Kumar Ambuj Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Kumar Ambuj Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. कुमार अंबुज का जन्म 13 अप्रेल 1957 को हुआ था. यह हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि हैं. इनकी पांच कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं. 1. किवाड़ 2. क्रूरता 3. अनंतिम 4. अतिक्रमण 5. अमीरी रेखा.
कुमार अंबुज जी को इनकी कविताओं के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं. जिनमे शामिल हैं. – भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा सम्मान, गिरजा कुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, वागीश्वजरी पुरस्कामर आदि.
आइए अब यहाँ पर Kumar Ambuj ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.
कुमार अंबुज की प्रसिद्ध कविताएँ, Kumar Ambuj Poem in Hindi
किवाड़ (कविता संग्रह) – कुमार अंबुज
1. मेरे पास
मेरे पास थोड़े-से पत्थर थे
और कुछ सूखे बाँस
जिनके सहारे मुझे
तय करना था अपनी सभ्यता का रास्ता
पुरानी सभ्यताएँ टीलों की खुदाई चाहती थीं
और मुझे अपनी सभ्यता को
टीलों में तबदील होने से बचाना था
दीवारों पर बाहर धूप और अन्दर दीमक थी
कुछ श्लोक और रूढ़ियाँ थीं मुझ पर हँसती हईं
शास्त्र थे शस्त्रों की तरह
मेरे पास इच्छाओं की पोटली थी
और वक़्त की एक छोटी-सी लाठी
जिसके सहारे
पार करना था अनिर्णयों का अरण्य
विस्मृति के जल में हिलते हुए
कुछ धुंधले अक्स थे
सूखते हुए आँसू थे
पिघलती हुई आत्मा
फूलों और सुगन्धियों से भरा
एक नरक मेरे सामने था
मेरे मोक्ष का रास्ता वहीं से होकर जाता था
कुछ अलौकिक लोग थे
एक स्वप्न में मिलकर
दूसरे ही स्वप्न में अलग होते हुए
मेरे पास शेष थी सिर्फ़
दो स्वप्नों के बीच की अनिद्रा
जहाँ कुछ वरदान थे मेरे पास
शाप की तरह पीछा करते हुए
कुल मिलाकर एक अत्कान्त जीवन था
जिसकी तुकें ढूँढ़ना था।
1990
2. रात तीन बजे
एक आवाज़ आती है
रात तीन बजे की नींद में
यह कुएँ में बाल्टी डूबने की आवाज़ है
या बिल्ली कूद गई है बगल की छत पर
कि एक औरत ने
अपना रोना तेज़ी से रोक लिया है
यह किसी पत्थर के गिरने की आवाज़ है
या एक बीमार की कराह
कि रात में पत्ता इसी तरह टूटता है?
यह नेपाली चौकीदार के डंडे की
दीवार पर फटकार की आवाज़ है
या शाम से आम के पत्तों में छिपा
घर से भागा-रूठा लड़का
मौका देखकर कूदा है माँ की गोद के लिए
या फिर किसी ने
डुबकी लगाई है तालाब में
यह गोली की आवाज़ है
या आदमी के धूल में गिर जाने की?
यह कैसी आवाज़ है
जो आई है जब से
मेरी नींद की छाती पर बैठ गई है!
1988
3. उन शब्दों की तरह
जो आत्मीयजन देह की दुष्टता भुलाते हए
आत्मा की पवित्रता में विश्वास कर रहे हैं
खोज रहे हैं अमरता
वे सबसे भोले और सरल हैं
मुझे उन पर दया करना चाहिए
जो देह की खुशी में
नश्वरता के भय से शामिल हए
वे अनन्त पीड़ा के स्वामी बने
प्रसन्नता उनके जीवन में दुख की तरह
शरीक हुई
सिर्फ़ इच्छाएँ कभी प्रेम नहीं होती!
अन्तरिक्ष और अनन्त के बारे में
सबसे निश्चित यही है
कि वहाँ कोई अन्त नहीं होता
जो अन्त की खोज में हैं अनन्त कामनाओं के साथ
वे निरीह हैं
मुझे उन पर दया आना चाहिए
उन शब्दों की तरह
जो दुर्घटनाओं के बाद के ब्यौरे हैं।
1990
4. गुफा
शुरू होता है यहाँ से
भय और अँधेरा
भय और अँधेरे को
भेदने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से।
1987
5. नींद और नींद से बाहर
मेरी अपनी एक गहरी नींद है
जिसकी उम्र में शेष है पूरी रात का समय
एक धरती है मेरी अपनी
जहाँ बचपन के फूल अनवरत झर रहे हैं
झर रहे हैं अनाज के दाने
भूख का सपना
नींद के चमकदार सूप में झर रहा है
और दानों के फटके जाने की आवाज़
पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है
नदी एक आँसू है
पृथ्वी के गाल पर बहता हुआ
मेरी नींद से बाहर की धरती पर
मेरे पूरे जीवन का समय शेष है
झर रहे हैं जहाँ
मेरे सलोने जवान दिन
भूख झर रही है पत्ती की तरह
नदी की गहराई बढ़ाते हुए
पिचक गए हैं पृथ्वी के सलोने गाल
नींद से बाहर नींद एक कठिन सपना है
जहाँ
रक्त की आवाज़ के अलावा
नहीं है कहीं कोई आवाज़।
1988
6. यथास्थिति में
धूप तेज़ और सीधी गिरेगी
मगर दानों में दूध नहीं बनेगा
पानी सन्तुष्ट करने का स्वभाव
खो देगा
गिर जाएगा बैरोमीटर का पारा
डालियाँ हो जाएँगी नंगी ब
हन सत्ताईसवें बरस में भी रहेगी अनब्याही
त्यौहार गुज़र जाएँगे चुपचाप
रोशनी चकाचौंध पैदा करेगी
पेड़ अपनी जड़ों की पूरी ताक़त ख़र्च कर देंगे
गाय के रँभाने में
आवाज़ आना ख़त्म हो जाएगी
हवा
हवा नहीं रहेगी
और हम
कभी न सूखनेवाला पसीना
उमस को सौंप देंगे।
1985
7. चुप्पी में आवाज़
यह एक क़स्बे की रात की
पहले पहर की चुप्पी है
जिसमें एक ज़रा-सी भी आवाज़
कुएँ में दहाड़ की तरह गूंज सकती है
और चुप्पी की गहनता में ही
सबसे ज़्यादा याद आती है आवाज़
सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगती है हलचल
कि कहीं कुछ हो
कैसे भी हो मगर एक आवाज़ हो
और चुप्पी में अक्सर पिछली आवाजें ही आती हैं
जिन्हें हम ही छोड़कर आए थे
अकेला
उनकी अँगुलियाँ टटोलती हैं हमारी देह
सहलाती हैं दुबकी हुई आत्मा
एक आवाज़ आती है
और हम पीछे दौड़े आ रहे
सहपाठी के इन्तज़ार में
थोड़ा-सा रुक जाते हैं
रुक जाता है समय का दुर्जेय रथ
साइकिल को रिक्शे की तरह खींचते हए
पिता के हाँफने की आवाज़
ठीक वैसी होती थी
जो चूल्हा फूंकते हुए माँ
अपनी फूंकनी से निकालती थी
आवाज़ों की यह जुड़वाँ आवाज़ मुझ हिरण का
व्याघ्र की तरह पीछा करती है
चुप्पी में यह पीछा सबसे तेज़ होता है
उम्र की इस सबसे लम्बी और तेज़ दौड़ में
आवाज़ विजेता होती है
फिर विजयोल्लास के भीषण नाद के बाद की
काँपती हई चुप्पी में
याद आती हैं कुछ और कठिन आवाजें
जानवर की चमकती-हिंसक गुर्राहट की तरह
ये आवाजें
मेरे मन की गुफा में शासक की तरह रहती हैं
और इन सबसे अलग
एक तीखी आवाज़ चुप्पी में चीख़ती है
यह रेल की सीटी की तरह
पुलिस की सीटी की तरह बजती हुई
उतरती है नसों में
उस वक़्त होगी मेरी मृत्यु
जब चुप्पी की गहनता में भी
नहीं सुनाई देगी मुझे
कोई आवाज़!
1988
8. किवाड़
ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों से
देखती है-‘क्या हुआ?
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बँधी हुई हैं
जब साँकल बजती है
बहुत कुछ बज जाता है घर में
इन किवाड़ों पर
चन्दा सूरज
और नाग देवता बने हैं
एक विश्वास और सुरक्षा
खुदी हुई है इन पर
इन्हें देखकर हमें
पिता की याद आती है
भैया जब इन्हें
बदलवाने को कहते हैं
माँ दहल जाती है
और कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
ये पुराने हैं
लेकिन कमज़ोर नहीं
इनके दोलन में
एक वज़नदारी है
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया
हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
1987
9. अक्तूबर का उतार
छतों पर स्वेटरों को धूप दिखाई जा रही थी
और हवा में
ताज़ा घुले हुए चूने की गन्ध
झील में बतख की तरह तैर रही थी
यह एक खजूर की कूँची थी जिसके हाथों
मारी जा चुकी थी बरसात की भूरी काई
और पुते हुए झक-साफ़ मकानों के बीच
एक बेपुता मकान
अपने उदास होने की सरकारी-सूचना के साथ
सिर झुकाए खड़ा था
टमाटरों की लाली शुरू होकर
चिकने भरे हुए गालों तक पहुँच रही थी
अंडे और दूध का प्रोटीन जेब खटखटा रहा था
खली और नमक की खुशबू
पशुओं की भूख में मुँह फाड़ रही थी
शामिल हो रहा था आदम-इच्छाओं में
हरे धनिए का रंग और अदरक का स्वाद
बाज़ार में ऊन और कोयले के भाव बढ़ रहे थे
रुई धुनकनेवाले की बीवी के खुरदरे हाथ
सुई-डोरे के साथ
तेज़ी से चल रहे थे रजाई-गद्दों पर
(यही वह जगह होती है जहाँ सुई तलवार से
और डोरा रस्सी से बड़ा हो जाता है)
बढ़ई की भुजाओं की मछलियाँ
लकड़ी को चिकना करते हुए
खुशी से उछल रही थीं
तेज़ हो रही थी लोहा कुटने की आँच
खुल रहे थे बैलगाड़ियों के रास्ते
आलू की सब्ज़ी शाम तक चल जाने लायक इन दिनों में
एक मटमैली चिड़िया अपनी चोंच से
बच्चे की चोंच में दाना डाल रही थी
रावण का पुतला जल चुका था सालाना जश्न में
मगर आसमान में बारूद
और आवाजें बाक़ी थीं
बाकी थी रोशनी और सजावट के लिए कुछ जगह
थोड़ी-सी जगह
बच्चों के खेल के लिए निकल आई थी
और थोड़ी-सी पेड़ के नीचे एक बैंच पर
इस रोनी दुनिया में
मुसकराए जा सकने की गुंजाइश के साथ
इमली का पेड़ लगातार हिल रहा था
यह सर्दियों की चढ़ाई थी
जब मकड़ियों के घर उजड़ रहे थे
और अक्तबर का यह चमकदार उतार था
जिस पर से फिसल रहा था एक पूरा शहर
जैसे फिसल-पट्टी से फिसलता है
एक बच्चा !
1988
10. ज़रा-सी देर में
ज़रा-सी देर में बड़ा हो गया मैं
और गाँव के सिवान से बाहर निकल आया
शहर की लड़की से प्यार किया
और ज़रा-सी देर में वह लड़की
लिपस्टिक की दुनिया में गायब हो गई
ज़रा-सी देर में मैं शराब पीने लगा
कॉलेज की आखिरी साल की परीक्षा से भाग आया
नौकरी खोजते हुए भूल गया मैं
गेहँ-चने के खेत
मेथी की भाजी और एक कोस दूर कुएँ का पानी
ज़रा-सी देर में नौकरी मिली
और आज तक नहीं छूटी
ज़रा-सी देर में नीम पर निंबौरी आ गई
और आँखों में पानी
पते पीले पड़ते हुए डाल छोड़ने लगे
छूट गई प्यार भरी जगह
और नई जगह का पानी सेहत के ख़िलाफ़ हो गया
ज़रा-सी देर में दोस्त बने
और कपड़ों से बारिश की गन्ध आने लगी
ख़त्म हो गई बैलों की जुगाली
ज़रा-सी देर में मैदान बनते हए ख़त्म हो गए
वृक्ष और पहाड़
खत्म हो गए चावल, गेहूँ और रसोईघर के चूहे
ज़रा-सी देर में हरित-क्रान्ति फैल गई
फैल गया हैज़ा
एक हवाई जहाज़ पक्षी की तरह गिर पड़ा
खिलौने की तरह लुढ़क गई रेलगाड़ी
ज़रा-सी ही देर में लड़की झूल गई पंखे पर
और टूट गए
मज़बूत दिखने वाले पिता के कन्धे
थके आदमी की गहरी नींद में
बस ज़रा-सी देर में चिड़िएँ बोलने लगीं
‘उठो, काम का वक्त हो गया!’
1988
11. अकेला आदमी
अकेला आदमी
उजाड़ रास्ते पर खड़े रुख की तरह होता है
रात पूरे वज़न के साथ
उसके ऊपर से गुज़र जाती है
दिन उसकी आँखों में चकाचौंध पैदा करता है
अँधेरी सीढ़ियों से अकेला आदमी
अपने तमाम अकेलेपन के साथ धीरे-धीरे उतरता है
लौटता है ब्रैड का एक पैकिट लेकर
सुबह के लिए बचा लेता है चार स्लाईस
और अपना सब कुछ
एक जंग लगे ताले के भरोसे छोड़कर
चल देता है कहीं भी
अकेला आदमी जब सड़क से गुज़रता है
सड़क अकेली हो जाती है
हवाएँ उसे छूकर उदास हो जाती हैं
उसके दुलार भरे स्पर्श से
चौदह बरस की लड़की एकाएक डर जाती है
अकेले आदमी के कमरे की दीवारें
काली और खोखली होती हैं
उससे कोई नहीं कहता
कभी बेतरतीब हो गई हैं उसकी मूंछें
उसकी कमीज़ पर दीवार से पीठ टिकाने का
निशान बन चुका है
और चप्पलें खो चुकी हैं अपना रंग
उससे कोई नहीं कहता आओ खाना खा लो
या चलो कहीं घूमने चलें
छत पर पड़े हए
रात को तारों को देखता वह अक्सर सोचता है
काश एक आदमी और उसके साथ होता
तो वह इस रात का अँधेरा काट देता
चार तारे तोड़ किसी के छप्पर में खोंस देता
या बहुत मुमकिन है वह उसके साथ मिलकर
ध्रुव तारे को उत्तर से हटा
दक्षिण के आसमान में ही टाँक देता
अकेले आदमी का चश्मा
सुबह-सुबह खो जाता है
उसका रूमाल
उसका पेन उसे कभी नहीं मिल पाता
इस दुनिया की बहुत-सी चीज़ों से बेख़बर
वह अपने सुनसान अँधेरे में
कुछ न कुछ ढूँढता रहता है
अकेले आदमी की हँसी खौफ़ पैदा करती है
उसका सुबकना किसी तीसरे कान तक नहीं पहुँचता
उसकी चीख़ उसके ही निर्वात में गुम जाती है
संगीत उसकी धमनियों तक नहीं पहुँचता
दृश्य उसे नहीं करते आह्लादित
सुगन्ध उसे प्रसन्न नहीं बनाती
वह खुशी और दुख में फ़र्क करना भूल चुका होता है
और कभी-कभार जब कोई छोटा बच्चा
उससे पूछता है-
….
