्षण में
हम तीन दोस्त जीवित मिट्टी के कण कण में
हर उस पथ पर मौजूद जहाँ पग चलते हैं
तम भाग रहा दे पीठ दीप-नव जलते हैं
आँसू केवल हमदर्दी में ही ढलते हैं
सपने अनगिन निर्माण लिए ही पलते हैं।
हम हर उस जगह जहाँ पर मानव रोता है
अत्याचारों का नंगा नर्तन होता है
आस्तीनों को ऊपर कर निज मुट्ठी ताने
बेधड़क चले जाते हैं लड़ने मर जाने
हम जो दरार पड़ चुकी साँस से सीते हैं
हम मानवता के लिए जिंदगी जीते हैं।
ये बाग़ बुज़ुर्गों ने आँसू औ’ श्रम देकर
पाले से रक्षा कर पाला है ग़म देकर
हर साल कोई इसकी भी फ़सलें ले खरीद
कोई लकड़ी, कोई पत्तों का हो मुरीद
किस तरह गवारा हो सकता है यह हमको
ये फ़सल नहीं बिक सकती है निश्चय समझो।
…हम देख रहे हैं चिड़ियों की लोलुप पाँखें
इस ओर लगीं बच्चों की वे अनगिन आँखें
जिनको रस अब तक मिला नहीं है एक बार
जिनका बस अब तक चला नहीं है एक बार
हम उनको कभी निराश नहीं होने देंगे
जो होता आया अब न कभी होने देंगे।
ओ नई चेतना की प्रतिमाओं, धीर धरो
दिन दूर नहीं है वह कि लक्ष्य तक पहुँचेंगे
स्वर भू से लेकर आसमान तक गूँजेगा
सूखी गलियों में रस के सोते फूटेंगे।
हम अपने लाल रक्त को पिघला रहे और
यह लाली धीरे धीरे बढ़ती जाएगी
मानव की मूर्ति अभी निर्मित जो कालिख से
इस लाली की परतों में मढ़ती जाएगी
यह मौन
शीघ्र ही टूटेगा
जो उबल उबल सा पड़ता है मन के भीतर
वह फूटेगा,
आता ही निशि के बाद
सुबह का गायक है,
तुम अपनी सब सुंदर अनुभूति सँजो रक्खो
वह बीज उगेगा ही
जो उगने लायक़ है।
हम तीन बीज
उगने के लिए पड़े हैं हर चौराहे पर
जाने कब वर्षा हो कब अंकुर फूट पड़े,
हम तीन दोस्त घुटते हैं केवल इसीलिए
इस ऊब घुटन से जाने कब सुर फूट पड़े ।
45. उसे क्या कहूँ
किन्तु जो तिमिर-पान
औ’ ज्योति-दान
करता करता बह गया
उसे क्या कहूँ
कि वह सस्पन्द नहीं था?
और जो मन की मूक कराह
ज़ख़्म की आह
कठिन निर्वाह
व्यक्त करता करता रह गया
उसे क्या कहूँ
गीत का छन्द नहीं था?
पगों कि संज्ञा में है
गति का दृढ़ आभास,
किन्तु जो कभी नहीं चल सका
दीप सा कभी नहीं जल सका
कि यूँही खड़ा खड़ा ढह गया
उसे क्या कहूँ
जेल में बन्द नहीं था?
46. सत्यान्वेषी
फेनिल आवर्त्तों के मध्य
अजगरों से घिरा हुआ
विष-बुझी फुंकारें
सुनता-सहता,
अगम, नीलवर्णी,
इस जल के कालियादाह में
दहता,
सुनो, कृष्ण हूँ मैं,
भूल से साथियों ने
इधर फेंक दी थी जो गेंद
उसे लेने आया हूँ
[आया था
आऊँगा]
लेकर ही जाऊँगा।
47. नई पढ़ी का गीत
जो मरुस्थल आज अश्रु भिगो रहे हैं,
भावना के बीज जिस पर बो रहे हैं,
सिर्फ़ मृग-छलना नहीं वह चमचमाती रेत!
क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?
सूर्य की पहली किरन पहचानता है कौन?
अर्थ कल लेंगे हमारे आज के संकेत।
तुम न मानो शब्द कोई है न नामुमकिन
कल उगेंगे चाँद-तारे, कल उगेगा दिन,
कल फ़सल देंगे समय को, यही ‘बंजर खेत’।
48. सूर्य का स्वागत
आँगन में काई है,
दीवारें चिकनीं हैं, काली हैं,
धूप से चढ़ा नहीं जाता है,
ओ भाई सूरज! मैं क्या करूँ?
मेरा नसीबा ही ऐसा है!
खुली हुई खिड़की देखकर
तुम तो चले आए,
पर मैं अँधेरे का आदी,
अकर्मण्य…निराश…
तुम्हारे आने का खो चुका था विश्वास।
पर तुम आए हो–स्वागत है!
स्वागत!…घर की इन काली दीवारों पर!
और कहाँ?
हाँ, मेरे बच्चे ने
खेल खेल में ही यहाँ काई खुरच दी थी
आओ–यहाँ बैठो,
और मुझे मेरे अभद्र सत्कार के लिए क्षमा करो।
देखो! मेरा बच्चा
तुम्हारा स्वागत करना सीख रहा है।
आवाज़ों के घेरे : दुष्यन्त कुमार (Aawazon Ke Ghere : Dushyant Kumar)
1. आग जलती रहे
एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुज़रता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ !
…प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के सम्पर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बनकर चुका,
रीता,
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन …कैसा पोच मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल भाग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप !
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।
2. आज
अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं
ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं
…क्रान्ति !…कितना हँसो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।
रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते
शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान
स्वर-लय खोजते हैं
ये सभी आदेश-बाधित नहीं।
इस विफल वातावरण में
जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है
भावना हो…सवेरा हो…
या प्रतीक्षित पक्षियों के गान-
किन्तु कुछ है;
गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं।
यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति :
हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे
खाद-सी इतिहास में बस काम आये
पर समय को अर्थ देती जा रही है।
3. आवाज़ों के घेरे
आवाज़ें…
स्थूल रूप धरकर जो
गलियों, सड़कों में मँडलाती हैं,
क़ीमती कपड़ों के जिस्मों से टकराती हैं,
मोटरों के आगे बिछ जाती हैं,
दूकानों को देखती ललचाती हैं,
प्रश्न चिह्न बनकर अनायास आगे आ जाती हैं-
आवाज़ें !
आवाज़ें, आवाज़ें !!
मित्रों !
मेरे व्यक्तित्व
और मुझ-जैसे अनगिन व्यक्तित्वों का क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ
गाता हूँ
मेरे जीने, गाने
कवि कहलाने का क्या मतलब ?
जब मैं आवाज़ों के घेरे में
पापों की छायाओं के बीच
आत्मा पर बोझा-सा लादे हूँ;
4. अनुकूल वातावरण
उड़ते हुए गगन में
परिन्दों का शोर
दर्रों में, घाटियों में
ज़मीन पर
हर ओर…
एक नन्हा-सा गीत
आओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और फेंक दें हवा में उसको
ताकि सब सुने,
और शान्त हों हृदय वे
जो उफनते हैं
और लोग सोचें
अपने मन में विचारें
ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।
5. दृष्टान्त
वह चक्रव्यूह भी बिखर गया
जिसमें घिरकर अभिमन्यु समझता था ख़ुद को।
आक्रामक सारे चले गये
आक्रमण कहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दुर्निवार तम की चादर-जैसा
अपने निष्क्रिय जीवन के ऊपर फैला हूँ।
बस मैं ही एकाकी इस युद्ध-स्थल के बीच खड़ा हूँ।
यह अभिमन्यु न बन पाने का क्लेश !
यह उससे भी कहीं अधिक क्षत-विक्षत सब परिवेश !!
उस युद्ध-स्थल से भी ज़्यादा भयप्रद…रौरव
मेरा हृदय-प्रदेश !!!
इतिहासों में नहीं लिखा जायेगा।
ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओ !
आओ ! हर धोखे से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;
नये महाभारत का व्यूह वरूँ मैं।
कुण्ठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूँ मैं।
6. एक यात्रा-संस्मरण
बढ़ती ही गयी ट्रेन महाशून्य में अक्षत
यात्री मैं लक्ष्यहीन
यात्री मैं संज्ञाहत।
छूटते गये पीछे
गाँवों पर गाँव
और नगरों पर नगर
बाग़ों पर बाग़
और फूलों के ढेर
हरे-भरे खेत औ’ तड़ाग
पीले मैदान
सभी छूटते गये पीछे…
लगता था
कट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही खड़े-खड़े
डिब्बे के दरवाज़े पकड़े-पकड़े।
बढ़ती ही गयी ट्रेन आगे
और आगे-
राह में वही क्षण
फिर बार-बार जागे
फिर वही विदाई की बेला
औ’ मैं फिर यात्रा में-
लोगों के बावजूद
अर्थशून्य आँखों से देखता हुआ तुमको
रह गया अकेला।
बढ़ती ही गयी ट्रेन
धक-धक धक-धक करती
मुझे लगा जैसे मैं
अन्धकार का यात्री
फिर मेरी आँखों में गहराया अन्धकार
बाहर से भीतर तक भर आया अन्धकार।
7. कौन-सा पथ
तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है…?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।
कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।
तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !
8. साँसों की परिधि
जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।
9. सूखे फूल : उदास चिराग़
आज लौटते घर दफ़्तर से पथ में कब्रिस्तान दिखा
फूल जहाँ सूखे बिखरे थे और’ चिराग़ टूटे-फूटे
यों ही उत्सुकता से मैंने थोड़े फूल बटोर लिये
कौतूहलवश एक चिराग़ उठाया औ’ संग ले आया
थोड़ा-सा जी दुखा, कि देखो, कितने प्यारे थे ये फूल
कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इनकी गन्ध कभी,
सोचा, ये चिराग़ जिसने भी यहाँ जलाकर रक्खे थे
उनके मन में होगी कितनी गहरी पीड़ा स्नेह-पगी
तभी आ गयी गन्ध न जाने कैसे सूखे फूलों से
घर के बच्चे ‘फूल-फूल’ चिल्लाते आये मुझ तक भाग,
मैं क्या कहता आखिर उस हक़ लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग़
10. एक मन:स्थिति
शान्त सोये हुए जल को चीरकर हलचल मचाती
अभी कोई तेज़ नौका
गयी है उस ओर,
इस निपट तम में अचानक
आँधियों से भर गया आकाश
बिल्कुल अभी;
एक पंछी
ओत के तट से चिहुँककर
मर्मभेदी चीख भरता हुआ भागा है,
औ’ न जाने क्यों
तुझे लेकर फिर हृदय में
एक विवश विचार जागा है ।
11. झील और तट के वृक्ष
यह बीच नगर में शीत
(नगर का अंन्तस्तल)
यह चारों बोर खजूरों, बाँसों के झुरमुट
अनगिनत वृक्ष
इस थोड़े से जल में
प्रतिबिम्बित हैं उदास कितने चेहरे !
