गोलेन्द्र पटेल की प्रसिद्ध कविताएँ, Golendra Patel Poem in Hindi

Golendra Patel Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Golendra Patel Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. गोलेन्द्र पटेल का जन्म 5 अगस्त 1999 को उत्तरप्रदेश के चंदौली जिले के खजूरगाँव में हुआ था. इनकी रचनाएँ अनेको पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.

आइए अब यहाँ पर Golendra Patel ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

हिंदी कविताएँ Hindi Poetry : Golendra Patel

Golendra Patel Poem in Hindi

1. चिहुँकती चिट्ठी

बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर

हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत

मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर

मौसम कोई भी हो
कमजोर….
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?

2. किसान है क्रोध

निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ

अभिमान की आवाज़ है

एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर

और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !

3. वसंत का छलकता यौवन ?

केले के पत्तों पर
किरणें करुणा लिख रही हैं
और तेज हवा में
चंचल चिखुरी चीख रही है
सिसक रहे हैं
सरसों के फूल
कलियों के काजल
गुलाब के गालों पर
हँस रहे हैं
पत्तियों पर चिपकी है धूल
भौंरें चाट रहे हैं
मोथा की माथा
गौरया गा रही है
गम की गाथा
अन्य पंक्षी पढ़ रहे हैं
पलायन की भाषा
चौपाये चिंतित खड़े हैं
उनके पेट बड़े हैं
सड़कों पर
बिखर गयी है आशा
बौरें कह रहे हैं
बगीचे के माली से
बादल के रोने पर
हम भी रोते हैं
हल्कु के कुत्ते
हरदम भूखे सोते हैं
गाँव से गयी गंध
पूछ रही है रानी से
इस वर्ष
हर्ष कहाँ है ?
और उत्साह के उपवन में
वसंत का छलकता यौवन
मौन क्यों है ?
तुम्हारी तरह
बिल्कुल तुम्हारी तरह!

4. मुसहरिन माँ

धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक
चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!

5. सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी

तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!

बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन

मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!

कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी का

चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!

6. लक्ष्य के पथ जाना है

लक्ष्य के पथ जाना है
आँधी आये दीप बुझे ;
फिर भी रूक नहीं सकता
मणि है साथ जो!
आगे बढ़ चला
साहित्य के घर चला!
आदित्य की तरह जला
काव्य-परिसर में आ जो पला!

7. आँख

1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल

8. बुद्ध के रंग में रंगें हम

अकुशल द्वेष ईर्ष्या घृणा गर्व है गोली
त्याग चतुष्टय-दोष, बोलो मीठी बोली
बुद्ध वचन से भरे, तुम्हारी ज्ञान-झोली
संग रंगमंच पर झूमी-झूमी नाचे टोली
भक्तिरस में भींगी, करें हँसी-ठिठोली
उमंग-तरंग और रंगों का पर्व है होली।

9. थ्रेसर

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं

कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क, न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर –

बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए

बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?

10. गुढ़ी

लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए – गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल
और पीड़ा उसकी कलाई !

11. घिरनी

फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ

अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?

आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।

12. रणभेरी

गूँज उठी रणभेरी

काशी कब से खड़ी पुकार रही
पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो
गंगा की आवाज़ हुई
स्वच्छ रहो और रहने दो
आओ तुम भी स्वच्छता अभियान से जुड़ो न करो देरी
गूँज उठी रणभेरी

घाटवॉक के फक्कड़ प्रेमी
तानाबाना की गाना
कबीर तुलसी रैदास के दोहें
सुनने आना जी आना
घाट पर आना — माँ गंगा दे रही है टेरी
गूँज उठी रणभेरी

बच्चे बूढ़े जवान
सस्वर गुनगुना रहे हैं गान
उर में उठ रही उमंगें
नदी में छिड़ गई तरंगी-तान
नौका विहार कर रही है आत्मा मेरी
गूँज उठी रणभेरी

सड़कों पर है चहलपहल
रेतों पर है आशा की आकृति
आकाश में उठ रहा है धुआँ
हाथों में हैं प्रसाद प्रेमचंद केदारनाथ की कृति
आज अख़बारों में लग गयी हैं ख़बरों की ढेरी
गूँज उठी रणभेरी

पढ़ो प्रेम से ढ़ाई आखर
सुनो धैर्य से चिड़ियों का चहचहाहट
देखो नदी में डूबा सूरज
रात्रि के आगमन की आहट
पहचान रही है नाविक तेरी पतवार हिलोरें हेरी
गूँज उठी रणभेरी

धीरे धीरे
जिंदगी की नाव पहुँच रही है किनारे
देख रहे हैं चाँद-तारे
तीरे-तीरे
मणिकर्णिका से आया मन देता मंगल-फेरी
गूँज उठी रणभेरी

13. माँ

(“अनुप्रास अलंकार’ में : ‘म’ से ‘माँ”)

मैं मुख मन्थन मधु!
मधुर मंगल मृदुल माँ!
महान महन्त मातृत्व महिमा!