12. दुनियादार आदमी
उसके पास वक़्त होता है
कि वह सबसे नमस्कार करता हुआ पूछ सके-
‘कहो, कैसे हो?’
पड़ोसी के दुख के बारे में
वह मुस्कराकर जानकारी लेता है
उसके पास सुन्दर उजले शब्द होते हैं
कुछ खाते होते हैं बैंक में उसके
और कुछ बीमा-पॉलिसी
कभी-कभी वह संगीत के बारे में बात करता है
नृत्य में जाहिर करता है अपनी रुचि
रामलीला दुर्गापूजा के लिए देता है चंदा
वह तपाक से हाथ मिलाता है कहता है-
‘आपसे मिलकर ख़ुशी हुई !’
हिसाब लगाकर वह जमीन खरीदता है
फिर थोड़े-से शेयर्स
बनवाता है आभूषण
कुछ पैसा वह घर की अलमारी में बचा रखता है
लाॅकर के लिए लगाता है बैंक में दरख़्वास्त
कार खरीदते हुए
पत्नी की तरफ़ देखकर मुस्कराता है
सोचता है ज़िन्दगी ठीक जा रही है
सफल हो रहा है मानव-जीवन
और इस सब कुछ ठीक-ठाक में
एक दिन दर्पण देखते हुए दुनियादार आदमी
अपनी मृत्यु के बारे में सोचता है
और रोने लगता है
डर सबसे पहले
दुनियादार आदमी के हृदय में
प्रवेश करता है।
(1988)
13. काली लड़की
अपने सामाजिक अंधकार से निकलकर
एक काली लड़की
मेरे स्वप्न के उजास में प्रवेश करती है
उजास में रात की कालिमा घुल जाती है
दमकती है काली लड़की की देह
सप्त-धातु की बेजोड़ मूर्ति की तरह
चमकता है काली लड़की का शिल्प
बारिश में बिजली की तरह मुस्कराती है वह
हंसों की एक पंक्ति काले आसमान से गुज़र जाती है
काली लड़की की आँखें गहरी काली हैं
वे मेरे स्वप्न की सुरक्षा से बाहर नहीं आना चाहतीं
उन आँखों में गौर-वर्ण के अनुभवों का
ठोस अँधेरा है
जो लड़की के उजले सपनों में टूट-टूटकर गिरता है
एटलस की तरह घूमती हुई रात्रि हर बार
मेरे स्वप्न के अफ्रीका पर आकर
ठहर जाती है।
(1990)
14. सुबह के लिए
चौका-बर्तन के बाद
माँ ने ढँक दिये हैं कुछ अंगारे
राख से
थोड़ी-सी आग
कल सुबह के लिए भी तो
चाहिए !
(1988)
15. त्योहार और स्त्रियाँ
त्योहार लाते हैं
रेशम-गोटे की कढ़ी हुई साड़ियाँ
और बक्से में रखे आभूषण
स्त्रियों की देह पर
त्योहार जगाते हैं रात भर
कथा-कीर्तन के साथ उपवास कराते हैं
दिन भर काम करनेवाली स्त्रियों से
त्योहार कपड़े लाते हैं बच्चों को
मिठाइयाँ भी
और लाते हैं पुरुषों के लिए असीम प्रार्थनाएँ
स्त्रियों के रोम-रोम से
त्योहार की अन्तिम-वेला में
जोड़-जोड़ से तड़की हुई स्त्रियाँ
पोर-पोर में उल्लास लिए
बिस्तर पर जा गिरती हैं-
जैसे गिरती हैं
अगले त्योहार की थकान में !
(1985)
क्रूरता (कविता संग्रह) – कुमार अंबुज
1. नागरिक पराभव
बहुत पहले से प्रारम्भ करूँ तो
उससे डरता हूँ जो अत्यंत विनम्र है
कोई भी घटना जिसे क्रोधित नहीं करती
बात-बात में ईश्वर को याद करता है जो
बहुत डरता हूँ अति धार्मिक आदमी से
जो मारा जाएगा अगले दिन की बर्बरता में
उसे प्यार करना चाहता हूँ
कक्षा तीन में पढ़ रही पड़ोस की बच्ची को नहीं पता
आनेवाले समाज की भयावहता
उसे नहीं पता उसके कर्णफूल
गिरवी रखे जा चुके हैं विश्व-बैंक में
चिन्तित करती है मुझे उसके हिस्से की दुनिया
एक छोटा-सा लड़का आठ गिलास का छींका उठा कर
आसपास के कार्यालयों में देता है चाय
सबके चाय पीने तक देखता है सादा आँखों से
सबका चाय पीना
मैं एक नागरिक देखता हूँ उसे नागरिक की तरह
धीरे-धीरे अनाथ होता हूँ
ठीक करना चाहता हूँ एक-एक पुरज़ा
मगर हर बार खोजता हूँ एक बहाना
हर बार पहले से ज़्यादा ठोस और पुख्ता
मेरी निडरता को धीरे-धीरे चूस लेते हैं मेरे स्वार्थ
अब मैं छोटी-सी समस्या को भी
एक डरे हुए नागरिक की तरह देखता हूँ
सबको ठीक करना मेरा काम नहीं सोचते हुए
एक चुप नागरिक की तरह हर ग़लत काम में शरीक होता हूँ
अपने से छोटों को देखता हूँ हिकारत से
डिप्टी कलेक्टर को आता देख कुर्सी से खड़ा हो जाता हूँ
पड़ोसी के दुःख को मानता हूँ पड़ोस का दुःख
और एक दिन पिता बीमार होते हैं तो सोचता हूँ
अब पिता की उमर हो गई है
अंत में मंच संचालन करता हूँ
उस आदमी के सम्मान समारोह का जो अत्यंत विनम्र है
चरण छूता हूँ जय-जयकार करता हूँ उसी की
जो अति धार्मिक है
और फिर एक बच्ची को देखता हूँ
प्लास्टिक की गुड़िया की तरह
जैसे चाय बाँटते बहुत छोटे बच्चे को
नौकर की तरह।
2. डर
आख़िर मेरे पड़ोस में नए समाज की दहशत आती है
और मुझमें पड़ोस की
अचानक अविश्वसनीय हो जाता है एक प्राचीन विश्वास
मुसकराने पर भी कम नहीं होती आँखों की कठोरता
इससे पहले कि नरम पड़े कठोरता का छिलका
एक और भीड़ गुज़र जाती है बग़ल की सड़क से
तब तक सारे आवरण हट चुके होते हैं
सब एक-दूसरे को अपने गोपनीय विचारों के साथ दिख रहे होते हैं
भीतर जो आरी चलती है
उसकी आवाज़ सुनाई देती है बाहर तक
सबसे बड़ा डर है
कोई अपना शत्रु ठीक से नहीं पहचानता
मैं मारा जा सकता हूँ सिर्फ इसलिए
कि नजर आऊँ किसी को अपने शत्रु की तरह
और उतना ही मुमकिन है
मैं अपने डर की वजह से मार दूं किसी को
अभी तक सीखते रहे संभव है लोगों को मित्र बनाया जाना
मगर सीख रहे हैं लगातार
संभव रह गया है अब सिर्फ शत्रु बनाया जाना
कई बार तो हम किसी को अपना मित्र बनाते हुए भी
उसे किसी दूसरे का शत्रु बना रहे होते हैं
ज्यादा डरने पर करते हैं यही काम सामूहिक तौर पर
और सोचते हैं इस तरह बच जाएँगे हम
मगर ठीक-ठीक समझ नहीं आता किससे डरें और किससे बचें
हर आदमी डरा हुआ है इसलिए हर आदमी से ख़तरा है
सबसे ज़्यादा भयावह है कि कोई स्वीकार नहीं करता अपना डर
मैं डरता हूँ कि एक डरे हुए निडर समाज में रहता हूँ
जहाँ नहीं पहचान सकता अपने मित्रों को अपने शत्रुओं को
बस, देखता हूँ सबके अन्दर एक डर है
जो डराता है लगातार।
3. उजाड़
वहाँ इतना उजाड़ था कि दर्शनीय स्थल हो गया था
दूर-दूर से आ रहे थे लोग
छुट्टी का दिन था सो
बहुत थीं लड़कियाँ और स्त्रियाँ भी
आबादी से ऊबे हुए लोगों की एक नई आबादी थी वहाँ
इतिहासकारों और जिज्ञासु छात्रों का भी एक झुंड था
एक दार्शनिकनुमा आदमी एक तरफ़
अपने कैमरे से खींच रहा था उजाड़
धूप तेज़ थी और उजड़ गई चीज़ों पर गिर रही थी
चीज़ों की उदासी चमक रही थी धूप में
जैसे भीड़ को देख कर
मरियल गाइड की आँखें
एक सभ्यता का ध्वंस था वहाँ
कुछ लिपियाँ थीं
और चित्रकला की प्रारम्भिक स्थितियाँ
चट्टानों के बीच गूंजती थी वहाँ पूर्वजों की स्मृति
लोगों ने उजाड़ को रौंदते हुए
उसे बदल डाला था मौज-मस्ती में
हम सबके चले जाने के बाद शायद
निखार पर आएगा उजाड़ का सौंदर्य
साँझ होगी और उजाड़, मैंने सोचा-
अपनी गुफा में रहने चला जाएगा
जिस तरह अपने अकेलेपन में
मनुष्य वापस जाता है अपने ही भीतर
उजाड़ और मनुष्य के अकेलेपन को
आज तक किसी ने नहीं देखा है।
4. मुलाक़ात
कल शाम पिता के पुराने दोस्त से मिलना हुआ
उन्होंने मुझे पुरानी शिकंजी पिलाई
मेरे बचपन के जादुई किस्से सुनाए
और वे सब शरारतें खुश होकर बताईं
जिन पर अब मैं डाँटता हूँ मेरे बेटों को
फिर कुछ याद करते हुए
पीले पुराने कागज़ों के ढेर में से एक तसवीर निकालकर दी
तसवीर के आदमी को मैं एकदम पहचान न पाया
वह मेरे पिता की तसवीर थी
जब वे गाँव से सीधे शहर आए थे
उनकी पूँछे भी ठीक तरह से नहीं आईं थीं
वे औचक तरीके से देख रहे थे कैमरे की तरफ़
उनके इतने बाल थे कि बुढ़ापे के गंजेपन के बारे में
मुश्किल थी कोई भविष्यवाणी
उन्होंने मुझे मेरे बचपन के उस नाम से कई बार पुकारा
जिसे मैं भूल चुका था लगभग
उन्होंने मुझे खिलाया था अपनी गोद में
और अब पूछ रहे थे मेरे बच्चों के बारे में
बीच-बीच में उन्होंने अपनी चार लड़कियों के विवाह की
चिन्ता भी बताई
और दूसरे प्रसंग से क़स्बे में बढ़ती गुंडई के बारे में विवश नाराज़गी भी
वे चाहते थे मैं खाना खाकर जाऊँ
उन्होंने ज़िद की
रसोईघर से बर्तन गिरने की आवाज़ पर वे चौंके
मगर उन्होंने ज़िद की
उनके रिटायरमेंट को एक साल बचा था
उनकी प्रॉविडेंट फंड की किताब अधूरी थी
राजनीति और धर्म का सम्बन्ध उन्हें दहेज-समस्या के
आसपास का लग रहा था
वे अपने रिटायरमेंट को लेकर चिन्तित थे
मगर वे अपनी चिन्ता छिपाते हुए
बार-बार पूछ रहे थे मेरी नौकरी के बारे में
यह जानकर कि जल्दी ही हो जाएगा मेरा तबादला
वे उसी तरह उदास हो गए
जिस तरह पिता मुझे पहली नौकरी पर जाते देखकर हुए थे
रात का पहला अँधेरा हुआ ही था कि बिजली चली गई
मैं बेचैन हुआ अँधेरे से
मगर वे उतने ही उत्साह से बातें करते रहे
बीच में उन्होंने कहा कि अँधेरा बातचीत में दखल नहीं देता
बल्कि अँधेरे में की गई आवाज़
ज़रा ज़्यादा ही साफ़ सुनाई देती है
अँधेरे में पुराने कलदार की तरह बज रही थी उनकी आवाज
बोले, इधर की फ़िल्में बहुत ख़राब हो गई हैं
हालाँकि वे पिछले पन्द्रह साल से कोई फ़िल्म नहीं देख सके थे
फिर उन्होंने पृथ्वीराज कपूर के अभिनय
और सहगल के गानों की याद की
देर रात जब मैं चलने लगा
तो पिता की तसवीर देते हुए बोले कि फिर आना
एक लम्बी पुरानी गली में बहुत दूर तक चलता रहा मैं
वे फिर आने की उम्मीद में देखते रहे
मेरा जाना।
5. चाय की गुमटी
वह रास्ते से एक तरफ़ थी
लेकिन बहुत-से लोगों की ज़िन्दगी के रास्ते में पड़ती थी
छोटी-सी ढलान थी वहाँ
जो थके हए राहगीरों को बुलाती थी आवाज़ देकर
कई बार वहाँ ऐसे लोग भी आते रहे जिन्हें नहीं होती चाय की तलब
वे ऊबे हुए लोग रहा करते जिन्हें कहीं और नहीं मिल पाती थी शान्ति
उस ढलान से लुढ़कता रहा दफ्तरों का बोझ व
हीं छूटती रहीं घर-गृहस्थी की चिन्ताएँ
नए लगाए गए करों और अनन्त महँगाई के बीच
वहाँ पचहत्तर पैसे की चाय थी चीज़ों को दुर्लभ होने से बचाती हुई
विद्वानों को पता नहीं होगा लेकिन वह गुमटीवाला