सुनते हैं पहले कभी बहुत जल था इसमें
प्रतिदिन श्रद्धालु नगरवासी
इसके तट पर
जल-पात्र रिक्त कर जाते थे ।
अब मौसम की गर्मी या श्रद्धा का अभाव
कुछ भी हो लेकिन जल कम होता जाता है
बढ़ती जाती है पर संख्या
प्रतिबिम्बित होनेवाले चेहरों की प्रतिदिन ।
सुनते है दस या पाँच वृक्ष थे मुश्किल से
इस नगर-झील के आस-पास
ऐसा भी सुनते है पहले हँसती थीं ये
आकृतियाँ, जो होती जाती हैं अब उदास ।
12. निर्जन सृष्टि
कुलबुलाती चेतना के लिए
सारी सृष्टि निर्जन
और…
कोई जगह ऐसी नहीं
सपने जहाँ रख दूँ ।
दृष्टि के पथ में तिमिर है
औ’ हृदय में छटपटाहट
जिन्दगी आखिर कहाँ पर फेंक दूँ मैं
कहाँ रख दूँ ?
13. ओ मेरे प्यार के अजेय बोध
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध !
सम्भव है मन के गहन गह्वरों में जागकर
तुने पुकारा हो मुझे
मैं न सुन पाया हूँ ;
-शायद मैं उस वक़्त
अपने बच्चों के कुम्हलाये चेहरों पर
दिन उगाने के लिए
उन्हें अक्षर-बोध करा रहा हूँ
-या आफ़िस की फ़ाइल में डूबा हुआ
इत्तिफ़ाक की भूलों पर
सम्भावनाओं का लेप चढ़ा रहा हूँ
-या अपनी पत्नी के प्यार की प्रतीक
चाय पी रहा हूँ !
ऐसा ही होगा
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,
ऐसा ही हो सकता है
क्योंकि यही क्रम मेरा जीवन है, चर्या है
वरना
मैं तुम्हारी आवाज़ नहीं
आहट भी सुन लेता था
कोलाहलों में भी जब हवा महकती थी
तो मुझे मालूम हो जाता था
कि चम्पा के पास कहीं मेरी प्रतीक्षा है ।
जब तारे चमकते थे
तो मैं समझ लेता था कि आज नींद
व्योम में आँखमिचौनी खेलेगी
और यह कि मुझे तुम्हारे पास होना चाहिए ।
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,
शायद ऐसा ही हो कि मेरा एहसास मर गया हो
क्योंकि मैंने क़लम उठाकर रख दी है
और अब तुम आओ या हवा
आहट नहीं होती,
बड़े-बड़े तूफ़ान दुनिया में आते हैं
मेरे द्वार पर सनसनाहट नहीं होती
… और मुझे लगता है
अब मैं सुखी हूँ-
ये चंद बच्चे, बीवी
ये थोड़ी-सी तनख्वाह
मेरी परिधि है जिसमें जीना है
यही तो मैं हूँ
इससे आगे और कुछ होने से क्या?
…जीवन का ज्ञान है सिर्फ़ जीना मेरे लिए
इससे विराट चेतना की अनुभूति अकारथ है
हल होती हुई मुश्किलें
खामखा और उलझ जाती हैं
और ये साधारण-सा जीना भी नहीं जिया जाता है
मित्र लोग कहते हैं
मेरा मन प्राप्य चेतना की कड़ुवाहट को
पी नहीं सका,
उद्धत अभिमान उसे उगल नहीं सका
और मैं अनिश्चय की स्थिति में
हारा,
उद्विग्न हुआ,
टूट गया;
शायद ये सब सच हो है।
पर मेरे प्यार के अजेय बोध,
अब इस परिस्थिति ने नया गुल खिलाया है
आक्रामक तुझे नहीं मन मुझे बनाया है
अब मेरी पलकों में स्वप्न-शिशु नहीं रोते
(यानी अब तेरे आक्रमण नहीं होते)
अब तेरे दंशन को उतनी गहराई से
कभी नहीं जीता हूँ
अब तू नहीं
मैं तेरी आत्मा को पीता हूँ
तेरे विवेक को सोखता हूँ
तुमको खाता हूँ
क्योंकि मैं बुभुक्षित हूँ,
भूखा हूँ
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध !
14. अच्छा-बुरा
यह कि चुपचाप पिए जाएँ
प्यास पर प्यास जिए जाएँ
काम हर एक किए जाएँ
और फिर छिपाएँ
वह ज़ख़्म जो हरा है
यह परम्परा है ।
किन्तु इन्कार अगर कर दें
दर्द को बेबसी की स्वर दें
हाय से रिक्त शून्य भर दें
खोलकर धर दें
वह ज़ख़्म जो हरा है
तो बहुत बुरा है ।
15. गीत का जन्म
एक अन्धकार बरसाती रात में
बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में
अनायास दूध की मासूम झलक सा
हंसता, किलकारियां भरता
एक गीत जन्मा
और
देह में उष्मा
स्थिति संदर्भॊं में रोशनी बिखेरता
सूने आकाशों में गूंज उठा :
-बच्चे की तरह मेरी उंगली पकड़ कर
मुझे सूरज के सामने ला खड़ा किया ।
यह गीत
जो आज
चहचहाता है
अन्तर्वासी अहम से भी स्वागत पाता है
नदी के किनारे या लावारिस सड़कों पर
नि:स्वन मैदानों में
या कि बन्द कमरों में
जहां कहीं भी जाता है
मरे हुए सपने सजाता है-
-बहुत दिनों तड़पा था अपने जनम के लिये ।
16. विवेकहीन
जल में आ गया ज्वार
सागर आन्दोलित हो उठा मित्र,
नाव को किनारे पर कर लंगर डाल दो,
हर कुण्ठा क्रान्ति बन जाती है जहाँ पहुँच
लहरों की सहनशीलता की उसी सीमा पर
आक्रमण किया है हवाओं ने,
स्वागत ! विक्षुब्ध सिन्धु के मन का
स्वागत ! हर दुखहर आन्दोलन का
कब तक सहता रहता
अन्यायी वायु के प्रहारों को मौन यों ही
गरज उठा सागर-
विवेक-हीन जल है, मनुष्य नहीं !
17. एक आशीर्वाद
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
18. भविष्य की वन्दना
स्मपुट प्रकाश-पुंज हो तुम
मैं हूँ हिमाच्छन्न पर्वत
किरण-कोष धारे हो तुम
मैं हूँ विस्तीर्ण गर्व-उन्नत
मुझे गलानेवाली किरणें कब फेंकोगे?
धरती पर बहने का मार्ग कब दोगे?
कब करोगे मुक्त
छाती पर बसे भार से ?
हे संयमित व्यक्तित्व से नम्र, श्रुत भविष्यत !
वायु के सहारों पर टिका हुआ
कोहरा आधार है हमारा
कल्पना पर जीते हैं
गैस के गुब्बारों-से सपने
बच्चों-सी लालची हमारी आत्माओं को
निकट बुलाते हैं
…खरीदें,
पर हम रीते हैं,
हम पर भी दम्भ है महत्वाकांक्षाओं का
(जो कि ज़िन्दगी की चौहद्दी में
वेष बदल, रावण-सी घुस आईं)
खण्डित पुरुषार्थ
गाण्डीव की दुहाई देता हुआ, निष्क्रिय है
कर्म नहीं-
केवल अहंकार को जगाता है !
(आह, राम घायल हो
मायावी हिरण के तेज़ सींगों से
रह-रह कराहते हैं )
xxx
आशाएँ रही सही शीघ्र टूट जायेंगी
खीजों के फलस्वरूप
नुचे हुए पत्तों-सी नंगी डालें लहरायेंगी
(विजय-सूचिका ही उन्हें
चाहे हम समझें)
सुनो, आहत राम ने लक्ष्मण को पुकारा
-हरी गयी सीता !
…अव किसी बियाबान बन में जटायू टकरायेगा
नहीं, वायुयान पर बिठाकर ले जायेगा
अव्वल तो जटायू नहीं आज
और हो भी तो कब तक लड़ पायेगा ?
…राम युध्द ठानोंगे सामने मशीनों के ?
वानरों की सेना से !
जो कि स्वयं भूखी है आज !
अपने नगर के घरों में
मुंडेरों पर बैठकर
रोटी ले भागने की फ़िक्र में रहती है
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लेकिन नहीं है भविष्यत !
भूत को
इतना तो बदलो मत,
आस्था दो
कि हम अपनी बिक्री से डरें
बल दो-दूसरों की रक्षा को-
अपहरण न करें,
दृष्टि दो
जो हम सबकी वेदना पहचानें
सबके सुख गाएँ,
आग दो
जो सोने की लंका जलाएँ ।
19. राह खोजेंगे
ये कराहें बन्द कर दो
बालकों को चुप कराओ
सब अंधेरे में सिमट आओ यहाँ नतशीश
हम यहाँ से राह खोजेंगे ।
हम पराजित हैं मगर लज्जित नहीं हैं
हमें खुद पर नहीं
उन पर हँसी आती है
हम निहत्थों को जिन्होंने हराया
अंधेरे व्यक्तिव को अन्धी गुफ़ाओं में
रोशनी का आसरा देकर
बड़ी आयोजना के साथ पहुँचाया
और अपने ही घरों में कैद करके कहा :
“लो तुम्हें आज़ाद करते हैं ।”
आह !