मुख्य मग मार्गदर्शक महान!
मानव मेरी महत्व मान!

मुझसे मोह माया मुक्ति!
मंजिल मजहब मोहब्बत मस्ती

मिलता मनोहर मजेदार ममता!
मनुष्य मानो मूझे महकता!

मर्म महक मीठी मरहम!
माता माई मईया मम!

मन-माँझी महाकाव्य महतारी!
मत मार्मिक मणि मतारी!

महामंत्र मख मठरी माँ!
मिट्टी मतलब मेरी माँ!
मतभेद मिटाती मेरी माँ!

मधुपर्क मधुमय मयुखी मनुजा !
मनोभूमि मसि मार्तंड मुनिजा!

मर्ष महि महेरी माँ!
मंच मंजरी मेरी माँ!

(2017 की रचना)

14. हिंदी के ठेकेदार

हिंदी के ठेकेदार साहब
हिंदी पढ़ रहे हो
हिंदी पढ़ा रहे हो
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए
हिंदी दिवस पर खुब भाषण दे रहे हो
दीजिए , हम सुन रहे हैं
और गुन रहे हैं
कि आप अपने वाल पर क्यों नहीं करते हैं
हिंदी के किसी नवांकुर रचनाकार की
कोई रचना साझा
खैर,
हमें आपकी भाषा से नहीं है
बैर
पर हम आपकी ठेकेदारी में काम नहीं करेंगे
आपकी ठेकेदारी आपको मुबारक ;

तुम नाराज क्यों हो रहे हो
तुम्हारे हिंदी के लोग ही कौन कहीं
नवोदित रचनाकारों को अपने वाल पर साझा करते हैं
कुछ लोगों को छोड़कर शेष तो हमारे जैसे ही हैं
वे ठेकेदार नहीं हैं तो क्या हुआ
वे हमसे भी बढ़कर हैं
वे हिंदी के साहित्यकार नहीं
बल्कि शासक हैं शासक…।

रचना: 14-09-2019

15. तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें

(प्रथम खंड)

सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर
निकल पड़ा हूँ शोध के लिए
झाड़ियों से छिल गयी है देह
थक गये हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पार कर
सफर में ठहरी है आत्मा
बोध के लिए

बरगद के नीचे बैठा कोई बूढ़ा पूछता है
अजनबी कौन हो ?
जी , मैं एक शोधार्थी हूँ
(पुरातात्विक विभाग ,….विश्वविद्यालय)
मुझे प्यास लगी है

जहाँ प्रोफेसर और शोधार्थी
पुरातात्विक पत्थर पर पढ़ रहे हैं
उम्मीद की उजाला से उत्पन्न उल्लास
उत्खनन के प्रक्रिया में
खोज रही है
प्रथम प्रेमियों के ऐतिहासिक साक्ष्य
मैं वहीं जा रहा हूँ

बेटा उस तरफ देखो
वहाँ छोटी सी झील है
जिसमें यहाँ के जंगली जानवर पीते हैं पानी
यदि तुम कुशल पथिक हो
तो जा कर पी लो
नहीं तो एक कोस दूर एक कबीला है
जहाँ से तुम्हारी मंजिल
डेढ़ कोस दूर नदी के पास
फिलहाल दो घूँट मेरे लोटे में है
पी लो बेटा

धन्यवाद दादा जी!

उत्खनन स्थल पर पहूँचते ही पुरातत्वज्ञ ने
लिख डाली डायरी के प्रथम पन्ने पर
मिट्टी के पात्रों का इतिहास
लोटा देख कर आश्चर्य है
यह बिल्कुल वैसा ही है
जैसा उक्त बूढ़े का था
(वही नकाशी वही आकार)
कलम स्तब्ध है
स्वप्नसागर में डूबता हुआ
मन
सोच के आकाश में
देख रहा है
अस्थियों का औजार
पत्थरों के बने हुए औजारों से मजबूत हैं

देखो
टूरिस्ट आ गये हैं
पुरातात्विक पत्थरों के जादा पास न पहुँचे सब
नहीं तो लिख डालेंगे
इतिहास पढ़ने से पहले ही प्रेम की ताजी पंक्ति