पिछले कई सालों से वित्तमंत्री की खिल्ली उड़ा रहा था
काम पर जाते मज़दूर इकट्ठा होते रहे वहाँ
कभी भी पहुँच सकते थे आसपास रहनेवाले विद्यार्थी
रिक्शेवाले, अध्यापक, दफ्तर के बाबू
हर एक के लिए जगह थी वहाँ
बेंच कुल एक थी और एक स्टूल
जिन पर धूल और पसीने के अमर दाग थे
उनका सौंदर्य बुलाता रहा दुःखी लोगों को बार-बार
आसपास की जगहें पहचानी जाती रहीं चाय की गुमटी से
अजनबियों को बताया जाता रहा-‘वहाँ, उस गुमटी के दाएं
एक दिन मैं अपने दोस्त के साथ वहाँ गया
मन ही मन शर्मिन्दा होता हुआ कि मेरे शहर में कोई जगह ऐसी नहीं
जहाँ मैं उसे, बाहर से आए उत्सुक आदमी को, ले जा सकूँ,
खाली नहीं थे, बेंच और स्टूल
हमने एक बड़े पत्थर पर बैठकर
एक पेड़ के नीचे चाय पी
फिर एक-एक कट और
दोस्त ने कहा
यह कितनी खूबसूरत जगह है
जो हर शहर में होती है
लेकिन हर किसी को खूबसूरत नहीं लगती।
6. क्रूरता
धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे
तब आएगी क्रूरता
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा
तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को
फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता
और सभी में गौरव भाव होगा
वह संस्कृति की तरह आएगी उसका कोई विरोधी न होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा
हमारा सारा ऋंगार
यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना।
7. चँदेरी
चंदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है
मुझे दूर जाकर पता चलता है
बहुत माँग है चंदेरी की साड़ियों की
चँदेरी मेरे शहर से इतनी क़रीब है
कि रात में कई बार मुझे
सुनाई देती है करघों की आवाज़
जब कोहरा नहीं होता
सुबह-सुबह दिखाई देते हैं चँदेरी के किले के कंगूरे
चँदेरी की दूरी बस इतनी है
जितनी धागों से कारीगरों की दूरी
मेरे शहर और चँदेरी के बीच
बिछी हुई है साड़ियों की कारीगरी
इस तरफ़ से साड़ी का छोर खींचो तो
दूसरी तरफ़ हिलती हैं चँदेरी की गलियाँ
गलियों की धूल से
साड़ी को बचाता हुआ कारीगर
सेठ के आगे रखता है अपना हुनर
मैं कई रातों से परेशान हूँ
चँदेरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे
धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर
चँदेरी की साड़ियों की दूर-दूर तक माँग है
मुझे दूर जाकर पता चलता है।
8. उपकार
मुसकराकर मिलता है एक अजनबी
हवा चलती है उमस की छाती चीरती हुई
एक रुपये में जूते चमका जाता है एक छोटा सा बच्चा
रिक्शेवाला चढ़ाई पर भी नहीं उतरने देता रिक्शे से
एक स्त्री अपनी गोद में रखने देती है उदास और थका हुआ सिर
फकीर गाता है सुबह का राग और भिक्षा नहीं देने पर भी
गाता रहता है
अकेली भीगी कपास की तरह की रात में
एक अदृश्य पतवार डूबने नहीं देती जवानी में ही जर्जर हो गए हृदय को
देर रात तक मेरे साथ जागता रहता है एक अनजान पक्षी
बीमार सा देखकर अपनी बर्थ पर सुला लेता है सहयात्री
भूखा जानकर कोई खिला देता है अपने हिस्से का खाना
और कहता है वह खा चुका है
जब धमका रहा होता है चैराहे पर पुलिसवाला
एक न जाने कौन आदमी आता है कहता है
इन्हें कुछ न कहें ये ठीक आदमी हैं
बहुत तेजी से आ रही कार से बचाते हुए
एक तरफ खींच लेता है कोई राहगीर
जिससे कभी बहुत नाराज हुआ था वह मित्र
यकायक चला आता है घर
सड़क पर फिसलने के बाद सब हँसते हैं नहीं हँसती एक बच्ची
जब सूख रहा होता है निर्जर झरना
सारे समुद्रों, नदियों, तालाबों, झीलों और जलप्रपातों के
जल को छूता हुआ आता है कोई कहता है मुझे छुओ
बुखार के अँधेरे दर्रे में मोमबत्ती जलाये मिलती है बचपन की दोस्त
एक खटका होता है और जगा देता है ठीक उसी वक्त
जब दबोच रहा होता है नींद में कोई अपना ही
रुलाई जब कंठ से फूटने को ही होती है
अंतर के सुदूर कोने से आती है ढाढ़स देती हुई एक आवाज
और सोख लेती है कातर कर देनेवाली भर्राहट
इस जीवन में जीवन की ओर वापस लौटने के
इतने दृश्य हैं चमकदार
कि उनकी स्मृति भी देती है एक नया जीवन।
अनंतिम (कविता संग्रह) – कुमार अंबुज
1. एक राजनीतिक प्रलाप
यहाँ अब कुछ इच्छाओं का गुम हो जाना सबसे मामूली बात है
मसलन धुएँ के घेरे के बाहर एक जगह
या एक ठहाका या एक किताब
कबाड़ में ऐसी कई चीजें हैं जिन पर जंग और मायूसी है
कबाड़ के बाहर भी ऐसी कई चीजें हैं जिन पर जम गई हैं उदासी की परतें
मूर्त यातना जैसा कुछ नहीं
बर्बरता एक वैधानिक कार्यवाही
जिसके जरिए निबटा जा रहा है फालतू जनता से
अख़बार और हास्य धारावाहिकों के असंख्य चैनल हैं
कंप्यूटर पर खेल हैं नानाविध
मेरे गाँव तक जाने का रास्ता बंद है अभी भी
वर्षों पुरानी निर्माणाधीन पुलिया की प्रतीक्षा में
उस पार करोड़ों लोग हैं जिनके जीवन से इधर कोई सरोकार नहीं
जो लोग दुर्घटनाओं में मरे उनकी लाशें अभी सड़कों पर हैं
शेर, शेर होने के जुर्म में मारे गए हैं
और सियार, सियार होने की वजह से
निर्दोष मारे गए उस गली में जहाँ हुए वे अल्पसंख्यक
यह एक बस्ती अभी-अभी उजड़ी है जहरीली शराब से
मेरी माँ के पैर में पिछले नौ बरस से फोड़ा है
हर गर्मी में फूट पड़ती है बेटे की नक़सीर
और उपाय मेरी पहुँच से दस हज़ार मील दूर हैं
उधर एक कवि कूद जाता है तेरहवीं मंज़िल से
एक वह अलग था जिसे चौराहे पर पुलिस ने मार डाला था लाठियों से
फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं
मैं ख़ुद ज़हर नहीं खा पा रहा हूँ
और ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह एक आशा है
कायरता है या साहस
इतनी ज्यादा मुश्किलें हैं जिनमें जीवित हैं लोग
करोड़ों लोग गरीबी के नर्क में हैं
करोड़ों बच्चे झुलस रहे हैं फैक्ट्रियों में
करोड़ों स्त्रियाँ जर्जर शोकमय शरीरों में मुस्करा रही हैं
अदृश्य सुखों की प्रतीक्षा में हाड़ तोड़ रहे हैं करोड़ों लोग
जो भी मुश्किलें हैं वे करोड़ों की गिनती में हैं
और नामुमकिन-सा ही है उनका बयान
अभाव और बीमारी-हजारों लोहकूटों द्वारा कूट दिए गए शब्द हैं
करोड़ों ऐसे फ़ैसले लिए गए हैं हमारे वास्ते जिनमें हम शामिल नहीं
लोग पसीज रहे हैं मगर दाँव पर कुछ नहीं लगा पा रहे
जिन्हें दुःखों को पार करना था वे अब रह रहे हैं दुःखों के ही साथ
अंत में मेरे पास फिर वही कुछ निराश शब्द बचे रहते हैं
चमक-दमक और रईसी के बीच चमकते हैं करोड़ों पैबंद
अनंत आश्वासनों के बीच मेरे पास कोई नारा नहीं है
न मैं मारो-काटो-बचाओ कह सकता हूँ
मैं ही क्या करोड़ों लोग हैं जो इतनी आपाधापी में हैं
कि रोजी-रोटी के अलावा बमुश्किल ही कर सकते हैं
कोई और काम।
2. प्रधानमंत्री और शिल्पी
‘चारों तरफ़ खड़े हुए हैं शिल्पी
जिनके बीच बैठे मुस्करा रहे हैं प्रधानमंत्री’-
यही एक तस्वीर है जो छपी है सभी अखबारों में
पुरस्कृत किया जाना था उन्हें इसलिए
दूर-दूर से आए थे शिल्पी
जहाँ बैलगाड़ी भी नहीं पहुँचती बारहों महीने
ऐसे गाँव से आए थे कुछ शिल्पी
कुछ शहरों से भी आए थे मगर वे शहर के कोनों में बनाई गई
बस्तियों में रहते थे जो कमज़ोर थीं शिल्प के लिहाज़ से
बहुत सारे शिल्पी क़स्बों से आए थे
और उन क़स्बों को नहीं खोजा जा सकता था देश के नक्शे में
कोई चादरों पर राजपूत शैली को बचा रहा था
कोई काँगड़ा शैली कोई मुग़ल
एक तो अभी भी जीवित था गांधार शैली में
कोई जंगली चिड़िया को ढाल रहा था पीतल में
तो कोई ताँबे में
कोई काँसे में से वक्ष निकालकर लाया था
उन्हीं में से एक था जो अपनी दुश्चिंताओं से भी बड़ा
लोहे का वृक्ष बनाता था
किसी ने मिट्टी के चेहरों में डाल दी थी जान
कोई लकड़ी में से कुरेद रहा था यह पूरा संसार
उनके पास आदिम सभ्यताएँ थीं आदिम कलाएँ
और वैसे ही चेहरे
उन्हें मास्टरों, पटवारियों, सरपंचों
और विकास खण्ड के कारकूनों ने भेजा था यहाँ
ऐसे एकत्र हो गए शिल्पियों से प्रधानमंत्री ने कहा
मुझे गर्व है कि आप लोग
शिल्पी हैं और तमाम कठिनाइयों के बीच कर रहे हैं काम
शिल्पियों में से एक-दो ने कहा हिम्मत बटोरकर
हमें नहीं मिलती लकड़ी
लोहा और ताँबा नहीं मिलता न
हीं मिलते रंग नहीं मिलती मिट्टी तक
और जैसे-तैसे बना लें कुछ तो नहीं मिलती
इतनी भी कीमत कि निकल सके लागत !
प्रधानमंत्री मुस्कराए..
और तभी आ गया फ़ोटोग्राफरों का दल जिसने खींची ऐसी तस्वीर
जिसमें चारों तरफ़ खड़े हुए हैं शिल्पी अटपटे
और बीच में बैठे मुस्करा रहे हैं प्रधानमंत्री।
3. सापेक्षता
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
और कभी-कभार करता हूँ क्रोध
या कहूँ कि मुझे याद आता है मेरा बचपन
कि दुःखों ने घेर रखा है मुझे और देखो चक्रव्यूह में कुछ चमकता है
रात-दिन चलती हैं मशीनें और यकायक रचती हैं मौन
टूटता है चिड़िया का पंख और चक्कर खाता है हवा में
और ये हम हैं-
जो पशु हैं मगर मनुष्य होने के अर्थ और बोध से भरे हुए
यह सब सापेक्षता है
कोई भी शब्द, स्वर या क्रिया इससे परे नहीं
यही है वह शब्द जो बसा हुआ जड़-चेतन के केंद्रक में
इसको समझे बिना एक पल भी गुज़ारा नहीं
एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता जीवन में
विचारों से, अँधेरों से, सँकरे-चौड़े रास्तों से गुजरते
करते सही-गलत की पहचान बचते हुए दुर्घटनाओं से
चले आए हैं हम यहाँ तक इस के सहारे
और इतनी मज़ेदार यह कि जो नहीं जानते
कि आखिर यह सापेक्षता है क्या बला
वे भी सिर्फ इसीकी वजह से जीवित रहते आए अब तक
और जिन्हें कुछ-कुछ मालूम है वे मंद हँसी में सोचते हैं
कि हज़ार जीवन पाकर भी भला इसे किस तरह समझा जाए ठीक-ठीक !