वातावरण में वेहद घुटन है
सब अंधेरे में सिमट आओ
और सट जाओ
और जितने जा सको उतने निकट आओ
हम यहाँ से राह खोजेंगे ।
20. सूना घऱ
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को
पहले तो लगा कि अब आई तुम, आकर
अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर
खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को
पर कोई आया गया न कोई बोला
खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को
फिर घर की खामोशी भर आई मन में
चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में
उच्छवास छोड़कर ताका शून्य गगन को
पूरा घर अंधियारा गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को
21. गांधीजी के जन्मदिन पर
मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।
इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।
मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।
जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।
22. दो मुक्तक
1
ओ री घटा
तूने एक बूँद भेजी नहीं
ले प्यासे अधर यहाँ
कब से खड़ा हूँ मैं !
मेरी हर अन्नि तुझ तक
पहुंच कर बनी है जल
सोचा तो होता
याचक कितना बड़ा हूँ मैं !!
2
रोम-रोम पुलकित
उच्छ्वसित अधर
उठती-गिरती छाती
कम्पित स्वर
आँखों में विम्मय… !
…अभी-अभी जो मेरा तन सिहारती गई
क्या वह तेरी सांस नहीं थी
जिसने मुझे छुआ
क्या वह तेरा स्पर्श नहीं था?
23. अपनी प्रेमिका से
मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है
फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई ।
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी !
फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश ! इन हवाओं को यह सब पता होता ।
तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन… समाधिस्थ)
भ्रम में हो ।
अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी !
मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई ।
देखो ना !
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसी लिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है ।
24. प्रयाग की शाम
यह गर्मी की शाम
इसका बालम बिछुड़ गया है
…इसका बालम बिछुड़ा जब से
उखड़ गये हैं शायद सुख-सपनों के डेरे
…आज हुई पगली
प्रयाग की सड़क-सड़क पर
गली-गली में
घूम रही है लम्बे काले बाल बिखेरे
(घोर उदासी भरी, पसीने से तर)
है बेहद बदनाम !
यह प्रयाग की शाम !
25. असमर्थता
पथ के बीचो-बीच खड़ी दीवार
और मैं देख रहा हूँ !
बढ़ती आती रात
चील-सी पर फैलाए,
और सिमटते जाते
विश्वासों के साए ।
तम का अपने सूरज पर विस्तार
और मैं देख रहा हूँ !
महज़ तनिक से तेज़
हवा के हुए दुधारे,
औंधे मुंह गिर पड़े,
धूल पर सपने सारे,
खिलने के क्षण में ऐसे आसार
और मैं देख रहा हूँ !
धिक् ! मेरा काव्यत्व
कि जिसने टेका माथा,
धिक् मेरा पुंसत्व
कि जिसकी कायर गाथा,
ये अपने से ही अपने की हार
और मैं देख रहा हूँ !
26. आत्मकथा
आँख जब खोली मैंने पहले-पहल
युग-युगान्तरों, का तिमिर
घनीभूत
सामूहिक
सामने खड़ा पाया ।
साँस जब ली मैंने
सदियों की सड़ाँध
वायु-लहरों पर जम-जमकर
जहर बन चुकी थी ।
पाँव जिस भूमि पर रखा उसको पदमर्दित,
अनवरत प्रनीक्षाहत,
शंकाकुल,
कातर,
कराहते हुए देखा
शापग्रस्त था मेरे ही माथे का लेखा !
मिला नहीं कोई भी सहयोगी
अपना पुंसत्वबोध खोये क्षत, संज्ञाहत
सिक्कों से घिसे औ’ गुरुत्वहीन
ऐसे व्यक्तित्व मिले
जिन्हें अपनाने में तिलमिला गया मैं ।
परिचय घनिष्ठ हो गया लेकिन इन सबसे
कैसे नकारूँ इन्हें या अस्वीकारूँ आज
ये मेरे अपने हैं
मेरी ही आत्मा के वंशज हैं ।
इन्हें इसी धरती ने
इसी वातावरण ने
इसी तिमिर ने अंग-भंग कर दिया है ।
सच है
अब ये अकुलाते नहीं,
बोलते गाते नहीं,
दुखते जलते हैं,
इंच-इंच गलते हैं,
किन्तु कभी चीखते नहीं ये
चिल्लाते नहीं,
अधर सी दिये हैं इनके
बड़े-बड़े तालों ने
जिन्हें मर्यादा की चाबियाँ घुमाती हैं ।
किन्तु मैं अकुलाया
चीखा-चिल्लाया भी
नया-नया ही था…दुख सहा नहीं गया
मौन साध लेता कैसे
रखकर मुंह में ज़बान
प्रश्न जब सुने
आहत, विह्वल मनुष्यता के
उत्तर में मुझसे चुप रहा नहीं गया ।
किन्तु मैं कवि हूँ कहाँ
कहाँ किसे मिलती है मेरी कविताओं में
इन्द्रजुही सपनों की
रूप और फलों की
सतरंगी छवियों की
स्निग्ध कलित कल्पना;
…लगता है
मैं तो बस जल-भीगा कपड़ा हूँ
जिसको निचोड़फर मेरी ये कविताएँ
उष्ण इस धरती के ऊपर छिड़क देती हैं…
कविताएँ माध्यम हैं शायद
उस ऋण को लौटाने का
जो मैंने तुम सबसे लिया है
मिञो,
मेरी प्रशंसा क्यों करते हो
मैंने क्या किया है !
फिर भी
लेकिन फिर भी
लोगों ने मुझे कवि पुकारा
उद्धत, अविनीत नहीं
क्योंकि
यद्यपि वे मौन रहे
किन्तु उन ही की भावनाओं को
वाचा दी मैंने
उन सबकी ध्वनियों को
गुंजरित वितरित किया
और पूछना जो चाहते थे वे
वही प्रश्न
मैंने प्रतिध्वनित किया
चारो दिशाओं में ।
सच है ये
उत्तर अभी नहीं मिला
किन्तु मैं चुपा भी नही,
मच है ये
अब तक रण अनिर्णीत
किन्तु मैं थका भी नहीं ।
जारी हैं सारे सम्भव प्रयत्न
जारी रहेंगे ।
ये ही प्रश्न गूँजेंगे
सत्य के लिए भटकती आत्मा की तरह
गूँजते रहेंगे ये ही प्रश्न
वर्षों के अन्तराल में…जब तक
उत्तर न पा लेंगे ।
27. विवश चेतना
मेरे हाथ क़लम लेकर
मुझसे भी अच्छे गायक का पथ जोह रहे हैं,
मेरी दृष्टि कुहासे में से
नयी सृष्टि-रचना की सम्भावित बुनियादें
देख रही है,
मेरी साँसें
अस्तित्वों की सार्थकता को जूझ रहीं हैं,
मेरी पीड़ा हर उदास चेहरे से मिलकर
एल नयी उपलब्धि खोजती भटक रही है,
मेरी इच्छा कोई वातावरण बनाने में तत्पर है,
मेरी हर आकांक्षा
आने वाले कल में जाग रही है,
( तन का क्या है
ये तो बेजन्मा-सा आकुल-आतुर यात्री)
मेरी विवश चेतना
जग में बसने को घर माँग रही है ।
28. छत पर : एक अनुभूति
दृष्टि के विस्तार में बाँधे मुझे
तुम शाम से छत पर खड़ी हो :
अब तुम्हारे और मेरे बीच का माध्यम : उजाला
नष्ट होता जा रहा है ।
देखती हो
भाववाही मौन की सम्पन्न भाषा भी बहुत असमर्थ
और आशय हमें ही लग रहे हैं अपरिचित-से
और हम दोनों प्रतिक्षण
निकटता का बोध खोते जा रहे हैं ।
दो छतों के फासले में
श्यामवर्ण अपारदर्शी एक शून्य बिखर रहा है;
किस तरह देखूँ
कि मेरा मन अँधेरे में
तुम्हारे लिए विह्वल हो रहा है ।
औन कर दो स्विच
कि तुम तक हो पुन: विस्तार मेरा
अंधेरे में तुम्हारे संकेत मुझ तक नहीं आते ।
(आह ! कितना बुरा होता है अँधेरा)
29. शीत-प्रतिक्रिया
बाहर कितना शीत
हवा का दुसह बहाव
भीतर कितनी कठिन उमस है
औ’ ठहराव !
तेज हवा को रोक
कि ये ठहराव फाड़ दे
शीत घटा
या मन के अँगारे उघाड़ दे;
दो खंडों में बाँट न
यह व्यक्तित्व अधुरा
ईश्वर मेरे,
मुझे कहीं होने दे पूरा ।
30. कल
कल : अपनी इन बिद्ध नसों में डोल रहा है
संवेदन में पिघला सीसा घोल रहा है
हाहाकार-हीन अधरों की बेचैनी में बोल रहा है
हर आँसू में छलक रहा है ! !
ये अक्षर-अक्षर कर जुड़ने वाले स्वर
ये हकला-हकलाकर आने वाली लय
पगला गये गायकों-जैसे गीत
बेवफ़ा लड़की-सी कविताएँ
ये चाहे कितनी अपूर्ण अभिव्यक्ति
समय की हों,
पर इनमें कल झलक रहा है ! !
कल :
जिसमें हम नहीं जी रहे
देख रहे हैं,
कल :
जिसको बस सुना-सुना है
देख रहे हैं : …
बाज़ारों में लुटे-लुटे-से
चौराहों पर सहमे-सहमे
आसमान में फैले-फैले
घर में डरे-डरे दुबके-से…।
चारों बोर बिछा है अपनी पीड़ाओं का पाश
दिशा-दिशा में भटके चाहे
किन्तु भविष्य-विहग उलझकर
आ जायेगा पास !
31. इसलिए
सहता रहा आतप
इसलिए हिमखंड
पिघले कभी
बनकर धार एक प्रचंड
जा भागीरथी में
लीन हो जाये ।
जीता रहा केवल
इसलिए मैं प्राण,
मेरी जिन्दगी है
एक भटका वाण
भेदे लक्ष्य
शाप-विहीन हो जाये ।
32. फिर
फिर मेरे हाथों में गुलाब की कली है ।
फिर मेरी आँखों में वही उत्सुक चपलता है ।
सोचा था यहाँ
तुमसे बहुत दूर
शायद सुकून मिले
…पर यहाँ लबे-सड़क, कोठियों में
गुलाबों के पौधे हैं
और रास्ता चलते
बंगलों में लगे गुलाबों को तोड़ लेने जैसा मेरा मन है
…और फिर तुम तो
सूना जूड़ा दिखाती हुई
अनायास सैकडों मील दूरी से पास आती हुई…।
और फिर…
फिर वही दिशा है गन्तव्य
जो तुम्हारी है,
फिर वही दंशान है आत्मीय
फिर यही विष है उपभोग्य
मेरा उपजीव्य आह !