किसी ने आवाज दी
सो गये हो क्या ?
शोधकर्ता सोते नहीं है शोध के समय
सॉरी सर!
कल के थकावट की वजह से
आँखें लग गयीं
अब दोबारा ऐसा नहीं होगा

ठीक है
जाओ देखो उन टूरिस्टों को
कहीं कुछ लिख न दें
( प्रिय पर्यटकगण! आप लोगों से अतिविनम्र निवेदन है कि
किसी भी पुरातात्विक पत्थरों पर कुछ भी न लिखें)

श्रीमान! आप मूर्तियों के पास क्या कर रहे हैं ?
कुछ नहीं सर!
बस छू कर देख रहा हूँ
कितनी प्राचीन हैं
महोदय! किसी मूर्ति की प्राचीनता पढ़ने पर पता चलती है
छूने पर नहीं
जो लिखा है मूर्तियों पर उसे पढ़ें
और क्रमशः आप लोग आगे बढ़ें

सामने एक पत्थर पर लिखा है
जंगल के विकास में
इतिहास हँस रहा है
पेड़-पौधे कट रहे हैं
पहाड़-पठार टूट रहे हैं
नदी-झील सूख रही हैं
कुछ वाक्य स्पष्ट नहीं हैं
अंत में लिखा है
जैसे जैसे बिमारी बढ़ रही है
दीवारों पर थूकने की
और मूतने की
वैसे वैसे चढ़ रही है
संस्कार के ऊपर जेसीबी
और मर रही हैं संवेदना

आगे एक क्षेत्र विशेष में
अधिकतम मानव अस्थियां प्राप्त हुई हैं
जिससे सम्भावना व्यक्त किया जा सकता है
कि यहाँ प्राकृती के प्रकोप का प्रभाव रहा हो
जिसने समय से पहले ही
पूरी बस्ती को श्मशान बना दी

संदिग्ध इतिहास छोड़िये
मौर्य-गुप्त-मुगलों के इतिहास में भी नहीं रुकना है
सीधे वर्तमान में आईये
जनतंत्र से जनजाति की ओर चलते हैं

आजादी के बाद शहर में आदिवासियों के आगमन पर
हम खुश हुए
कि कम से कम हम रोज हँसेंगे
उनकी भाषा और भोजन पर
वस्त्र और वक्त पर
व्यवसाय और व्यवहार पर

बस कवि को छोड़ कर
शेष सभी पर्यटक जा चुके हैं
जो जानना चाहता है
प्राचीन प्रेम का वह साक्ष्य
जिस पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण हुआ है
वही दो अक्षर
(जिसे ‘प्रेम’ कहते हैं / दो प्रेमियों के बीच /
संबंधों का सत्य / सृष्टि की शक्ति / जीवन का सार )

पास की कबीली दो कन्याएँ
पुरातत्व के शोधार्थी से प्रेम करती हैं
प्रेम की पटरी पर रेलगाड़ी दौड़ने से पहले ही
शोधार्थी लौट आता है शहर
शहर में भी किसी सुशील सुंदर कन्या को हो जाती है
उससे सच्ची मुहब्बत

दिन में रोजमर्रा की राजनीति
रात में मुहब्बते-मजाज़ी की बातें
गंभीर होती हैं

प्रिये!
जब तुम मेरे बाहों में सोती हो
गहरी नींद
निश्चिंत
तब तुम्हारे शरीर की सुगंध
स्वप्न-सागर से आती
सरसराहटीय स्वर में सौंदर्य की संगीत सुनाती है
भीतर
जगती है वासना
तुम होती हो
शिकार
समय के सेज पर

संरक्षकीय शब्द सफर में
थक कर
करता है विश्राम
चीख चलती है हवा में अविराम

साँसों के रफ्तार
दिल की धड़कन से कई गुना बढ़ जाती है
होंठों पर होंठें सटते हैं
कपोलों पर नृत्य करती हैं
सारी रतिक्रियाएँ
एक कर सहलाता है केश
तो दूसरा स्तन को
एक दूसरे की नाक टकराती है
नशा चढ़ता है
ऊपर
(नाक के ऊपर)
आग सोखती हैं आँखें आँखों में देख कर
स्पर्श की आनंद

तभी अचानक
बाहर से कोई देता है आवाज
यह तो स्वप्नोदय की सनसनाहट है
देखो वीर अपना बल
अपना वीर्य
अपनी ऊर्जा

प्रियतम!
क्यों हाँफ रहे हो
क्यों काँप रहे हो
मैं सोई थी
निश्चिंत फोहमार कर गहरी नींद में
मुझे बताओ
क्या हुआ?
तुम्हें क्या हुआ है?
तुम्हारे चेहरे पर
यह चिह्न कैसा है?
यौन कह रहा है
मौन रहने दो
प्रिये!