तारामंडल, हँसी, रुदन,
पत्थर, मौसम, झूठ,
रहस्य और ज्ञान
सब कुछ के पीछे चुपचाप काम करती हुई
यही सापेक्षता भौतिकी और गणित के बाहर भी पसरी हुई चर-अचर जगत में
सारे जीवन को हर जगह बनाती हुई सापेक्ष
विचारों की एक इतनी लंबी श्रृंखला कि उससे लगाए जा सकें
इस ब्रह्मांड के सैकड़ों चक्कर।
4. उसी एक क्षण ने
इस संसार में जो भी कहीं था
वह मित्र था या फिर शत्रु
कुछ इस तरह के शत्रु थे कि मुसीबत में आते थे काम
कुछ इस तरह से मित्र थे
कि उनके रहते ज़रूरत न थी शत्रुओं की
यह अलग बात है कि उनमें से कई बहुत बाद में मिले
कई पुस्तकों में मिले कई यात्राओं में
कुछ की सिर्फ़ तस्वीरें देखीं
कुछ की सुनीं सिर्फ़ कहानियाँ
और बहुतों से तो मिलना होगा भी नहीं
जो तटस्थ दिखते थे वे अपनी तटस्थता में भी शत्रु थे या मित्र
हाँ-हाँ कहने से ही नहीं होता कोई किसी का मित्र
जैसे नहीं-नहीं करने से नहीं हो जाता कोई किसी का शत्रु
कुछ लोग मित्र बनना चाहते थे इस पूरे संसार का
और यह चाहत इतनी ख्वार थी कि उसे पाने के लिए
वे पेश आते रहे शत्रु की तरह
उन्हीं में से कुछ-कुछ हम थे
सबके लिए शत्रु सबके लिए मित्र
कभी-कभी तो एक पल के लिए शत्रु
और दूसरे पल के लिए मित्र
वह क्षण दुर्लभ था जब हम मित्रों से
सचमुच मित्र की तरह पेश आए
और शत्रुओं से शत्रु की तरह
उसी एक क्षण ने
थोड़ा-बहुत ठीक किया इस दुनिया को।
5. ज़ंजीरें
असंख्य ज़ंजीरें थीं सब तरफ़
उनमें से कभी टूट जाती थी कोई ज़ंजीर तो मच जाता था तहलका
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उस तरफ़ नहीं जाता था
किसी का ध्यान
फिर स्वप्न में या अचानक किसी गली से गुजरते हुए आता था याद
कि न जाने कब टूट गई वहाँ पड़ी हुई एक ज़ंजीर
गाहे-बगाहे कोई विद्वान या कवि बताता था कि वह एक भारी ज़ंजीर थी
जो काटी गई एक शब्द की धार से
और ऐसी ही एक ज़ंजीर को काटा था एक आदमी ने अपनी पूरी जिंदगी
की दराँती से
इस काम में उसे लगे थे चौहत्तर साल
जिसका थोड़ा-बहुत हिसाब मिल सकता है किसी संग्रहालय में
मगर ज़ंजीरें लोगों के जीवन में इस तरह थीं जैसे शरीर में आँतें
उनके कट जाने पर उन्हें घेर लेती थीं पेचिश और वमन जैसी बीमारियाँ
वे तड़पते थे उन काट दी गईं ज़ंजीरों की स्मृति में
और उनकी हाहाकारी कराहों ने
भर दिया था समय की संभव शांति को एक स्थायी शोर से
अकसर होता था कि ज़ंजीरों को काटने की कोशिश में
उनकी भारी कड़ियाँ गिर पड़ती थी हमारे माथों पर
माथे पर पड़े उन निशानों से पहचान लिए जाते थे हम अपने लोगों के बीच
बाक़ी दूसरे समझते थे कि ये निशान यों ही लड़ाई-झगड़े के हैं या कहीं गिर
पड़ने के
इन वजहों से भी मुमकिन होता था कि जंजीरें काटी जा रही थीं थोड़ी-थोड़ी
रोज़-रोज़
यह भी दिलचस्प था कि कुछ पाठ शामिल कर दिए गए थे बच्चों की
किताबों में
जिनमें बताए गए थे ज़ंजीरों को काटने के सैद्धांतिक तरीके
मगर बच्चों की मुश्किल यह थी कि ज़ंजीरों के साथ जीने की कला
के बारे में भी कुछ किताबें थीं पाठ्यक्रम में
इस तरह जंजीरों की प्रतिष्ठा ने लगभग अटूट कर दिया था ज़ंजीरों को
वे आभूषणों की तरह हो गई थीं
कुछ संस्कारों की तरह थीं और पवित्र बंधनों की तरह चिपकी थीं त्वचा से
लगता था उन्हीं ने थाम रखा है संसार
वे हमारी सभ्यता का चेहरा हो गई थीं
चौखट पर ही देखा जा सकता था उन्हें पड़ा हुआ
हमारे ज़रा-से उत्खनन से ही प्रकट होने लगती थीं वे
हमारे ही भीतर से अपने भारी और जंग लगे रूप में निकलती हुईं
उनकी खन-खन की आवाजें एक समूह को भर देती थीं खुशी से
और एक दूसरे समूह को भय से
और यह प्रक्रिया तबदील हो चुकी थी सामाजिक विकास की प्रक्रिया में
वे लताओं की तरह उगती थीं और बरसों बाद
यकायक पता चलता कि वे लताएँ नहीं ज़ंजीरें हैं
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती थी
और अमूमन हम पड़ चुके होते थे उनके प्रेम में
फिर सब मिलकर करते थे उनकी रक्षा
हर घर में उनके उत्पादन के कारखाने थे
किसी भी धातु की बन जाती थीं वे
उन धातुओं की भी जिनका कोई ज़िक्र नहीं धातु-विज्ञान में
वे अजीवित थीं मगर उनमें विलक्षण क्षमता थी भक्षण और प्रजनन की
टेपवॉर्म की तरह हमारे अंतरों-कोनों में चिपकी हुईं वे अतृप्त अनंत भूख की
स्वामिनें
खाती हुईं हमारा पचा हुआ अन्न
उन्हें पहचान लेना कठिन न था
लेकिन उन्हें उनके असली नामों से पुकारना अपराध था
उनके असली नाम यों भी अलौकिक थे और हमारी भाषा के
सुंदरतम शब्दों को घेर रखा था उन्होंने
उनके स्कूल थे उनके दफ़्तर थे
और सबसे मज़ेदार और हतप्रभ कर देने वाली बात थी कि उनके पास ऐसे
विचार थे
जो विचार नहीं थे मगर स्वीकृत थे विचारों की तरह उसी शाश्वत जनता में
जो ज़ंजीरों को उनके अलौकिक नामों से जानती थी
और उनमें जकड़ी हुई हँसती-रोती थी
उसके हँसने-रोने की आवाज़ों में दब जाती थीं ज़ंजीरों की आवाजें
जो घंटियों, चीखों, अंतिम पुकारों, हकलाहटों, प्रार्थनाओं की तरह सुनाई देती थीं
और उनमें छिपे आर्तनाद से व्यथित कुछ लोग आखिर
अपनी-अपनी आरियाँ लेकर जुट जाते थे जंजीरों को काटने में
और बार-बार अपने लिए बनाते थे ऐसी आज़ाद जगहें
जहाँ रह सकते थे ऐसे कई लोग और भी
जिन्हें पूरी उम्र काटते ही जाना था हर रोज़ काई की तरह फैलती हुई जंजीरों को।
6. धुंध
वह धुंध जो हवा के पर्दो में कोहरे की है
जो उस अरण्य की है जिसमें मैं अकेला छूट जाता हूँ
वह जो मेरी चेतना पर पड़ी असंख्य छायाओं की है
वह धुंध जो सूक्तियों में है और उतर आई है प्रार्थनाओं में
जिसके पार न आवाज़ जाती है न रोशनी
वह धुंध जो ज्ञान के असीम प्रकाश की रेख में छिप रही है
और घुल रही है आनेवाले दिनों की आकांक्षा में
वह जो चीजों में नहीं उनकी आभा में रहती है
वह जो विस्मृत होती जा रही स्मृति की है
और अपने रहस्य से बनाती है दुनिया को धुंधला
जिसमें से गुज़रते हैं तमाम मनुष्य
जो पशुओं का जीवन नहीं बनाती दुष्कर
वह धुंध जो सोख लेती है समुद्र में गिरती आकाश की परछाईं का रंग
वह धुंध जिसमें से एक धुन निकल जाती है तीर की तरह
रोज़ उसीके पार जाता हूँ मैं।
7. शाम
उजले प्रदेश की भूरी चिड़िया
चक्कर खाते हुए बैठ गई है पीली दीवार पर
जो उस जनपद में है
जहाँ सारे घर कुनकुने पीले होकर चमक रहे हैं
यह एक उदास रंग जो शाम में ज़्यादा निखरा हुआ लग रहा है
दरवाजे, खिड़की, ओसारे से होता हुआ पहुँच रहा है भीतर तक
सिर्फ टेकरी के मंदिर का कलश लाल-सिंदूरी होकर चमक रहा है
यह अँधेरे से पहले की चमक जिसे डूबना ही है अँधेरे में
अभी यह होती हुई शाम है ऊष्मा और ठंड की
तंग जगह से गुज़रती हुई
खजूर की पत्तियाँ अपनी ऊँचाई की रोशनी में हिल रही हैं
नदी की आवाज़ अब आ चुकी है पचास गज़ की दूरी पर
लौट रहे हैं पुरुष और मवेशी
उनके कंधों पर थकान का रंग बैठा है उमंग बनकर
टुनटन आरती शुरू होने को ही है टेकरी पर
अभी तो एक ऊब है जो फैली हुई है बुजुर्गों की फुरसत में
साँवली होती हुई पीली-सी ऊब
जिसकी गंध से मक्खियाँ रात गुज़ारने के लिए ठौर ढूँढ़ रही हैं
8. एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील
कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा
जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता
जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से
वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से
अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है
यह जो अमृत है यह जो अथाह है
यह जो अलभ्य दिखता है
उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति
उसकी हँसी, उसकी गंध
और उसके उफान पर कीजिए विश्वास
वह सबसे नयी कोंपल है
और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुए एक जीवाश्म की परछाईं।
अतिक्रमण (कविता संग्रह) – कुमार अंबुज
1. कोई है माँजता हुआ मुझे
कोई है जो माँजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
माँजता है कोई
मैं जैसे एक पुराना ताँबे का पात्र
माँजता है जिसे कोई अम्लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्वप्न कभी कोई स्मृति
एक तेज सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हँसी माँजती है मुझे
कर्कश आवाजें
ज़मीन पर उलट-पलट कर रखे-पटके जाने की
और माँजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुँचती माँजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियाँ बन
चमकती है
धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्द माँजता है मुझे
एक पंक्ति माँजती रहती है
अपने खुरदरे तार से।
2. चुंबक
वह छोटा सा लौह चुंबक था
जिसने मेरे बचपन के कुछ दिनों को
भर दिया था असीम कौतूहल और खेल से
प्रेम और विरक्ति का पहला पाठ सिखाया
चुंबक के आकर्षण-विकर्षण के खेल ने ही
फिर इस संज्ञान ने दिया विलक्षण अनुभव
कि सबसे पहले हमारे परम अणु को
स्पर्श करती है एक चुंबकीय तरंग
कि हम एक चुंबक पर पैदा होते हैं
और उसी चुंबक पर रहते हुए बिताते हैं अपना पूरा जीवन
और यह कि चुंबकों के दो ध्रुवों के संयोग से ही
संभव होता है हमारा जन्म !
हर जगह हर वक़्त चुंबकों ने ही रखा मुझ मनुष्य को जीवित
सबसे विशाल और अपराजेय चुंबक था उम्मीद का
जिसे हज़ारों बार पटका गया
हज़ारों बार जिस पर बरसाए गए घन
मगर नष्ट नहीं किया जा सका जिसका चुंबकीय बल
उम्मीद, जो हर सुंदर चीज़ को देखकर
होती रही अपने आप पैदा
किताबों से मालूम हुआ
कि हर चीज़ को नहीं बनाया जा सकता चुंबक
जीवन से मालूम हुआ कि ऐसी कोई भी चीज़ नहीं
जिसे न बनाया जा सकता हो चुंबक
और यह बात सबसे ज़्यादा समझ में आई एक काष्ठशिल्प को देखते हुए
जिसकी ताईद कलाकार, बच्चे, खिलाड़ी, स्त्रियाँ और मज़दूर
रोज़-रोज़ बार-बार करते रहे
कि सब कुछ अटका हुआ है चुंबक के अदृश्य धागे से
चुंबकीय क्षेत्र में ही घटित हो रहा है जीवन का रेशा-रेशा
अचानक कौंधता एक दृश्य जो रोक लेता है राहगीर को
नश्वर एक क्षण जो अकसर ही खींचता है
पूरी उम्र को अपनी ओर
एक विचार जो बदल देता है पूरा जीवन
आधा-सा विस्मृत कोई चेहरा
जो हर एक पदार्थ में से झाँकता-सा है
बार-बार एक ही पेड़ के नीचे जाकर बैठना
एक पुकार जो हृदय में उठाती है ज्वार
एक रंग जो उदास से चित्र को भर देता है उमंग से
एक कथा एक जीवनी
धुंधली-सी पंक्ति कोई
सुर की एक लहर जिस पर बैठकर
नाप लिये जाते हैं महासागर
और वह एक निर्निमेष दृष्टि
जो बंद होती है स्मृति की डिबिया में
वही, जो बनी रहती है कुतुबनुमा
इस भटकते हुए जीवन को बार-बार लौटा लाती है उसी ठौर
पर जहाँ से हर बार संभव होती है एक नयी यात्रा
रोज़मर्रा के चुंबक अनगिन
जिनसे आवेशित हमारे रक्त के लौह कण
इंद्रियों में से बहती वासना की विद्युत चुंबकीय तरंगें
जिनके गुज़रने के बाद बचते हुए हम अपनी पार्थिव देह में
फिर ज्ञानेन्द्रियों के चुंबकों का वह विराट चुंबक
जिसके चुंबकीय क्षेत्र में विलीन होती हुई यह माया
यह सृष्टि
और यह अजर काया।
3. अपेक्षा
एक शब्द अपेक्षा करता है
कि उसकी तमाम निर्बलता और असहायता के बावजूद
उसे उसके आंतरिक अर्थ में समझ लिया जाए
जैसे एक वाक्य अपेक्षा करता है अपने शब्दों से
कि वे उसके अपने हैं और उसे कभी शर्मिन्दा न होने देंगे
जब कोई किसी को पुकारता है
या नहीं पुकारता है
तो इसमें भी छिपी होती है कोई अपेक्षा ही
खामोश अपेक्षाएँ
अकसर होती हैं ज्यादा ताक़तवर
उदासी जब रेत की तरह उड़ कर
भर रही होती है आत्मा में
तब भी भीतर कहीं कुछ होता है
जो अपेक्षा करता है सूर्य से हवा से
रात के अंधेरे से
और अपनी ही किसी अनैच्छिक मांसपेशी से
मैं हर सुबह एक फूल से अपेक्षा करता हूँ
फूल ने अपेक्षा की है अपने भीतर बसे रंगों से
एक स्त्री दिनचर्या की मारकाट से निकलने के बाद
खिड़की से दिख रहे अनाम तारे से अपेक्षा करती है
और फिर अपने भीतर छिपे दुख से ही
उसे एक पेंटिंग की याद आती है जिसमें
एक सम्राज्ञी अपेक्षा करती हुई
तबदील हो गई होती है एक वास्तविक स्त्री में
कभी-कभी एक सुख
दुख से भी करता है अपेक्षा
और ऐसा करते हुए वह दाँव पर लगा देता है अपना जीवन
यह एक रात आते हुए दिन से अपेक्षा करती हुई
धीरे से बीत जाती है
अपेक्षाओं से भी बनता है यह समाज
जिसमें जीवित रहा आता हूँ मैं अनादि काल से।
4. अव्यक्त
कुछ चीजें दफन ही रहती आएँगी
इतनी ही है भाषा की शक्ति
ओ मेरी प्रबल आकांक्षा !