फिर वही दर्द है-अकेलापन ! !
33. प्यार : एक दशा
यह अकारण दर्द
जिसमें लहर और तड़प नहीं है,
यह उतरती धूप
जिसमें छाँह और जलन नहीं है,
यह भयंकर शून्य
जिसमें कुछ नहीं है…
ज़िन्दगी है ।
आह ! मेरे प्यार,
तेरे लिए है अभिव्यक्ति विह्वल
शब्द कोई नहीं
अर्थ अपार !
34. एक साद्धर्म्य
मुझे बतलाओ
कि क्या ये जलाशय
मेरे हृदय की वेदना का नहीं है प्रतिरूप ?
मेरे ही विकल व्यक्तित्व की सुधियाँ नहीं
तट पर खड़ी तरु-पाँति ?
और ये लहरें तड़पती जो कि प्रतिपल
क्या नहीं तट के नियन्त्रण में बँधी इस भाँति ?
ज्यों परिस्थिति से बँधे हम विवश और विफल ।
35. गली से राजपथ पर
ये गली सुनसान वर्षों से पड़ी थी
दूर तक
अपनी अभागिन धड़कनों का जाल बुनती हुई,
राजपप से उतरकर चुप
कल्पनाओं में अनागत यात्रियों के
पथों की आहटें सुनती हुई ।
ये गली
जिसके धड़कते वक्ष पर
थमे ज़ख्मी पाँव रखकर
दूर की उन बस्तियों को चले गये अनेक
औ’ उधर से
लौट पाया नहीं कोई एक,
आज तक रख बुद्धि और विवेक
जीवित है ।
आज लेकिन
आज
वर्षों बाद
झोपड़ों से
आहटें सुन पड़ रही हैं
गली में आने
गली ने राजपथ में पहुँच पाने के लिए
पगडंडियों से लड़ रही है हैं…
आहटें !
एक, दो, दस नहीं
अनगिन पगों की
रह-रह तड़पतीं
लड़खड़ातीं पर पास आती हुई
हर क्षण
बढ़ रही हैं…
अभी होगा भग्न
दैत्याकार यह वातावरण
एक मरणासन्न रोगी की तरह
अकुला रहा है मौन
पूछती है गली मुझसे बावली–
‘कवि !
राजपथ पर मा रहा है कौन ?’
36. एक मित्र के नाम
मैं भी तो भोक्ता हूँ
इम परिस्थिति का मित्र !
मेरे भी माथे पर
हैं दुख के मानवित्र ।
मैंने न समझा तो
और कौन समझेगा ?
मौन जो रहा है खुद
वही मौन समझेगा
अर्थ मैं समझता हूँ
इन बुझी निगाहों का
जी रहा ठहाकों पर
पुंज हूँ व्यथाओं का ।
कई रास्तों पर बस
दृष्टि फेंक सकता हूँ,
प्राप्त कर नहीं सकता
स्वप्न देख सकता हूँ ।
संकट में घिरे हुए
वचन-बद्ध योद्धा-सा
शरुत्रों को छू भी लूँ
तो चला नहीं सकता
अनजानी लगती है
अपनी ही हर पुकार
छू-छूकर लौट-लौट आती
हर गली-द्वार ।
अनुभव की वंशी में
बिंधा पड़ा है जीवन
क्षण-भर का पागलपन
पूरा यौवन उन्मन
लगता है तुमको भी
शूल चुभा है कोई ।
किश्ती से अनदेखा
कूल चुभा है कोई !
जौवन के सागर में
यौवन के घाट पर
चला गया लगता है
प्यार दर्द बाँट कर
पर अब तुम जियो
कहो-कोई तो बात नहीं !
रण में योद्धाओं की
हार-जीत हाथ नहीं !
एक दाँव हारे हैं
एक जीत जायेंगे,
जीवन के कै दिन हैं
अभी बीत जायेंगे ।
37. आभार-प्रदर्शन
पेट को भोजन
और इच्छा को साधन
देने वाले ने क्या कम दिया !
प्रिये !
जन फिर भी असन्तुष्ट
कहते हैं, तुमने सुख-चैन हरा मेरा
मुझको ग़म दिया ।
सोचते नहीं हैं किन्तु—
–हृदय जिसने सहा दुख
सहना सिखाया
और अभिव्यक्ति की
नयी काव्य-शैली को जनम दिया
मेरे पास कहाँ से आया !
38. …उपरान्त वार्ता
हिल उठा अचानक संयम का वट-नृक्ष
अस्फुट शब्दों की हवा तुम्हारे अधरों से क्या बही
सब जड़ें उभर आयीं…
पहले भी मैंने
तुमको समझाया था
याद करो-
ये बिरवा है
ढह जायेगा
लहरों के आगे इस बिरवे की क्या बिसात !
आँधियाँ संभाले हुए दिशाओं-सा दिल
रहे अविचलित
मुस्कानों को झेले जाये नित
इस योग्य नहीं ।
जीवन का पहरेदार सजग : संयम,
लेकिन कब तक… ?
हर क्षण पर कोई मुहर नहीं होती !
यह जीवन खाली था
इसको भरने वाली
आकांक्षाएं पनिहारिन चढ़ आयीं
कैसे समझाता या उन्हें मना करता 1
पर तुमको तो
पहले भी समझाया था याद करो
मैं बहुत विवश हूँ
कोई लक्ष्मण-रेखा नहीं यहाँ,
दूरी रखने के लिए कहाँ जाऊँ
तुम हो न जहाँ ?
जलते हुए वन का वसन्त : दुष्यन्त कुमार (Jalte Hue Van Ka Vasant : Dushyant Kumar)
1. योग-संयोग
मुझे-
इतिहास ने धकेलकर
मंच पर खड़ा कर दिया है,
मेरा कोई इरादा नहीं था।
कुछ भी नहीं था मेरे पास,
मेरे हाथ में न कोई हथियार था,
न देह पर कवच,
बचने की कोई भी सूरत नहीं थी।
एक मामूली आदमी की तरह
चक्रव्यूह में फंसकर–
मैंने प्रहार नहीं किया,
सिर्फ़ चोटें सहीं,
लेकिन हँसकर !
अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को
प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।
एक बौने-से बुत की तरह
मैंने दुनिया को देखा
तो मन ललचाया !
क्योंकि मैं अकेला था,
लोग-बाग बहुत फ़ासले पर खड़े थे,
निकट लाया,
मुझे क्या पता था–
आज दुनिया कहाँ है !
मैंने तो यों ही उत्सुकतावश
मौन को कुरेदा था,
लोगों ने तालियाँ बजाकर
एक छोटी-सी घटना को बड़ा कर दिया है ।
मैं खुद चकित हूँ,
मुझे कब गाना आता था ?
कविता का प्रचलित मुहावरा अपरिचित था,
मैं सूनी गलियों में
बच्चों के लिए एक झुनझुना बजाता था;
किसी ने पसंद किया स्वर,
किसी ने लगन को सराहा,
मुझसे नहीं पूछा,
मैंने नहीं चाहा,
इतिहास ने मुझे धकेलकर,
मंच पर खड़ा कर दिया है,
मेरा कोई इरादा नहीं था।
2. यात्रानुभूति
कितना कठिन हो गया है
किसी एक गाँव से गुज़रकर आगे जाना !
ओसारों में बैठे हुए बूढ़े बर्राते हैं,
लोटे में जल भरकर महरियाँ नहीं आतीं
स्वागत नहीं करते बच्चे-राहगीरों पर
कुत्ते लहकाते हैं।
इस ठहरी और सड़ी हुई गरमी में
कहीं भी पड़ाव नहीं मिलते।
अंधेरे में दिखते नहीं दूर तक चिराग़ !
थके हुए पाँवों के ज़ख्म
जलती हुई रेत में सुस्ताते हैं।
यक-ब-यक-तेज़ी से बदल गए हैं
गाँवों के पनघट और सुन्दरियों की तरह
-सारे रिवाज़
यात्रा में आज
अर्थ भले हो, लेकिन मज़ा नहीं।
लोग-बाग फिर भी
एक गाँव से दूसरे गाँव को जाते हैं।
3. उपक्रम
सृजन नहीं
भोग की क्षणिक अकांक्षाओं ने
उदासीन ममता के दर्द से कलपते हुए
मेरा अस्तित्व रचा : निरुपाय !
बचपन ने चलना सिखाने के लिए
मुझे पृथ्वी पर दूर तक घसीटा ।
मेरा जन्म
एक नैसर्गिक विवशता थी :
दुर्घटना :
आत्म-हत्यारी स्थितियों का समवाय !
मुझे अनुभव के नाम पर परिस्थिति ने
कोड़ों से पीटा।
मेरे भीतर और बाहर
खून के निशान छोड़ती हुई आँधियाँ गुज़रीं,
और मैं
काँधे पर सलीब की तरह
ज़िंदगी रखे…आगे बढा।
मैंने देखा-
मेरे आगे ओर पीछे किसी ने
दिशा-दंशी सर्प छोड़ दिए थे !
मैंने हर चौराहे पर रुककर
आवाज़ें दीं
खोजा
उन लोगों को
जो मुझको ईसा बनाने का वादा किए थे !
इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने एक ऐसी तलाश को जीवन-दर्शन बनाया
जो मुझको ठेलते जाने में
सुख पाती है,
एक ऐसी सड़क को मैंने यात्रा-पथ चुना
जो मिथ्याग्रहों से निकलती हुई आती है।
एक नीम का स्वाद मेरी भाषा बना
जो सिर्फ़ तल्ख़ी का नाम है।
एक ऐसा अपवाद मेरा अस्तित्व
जो मेरे नियन्त्रण से परे
एक जंगल की शाम है।
सृष्टि के अनाथालय में मैंने
जीने के बहाने तलाशने में
मित्रों को खो दिया !