ठीक है
जैसा तुम चाहो

अल्हड़ नदी
मुर्झाई कली के पास है
साँझ श्रृंगार करने आ रही है
तट पर
हँसी ठिठोली बैठ गई
नाव में

लहरें उठ रही हैं
अलसाई ओसें गिर रही हैं
दूबों के देह पर
इस चाँदनी में देखने दो
प्रेम की प्रतिबिम्ब
आईना है
नेह का नीर
नाराजगी खे रही है पतवार
दलील दे रही है
देदीप्यमान द्वीप पर रुकने का संकेत

कितनी रम्य है रात
कितने अद्भुत हैं
ये पेड़-पौधे नदी-झील पशु-पक्षी जंगल-पहाड़
यहाँ के फलों का स्वाद
प्रिये! यही धरती का जन्नत है
हाँ
मुझे भी यही लगता है

उधर देखो
हड्डियाँ बिखरी हैं
यह तो मनुष्य की खोपड़ी है
अरे! यह तो पुरुष है
इधर देखो
स्त्री का कंकाल है

ये कौन हैं?
जाति से बहिष्कृत धर्म से तिरस्कृत
पहली आजाद औरत का पहला प्यार
या दाम्पत्य जीवन के सूत्र
या आदिवासियों के वे पुत्र
जिन्हें वनाधिकारियों के हवस-कुंड में होना पड़ा है
हविष्य के रूप में स्वाहा
हमें हमारा भविष्य दिख रहा है
अंधेरे में

प्रियतम पीड़ा हो रही है
पेट में
प्रिये!
तुम भूखी हो
कुछ खा लो
नहीं , भूख नहीं है
तब क्या है?

तुम्हारा तीन महीने का श्रम
ढो रही हूँ
निरंतर
इस निर्जनी उबड़खाबड़ जंगली पथ पर
अब और चला नहीं जाता
रुको…रु…को
ठहरो…ठ…ह…रो
सुस्ताने दो

प्रिये!
मुझे माफ करो
मैं वासना के बस में था
उस दिन
आओ मेरे गोद में
तुम्हें कुछ दूर और ले चलूँ
उस पहाड़ के नीचे
जहाँ एक बस्ती है
पुरातात्विक साक्ष्य के संबंध में गया था
वहाँ कभी
तो दो लड़कियों ने कर ली थी
मुझसे प्रेम
जिनका भाषा नहीं जानता मैं
वे वहीं हैं
हम दोनों
उनके घर विश्राम करेंगे
निर्भय

गोदी में ही पूछती है
प्रियतमे!
तुम मुझे
कब तक ढोओगे?
प्रिये!
जन जमीन जंगल की कसम
जीवन के अंत तक
ढोऊँगा
तुम्हें
अविचलाविराम

मेरे जीने की उम्मीद
तुम्हारे गर्भ में पल रही है
तुम मेरी प्राण हो
तुम्हारा प्रेम मेरी प्रेरणा
देखो सामने झोपड़ी है
जो , उसी का है
वह रहा उसका घर

आश्चर्य है प्रियतम
यह तो पेड़ पर बना है
केवल बाँस से
हाँ
ये लोग खुँखार जानवरों से
बचने के लिए ही ऐसा घर बनाते हैं
बस अंतर इतना है कि हम शहरी हैं
ये वनजाति
(अर्थात् आदिवासियों के पूर्वज)
हम देखने में देवता हैं
ये राक्षस
खैर ये सच्चे इंसान हैं

कबीलों वालों
मालिक आ रहे हैं
स्वागत करो
मालिक… मा…लि..क
यह लीजिए एक घार केला
यह लीजिए कटहर
यह लीजिए बेर
यह कंदमूल फल फूल स्वीकार करें
मालिक
हम कबीले की राजकुमारी हैं
सरदार कहता है
मालिक ये दोनों मेरी पुत्री
आपकी राह देख रही थीं
आपके आने से
कबीलीयाई धरती धन्य हुई
अब आप इन्हें वरण करें

आपको अपना परिचय
उस बार हम दोनों बहनें नहीं दे सकी
इसके लिए हमें क्षमा करना
ये कौन हैं?
मेरी पत्नी
जो आपकी भाषाओं से एकदम अपरचित है
ये पेट से तीन महीने की है
थक गई हैं
सफर में चलते चलते

हम दोनों आपके उपकारों का सदैव ऋणी रहेंगे
यह मेरा सौभाग्य है
कि मैं आप लोगों से पुनः मिल पा रहा हूँ