अंत में बचा ही रहेगा
अगले मनुष्य के लिए थोड़ा-सा रहस्य
कपास के फूल को देखने के अनुभव
और कह पाने के बीच का अंतराल
चला जाएगा एक मनुष्य के साथ ही अव्यक्त
और यह कोई कृपणता नहीं होगी
यह व्यक्तिगत प्रकाश जिसे कोई न देख सकेगा
नसों और नाडि़यों के बीच बसा ईथर
इसे यदि ईश्वर कह दूँगा
तो गलत दिशा की तरफ चली जाएगी दुनिया
व्यक्त भले कुछ न हो
इशारा ठीक तरफ होना चाहिए सोचता हूँ
फिर अव्यक्त रह जाता है भीतर का उल्लास
नम चीजों पर गिरती हुई यह कार्तिक की धूप है
गिलहरी को देख कर बच्चे की यह हँसी
जो सर्प को देखते हुए भी हो सकती थी इतनी ही प्रफुल्ल
खाने की मेज पर बुलाया जा रहा है तुम्हें
तुम जो जाना चाहते हो मृत्यु के पास
इस व्याख्येय अतार्किकता के बीच भी
चला आता है कुछ अव्यक्त
गुब्बारों के रंगों को
उनके भीतर बसी हवा ही देती है सच्ची शकल
और उड़ाए चली जाती है जाने किधर
तुम कभी नहीं जान पाते हो
उस निगाह के भीतर क्या रह गया था शेष
जो आज भी चमकता है अँधेरों में रेडियम की तरह
हृदय दोपहरी में देखता है चकित
सुबह विलीन हो चुकी होती है अंतरिक्ष में
यह शाम का गुम्बद है
कई तरह की आवाजें आती हैं
आलस्य, दुःख और विफलता में डूबी
सुख का यह भी एक चेहरा है
जो बच जाता है उजागर होने से
गुहा के भीतर गुहा है
और उसके भीतर जीवन की एक कोशा
ऐसा ही कुछ
कहना चाहता है कोई हजारों सालों से
जो हर बार चला आता है अनकहा
जिसके आसपास लगे हुए शब्दों के शर
जो बिंधा हुआ अपने सौंदर्य में अव्यक्त।
5. मेरा प्रिय कवि
वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर के रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक सात्विक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट
जो इस वक्त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए
वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होंठों पर सिगरेट के धुँए की चहलकदमी के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से
कविता पढ़ते हुए वह बार-बार वजन रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सिलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक
मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी –
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन मैंने अचानक देखा उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना
वह एक कवि का गाना था
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा
एक अतृप्त आत्मा जो बेचैन थी संसार भर के लिए
एक घूँट ले कर उसने कहा कि तुम देखना
मैं अगला आलाप लूँगा और सुबह हो जाएगी
अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा कि मैं बहुत कुछ न कर सका इस दुनिया को बदलने के लिए
मैं शायद ज्यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा
उधर मेरा प्रिय कवि
मंच से उतरकर
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
6. एक और शाम
रोशनियों की कतारें अब मेरे भीतर हैं
कुछ उजाले बाहर छितरे हुए इधर-उधर
दिख रहे हैं बिखरे हुए फूलों की तरह
फीकी पड़ रही दिन की चादर में
एक नए रंग का पैटर्न
यह संधिकाल जहाँ एक उम्मीद मिल रही है
आर्द्रता में लिपटी हुई दूसरी उम्मीद से
एक ढलती हुई निराशा
एक युवा होती निराशा से
ऋतुओं की अंतरिम सूचनाएँ बाहर आ रही हैं
अभी-अभी दर्ज हुई है एक नयी ऋतु
जिसे कोई कीड़ा अपने अपूर्व राग में गा रहा है
थकान के आगे अब
रात की लंबाई का निश्चित भविष्य है
रात एक विशाल ख़ाली पात्र की तरह आ रही है सामने
भरा जा सकेगा जिसमें आसन्न दिवसातीत
हँसी की वह लपट, लपलपाती इच्छा
और वह करुण ऊर्ध्व हूक जो उठती ही जाती थी
यह शाम घट रही है किसी भी समय के बाहर
बीत रहा है समय नश्वर
ठहरी हुई है अमर शाम की यह बेला
उदासी की बर्फ़ से टकराती हुई
परावर्तित होती हुई उत्सुकता के जल से
चमकती हुई आकांक्षा की आँख में
अब इसमें संगीत की जगह निकल आई है य
हाँ बजाया जा सकता है संतूर
बल्कि बजने ही लगा है वायलिन
यह जलतरंग है जो शाम की नसों में व्याप्त हो रहा है
मुझे खेद है कि इस संगीत के साक्षी हैं
भागती हुई उमस, दिन भर का धुआँ
और जल्दबाज़ी के बीच मचलती हुई एक टीस
और यह शाम है कि जिसे छुआ भी नहीं जा सकता
जिसकी तसवीर खींचना नामुमकिन
इसमें रहते हुए सिर्फ इसे महसूस किया जा सकता है
यह शाम है एक शरण
एक उल्लास एक घर एक वास्तविक जगह
जिसकी तरफ़ लौटा जा सकता है
जैसे एक पक्षी घर की तरफ़ नहीं लौटता है
इसी शाम की तरफ़ लौटता है।
7. अतिक्रमण
अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए
सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए
फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता
अनंत है अतिक्रमण के विचार की परिधि
इसलिए फिर दूसरे के हिस्से का जीवन भी चाहिए
वासनाएँ नए क्षेत्रों में करती हैं घुसपैठ
सिद्धांत और सुभाषित बदलने लगते हैं हथियारों में
समुद्र की तरफ़ अंतरिक्ष की तरफ़
पाताल की तरफ़
दसों दिशाओं में लालसाएँ मारती हैं झपट्टा
फिर मारने की चीज़ के बारे में लंबे प्रचार के बाद
तय कर दिया जाता है कि वह बचाने की चीज़ है
जैसे जिसके पास बंदूक़ है वही अमर है
फिर मनुष्य ही करते हैं मनुष्यों पर अतिक्रमण
घेरते हुए ख़ुद को वस्तुओं से
आसक्ति की चाशनी में वे पागते चले जाते हैं
एक ऐसा समाज जहाँ मानवीय दिखता हुआ हर उपक्रम
किसी नई वस्तु को क़ब्ज़े में ले सकने की सामर्थ्य बताता है
कितना दबाया हुआ है दूसरे के जीवन का रक़बा
और पृष्ठभूमि में से झाँकती हैं कितनी वस्तुएँ
इन बातों से ही फिर बनने लगती है
इस संसार में किसी की भी आदरणीय पहचान।
8. रेखागणित
अंतरिक्ष के असीम में
क्षितिज के विस्तृत चाप पर
वह शुरू होता है हमारी निगाह के कोण से
और टिका रहता है
अरबों बार छीली जा चुकी
एक पेंसिल की नोक पर
जटिल विचारों की रेखाएँ काटती एक-दूसरे को जीवन में
और कितना दुश्वार इस सीधे-सादे सच पर यकायक विश्वास कर पाना
कि एक सरल रेखा में छिपा हुआ है एक सौ अस्सी डिग्री का कोण
और यह कि वृत्त की असमाप्त गति में शामिल जीवन का पूरा चक्र
अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली रेखाओं में प्रकट
असमान जिंदगियों के बीच की हर क्षण बढ़ती दूरी
और वहीं कहीं छिपे वर्ग-संघर्ष के बीज
समाज के स्वप्न में चीखता है स्वप्नद्रष्टा
बनाओ समबाहु समकोणीय चतुर्भुज –
शोषणमुक्त एक वर्ग !
याद करो सुदूर रह गए बचपन में
सुथरा षटकोण बनाने का वह प्रयास अथक
वह शंकु जिसको अलग तरह से काटने पर मिलती आकृतियाँ नाना
पायथागोरस की हर जगह उपयोगी वह मजेदार थ्योरम
बस्ते में अभी तक बजता हुआ कम्पास बॉक्स
और संबंधों का वह त्रिकोण !
यह रेखागणित है जिसमें सबसे आसान बनाना डिग्री का निशान
और बहुत मुश्किल बना पाना
एक झटके में चंद्रमा की कोई भी निर्दोष कला
हर बार एक छोटी-सी अधूरी रही इच्छा
एक ऐसी सिद्धि
जिसे हमेशा ही सिद्ध किया जाना शेष
न्याय अन्याय की रेखाएँ चली जाती हैं समानांतर
कभी न मिलने के लिए अटल
व्यास, परिधि, त्रिज्या और पाई
इन औजारों से भी मुमकिन नहीं नाप सकना
जीवन के न्यून कोण और अधिक कोण के बीच की दुर्गम खाई
एक बिंदु में छिपे अणु हजार
और दबी-कुचली, टूटी-फूटी रेखाओं की पुकारों
आहों से भरा यह नया ग्लोबल संसार
वक्र रेखा की तरह अनिश्चित गति से भरा
जिसके आगे रेखागणित भी अचंभित खड़ा
हिरणी, सप्तऋषि, अलक्षित तारे
नदी तट पर चंद्रमा बाँका
रति की प्रणति, आकृतियाँ मिथुन और वह बाहुपाश
यह लिपि प्राचीन, उड़ती चिड़ियाँ, हजारों विचार
उत्तरायण-दक्षिणायन होते सूर्य देव
पिरामिड, झूलती मीनार
रोटी, कागज, बर्तन,
हिलता हुआ हाथ और वह चितवन
पहाड़ का नमस्कार, खजूर का कमर झुका कर हिलना
दिशाएँ तमाम जिनके असंख्य कोण पसरे ब्रह्मांड में
और यह अनंत में घूमती जरा-सी तिरछी पृथ्वी…
मैं यूक्लिड कहता हूँ देखो !
जिधर डालो निगाह
उधर ही तैर रही है एक रेखागणितीय आकृति
और वहीं कहीं छिपी हो सकती है
जिंदगी को आसान कर सकने वाली प्रमेय।
(यूक्लिड=रेखागणित के पितामह , प्रसिद्ध गणितज्ञ)
9. मोह
जैसे यह जलाशय सुनील
प्रतिबिंबित जिसमें जड़-चेतन सभी
जिसकी गहराई में शामिल आकाश की ऊँचाई भी
– यह एक छोटा-सा विवरण है मेरे मोह का
धूल पर ध्वनि यह
लार से सनी किलकारी की
यह प्रगल्भ प्रत्यंचा तनी हुई
करती मेरे अरण्य में मेरा ही आखेट
वरण करती हुई मेरी वासना का
बाँस के झुरमुट को देखने से
हर बार होती यह अभूतपूर्व सनसनी
उठती हुई यह हूक
यह हाहाकार
यह पुकार
यही मेरा मोह है दुर्निवार !
यह हर पल कल की आशा मुग्धकारी
डोर यही इस जीवन की
रहस्य का मोह, ज्ञात का सम्मोह
जान लेने के बाद का मोह तो और भी गहन
यह मोह और संसार में मेरा होना
संबंध है नाभि-नाल का
जर्जर, पुरातन, शक्तिमान, सनातन !
मनुष्य होने की पहली दशा ही है
मोहित हो जाना।
10. मुर्गी
उसकी चाल में एथलीट की अकड़ और शान
गर्दन की कोमलता में गति का सौंदर्य अनुपम
इस सुबह में वह चुगती हुई दाना
कितनी संलग्न
कितनी समर्पित !
पंखों के डिजाइन का फ्रॉक पहने
वह एक किलकती हुई बच्ची
कूदती-फुदकती मोहल्ले की गलियों में
एक दूसरी मुद्रा में वह एक चिंतित स्त्री
दाना-पानी की खोज में भटकती
कभी निकली हुई सैर पर नन्हे बच्चों के साथ
अपने जीवन की छोटी-सी स्पंदित उड़ान में प्रसन्न
सचेत निहारती गोल चमकदार आँखों से दुनिया को
हर आक्रमण के खिलाफ़ सजग दौड़ से भरी हुई
उसे छूना उत्साह भरी एक थकाऊ क्रिया
इस समय वह बेपरवाह अपने ऊपर लगी
स्वाद भरी हिंसक निगाह से
लचक से झुकाती हुई ग्रीवा
कचरे के ढेर में से उठाती छिपा हुआ अन्न कण
हवा में मिलाती हुई
अपनी तरह की खास और मीठी आवाज के गुल्ले !
11. मध्यमवर्गीय ओट
हमारे वर्तमान के टीले के पीछे है अभी भी वह समय
जब बहुत कम थीं घर में चीजें
और कहीं कोई कमी नहीं लगती थी
फिर तेजी से बदलते रहे चीजों के अर्थ
नए-नए मिलने वालों
और गरिष्ठ होते एक निजी संसार में
देखते हुए नए सामान
भूलते हुए बचपन
लगता है पीछे छूट गई है प्रत्यक्ष गरीबी
(जैसे सबसे पहले छूटता है साइकिल चलाना)
उधर लगभग एक-सा ही चला आता है दुनिया में
भूख और गरीबी का जीवन
बढ़ाता हुआ रोज अपना आकार
ओझल होता उन लोगों की निगाह से
जिन्होंने अभी-अभी पीछे छोड़ी है एक मटमैली दुनिया
थोड़ी-सी ही संपन्नता की ओट में
छिप जाता है
एक विशाल रोता-कलपता
दुःख भरा संसार।
12. यह एक दिन
एक दिन आता है जीवन में एकदम खाली
जिसमें करने के लिए कुछ भी नहीं
चाह कर भी जिसमें नहीं किया जा सकता कुछ
फ्रेम में जड़ा हुआ एक खाली दिन
दीवार पर तसवीर में मुस्कराते किसी भी ईश्वर की तरह व्यर्थ
खालीपन से लबालब भरा हुआ एक दिन
छीनता हुआ एक दिन का साहस
एक दिन की ताकत
एक दिन के समय की संपत्ति
बाहर पत्तियाँ भी नहीं गिर रही हैं
मौसम में मौसम की शिनाख्त नहीं है
दिन ढलान पर से लुढ़क नहीं रहा है
रात हो कर गुज़रने में अभी कई बरस बाकी हैं
आवाजों से आने वाले की पहचान मुश्किल
हो सकता है यह धमाका किसी खुशी में किया गया हो
यह पदचाप मुमकिन है कि महज एक खयाल हो
और यह कराह
कोई हिस्सा हो बच्चों के किसी खेल का
जैसे यह दिन इस जीवन का ही हिस्सा है
एक खाली कैनवास
कुछ बनाने के लिए यह फिर कभी न मिलेगा
मेरी संभव कूदों में से एक कूद को धूल-धूसरित करता
यह एक दिन जा रहा है
इस बीतते जा रहे दिन के सामने मैं एक असहाय दर्शक, बस !
फुटबॉल मैच से उठने वाला शोर भी इसमें नहीं भरा जा सका
एक बच्चे की किलकारी और एक स्त्री की मादक चेष्टा
इस दिन से टकरा कर लौट चुकी है
यह दिन तना हुआ पत्थर की किसी दीवार की तरह
अपने भीतर के खालीपन की रक्षा करता हुआ मुस्तैद
‘एक दिन की अन्यमनस्कता भी बूढ़ा कर सकती है आदमी को’
न जाने किसका आप्त-वाक्य है यह –
या मेरा ही कोई सोच अटका हुआ जेहन में
लेकिन मैं इस दिन के खिलाफ मोर्चा नहीं ले पा रहा हँ
इस दिन के खालीपन से परास्त हुआ मैं
इसके नाकुछ वज़न के नीचे दबा पड़ा हूँ
यह दिन मेरी स्मृति में रहेगा इस तरह
कि जिसे न तो उम्र में से घटाया जा सकेगा
और जोड़ कर देखने में होगा एक अपराध
13. संगीत है
यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में
शब्द में
निःशब्द में हवा में
निर्वात में
संगीत है
यह जिजीविषा जो कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में
और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में
यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर
यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार ।
14. बीज
जो पराजित है वह धन है संसार का
यह हवा बहेगी
एक हारे हुए का जीवन सँभालने के लिए ही
जो जानती है कि पराजित होना जिंदगी से बाहर होना नहीं
दाखिल होना है एक विशाल दुनिया में
जिंदगी में दाखिल हो गए इस व्यक्ति को
ईर्ष्या और प्रशंसा और अचरज से
देखता है जीवन से बाहर खड़ा आदमी
वह समझ ही नहीं पाता है कि वह तो
फ्रेम से बाहर खड़ा हुआ प्रेक्षक है एक
जो पराजित है और टूट नहीं गया है
वह
नए संसार के होने के लिए
एक नया बीज है !