भूखे बालकों-सी बिलखती मर्यादाएँ देखीं,
बाज़ारू लड़कियों-सी सफलताएँ सीने से
चिपटा लीं,
मुझमें दहकती रहीं एक साथ कई चिताएँ,
धरती ओर आकाश के बीच
कई-कई अग्निर्यो में
गीले ईंधन की तरह मैं सुलगता रहा,
निरर्थक उपायों में अर्थवत्ता निहारता हुआ;
कंठ की समूची सामर्थ्य
और
थोड़े से शब्दों की पूँजी के बल पर
अपनी निरीहता सहलाता हुआ !
जीने से ज़्यादा तकलीफ़देह
क्या होगी मृत्यु !
इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने हर फ़ैसला उस पर छोड़ दिया है।
मैंने स्वार्थों की वेदी पर
नर-बलियाँ दी हैं
और तीर्थों में दान भी किए हैं,
मुझसे हुई हैं भ्रुण-हत्याएँ
मैंने मूर्तियों पर जल भी चढ़ाए हैं,
परिक्रमाएँ भी की हैं,
मेरी पीड़ा यह है–
मैंने पापों को देखा है,
भोगा है,
हुआ है,
किया नहीं,
मैं हूँ अभिशप्त
उस वध-स्थल की तरह
जिसमें रक्तपात होना था : हुआ,
लेकिन
मैं कर्त्ता नहीं था कहीं !
जीवन भर उपक्रम रहा हूँ एक,
अर्थ नहीं ।
इतिहास मेरे साथ न्याय करे ।
4. एक सफ़र पर
और
मैं भी
कहीं पहुंच पाने की जल्दी में हूँ-
एक यात्री के रूप में,
मेरे भी
तलुओं की खाल
और सिर की सहनशीलता
जवाब दे चुकी है
इस प्रतीक्षा में, धूप में,
इसलिए मैं भी
ठेलपेल करके
एक बदहवास भीड़ का अंग बन जाता हूँ,
भीतर पहुँचकर
एक डिब्बे में बंद हो पाने के लिए
पूरी शक्ति आज़माता हूँ ।
…मैं भी
शीश को झुकाकर और
पेट को मोड़कर,
तोड़ने की हद तक
दोनों घुटने सिकोड़कर
अपने लवाज़मे के साथ
छोटी-सी खिड़की से
अंदर घुस पड़ता हूँ,
ज़रा-सी जगह के लिए
एड़ियाँ रगड़ता हूँ ।
बहुत बुरी हालत है, डिब्बे में
बैठे हुओं को
हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु,
खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है
पीठ टेक लेने पर
मेरे भी मन में
ठीक यही भाव जगता है ।
मैं भी धक्कम-धू में
हर आने वाले को
क्रोध से निहारता हूँ,
सहसा एक और अजनबी के बढ़ जाने पर
उठकर ललकारता हूँ।
किन्तु वह नवागंतुक
सिर्फ़ मुस्कराता है।
इनाम और लाटरियों का
झोला उठाए हुए
उसमें से टार्च और ताले निकालकर
दिखाता है ।
वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं
वह सबको भाषण पिलाता है,
बोलियाँ लगाता-लगवाता है,
पलभर में जनता पर जादू कर जाता है।
और मैं उल्लू की तरह
स्वेच्छया कटती जेबों को देखकर
खीसें निपोरता हुआ बैठ जाता हूँ ।
जैसे मेरा विवेक ठगा गया होता हैं।
वह जैसे कहीं एक ताला
मेरे भीतर भी लगा गया होता है।
थोडी देर बाद
तालों ओर टार्चों को
देखते-परखते हैं लोग
मुँह गालियों से भरकर,
जेब और सीनों पर हाथ धरकर ।
आखिर बक-झककर थक जाते हैं
फिर..
यात्रा में वक़्त काटने के लिए
बाज़ारू-साहित्य उठाते हैं,
या एक दुसरे की ओर ताकते हैं,
ज़नाने डिब्बों में झाँकते हैं।
लोग : चिपचिपाए, हुए,
पसीनों नहाए हुए,
डिब्बे में बंद लोग !
बडी उमस है-आह !
सुख से सो पाते हैं, इने-गिने चंद लोग !
पूरे का पूरा वातावरण है उदास ।
अजीब दर्द व्याप्त है :
बेपनाह दर्द
बेहिसाब आँसू
गर्मी ओर प्यास !
एक नितांत अपरिचित रास्ते से
गुज़रते हुए पा-पी पा-पी
पहियों की खड़खड़ की कर्कश आवाज़ें,
रेल की तेज़ रफ़्तार,
धक-धक धुक-धुक
चारों ओर :
जिसमें एक दूसरे की भावनाएँ क्या
बात तक न सुनी ओर समझी जा सके :
ऐसा शोर :
आपाधापी
और एक दुसरे के प्रति गहरा संशय
और उसमें
बार-बार लहराती
लंबी ओर तेज़-सी सीटी
जैसे कोई इंजन के सामने आ जाए… !
(भारतीय रेल में
हर क्षण दुर्घटना का भय)
हर क्षण ये भय…
कि अभी ऊपर से कुछ गिर पड़ेगा !
पटरी से ट्रेन उतर जाएगी !
हर क्षण ये सोच
कि अभी सामने वाला
कुछ उठाकर ले भागेगा,
मेरा स्थान कोई और छीन लेगा।
…और सुरक्षा का एकमात्र साधन
अपने स्थान से चिपक जाना,
कसकर चिपक जाना ।
बाहर के दृश्य नहीं,
ऊपर की बर्थ पर रखे सामान पर
नज़र रखना,
खुली हुई क़ीमती चीज़ों को
दिखलाकर ढंकना।
बहन और बच्चों को
फुसफुसाहट भरे उपदेशों से भर देना,
अपने प्रति
इतना सजग ओर जागरूक कर देना
कि वे भविष्य में अकेले सफ़र कर सकें।
इसी तरह अपने स्थान पर चिपके
शंकित और चौकन्ने होकर
हर अजनबी से डर सकें ।
यात्रा में लोग-बाग
सचमुच डराते हैं ।
आँखों में एक विचित्र मुलायम-सी
हिंस्र क्रूरता का भाव लिये–
एक दूसरे का गंतव्य पूछते हुए
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
सहमकर मुस्कराते हैं,
सोचते हैं…
किसी पास वाले स्टेशन पर
ये सब लोग क्यों नहीं उतर जाते हैं ?
5. परवर्ती-प्रभाव
स्थान : एक युद्ध हुआ चौराहा।
दृश्य : वहाँ फूटे हुए ढोलों की चुप्पी :
लोगों की चिल्लाहट, मौन,
रक्तस्राव !
लड़ना नहीं
गर्दन झुकाए हुए पास से गुज़र जाना-;
परस्पर बधिर-भाव,
गहन शान्ति !
ध्वनि : उस अंधेरे में
वाण-विद्ध पंछी की
कातर पुकारती-सी कोई आवाज़,
बुझे लैम्पपोस्ट की चिमनियों के
पास फड़फड़ाती, पंख मारती-सी कोई आवाज़,
अनसुनी, अनुत्तरित, उपेक्षित किन्तु
दूर तक गुहारती-सी कोई आवाज़ !
अर्थ : मुझे लगता है मुझमें से आती है,
लगता है मुझसे टकराती है !
आह !
छोटी-सी उम्र में देखे हुए
किसी नाटक की छोटी-सी स्थिति वह
अब तक मुझमें
मौक़े-बेमौक़े जी जाती है ।
6. शगुन-शंका
अब इस नुमाइश की छवियाँ
आँखों में गड़ती हैं,
क्या यह बुरा शगुन है ?
पारसाल घर में
मकड़ियाँ बहुत थीं,
लेकिन जाले परेशान नहीं करते थे ।
बच्चे उद्धत तो थे-
दिन भर हल्ला मचाते थे ।
फिर भी वे कहा मान लेते थे, डरते थे।
अब तो मेरी कमीजें
उन्हें छोटी पड़ती हैं,
क्या यह बुरा शगुन है ?
पारसाल बारिश में
छत बहुत रिसी थी,
लेकिन गिरने का ख़तरा नहीं था।
जैसे सम-सामयिक विचार
मुझे अक्सर अखरते थे
लेकिन मैं उनसे इस तरह
कभी चौंका या डरा नहीं था,
अब मेरे आंगन में रोज़
बिल्लियाँ लड़ती हैं ।
क्या यह बुरा शगुन है ?
7. सुबह : समाचार-पत्र के समय
सुनह-सुबह चाय पर
जबकि हवा होती है-खुनक,
लोग,
समाचार-पत्रों के पन्नों में,
सरसरी नज़र से
युद्ध, विद्रोह, सत्ता-परिवर्तन, अन्न संकट
और
देशी-विदेशी समस्याएँ पढ़ते हैं,
तब भी मैं पाठक नहीं होता।
आँगन में नयी खिली कली,
और द्वार पर निमंत्रण की पुर्ज़ी-सी धूप पड़ी रहती है,
बालों में खोंसकर गुलाब
घर के सामने से गुज़रती हैं सुंदरियाँ,
रंगों के साथ तैर जाते हैं आँखों में साड़ियों के
कई-कई रूप–
किन्तु मुखर नहीं होती है कल्पना :
चाय का प्याला संभाले
एक सेर गेहूँ या चावल के लिए
सस्ते अनाज की दुकान पर क़तारों में
अपने को खड़ा हुआ पाता हूँ,
अथवा
संत्रस्त और युद्धग्रस्त देशों की प्रजा की जमात में-
खड़ा हुआ सोचता हूँ-
कितने खुशकिस्मत थे पहले ज़माने के कवि
अपनी परिस्थिति से बचकर आकाश ताक सकते थे ।
सच है–
हमारे लिए भी कल्पनाओं के आश्रम खुले हैं,
किन्तु
चौंकाती नहीं हैं दुर्घटनाएँ,
कितना स्वीकार्य और सहज तो गया है परिवेश
कि सत्य
चाहे नंगा होकर आए, दिखता नहीं है।
लोग मंत्रियों के वक्तव्य पढ़ते हैं
“देश पर अब कोई संकट नहीं है’
और खुशी से उछल पड़ते हैं।
मुनाफ़े की मूर्तियाँ गढ़ते हैं।
(आह ! कल्पना पर भी मंत्रियों और व्यापारियों का
एकाधिपत्य है)
मुझमें उत्साह (कल्पना की उड़ान का)
नहीं जागता,
न मैं प्रयत्न कर पाता हूँ-!