कुछ दिन बाद
दोनों शहर आ जाते हैं
जहाँ सभ्य समाज के शिक्षित लोग रहते हैं

क्या धर्म के पण्डित?
इस कुँवारी कन्या की भारी पैर पर व्यंग्य के पत्थर मारेंगे
या फिर इन्हें संसद के बीच चौराहे पर
जाति के संरक्षक-सिपाही बहिष्कृत-तिरस्कृत का तीर मारेंगे

कुछ भी हो
कंदमूल की तरह
दोनों ने दुनिया का सारा दुख एक साथ स्वीकार कर लिया
तुम्हारे हिस्से का अँधेरा भी कैद कर लिए
अपने दोनों मुट्ठियों में
ताकि
तुम्हें दिखाई देता रहे प्रकाशमान प्रेम
और तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें

प्रियतम !
पीड़ा पेट में पीड़ा… पी…ड़ा
आह रे माई ! माई रे !

गर्भावस्था के अंतिम स्थिति में
अक्सर अंकुरित होती है आँच
अलवाँती की आँत से आती है आवाज
प्रसूता की पीड़ा प्रसूता ही जाने

औरत की अव्यक्त व्यथा-कथा कैसे कहूँ?
मैं पुरुष हूँ

नौ मास में उदीप्त हुई
नयी किरण
किलकारियों के क्यारी में
रात के विरुद्ध
रोपती है
रोशनी का बीज
जिसे माँ छाती से सींचती है
नदी की तरह निःस्वार्थ

अवनि आह्लादित है
आसमान की नीलिमा में झूम रहे हैं तारे
चाँद उतर आया है
हरी भरी वात्सल्यी खेत में
चरने के लिए
फसल

प्रेम की पइना पकड़े
खड़े हैं
पहरे पर पिता
उम्र बढ़ रही है
ऊख की तरह
मिट्टी से मिठास सोखते हुए
मौसम मुस्कुराया है
बहुत दिन बाद बेटी के मुस्कुराने पर

सयान सुता पूछती है
माँ से
क्या आप मुझे जीने देंगी
अपनी तरह
क्या मैं स्वतंत्र हूँ
अपना जीवनसाथी चुनने के लिए
आपकी तरह
आप चुप क्यों हो?

बापू आप बाताई
जिस तरह माँ ने की है
आपसे प्रेमविवाह
क्या मैं कर सकती हूँ?
धैर्य से उठाकर
पिता ने दे दी
धीमी स्वर में उत्तर
मेरी बच्ची तुम स्वतंत्र हो
शिक्षित हो
जैसा उचित समझो
करो…!

16. होली

फाल्गुनी लोरी की लय में होरी
सुना रही है

आँगन में बन रही है रंगोली
खुब उड़ रही है रोरी
चेहरे पर अबीर ही अबीर है
रूप में रंग ही रंग

एक बोली
होली गाती थी

होली गाना
सिर्फ़
उसी को ही आता था

उसका नाम है ब्रज!

17. किसान का गान

घने जंगल में घने घन छाए
माँ! वीरों को रणभूमि में लाना है
हमें तेरी ही प्रशंसा गाना है
चाहे प्राण भले ही जाए
स्वयं को कर्तव्य-पथ पर चलाना है
मातृभूमि की लाज बचाना है।

अपनी धरती को स्वर्ग बनाऊँगा
सूखी हुई भूमि की प्यास मिटाऊँगा
हर घर प्रेम सुधा बरसाऊँगा
फिर से हरित क्रान्ति लाऊँगा
मजदूर-किसानों की भूख मिटना है
मातृभूमि की लाज बचाना है।

अनेक फसलें ललहा रही हैं
कृषिका खेतों में गा रही हैं
खूँटियों पर टँगे कच्छे हैं
भोर के शोर अच्छे हैं
मन की चिड़ियाँ चहचहा रही हैं
तालाब में गाय-भैंस नहा रही हैं
नभ से इन्द्र को बुलाना है
मातृभूमि की लाज बचाना है।

देश ने देखा सुंदर सपना
घर हो सबके पास अपना
शास्त्री जी ने दिया नारा
जय जवान जय किसान
नयन में नदी की धारा
आँसू से सींचा हिन्दुस्तान
हरा-भरा वृक्ष का गाना है
मातृभूमि की लाज बचाना है।

उस खेत में पानी बिन बीज जरा है
इस खेत में नानी बिन घड़रोज चरा है
नहर-नाली को देखकर ज़बान पर गाली है
पनकट साला; मालगुजारी साली है
सूखे क्षेत्र में गंगा को लाना है
मातृभूमि की लाज बचाना है।

रचना : 05-08-2013

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