15. एक सुबह की डायरी
वह अपनी धुन में किसी पक्षी के साथ नापता हुआ आकाश
उसकी आँखों में आसमान का रंग चमकता विस्तृत नीला
उसकी चाल को धरती का घर्षण जैसे रोकता-सा
काँच के टुकड़ों की आपसी रगड़ का रंगीन संगीत
उठता हुआ निक्कर की जेबों में से
गूँजता हुआ इस दिक् के सन्नाटे में
आँखों के आगे चाकलेट की पारदर्शी पन्नी लगाए
कूदता चलता वह करता खेल अनेक
दूध की लाइन में खड़े व्याकुल अधीर लोगों के बीच
वही था जो बेपरवाह था वह जो असीम था
और तैर रहा था अथाह बचपन की झील में
वही था जो आसपास को देखता हुआ इस तरह
मानो हर चीज़ पर उसका ही अधिकार
जो दूध वाले के मजाक पर देखता उसे क्षमा करता हुआ
थैली को निक्कर की दूसरी जेब में घुसाने के
एक बड़े नाट्य में व्यस्त
वह जो ट्रक की तेजी को परास्त करता
पार करता हुआ सड़क
गली के छोर पर दिखता चपल
एक कौंध
एक झोंका गायब होता हुआ हवाओं के साथ
वह जो इस पुरातन दुनिया को करता हुआ नवीन
और अद्यतन !
वह जो मेरे आज के दिन का प्रारंभ !
16. गोआ
चित्रों में कितना कम जिंदगी में फैला विस्तार अटूट
देश के नक्शे में चमकता हुआ एक किडनी की तरह
ललचाने वाली बदनामियों और प्रसिद्धि के बीच
अपनी लापरवाही में मस्त
हर कदम पर मिलते नारियल के वृक्ष मौज में हिलते-डुलते
ईसाइयत के निशान हजारों जिनमें पुर्तगाली चमक का एहसास बराबर
जहाँ भी बैठो मस्ती में या थक कर वहीं पास कहीं दिखता एक क्रॉस
समुद्र की नमक घुली हवा में साँस लेते हम जिसमें रसायनों की गंध कम
लेकिन खाना परोसता हुआ आदमी कहता है –
अब नहीं रही पहले-सी हवा !
मीलों फैले बीचों पर पर्यटकों का उत्सव अनंत
मौज-मस्ती के दृश्यों के बीच अविस्मरणीय वह कृशकाय अधेड़ जोड़ा
लहरों के साथ आई सीपियों को भूख से चलित हाथों से बीनता
मछलियों की गंध के बीच विदेशी ग्राहकों को पटाते आदमी निरक्षर बोलते अंग्रेजी
रेत के मुलायम गद्दे में धँसे हम अवाक् देखते डूबते सूर्य की अरुण छटा
जो फिर एक बार शब्दातीत
पास में ही गीली बालू पर समुद्री कीट के रेंगने के निशान
जिन्हें अगले पल में ही मिटाने आ रही वह एक तेज लहर
सुबह छह बजे की उजास में धुली सड़कें चमकती गलियाँ
रात आठ बजे से ही फिर अपनी चुप्पी के रहस्य में डूबती हुईं
लोग घरों में बंद चुपचाप लेते चुस्कियाँ
और वहीं प्रकृति में पकते काजुओं की खुशबू
ज़मीन में दफ़न हाँडी में से उठती है होरॉक की गंध
शाम होते ही हर घर धीरे-धीरे तब्दील होता किसी शराबखाने में
रोशनी की जरा-सी दरार में मिल जाती पीने की गुंजाइश
फिर समुद्र की तरफ से आने वाली हवाओं में झूमता शहर पणजी
घरों की गुल बत्तियों से पैदा हलके अँधेरे में
सोता हुआ चैतन्य नींद में
पुल के किनारे जलती बत्तियों की लंबी कतार की परछाइयाँ
गिर कर चमकती हैं खाड़ी के हरे-नीले जल में
उन्नीस सौ इकसठ की याद अभी धूमिल नहीं
घर-घर में एक बुजुर्ग जैसे उत्सर्ग और लंबी यातना का किस्सा
नेहरू की गोआ-नीति को ले कर नाखुश लोग शहीदों के लिए भावुक
बस्तियाँ नष्ट होती हैं इतना नव-निर्माण
हर तरफ से आती हैं सरिए काटने और फरमों में कंक्रीट डालने की आवाजें
भीतर गाँवों में हरीतिमा से घिरा वही विपन्न जीवन
हिप्पियों और नशेलचियों के लिए एक मुफीद जगह
पर्यटन केंद्रों में श्रेष्ठता की होड़ ने सस्ती कर दी है शराब
एक पर्यटक की तरह भी देखते हुए कितना कम
लौटते हैं हम जुड़वाँ पुलों में से एक को पार करते हुए
जहाँ से रोशन जहाज की तरह चमकता हुआ
दिखता है विधान-सभा का श्वेत-भवन !
17. आत्म-संलाप
मैं यहाँ तक चला आया हूँ महज आशा करते हुए
हँसते हुए गाना गाते हुए
अभिवादन, आइए – बैठिए, दुःख, तंगहाली
हम कुछ कर सकते हैं
या हम अब कुछ नहीं कर सकते
अजर स्त्रोत के जल की तरह बहता पैसा
और खाई विशाल जैसे अलंघ्य
जिसमें गिरते हुए अरबों कीट-पंतग मनुष्यों जैसे लगते
समुद्र में हर पल बनती लहर लौट कर आती किनारों से ही
फैलता हुआ नमक का झाग तटों पर
जिसकी तलहटी में किरकिराती बारीक रेत
मैं कोई घोंघा नहीं न ही मेढ़क
कभी होता कभी करता हुआ शिकार
अजब पहाड़ों असंख्य प्रजातियों के वृक्षों और प्राणियों से घिरा
समुद्रों के चिर यौवन की दहाड़ के बीच मैं एक मनुष्य हूँ
और अनुभव करना चाहता हँू –
कि मनुष्य हूँ
इड़ा पिंगला सुषुम्ना के त्रिभुज में कसा हुआ
अपनी बहत्तर ग्रंथियों से राग-रागनियाँ गाता
मैं चला आता हूँ निढाल जीवन का साक्षी होते हुए
ये हाथीदाँत पर की गई पच्चीकारियाँ
चीते की अद्भुत दौड़ से भरी माँसपेशियों के ये आखिरी टुकड़े
शोकगीतों के बीच मैथुनरत हँसते हुए दर्जन भर चेहरे
चुटकुलों पर जीवन-यापन करते विदूषक तमाम
प्रार्थनाओं में छिपी वहशी पुकार
और अपनी आत्मा के गले से निकलने वाली गैंडे जैसी आवाज़
इन अजब-गजब चीजों की मार के बीच भी
हँसता चला आता हूँ देखो
गाँव उजड़े नगर हुए वैभवशाली दुरवस्था से भरे
जिनमें जीवित कितने कम
एक बना दी गई व्यवस्था का हामीदार होता हुआ
अपने लोभ के आगे परास्त टुकुर-टुकुर
एक अछोर गर्द भरे भीड़ से आह्लादित बाजार से गुजरता
होता हुआ हर रोज एक नए तानाशाह का उपनिवेश मैं
नदियों को बाँधने वाली अजगर भुजाओं की
लपेट में तड़पते अपने सहोदरों की छटपटाहट से
कोटि-कोटि ईश्वरों से और उनसे भी ज़्यादा उनके भक्तों से
ज़मीन में दबाए गए इतिहास के हण्डों की दुर्गंध से व्याप्त
इस कब्रगाह में जीवित रहता हूँ
ओह! जबकि मेरी प्रतीक्षा में चमक रहे हैं तारे
पतझड़ के बाद वृक्ष हैं मेरी ही तरफ ताकते हुए
ज़मीन के भीतर और बाहर
कितना सारा जीवन है मेरी प्रतीक्षा में
जिनसे छूट चुका है उम्मीद की चिकनी रस्सी का आखिरी सिरा
वे भी जिए जा रहे हैं मेरी प्रतीक्षा में ही
अनंत जगहें हैं जो विकल हैं मेरे स्पर्श को
यात्राएँ हैं जो मेरे जाने से ही होंगी संभव
काम हैं जो सदैव करने से ही होते आए हैं –
और देखो
ओ मेरे शाश्वत पुरूष !
मैं यहाँ बैठे-बैठे ही बदल देना चाहता हूँ यह संसार।
18. पर्यटन
मेरे लिए संभव था किसी भी जगह जाना
इसमें कोई आश्चर्य नहीं और न ही चमत्कार क्योंकि मैं एक कवि
निर्वात और सघन पदार्थों में से गुजरना रोज का ही मेरा काम
सूर्य की सतह के छह हजार डिग्री सेल्सियस के तापक्रम में
और सुदूर परिधि पर चक्कर खा रहे
(अभी एक खोजे जा सकने वाले) ग्रह के
माइनस एक हजार डिग्री सेल्सियस के शीत में भी
मेरी इंद्रियाँ और अंग उसी तरह प्रसन्नचित्त
करते हुए अपने काम जैसे भूमध्यसागरीय प्रायद्वीप के
सुखद माने जाने वाले मौसमों में
एक कवि इतना सर्वव्यापी
इतना प्राचीन
जितना गुरुत्वाकर्षण
पृथ्वी के वायुमंडल में सैर करते-करते चल पड़ा मैं
सौर मंडल के हाईवे पर
पौ फटने में देर थी
और मुझे दिख रहा था शुक्र का चमकीला साइन बोर्ड
चला जा रहा था मैं अपनी मौज में टहलता हुआ
कुछ ही देर में जब पहुँचा शुक्र पर
तो बस थोड़े बड़े दिख रहे सूरज के साथ
होती जा रही थी सुबह
वह एक गर्म सुबह थी और गंधक के अम्ल की सघनता के बीच
अपनी उठान पर था ज्वालामुखियों का रोमांचक दृश्य
एक ज्वालामुखी के कगार पर बैठ कर
हँसते हुए मैंने कार्बन मोनॉक्साइड के बादलों से कहा
अभी जमा है मेरे फेफड़ों के सिलेण्डरों में
अनगिन सालों के लायक ऑक्सीजन !
देख कर खुशी हुई कि पृथ्वी एकदम पड़ोस में थी
दूर होते हुए पास में ही होने की खुशी
शुक्र के देदीप्यमान रूप से
बनाया मैंने एक मूर्ति शिल्प और उसे फेंक दिया पृथ्वी पर
सौर मंडल का एक सबसे लंबा और सबसे गर्म दिन बिता कर
शुक्र के चाँद-विहीन आकाश से विदा लेते हुए
चैन की ठंडक में सोने के लिए मैंने बुध की राह ली
यहाँ एक तिहाई वजन घट जाने से कुछ हलका महसूस किया
और थोड़े-बहुत वायुमंडल से चलाया अपना काम
फिर लंबी रात में खूब सोया मैं कि आगे के सफर के लिए हो सकूँ तैयार
चाँद यहाँ भी नहीं था और रह-रह कर मुझे
याद आया अपनी पृथ्वी का आकाश
पृथ्वी की कक्षा की पगडंडी से ही
मंगल का लाल परचम दीखता था लहराता
चलो, वहाँ कोई न कोई मिलेगा मुझे
सोचते हुए खरामा-खरामा पहुँचा मंगल ग्रह पर
वहाँ मुझे दो चंद्रमा मिले जिन्होंने किया स्वागत
मंगल पर कदम रखते ही मैं चिल्लाया –
लोहा ! लोहा ! कितना सारा लोहा !
मंगल ने मेरे खून में बसाया लोहा
और वहाँ मैंने पृथ्वी के दिन-रात के बराबर का
लालिमा भरा समय बिताया
बेकार पड़ा है मेरा पूरा लोहा और अब देखो
इस लोहे में लग रही है जंग
– मंगल ने कहा मुझसे
जैसे दे रहा हो चेतावनी कि लोहा है तो नहीं लगने देना चाहिए जंग
यह संदेश एक परा तरंग पर मैंने तुरंत ही भेजा
धरती पर अपने तमाम साथियों को
फिर चल दिया मैं ताराकार कॉलोनी पार करते हुए
सबसे विशाल ग्रह बृहस्पति की तरफ
अनंत और नित दीपावली का दृश्य वह जहाँ से
गुरु की असीम गुरुत्वाकर्षण भरी हजार आतुर बाँहों ने उठाया मुझे
कहा कि आओ !
सबसे पहले घूमो मेरे वलय में
जो मेरा सबसे दर्शनीय स्थल
बीच में बर्फ का विशाल स्केटिंग का मैदान वर्तुलाकार
इतने विशाल ग्रह को देख कर हुआ विस्मित
मैं एक पर्यटक घूमता बेतहाशा
थक कर सोया एक पूरा दिन और रात भर
एक थके हुए आदमी को
आठ-नौ घंटे की ठंड भरी नींद बहुत ज़्यादा तो नहीं !
सोने से पहले उतने तारे दिखे जितने जीवन में नहीं देखे कभी
और सोलह चंद्रमाओं को देख कर लगा कुछ अजीब
(अब किसको कहूँ अच्छा और किस-किससे किसकी दूँ उपमा !)
वहीं कुछ वे तारे भी थे जो कभी भ्रूण थे मेरी इच्छाओं के
अब उनकी चमक पूरे महीनों के जन्मे शिशुओं की तरह थी
उनके करीब ही उल्काएँ थीं दमकती हुईं
उनके टूट कर लुप्त होने के बाद का अँधेरा था
टूटने और बनने की वेदना की ऊर्जा के आलोक से
जो फिर-फिर प्रकाशित होता था
ठीक वहीं से दृष्टि के गवाक्ष से दिखता था अंतरिक्ष का विशाल कोना
विराट, असमाप्य, विलक्षण स्पेस का एक छोटा-सा उदाहरण
सब कुछ से भरा हुआ महाशून्य
जिसमें सबसे पहले समा कर ओझल होता है समय
‘ब्लैक होल’ में संगठित होता हुआ एक विशाल घनत्व
– घनसत्व !!
शनि तक पहुँचते हुए लगा कि अब चला आया हूँ वाकई कुछ ज़्यादा ही दूर
नीले-हरे ग्रह के भीतर भी गया मैं
उसके अनेक वलयों से खेलने में मजा आया बहुत
वहीं नीली बारिश होती रही
और उसने मेरे बचपन को एक बार फिर भर दिया बारिश से
वहीं शीत का एक काल बिताया मैंने
और दोपहरी के अनगिन पहर भी
वापस भी लौटना था इसलिए
यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो की सैर करते हुए स्थगित –
(आह, नेप्च्यून का वह तेज नीला बुलाता हुआ रंग !)