उल्टे ये होता है
जबकि कहीं रोगों और मौतों की चर्चा निकलती है
तो सबसे पहला रोगी
और मुरदा-मैं खुद को पाता हूँ।
ईश्वर बेहतर जानता है-
मेरी कल्पना को
जाने किस दृश्य या घटना ने
विदीर्ण कर दिया है-;
आज
कोई भी, कैसे भी अधरों का संबोधन मुझे नहीं छूता,
दृष्टि नहीं बाँधता किसी का सौंदर्य
और मैं प्रकृति से भिन्न स्थिति में
भाषा को भोगता हूँ,
शब्दों और अर्थों से परे-एक भाषा
जो श्रव्य नहीं,
जिसके संदर्भ-बहुल अनुभव
मैं जीता हूँ, जीने के लिए विवश होता हूँ…सुबह-सुबह…
चाय की टेबिल पर, समाचार-पत्रों में,
जबकि लोग… ।
8. आत्मालाप
मेरे दोस्त !
मैं तुम्हें खूब जानता हूँ।
तुम-टीटी. नगर के एक बंगले में
सुख ओर सुविधा का जीवन बिताने की कल्पना
किए हो,
तुम-शासन की कुर्सी में बैठे हुए
अपने हाथों में मुझे
एक ढेले की तरह लिए हो,
और बर्र के छत्तों में फेंककर मुझे
मुसकरा सकते हो,
मौक़ा देखकर
कभी भी
मेरी पहुंच से बहुत दूर जा सकते हो।
पहले मैं भी ओर लोगों की तरह
बिलकुल यही समझता था कि मैं और तुम एक हैं,
दोनों यह युद्ध साथ-साथ लड़ रहे हैं,
अपनी जगह
अपने स्थानों से पीछे हट रहे हैं
या आगे बढ़ रहे हैं,
-सिर्फ़ तुम्हें राजपथ पसंद हैं,
गलियों की धूल में भटकना नहीं भाता,
पर मेरा नाता
इन्हीं गलियों में बसे किसी घर से है,
जिसके दरवाजे बंद हैं,
यों मैंने सोचा-यह फ़र्क़
कोई फ़र्क़ नहीं है,
क्योंकि तुम जहाँ अकेले पहुँचने का यत्न कर रहे हो,
सभी लोगों के साथ
पहुँचना मुझे भी वहीं है ।
चूँकि तुम मेरे साथ-माथ पैदा हुए थे
सोचा–
साथ ही रहोगे,
पीड़ा जैसे भी होगी
उसे मैं भी सहूँगा
और तुम भी सहोगे।
आज मुझे लगता है, पहले भी–
यद्यपि मैंने पहचाना नहीं था,
तुम्हारा सलूक
मेरे साथ दोस्ताना नहीं था;
तुमने हमेशा मुझे ऐसी लोरियों सुनाईं
कि मैं बिस्तर में पड़े-पड़े करवटें बदलता रहा,
तुमने हर घटना को इस तरह रंगा
कि मैं अपने ही सम्मुख
अपराधी की तरह हाथ मलता रहा,
मेरा विवेक तुम्हारे एक-एक संकेत का मोहताज बना रहा
मेरे और दुनिया के बीच का तनाव
ज़रा ज़्यादा ही तना रहा,
मैं अपने व्यक्तित्व को
तुम्हारे नज़रिए से देखता हुआ
झख मारकर गाता रहा,
तुमने प्रमोशन लिए
और मैं गालियाँ खाता रहा।
लेकिन-
यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं था (न है)
कि हम एक दूसरे को उकसाते या उछालते रहें,
एक तोते की तरह
एक दूसरे को पालते रहें,
उसे खोल से बाहर निकलने न दें,
आस-पास की पहाडियों पर घूमने न दें,
याकि अपनी प्रेमिकाओं से मिलने न दें,
उन्हें छूने या चूमने न दें ।
और इसमें भी कोई नैतिकता नहीं है
कि जहाँ एक पुल बन सकता हो वहीं पुल बनाएँ,
विरोधी के नक्कारखाने में
तूती को ज़ोर से बजाएँ,
हवाओं के डर से घर की टीन को उतारकर फेंक दें,
आशंकाओं के बालू में घुटने टेक दें ।
राम-नाम जपें
या माला के मनकों-से सट जाएँ,
बहुत तेज़ चाकू की तरह
एक दूसरे में उतरें
एक दूसरे से कट जाएँ ।
यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं है…
कि हम एक दूसरे से डरें,
हां, एक दूसरे को समझें
चाहे प्यार न करें ।
मैंने कहा था एक बार,-तुझे याद है-
कि तू मुझसे बचपन में खुलकर मिला है,
तेरा और मेरा क़द एक है—,
एक ही नदी है
अपने गाँव के नीचे
जिसका चौड़ा-सा पाट पार करने के बाद वह क़िला है ।
उसकी अटारी पर तू और मैं साथ ही पहुंचते थे।
किन्तु आज कहीं भी पहुंचने का रास्ता बंद है,
सिर्फ़ एक मेरी कमंद है
तू मुझे उठा,
मुझसे मत घबरा।
लेकिन तुमने कुछ सुना नहीं।
और मुझे डर है-इस बार,
तुम मुझे अकेला कर जाओगे,
मोटी-सी दुविधा
या छोटी-सी सुविधा के लिए मर जाओगे,
जीवन के सारे ख़तरे मुझे झेलने पड़ेंगे,
सिर्फ़ इस क़लम के सहारे
सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे ।
बड़े-बड़े पर्वत धकेलने पड़ेंगे।
मैं जानता हूँ घबराकर घुटना अच्छी बात नहीं है।
लेकिन यह एक संभावना है…
और इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है।
मैं तो अब भी कहता हूँ-आ, जी तो सही,
लेकिन एक कायर की ज़िंदगी न जी,
एक दोस्त के लिए अपनी नफ़रत को पी,
मेरे हाथों में हाथ दे,
मुझे पंजों में ढेले की तरह मत उठा
मेरा साथ दे।
9. वसंत आ गया
वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला…
मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं
मेरे दफ्तर में
विगत और आगत के बीच
एक युद्ध चल रहा था
शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद
मैं
शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था
भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी
मेरी आँखों में नगर जल रहा था
मैंने बार-बार
घड़ी को निहारा
और आँखों को मला
मुझे पता नहीं चला
मैंने बाज़ार से रसोई तक
जरा सी चढ़ाई पार करने में
आयु को खपा दिया
रोज बीस कदम रखे-
एक पग बढ़ा ।
मेरे आसपास शाम ढल आई ।
मेरी साँस फूलने लगी
मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा
लगा मुझे
केवल आदर्शों ने मारा
सिर्फ सत्यों ने छला
मुझे पता नहीं चला
खण्ड दो
10. देश-प्रेम
कोई नहीं देता साथ,
सभी लोग युद्ध और देश-प्रेम की बातें करते हैं।
बड़े-बड़े नारे लगाते हैं।
मुझसे बोला भी नहीं जाता।
जब लोग घंटों राष्ट्र के नाम पर आँसू बहाते हैं
मेरी आंख में एक बूँद पानी नहीं आता।
अक्सर ऐसा होता कि मातृभूमि पर मरने के लिए
भाषणों से भरी सभाओं
और प्रदर्शन की भारी भीड़ों में
लगता है कि मैं ही हूँ एक मूर्ख…
कायर-गद्दार !
मुझे ही सुनाई नहीं पड़ता है
देश-प्रेम,
जो संकट आते ही
समाचार-पत्रों में डोंडी पिटवाकर
कहलाया जाता है-
बार-बार ।
11. ईश्वर को सूली
(बस्तर गोलीकांड पर एक प्रतिक्रिया)
मैंने चाहा था
कि चुप रहूँ,
देखता जाऊँ
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।
मेरी देह में कस रहा है जो साँप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूँ थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है।
कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून !
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन मैंने देखा–
धीरे-धीरे सब ग़लत होता जाता है ।
इच्छा हुई मैं न बोलूँ
मेरा उस राजा से या उसकी अंध भक्त प्रजा से
क्या नाता है?
लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा
ढंक लेता है मेरा जीवित चेहरा,
और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है ।
एक उप महाद्वीपीय संवेदना
सैलाब-सी उमड़ती है-अंदर ही अंदर
कहीं से उस लाश पर
अविश्वास-सी प्रखर,
सीधी रोशनी पड़ती है-
क्षत-विक्षत लाश के पास,
बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास ।
और गोलियों के ज़ख्म देह पर नहीं हैँ।
रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है ।
एक काग़ज़ का नक्शा है-
ख़ून छोड़ता हुआ ।
एक पागल निरंकुश श्वान
बौखलाया-सा फिरता है उसके पास
शव चिचोड़ता हुआ
ईश्वर उस ‘आदिवासी-ईश्वर’ पर रहम करे!
सता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया!
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
इस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने-
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया,
समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी,
न्याय को राजनीति की शकल दी,
और हर विरोधी के हाथों में
एक-एक खाली बंदूक पकड़ा दी-
कि वह-
लगातार घोड़ा दबाता रहे,
जनता की नहीं, सिर्फ़ राजा की,
मुर्दे पैग़म्बर की मौत पर सभाएँ बुलाता रहे
‘दिवस’ मनाता हुआ,
सार्वजनिक आँसू बहाता हुआ,
नींद को जगाता हुआ,
अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।
x x x
इतिहास
विद्यमान काल की परिधि में दीवारों से टिके हुए
इन मुर्दा लोगों की पीढ़ी को माफ़ करे।
(सहनशील जनता न्याय-संगत नहीं होती)
इतिहास न्याय करे–
मुझ जैसे चंद बदज़बान और बेशऊर लोगों के साथ,
जो खुद आगे बढ़ आए
अपनी कमज़ोर और सीमित भुजाओं में भर लेने के लिए
कि एक बाँध अपने कगारों पर टूट रहा है;
मैंने सोचा था-जब किसी को दिखाई नहीं देता
मैं भी बंद कर लूँ अपनी आँखें
न सोचूँ
एक ज्वालामुखी फूट रहा है।
घुल जाने दूँ लावे में
तड़प-तड़पकर एक शिशु-
प्रजातंत्र का भविष्य
जो मेरे भीतर मिठी नींद सो रहा है ।
मुझे क्या पड़ी है
जो मैं देखूँ या बोलूँ या कहूँ कि मेरे आसपास
नरहत्याओं का एक महायज्ञ हो रहा है ।
मैंने चाहा था और मैं अब भी चाहता हूँ
कि मैं चुप रहूँ, न बोलूं।
एक मोटा-सा परदा पड़ा है
उसे रहने दूँ; खिड़की न खोलूँ।
12. चिंता
आजकल मैं सोचता हूँ साँपों से बचने के उपाय
रात और दिन
खाए जाती है यही हाय-हाय
कि यह रास्ता सीधा उस गहरी सुरंग से निकलता है
जिसमें से होकर कई पीढ़ियाँ गुज़र गईं
बेबस ! असहाय !!