झूलते हुए अपनी पंचबाहु निहारिका की सबसे सुंदर बाँह में
लौटते हुए मुझे दिखीं अपनी अनेक रिश्तेदारियों की निहारिकाएँ
क्या ये सब मौसियाँ हैं मेरी
और ‘बिग बेंग’ क्या मेरा नाना हुआ ?
वंशावली के बारे में कुछ भी निश्चित कहना ठीक नहीं
कितने गंधर्व विवाह हुए होंगे और कितने स्वयंवर
और यह सूर्य ही – मेरे सबसे निकट एक तारा – क्या कम विराट है
चला ही तो रखा है सबको इस रूपवान तेजवान रसिया ने
चक्कर लगाता है हर कोई बँधा हुआ आकर्षण में
चल रहा है रास
महारास ! !
जैसे यह पूरा सौर मंडल एक रास मंडल !
एक तारा भी नहीं रहना चाहता अकेला
समूह में रहना सीखा है हमने तारों से
सोच में लगाता हुआ अपनी छलाँगें
गुज़रता हुआ अदृष्ट प्रकाश रेखाओं के रास्तों में से
सुनता हुआ अश्रव्य ध्वनियाँ
बचता हुआ उल्काओं से
जब लौटा मैं अपने घर
बेटा साइकिल निकाल रहा था स्कूल जाने के लिए
और नल पर चल रहा था वही सनातन झगड़ा
पत्नी थी मशगूल चाय बनाने में
अखबार पढ़ते हुए
अवस्थित होते हुए अपने छोटे-से काल में
मैं सुड़कने लगा चाय।
अमीरी रेखा (कविता संग्रह) – कुमार अंबुज
1. यहाँ तक आते हुए
जैसे एक दोपहर की चमक घास कपास नमक
मेरे पास अभी भी हैं इतनी नन्ही और नाजुक चीजें
जिन्हें न तो युद्ध के ज़रिये बचा सकता हूँ
और न ही शास्त्रार्थ से
शायद उन्हें ज़िद से बचाया जा सकता है या फिर आँसूओं से
छोटी-सी आज़ादी के लिए यही एक प्रस्तावना है
लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं
न ही कोई ऐसी जगह जहाँ लगाई जा सके पताका
मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहाँ है जैसा है वैसा है
मैं एक अयाचित परछाईं अपने होने के स्वप्न की
स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया
और इस असफलता का दुख यहीं छोड़ते हुए
एक और सपने के साथ बढ़ना चाहता हूँ आगे
जैसे मैं एक लहर हूँ, एक पत्ता और हवा की आवाज़
शब्दों की नमी कहती है, बारिश हो रही है पास में कहीं
परिजनों का जीवन बचाते हुए एक दिन मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे
मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थीं मेरी इच्छाएँ
और फिर इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया
कि जिन्हें करता था प्यार उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान
फिर भी यहाँ तक चले आने में
सिर्फ मेरे ही क़दम शामिल नहीं हुए, धन्यवाद
कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते
अँधेरे में भरते हुए आवाज़ों का प्रकाश
कददू की बेल, कत्थई मैदान, अमावस की रात
चींटी, एक सिसकी, एक शब्द
और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया
इन्हीं सबके बीच माँगता रहा कल तीन चीजें-
पीने का पानी, आज़ादी और न्याय
हालाँकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं
जहाँ नहीं पहुँच सके मेरी कोशिशों के हाथ
लेकिन समुद्र की आवाज़ मुझ तक पहुँचती रही
करोड़ों मील दूर से चल कर आती रही सूर्य की किरण
मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में भी एक जन को
कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में
और फिर अपने ही गर्भ में जगह दी
इन बातों ने मुझे बहत आभारी बनाया
और जीवन जीने का सलीक़ा सिखाया
यह ठीक है कि कई चीज़ों को मैं
उतनी देर ठिठक कर नहीं देख सका
जितनी देर तक के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं
कई अवसरों को भी मैंने खो दिया
मैं उम्मीद में गुनगुनाता आदमी था धनुर्धारी नहीं
मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी ग़लतियों
चूकों और नाकामियों से भरा
लेकिन उसी जीवन के भीतर से
आती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी
कितना काम करना था कह नहीं सकता कितना कर पाया
इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी ग़लतियों से भी पहचान में आया।
2. जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
फिर न वह पेड़ वैसा बचता है और न वैसी रात आती है
न ओंठ रहते हैं और न पंखुरियाँ
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
कार्तिक जा चुका है और ये पौष की रातें हैं जिनसे सामना है
जीवन में रोज़ ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक्त निकल जाता है
बाद में तुम पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गई हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा
लेकिन इससे हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वज़न कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहाँ तक जीवित चले आने में हर एक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है
धन्यवाद न दे सकने की कसक भी साथ चली आती है
जो घेर लेती है किसी मौसम में या टूटी नींद में
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
उन्हें अब खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरअक्स तुम
फिर अचकचाये या सकुचाये खड़े रहते हो
हालाँकि कई चीजें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं
पतझड़, झरने, चाय की दुकान और अस्पताल की बैंच
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर कहना क्या चाहते हो
शायद इसलिए ही कभी सोच समझकर या अनायास ही
तुम उनके कंधे पर अपना सिर रख देते हो।
3. गिरते उड़ते पत्ते
इसमें अचरज और स्मृतियों का दोहराव है
कि दृश्य में अब सिर्फ पत्ते उड़ रहे हैं :
पीले, भूरे, सूखे, मद्धिम हरे
गिरते हए पत्ते किसी का इंतज़ार नहीं करते
हालाँकि हमें लगता है वे हमारी ही प्रतीक्षा में थे
और हमें देखते ही उन्होंने गिरना-उड़ना शुरू कर दिया है
वे उड़ रहे हैं जैसे बच्चे मैदान में, गलियों में, सड़कों पर दौड़ते-भागते हैं
गिरते-पड़ते, धकियाते, आगे निकलते, शोर करते, सीटी बजाते
सब तरफ़ उनके उड़ने का संगीत है
असीम दूरी तक उड़ते चले जाने
और पलटकर देखने की हार्दिकता है
इसमें पुनरावृत्ति है लेकिन सुंदरता और दुख
चरमराहट और उम्मीद है
वे नींद में गिरते हैं
और स्वप्नों को भरते हैं अपनी उड़ान से
उड़ते ही चले जाते हैं डाली से टूटे हुए पत्ते
कहीं अटका हुआ कोई पत्ता खड़खड़ाता है
पानी किनारे के पेड़ों के पत्ते
अपनी छाया के साथ एक सूखते हुए से आईने में गिरते हैं
और कई बार तो सिर्फ किसी गहराई में
अंधों की तरह गिरते हैं सड़क किनारों के पत्ते
घर किनारे के वृक्ष के पत्ते गिरते हैं घर के लोगों की तरह
छतों पर, आँगन में, सीढ़ियों पर, जब हम सो रहे होते हैं
जो गिरते उड़ते पत्तों को देखकर विकल नहीं होते
थम नहीं जाते
पत्ते उन्हें भी देखकर कुछ सोचते हुए से ठिठकते हैं
और फिर हवा उन्हें उड़ा ले जाती है।
4. घास बनकर भी चैन नहीं
आज रात मैं मोजार्ट को सुनना चाहता था
और मल्लिकार्जुन मंसूर को
या इस अँधेरी रात को
जिसमें आवाज़ों का एक विशाल घर है
मनुष्य को बचाती है उसकी आदिम प्रकृति
फिर उस पर एक सुबह गिरती है ओस
कुछ उड़ती पत्तियाँ ठहरती हैं उसके कंधों पर
वह कायान्तरित हो जाता है घास में
वहाँ उसे मिलते हैं छोटे-छोटे फूल, चीटियाँ और गुबरैले
इस तरह इस जिंदगी में भी वह अकेला और उदास नहीं रहता
वह घास बनकर भी गुज़ार सकता था चैन से जीवन
मगर घास पर लगातार टपकता है खून
भगदड़ में दब गये हैं चींटियाँ और फूल
गुबरैलों का पता नहीं क्या हुआ
और घास बनकर भी चैन नहीं
मैं एक टूटा-फूटा मनुष्य
जो अपनी मरम्मत के लिए सुनना चाहता था संगीत
या अँधेरी रात की अनाम आवाज़ों में कुछ देर रहना चाहता था
अब यहाँ घास के मैदान में हूँ
जिस पर खून के रंग की ओस गिरती है
जो सुबह की रोशनी में कुछ अजीब ढंग से चमकती है।
5. रचना प्रक्रिया
अमावस्या के दिन सुबह से ही तारों का वैभव दिखता है
जैसे पूर्णिमा का चाँद दिखना शुरू होता है द्वादशी से ही
दिखने लगती हैं ओट में छिपी चीजें
जो रोज़ दिखते हुए भी नहीं दिखतीं
जैसे एक आदमी और दो बच्चों की आतिशबाज़ी की
रोशनी में दुबकी दिखती है एक स्त्री की निष्प्रभता
अंधे कुएँ में की किसी धातु से परावर्तित होती है
प्रकाश की रेखा
वहीं मिलता है भाषा का फलदार वृक्ष
जिसकी डालियाँ छूने भर से झुकने को आतुर
रसायनों भरे प्रदीप्त क्षणों में से उठती है आवाजें:
अगर हमारे जीवन में जोखिम नहीं
तो तय है वह हमारे बच्चों के जीवन में होगा
सिर्फ संपत्तियाँ उत्तराधिकार में नहीं मिलेंगी
गलतियों का हिसाब भी हिस्से में आयेगा
फिर दिखाई देता है खोने के लिए
एक शांत किस्म का व्यक्तिगत जीवन
जिसे इस जगह तक भी कोई इच्छा, एक प्रेम,
एक दया, एक हँसी
और एक छोटी-सी ज़िद ले आई है खींचकर
इसी जीवन में ट्रक की तेज़ी से गुजरते हैं हादसे
जिनसे ख़ाली होती हुई जगह को
उसी वेग से भरती जाती है
पीछे से दौड़कर आती जीवन की हवा।
6. सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार
यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार
यह तुम जो बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार
लेकिन इसी वजह से कई लोग चले जाएँगे तुमसे दूर
सड़क पार करने की घबराहट,खाना खाने में जल्दबाज़ी
या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत
कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी
फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल
किसी को आँख में आँख डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार
चलते-चलते रुककर इमली का पेड़ देखना
एक बार फिर तुम्हारे ख़िलाफ़ जाएगा
फिर भी यदि तुमसे बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं प्यार तो रुको और सोचो
यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में है
यह होगा ही कि तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जिओगे
और अपने प्यार करनेवालों को
अजीब मुश्किल में डालते चले जाओगे
जो उन्नीस सौ चैहत्तर में, उन्नीस सौ नवासी में
और दो हज़ार पाँच में करते थे तुमसे प्यार
तुम्हारी जड़ों में देते थे पानी
और कुछ जगह छोड़ कर खड़े होते थे कि तम्हें मिले प्रकाश
वे भी एक दिन इसलिए जा सकते हैं दूर कि अब
तुम्हारे जीवन की परछाईं उनकी जगह तक पहुँचती है
तुम्हारे पक्ष में सिर्फ यही बात हो सकती है
कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वजह से भी
करने लगते हैं तुम्हें प्यार
जीवन में उस रंगीन चिड़िया की तरफ़ देखो
जो किसी का मन मोह लेती है
और ठीक उसी वक़्त एक दूसरा उसे देखता है
शिकार की तरह।
7. जैसे विरोध करने की कोई उम्र होती है
बेकार है इस उम्र में किसी तरह का विरोध करना
एक बेटी अभी तक है अनब्याही
जब उम्र थी कई लोगों से ली बुराई
अब ठीक यही हिलमिल कर गुज़ारें जीवन
क्या पता कब क्या मुश्किल आये
अस्पताल भी जाना पड़ सकता है आधी रात में
अपने बच्चे ही नहीं सुनते जब कोई बात
तब परिषदों, अधिकारियों, अकादमियों से क्या टकराना
क्या नारेबाजी और क्या भृकटि को तलवार बनाना
मुददा ठीक है लेकिन जिसके ख़िलाफ़ है
उससे मेरे अड़तीस साल पुराने संबंध
समर्थन भी तो मित्रता का ठहरा एक आधार
फिर भी देता मैं तुम सबका साथ
लेकिन देखो, मुझे खाँसी भी आती है बहुत
हाथ काँपते हैं ज्ञापन पर दस्तख़त भी मुश्किल
इधर अब तो मेरी प्रतिष्ठा भी यही हो चली है :
वरिष्ठ हैं, समावेशी हैं, चुप रहते हैं, गम खाते हैं।
8. अमीरी रेखा
मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है, बावजूद इसके
कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं
और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी-अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ़्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाक़ी रह गया हो
नमस्कार, हाथ मिलाना, मुस्कराना, कहना कि मैं आपके
क्या काम आ सकता हूँ-
ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और इनसे अब
किसी को कोई खुशी नहीं मिलती
शब्दों के मानी इस तरह भी ख़त्म किये जाते हैं
तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने के लिए
हो सकता है तुम्हें उस आदमी के पास जाना पड़े
जो इस वक्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है
या घर की ही उस स्त्री के पास
जो दिन-रात काम करती है
और जिसे आज भी सही मज़दूरी नहीं मिलती
बाज़ार में तो तुम्हारी छाया भी नज़र नहीं आ सकती
उसे चारों तरफ़ से आती रोशनियाँ दबोच लेती हैं
वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं झरती
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे
तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की ख़ातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो
जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं
और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपये रोज़ पर तुम एक आदमी को
और सौ-डेढ़ सौ रुपये रोज़ पर एक पूरे परिवार को गुलाम बनाते हो
और फिर रात की अगवानी में कुछ मदहोशी में सोचते हो,
कभी-कभी घोषणा भी करते हो-
मैं अपनी मेहनत और काबलियत से ही यहाँ तक पहुंचा हूँ ।
9. परचम
वहाँ एक फूल खिला हुआ है अकेला
कोई उसे छू भी नहीं रहा है
किसी सुबह शाम में वह झर जाएगा
लेकिन देखो, वह खिला हुआ है
बारिश, धूल और यातनाओं को जज़्ब करते हुए
एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है
आसपास की हर चीज़ इशारा करती है
तालाब किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू
दुर्दिनों के किनारे शब्द
मुझे प्यास लग आयी है और यह सपना नहीं है
जैसे पेड़ की यह छाँह मंज़िल नहीं
यह समाज जो आख़िर एक दिन आज़ाद होगा
उसकी संभावना मरते हए आदमी की आँखों में है
और असफलता मृत्यु नहीं है
यह जीवन है, धोखेबाज़ पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं
‘मैं रोज़ परास्त होता हूँ’-
इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं
यों भी एक-दो अर्थ देकर
टिप्पणीकार काफ़ी कुछ नक़सान पहुँचा चुके हैं
गणनाएँ असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं
सतह पर जो चमकता है वह परावर्तन है
उसके नीचे कितना कुछ है अपार
शांत, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ।
10. कुछ युग्म
[यों ही]
ताजमहल और निरंकुशता
बुखार और गिलहरी
दूब और कार्यालय की मेज़
वासना और फटी हुई कमीज़
ऊब और कंप्यूटर
पतझड़ और किशोरावस्था
दो स्वर्ण पदक
और तीन आत्महत्याएँ।
11. झण्डा वंदन
शुरुआत में कुछ वृक्ष
और अब कई मनुष्य काटकर गिरा दिए गए
धरती पर गिरने की उनकी आवाज़ को जैसे किसी ने नहीं सुना
इसी दौरान जब एक राहगीर से पूछा गया उसका नाम
तो उसने उम्मीद में अपना एक नाम ख़ुदा का भी बताया
मगर सर्वशक्तिमान का नाम भी उसके काम न आया
मैं यह सब देखता हूँ और कहता हूँ मैंने कुछ नहीं देखा
आँसू भी बहाता हूँ, जलेबियाँ भी खाता हूँ
फिर अवसाद में पूछता हूँ अपने आप से-
‘आत्महत्या के लिए दस मिनट का साहस चाहिए
और जीवन के लिए सिर्फ दस सेंकड का’-
क्या अब भी यह मेरे जीवन के लिए प्रेरक वाक्य बना रह सकेगा?