क्या मेरे सामने विकल्प नहीं है कोई
इसके सिवाय !
आजकल मैं सोचता हूँ…!
13. देश
संस्कारों की अरगनी पर टंगा
एक फटा हुआ बुरका
कितना प्यारा नाम है उसका-देश,
जो मुझको गंध
और अर्थ
और कविता का कोई भी
शब्द नहीं देता
सिर्फ़ एक वहशत,
एक आशंका
और पागलपन के साथ,
पौरुष पर डाल दिया जाता है,
ढंकने को पेट, पीठ, छाती और माथा।
14. जनता
जब कुछ भी
अतुल अंधकार के सिवा बचता नहीं
तब लोगों को
बाँसों की तरह इस्तेमाल किया जाता है हहराते सागर
में गहराई नापने के लिए ।
एक-दो-तीन
और सब-
यानी सभी बाँस
छोटे पड़ जाते हैं,
छोड़ दिए जाते हैं सागर में ।
यानी
फिर और नए बाँसों की आवश्यकता होती है हहराते
सागर में गहराई नापने के लिए ।
यह एक अखंड क्रम है…
और उनके अजीब विश्वास हैं
उनके हाथों में बहुत सारे बाँस हैं
बाँसों पर बाँस
हहराते सागर की गहराई नापने के लिए ।
15. मौसम
मौसम में कैसा बदलाव आ गया है।
शीत के छींटे फेंकता है
मेरे नाम ।
हर शाम
एक स्वच्छ दर्पण-सा व्योम
टुकुर-टुकुर ताके ही जाता है।
वातावरण बड़ी निराश गति से
चारों ओर रेंगता है,
कवि कहकर मुझको चिढ़ाता है ।
सच-
कैसा असहाय है ।
कितना बूढा हो गया है तुम्हारा कवि !
बदले हुए मौसम के अनुरूप
उससे
वेश तक नहीं बदला जाता है ।…
16. तुलना
गडरिए कितने सुखी हैं ।
न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेड़ियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।
जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
… भेड़ों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।
गडरिए कितने सुखी हैं ।
17. युद्ध और युद्ध-विराम के बीच
(संदर्भ 1965 का युद्ध)
मामूली बात नहीं है
कि इन अगन भट्टियों के दहानों पर बैठे हुए
हम, तुमसे फूलों और बहारों की बात कर लेते हैं,
अपनी बाँहें आकाश की ओर उठाकर
बच्चों की तरह चिल्ला उठते हैं कभी-कभी
टैंकों और विमानों के कोलाहलों को
जीवन का नारा लगाकर
एक नए स्वर से भर देते हैं।
मामूली बात नहीं है
कि जब ज़मीन और आसमान पर
मौत धड़धड़ाती हो,
एक कोमल-सा तार पकड़े हुए
आप
अपनी आस्था आबाद रक्खें,
विषाक्त विस्फोटों के धुएँ में
खुद अपने ऊपर नेपाम बम चलाते हुए
गाँधी ओर गौतम का नाम याद रक्खें ।
शब्दों की छोटी-छोटी
तोपें लिए हुए
बम बरसाने वाले जहाजों को मोड़ लें,
भूखी साँसों को राष्ट्रीयता के चिथड़े पहनाए
अभावों का शिरस्त्राण बाँधे
चारों ओर फैली विषेली गैस ओढ़ लें,
चाहे तलुए झुलसकर काले पड़ जाएँ
आँखों में सपनों की कीलें गड़ जाएँ
पेट पीठ से सट जाए
पूरे व्यक्तित्व का सिंहासन पलट जाए ।
xxx
अजीब बात है
कि नज़रों को घायल कर देते हैं दृश्य
जिधर पलकें उठाते हैं,
वातावरण घृणा मुस्कराता है
जिसमें भी जाते हैं,
आकाश की मुट्ठी से फिसलती हुई
बेबसी फैलती-फूटती है
फिर भी हम नहीं छटपटाते हैं
गाते हैं एक ऐसा गीत
जिसकी टेक अहिंसा पर टूटती है ।
मामूली बात नहीं है दोस्तो !
कि आज जब दुनिया शक्ति के मसीहों को पूजती है
सोग घरों में भी तलवारों पर मचल रहे हैं,
हम
युद्धस्थल में
एक मुर्दे को शांति का पैग़ंबर समझकर
उठाए चल रहे हैं।
xxx
लोग कहते हैं कि अमुक बुरा है या भला है।
लोग ये भी कहते हैं कि आत्मवंचना में
जीवन जीना कला है।
हम कुछ भी नहीं कहते।
बार-बार शांति के धोखे में विवेक पी जाते हैं।
संवेदनहीन राष्ट्रों को
सदियों से
आत्मा पर बने हुए घाव दिखलाते हैं-
यानी
बहुत हुआ तो
आत्मलीन विश्व से निवेदन करते हैं-ओर
उसी नदी में डूब जाते हैं
जिससे उबरते हैं।
xxx
मामूली बात नहीं है दोस्तो
कि हम न चीखें
न कराहें;
क्योंकि यही रास्ता शायद
हमारी नियति है,
जो यहाँ से शुरू हो
और यहीं लौट आए ।
शायद यह तटस्थता है।
शायद यह अहिंसा या शांति या सहअस्तित्व है।
यह कुछ ज़रूर है;
इसी के लिए हमने
टैंकों और बमों को शहरों पर सहा है,
प्राण गँवाए हैं ।
कच्छ में स्वाभिमान
काश्मीर में फूलों की हँसी
और छम्ब में मातृभूमि का अंग-भंग हो जाने दिया है
चाकू और छुरे खाए हैं।
…मामूली बात नहीं है दोस्तो !
18. सवाल
मुझे पता नहीं यहाँ किस ॠतु में
कौन-सा फूल खिलता है ?
वसंत कब आता है ?
बारह महीने लहलहाते हुए दोनों के क्या नाम हैं ?
वे फसलें जो तिगुनी उपज देने लगी हैं–
कहाँ हैँ?
वे खेत जो सोना उगलते हैं-किसके हैं?
ये खेत जो सूख गए
इनमें क्या बोया गया था ?
वे लोग जो फूलों को देखकर जीते हैं-कैसे हैं?
और ये लोग कौन हैं
जो पौधों को सींचते हैं
मौन हैं?
मुझे पता नहीं वर्षा की बूँदों और सूखी हुई झाडियों में
कैसा संबंध है ?
चारों तरफ फैले और
घिरे हुए लोगों की चीखें
कहाँ से निकलती हैं?
गलियों में बढ़े और पड़े हुए कुत्तों को
कौन खाना खिलाता है?
गायें दिन-ब-दिन क्यों दुबली
और आवारा घूमता बिजार, क्यों मोटा होता जाता है?
पिता होते तो मैं पूछता
इन ख़यालों से मेरा क्या नाता है?
मेरे चारों ओर
सड़कों और झोंपड़ों के जाल
और तरह-तरह के सवाल क्यों हैं ?
क्यों किसी भी सवाल का जवाब
मुझे नज़र नहीं आता ।
19. एक चुनाव-परिणाम
आओ देखें-
एक छोटी-सी पगडंडी
कहाँ पहुंच सकती है !
भय की ज़मीन पर
निश्चय की ईंट
कैसे एक सृष्टि रच सकती है ?
आओ सोचें-
कैसे घरों में बंद विद्रोह के तर्क
बाहर आ जाते हैं,
और लोकतंत्र के समर्थन में
सफल वातावरण बनाते हैं।
आओ, अंजलि में भर लें-
पराजित लहरों के मुँह से निकलता हुआ झाग ।
देखें–
लौह-पुरुष बनकर पुजने वाला पुतला
मोम का निकला।
एक फूंक से बुझ गया
सूरज समझा जाने वाला चिराग़।
20. गाते-गाते
मैं एक भावुक-सा कवि
इस भीड़ में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ ।
मेरी चेतना जड़ हो गई है—
उस ज़मीन की तरह-
वर्षा में परती रह जाने के कारण-
जिसने उपज नहीं दी
जिसमें हल नहीं लगे ।
यह देखते-देखते
कि कितने भयानक भ्रम में जिए हैं बीस वर्ष ।
यह सोचते-सोचते
कि मेरा कसूर क्या है
और क्या किया है इन लोगों ने
जो जीवन-भर सभाओं में तालियाँ बजाते रहे,
भूख की शिकायत नहीं की,
बड़ी श्रद्धा से-
थालों में सजे हुए भाषण
और प्रेस की कतरनें खाते रहे,
मेरा दिमाग भन्ना गया है !
मैं एक मामूली-सा कवि
इस ग़म में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ।
नेताओ!
मुझे माफ़ करना
ज़रूर कुछ सुनहले स्वप्न होंगे-
जिन्हें मैंने नहीं देखा।
मैंने तो देखा
जो मशालें उठाकर चले थे
वे तिमिरजयी,
अंधेरे की कहानियाँ सुनाने में खो गए ।
सहारा टटोलते हुए दोनों दशक
ठोकरें खा-खाकर लंगड़े हो गए।
अपंग और अपाहिज बच्चों की तरह
नंगे बदन
ठण्ड में काँपता हुआ एक-एक वर्ष
ऐन मेरी पलकों के नीचे से गुज़रा है।
तुम्हारा आभारी हूँ रहनुमाओ !
तुम्हारी बदौलत मेरा देश, यातनाओं से नहीं,
फूलमालाओं से दबकर मरा है।
मैं एक मामूली-सा कवि
इस खुशी में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ।
खण्ड तीन
21. प्रतीति
एक मग्न प्यार के प्रदेश से गुज़रकर
मैं अपनी
यायावर-स्मृति से हटा नहीं पाता हूँ-
वे उदास भुतियाले खँडहर
उनमें थोडा बच जाता हूँ।
बहुत प्यार करता हूँ तुम्हें
बहुत… ।
लेकिन बार-बार
उस मुर्दा पीढ़ी के बीच से गुज़रने वाली राहों को
मैं जिनसे होकर तुम तक आता हूँ,
उन्हीं खँडहरों में,
उन्ही सूनी भुतियाली-सी जगहों में
बल खाते पाता हूँ;
एक संक्रांति-काल होता हे तुमसे मिलना
जिसमें कुछ अंतराल भरता है,
एक मृत्यु होती है तुमसे हट आना
जिसमें उस थकी-सी दशाब्दी का जहाज़
डगमगाता हुआ दृश्य में उभरता है ।
लेकिन मैं तोड़ डालने वाली यात्राएँ जीकर भी
तुम तक आ जाता हूँ।
बार-बार लगता है-
मैं जैसे यात्रा से लौटा हूँ
तुम जैसे यात्रा पर निकली हो।
22. गीत-कौन यहाँ आया था
कौन यहाँ आया था
कौन दिया बाल गया
सूनी घर-देहरी में
ज्योति-सी उजाल गया
पूजा की बेदी पर
गंगाजल भरा कलश
रक्खा था, पर झुक कर
कोई कौतुहलवश
बच्चों की तरह हाथ
डाल कर खंगाल गया
आँखों में तिर आया
सारा आकाश सहज
नए रंग रँगा थका-
हारा आकाश सहज
पूरा अस्तित्व एक
गेंद-सा उछाल गया
अधरों में राग, आग
अनमनी दिशाओं में
पार्श्व में, प्रसंगों में
व्यक्ति में, विधाओं में
साँस में, शिराओं में
पारा-सा ढाल गया|
23. वर्षा
दिन भर वर्षा हुई
कल न उजाला दिखा
अकेला रहा
तुम्हें ताकता अपलक |
आती रही याद :
इंद्रधनुषों की वे सतरंगी छवियाँ
खिंची रहीं जो
मानस-पट पर भरसक |
कलम हाथ में लेकर
बूँदों से बचने की चेष्टा की–
इधर-उधर को भागा
भींग गया पर मस्तक :
हाय ! भाग्य की रेखा,
मुझ पर ही आकाश अकारण बरसा
पर तुम…
बूँदें गई न शायद तुम तक |
24. विदा के बाद : प्रतीक्षा
परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फ़र्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नहीं देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती-बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नहीं कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो (ऐसे हालात में)
उसके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ मैं।
25. एक जन्म दिन पर
एक घनिष्ठ-सा दिन
आज
एक अजनबी की तरह
पास से निकल गया।
एक और सोते-सा सूख गया !
टूट गया एक और बाजू-सा !
एक घनिष्ठ-सा दिन-
जिसे मैं चुंबनों से रचकर
और कई सार्थक प्रसंगों तक ले जाकर
तुम तक आ सकता था !
मैं जिसको होंठों पर रखकर गा सकता था
स्वरों की पकड़ में नहीं आया
गरम-गरम बालू-सा फिसल गया !
मटमैली चादर-सी
बिछी रही सड़कें
और खाली पलंग-सा शहर !
मेरी आँखों में-देखते-देखते,
बिना किसी आहट के,
पिछली दशाब्दी का
कलेण्डर बदल गया।
26. एक और प्रसंग
आँखों में भरकर आकाश
और हृदय में उमंग,
काँपती उँगलियों में सहज थरथराती हुई
छोटी-सी पतंग,
मैंने–
शीश से ऊँची उठाकर
और ऊपर निहारकर,
विस्मय, आशंका और हर्ष की प्रतीति सहित
वायु की तरंगों पर छोड़ दी-अपंग ।
कोई आवाज़ कहीं नहीं हुई।
शांत रहा संध्या का कण्ठ !
धुएँ-सा बदलता रहा आसमान रंग ।
मेरी पतंग-
मुझे नीचे से ऊपर-
और ऊपर…को जाती हुई-
पर खोले
चील से बगुला
और बगुले से छोटी-सी चिड़िया की भाँति लगी,
मुझमें उत्सुकता के साथ सहज पीड़ा की
हल्की अनुभूति जगी-
“जाने क्या होगा” ?
किंतु आह !
क्षण भर के बाद ।
वह चिड़िया और उसका पूरा परिवेश
(नभ का पूर्वी प्रदेश)
साँवली लकीरों के साँपों ने घेर लिया ।
कट गई पतंग ।
अंधकार का अजगर लील गया
एक-एक पंख ।
बाँहें फैलाकर आकाश
उसे ग्रहण नहीं कर पाया ।
बिखर गया काला-सा गाढ़ा अवसाद-निस्तरंग ।
फटी-फटी आँखों से
कटी हुई डोरी का एक छोर पकड़े
हुआ कहीं और एक स्तर पर
एक स्वप्न-भंग ।
[कितना विचित्र साम्य रखता है
जीवन
और गगन से पतंग का प्रसंग ।]
27. साँझ : एक विदा-दृश्य
एक दुखी माँ की तरह-संध्या
मैला-सा आँचल पसारे
सामने खड़ी है ।
सारा आकाश-ग्राम,
बाल-वृद्ध-बनिताएँ,
साँस रोक-
देख रहे विदा-दृश्य !
लिपे-पुते आंगन-सी
धरती पड़ी है ।
एक शोख वय वाली लड़की-सी हवा
इधर-उधर कपड़े झटकती हुई
आँगन बुहारती है ।
“थोड़े दिन और अभी रहने दो”
सलज कोयलिया बोल मारती है।
वृद्ध-वृक्ष, गर्दन हिलाते हैं।
पिता-पर्वत
काली-सी चादर में मुँह लपेट
विदा का प्रसंग टाल जाते हैं।
28. सृष्टि की आयोजना
मैं-जो भी कुछ हाथ में उठाता हूँ
सपने या फूल,
मिट्टी या आग,
कर्म या विराग
मुझे कहीं नहीं ले जाता ।
सिर्फ एक दिग्भ्रम की स्थिति तक,
हल्का-सा कंपन, रोमांच
एक ठण्डा-सा स्पर्श
किसी भाव-विह्वल अतीत की तरह
मेरे भीतर
कंपता-अकुलाता है।
कोई आकार नहीं लेता, हर स्वप्न
मेरी उँगलियों में
सृजनशीलता की झनझनाहट जगाकर
टूट जाता है।
आज
मेरे हाथों में शून्य
और आँखों में अंधकार है,
तुम्हारी आँखों में सपने
और हाथों में सलाइयाँ हैं,
सोचता हूँ
इन इच्छाओं का
कोई आकाश अगर बुन भी गया
तो उसमें क्या होगा?
न चाँद…
न तारे…
न सूर्य का प्रकाश…
आखिर कहाँ सोंस लेगा
हमारा अंश?
यह नन्हा शिशु :-विश्वास ।
कितने अभागे हैं हम दोनों
कि बने एक सृष्टि की आयोजना की।
29. एक समझौता
वह…
अब मेरी प्रेमिका नहीं है।
हमें जोड़ने वाला पुल
बाहरी दबावों से टूट गया।
अब हम बिना देखे
एक दूसरे के सामने से निकल जाते हैं।
बहुत बुरे दिन हैं…कि मैं जिनकी कल्पना किए था
वे दुर्घटनाएँ
घटकर सच हो रही हैं !
वे जो बचाव के बहाने थे,
तनाव का कारण बन गए हैं।
आज सबसे अधिक ख़तरा वहाँ है
जो निरापद स्थान था।
यह नहीं कि मेरे विरुद्ध हो गए हैं सब लोग !
बल्कि मेरी कलम ही
मेरे हाथ में
मेरे विरुद्ध एक शस्त्र है।
मेरा साहित्य,
एक तंग और फटे हुए कोट की तरह
अब मेरी रक्षा नहीं करता।
चारों ओर से घिरकर
मैं एक समझौते के लिए
सहमत हो गया हूँ ।
वह…
अब मेरी कविता नहीं है।
30. होंठों के नीचे फिर
इधर और झुक गया है आकाश
एक जले हुए वन में वसंत आ गया है !
झुरमुट में, चिड़ियों का झुंड लौट आया है
मरे हुए पत्तों पर
गति थिरक उठी है।
मेरे पाँवों में
एक पगडंडी रहने लगी है।
सहसा
गर्भवती हुई है विवक्षा,
और तस्वीरें
रिश्तों की शक्ल ले रही हैं,
मेरे उत्सुकता भरे पाँव तेज़ पड़ रहे हैं,
मेरी यात्रा के पथ पर कुछ बाँहें खड़ी हैं,
मेरे कानों में खामोशी
आत्मकथा कहने लगी है।
मेरी नियति रही होगी ?
शायद भाग्य में लिखी थी एक जंगल की आग,
मेरी बाँबी से मणि खो गई थी,
मेरी प्यास कह रहे थे मेरे होंठों के झाग ।
अब इन बुझी हुई आँखों में
चमक आ गई है,
मेरे होंठों के नीचे
फिर एक नदी बहने लगी है।
31. गीत-अब तो पथ यही है
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|
अब उफनते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|
यह लड़ाई, जो कि अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी, पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |
32. मेरे स्वप्न
मेरे स्वप्न तुप्तारे पास सहारा पाने आएँगे ।
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएँगे।
हौले-हौले पाँव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत,
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे।
थोड़ी आंच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएँगे।
उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती,
वे आए तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे ।
फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम,
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएँगे।
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी,
जागे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे ।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे ।
हम क्यों बोलें-इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए,
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे ।
हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं,
अब जो धाराएं पकड़ेंगे, इसी मुहाने आएँगे।
33. तुझे कैसे भूल जाऊँ
अब उम्र का ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं।
गहरा गए हैं खूब धुँधलके निगाह में
गो राहरो नहीं है कहीं, फिर भी राह में-
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फैले हुए सवाल-सा सड़कों का जाल है,
ये शहर हैं उजाड़, या मेरा ख़याल है,
सामने-सफ़ बांधते-धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फिर पर्वतों के पास विछा झील का पलंग
होकर निढाल, शाम बजाती है जलतरंग,
इन रास्तों से तन्हा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।
उन सिलसिलों की टीस अभी तक है घाव में,
थोड़ी-सी आँच और बची है अलाव में,
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।
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