यही सोचते हुए कल रात पाँच घंटे देरी से घर लौटा
मुझे लेकर किसी को कोई दुःस्वप्न नहीं था
पत्नी पुराने ब्लाऊज़ की सिलाई उधेड़ रही थी
गूंज रही थी पिता के खर्राटों की आवाज़
अप्रत्याशित काम, मुलाक़ाती, ट्रैफ़िक, आपाधापी, खामख़याली
इसी तरह के सारे कारण बच्चों को भी ज्ञात हैं
अज्ञात मेरा बचपन है और मेरी स्वतंत्रता
और एक गीत की वह पंक्ति जो अब स्मृति से भी बेदखल हुई
कल रास्ते में तेरह साल बाद महेश मिला
मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता था मैंने उसे नहीं पहचाना
एक दिन असगर मिला गर्मजोशी से आगे बढ़ा
मैं डर गया, मैंने कहा-नहीं, मैं अंबुज नहीं
इसी तरह मैंने कई नाम मिटाये
कई जीवन उजाड़े, कई चेहरे और कई चित्र
एक शाम वह हत्यारा मिला जिससे मैं अपार घृणा करता था
वह निहत्था था मैं उसे मार सकता था
कम से कम थूक सकता था उस पर
लेकिन मैंने उसे नमस्कार किया और हाथ मिलाया
पड़ोसियों ने कहा मित्रों ने कहा यह तुमने ठीक किया
अब आप कौन होते हैं पूछने वाले
कि कायर होने और अपराधी होने में क्या फ़र्क है
वैसे भी मेरे पास वक़्त नहीं है और न ज़रूरत
कि सोचूँ-मैं मक्खी हूँ, आदमी हूँ, कबूतर हँया बागड़बिल्ला
चालाक हूँ या मुजरिम
सुबह के सवा आठ बज रहे हैं
प्रधानमंत्री के काव्य-प्रेम और राष्ट्रपति के उदबोधन ने
एक भावुक फिल्मी गाने और सहकर्मियों के गर्वीलेपन ने
मिलजुलकर रास्तों को और तिलिस्मी और धुंधला बना दिया है
मुझे इसी तिलिस्म और धुंध में से होकर झंडा वंदन करने जाना है।
12. अन्याय
अन्याय की ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती
वह एक दिन होता ही है
याद करोगे तो याद आएगा कि वह रोज ही होता रहा है
कई बार इसलिए तुमने उस पर तवज्जो नहीं दी
कि वह किसी के द्वारा किसी और पर किया जाता रहा
कि तुम उसे एक साधारण खबर की तरह लेते रहे
कि उसे तुम देखते रहे और किसी मूर्ति की तरह देखते रहे
कि वह सब तरफ हो रहा होता है
तुम सोचते हो और चाय पीते हो कि यह भाग्य की बात है
और इसमें तुम्हारी कोई भूमिका नहीं है
फिर सोचोगे तो यह भी आएगा याद कि तुमने भी
लगातार किया है अन्याय
जो ताकत से किया या निरीह बन कर सिर्फ वह ही नहीं
जो तुम प्रेम की ओट ले कर करते रहे वह भी अन्याय ही था
और जो तुमने खिलते हुए फूल से मुँह फेर कर किया
और तब भी जब तुम अपनी आकांक्षाओं को अकेला छोड़ते रहे
और जब तुम चीजों पर अपना और सिर्फ अपना हक मानते रहे
घर में ही देखो तुमने एक पेड़ पर, पानी पर, आकाश पर,
बच्चों और स्त्री पर और ऐसी कितनी ही चीजों पर कब्जा किया
इजारेदारी से बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है!
और उस तथाकथित पवित्र आंतरिक कोने में भी देखो
जिसे कोई और नहीं देख सकता तुम्हारे अलावा
वहाँ अन्याय करते रहने के चिह्न अब भी हैं
तुमने एक बार दासता स्वीकार की थी
एक बार तुम बन बैठे थे न्यायाधीश
इस तरह भी तुमने अन्याय के कुछ बीज बोए
तुम एक बार चुप रहे थे, उसका निशान भी दिखेगा
और उस वक्त का भी जब तुम विजयी हुए थे
अन्याय से ही आखिर एक दिन अनुभव होता है
कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो न हो अन्याय
और इस तरह तुम्हारे सामने
जीवन की सबसे बड़ी जरूरत की तरह आता है –
न्याय!
13. इच्छा और जीवन
अपनी इच्छा में मैं बाँस के झुरमुट के बीच एक मचान पर रहता हूँ
यों ही घूमता फिरता हूँ उड़ता हूँ कुलाँचें भरता हूँ
कभी चिड़िया बन जाता हूँ और कभी हिरण
पेड़ तो इतनी बार बना हूँ कि पेड़ मुझे अपने जैसा ही मानते हैं
संभ्रम में कई बार मुझ पर रात में रहने चले आते हैं तोते
नदी के किनारे पत्थर बन कर सेंकता हूँ धूप
अपने जीवन में मैं मोहल्ले की तीसरी गली में रहता हूँ
गमले में उगी मीठी नीम देखता हूँ
रोज दाढ़ी बनाता हूँ आहें भरता हूँ नौकरी करता हूँ
बुखार आने पर खाता हूँ खिचड़ी और पेरासिटामॉल
एक झाड़ू का पपीते का और प्लास्टिक की
बाल्टी का करता हूँ मोल भाव
खाने में पत्नी से माँगता हूँ हरी मिर्च
चंद्रमा को देखता हूँ सितारों को देखता हूँ
और इच्छाओं को इच्छा के ही जादू से
बना देता हूँ तारे।
14. खाना बनाती स्त्रियाँ
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे – उफ इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गँठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
15. तानाशाह की पत्रकार वार्ता
वह हत्या मानवता के लिए थी
और यह सुंदरता के लिए
वह हत्या अहिंसा के लिए थी
और यह इस महाद्वीप में शांति के लिए
वह हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी
और यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए
परसों की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी
और आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करना पड़ी
और यह अभी ठीक आपके सामने
उदाहरण के लिए!
16. नई सभ्यता की मुसीबत
नई सभ्यता ज्यादा गोपनीयता नहीं बरत रही है
वह आसानी से दिखा देती है अपनी जंघाएँ और जबड़े
वह रौंद कर आई है कई सभ्यताओं को
लेकिन उसका मुकाबला बहुत पुरानी चीजों से है
जिन पर लोग अभी तक विश्वास करते चले आए हैं
उसकी थकान उसकी आक्रामकता समझी जा सकती है
कई चीजों के विकल्प नहीं हैं
जैसे पत्थर आग या बारिश
तो यह असफल होना नहीं है
हमें पूर्वजों के प्रति नतमस्तक होना चाहिए
उन्हें जीवित रहने की अधिक विधियाँ ज्ञात थीं
जैसे हमें मरते चले जाने की ज्यादा जानकारियाँ हैं
ताड़पत्रों और हिंसक पशुओं की आवाजों के बीच
या नदी किनारे घुड़साल में पुआल पर
जन्म लेना कोई पुरातन या असभ्य काम नहीं था
अपने दाँत मत भींचो और उस न्याय के बारे में सोचो
जो उसे भी मिलना चाहिए जो माँगने नहीं आता
गणतंत्र की वर्षगाँठ या निजी खुशी पर इनाम की तरह नहीं
मनुष्य के हक की तरह हर एक को थोड़ा आकाश चाहिए
और खाने-सोने लायक जमीन तो चाहिए ही चाहिए
माना कि लोग निरीह हैं लेकिन बहुत दिनों तक सह न सकेंगे
स्वतंत्रता सबसे पुराना विचार है सबसे पुरानी चाहत
तुम क्या क्या सिखा सकती हो हमें
जबकि थूकने तक के लिए जगह नहीं बची है
तुम अपनी चालाकियों में नई हो
लेकिन तुम्हारे पास भी एक दुकानदार की उदासी है
जितनी चीजों से तुमने घेर लिया है हमें
उनमें से कोई जरा-सा भी ज्यादा जीवन नहीं देती
सिवाय कुछ नई दवाइयों के
जो यों भी रोज-रोज दुर्लभ होती चली जाती हैं
और एक विशाल दुनिया को अधिक लाचार बनाती हैं
हँसो मत यह मशीन की नहीं आदमी की चीख है
उसे मशीन में से निकालो
घर पर बच्चे उसका इंतजार कर रहे हैं
हम चाहते हैं तुम हमारे साथ कुछ बेहतर सलूक करो
लेकिन जानते है तुम्हारी भी मुसीबत
कि इस सदी तक आते आते तुमने
मनुष्यों के बजाय
वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश कर दिया है।
17. सहनशीलता : कुछ वाक्य
पृथ्वी, स्त्री, निर्धन और ग़ुलाम
इसके कुछ विचारणीय उदाहरण हैं।
यह हर उस क़दम के ख़िलाफ़ होती है
जो उसी वक़्त ज़रूरी होता है।
इसके पक्ष में लोक-कथाएँ हैं
और सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णय भी।
हर उदास चीज़ को चाहिए
कि वह चमकदार चीज़ों को बर्दाश्त करे।
इसे दीमक कहना धर्मग्रंथों, राजनीतिज्ञों
और प्रबंध निदेशकों का अपमान है।
आप पत्थर, लोहे या पेड़ से भी कुछ सीख सकते हैं,
हालाँकि आप पेड़, पत्थर या लोहा नहीं हैं।
18. अकेले का विरोध
तुम्हारी नींद की निश्चिंतता में
वह एक कंकड़ है
एक छोटा-सा विचार
तुम्हारी चमकदार भाषा में एक शब्द
जिस पर तुम हकलाते हो
तुम्हारे रास्ते में एक गड्ढा है
तुम्हारी तेज़ रफ़्तार के लिए दहशत
तुम्हें विचलित करता हुआ
वह इसी विराट जनसमूह में है
तुम उसे नाकुछ कहते हो
इस तरह तुम उस पर ध्यान देते हो
तुमने सितारों को जीत लिया है
आभूषणों, ग़ुलामों, मूर्तियों
और खंडहरों को जीत लिया है
तब छोटी-सी बात उल्लेखनीय है
कि अभी एक आदमी है जो तुम्हारे लिए खटका है
जो अकेला है लेकिन तुम्हारे विरोध में है
तुम्हारे लिए यह इतना जानलेवा है
इतना भयानक कि एक दिन तुम उसे
मार डालने का विचार करते हो
लेकिन वह तो कंकड़ है, गड्ढा है
एक शब्द है, लोक-कथा है, परंपरा है।
19. शीर्ष बैठक
वह एक मुस्कराहट के साथ सभागार में प्रवेश करता है
उसने आते ही हर शख़्स को कब्जे में ले लिया है
कक्ष में बार-बार उसकी सिर्फ उसकी आवाज गूँजती है
वह विनम्र है लेकिन हर बात का उत्तर हाँ में चाहता है
धीरे-धीरे उसे घेर लिया है आँकड़ों ने
गायब होने लगी है उसकी हँसी
वह चीखता है : मुझे यह काम दो दिन में चाहिए
और ठीक अगले ही पल तानता है मुट्ठियाँ
मानो अब मुक्केबाजी शुरू होने को है
अचानक वह गिड़गिड़ाने लगता हैः
देखिए, आप तो मरेंगे ही, मुझे भी ठीक से नहीं रहने देंगे
फिर वह तब्दील हो जाता है एक याचक में
वातानुकूलित कक्ष में सब उसके माथे पर पसीना देखते हैं
दोपहर हो चुकी है और वह गुस्से में है
अब वह किसी भी तरह का व्यवहार कर सकता है
उसके पास से विचार गायब होने लगे हैं
उसकी अभिव्यक्ति चार-पाँच वाक्यों में सिमट गई है
‘मुझे परिणाम चाहिए’- एक मुख्य वाक्य है
उसकी कमीज पर चाय और दाल गिर गई है
लेकिन उसके पास इन बातों के लिए वक्त नहीं है
वह कहता है चाहे बारिश हो या भूकंप
मुझे व्यवसाय चाहिए और और और
और और व्यवसाय चाहिए
इतने भर से क्या होगा कहते हुए वह अफसोस प्रकट करता है
फिर दुख जताता है कि उसे ही हमेशा घोड़े नहीं दिए जाते
और जो दिए गए हैं वे दौड़ते नहीं
वह अगला वाक्य चाशनी में डुबोकर बोलता है
लेकिन सख्त हो चुकी हैं उसके चेहरे की माँसपेशियाँ
उसके शब्द पग चुके हैं अनश्वर कठोरता में
हालाँकि वह अपने विद्यार्थी जीवन में सुकोमल था
खुश होता था पतंगों को, चिड़ियों को देखते हुए
वह फुटबॉल भी खेलता था और दीवाना था क्रिकेट का
लेकिन अब उससे कृपया खेल, पतंग
या पक्षियों की बातें भूलकर भी न करें
उससे सिर्फ असंभव व्यवसाय के वायदे करें
और अब उस पर कुछ दया करें
हड़बड़ाहट में आज वह रक्तचाप की गोली खाना भूल गया है
वह आपसे इस तरह पेश नहीं आना चाहता
लेकिन बाजार और महत्वाकांक्षाओं ने
उसे एक अजीब आदमी में बदल दिया है
बाहर शाम हो चुकी है पश्चिम का आसमान हो रहा है गुलाबी
पक्षी लौट रहे हैं घोंसलों की तरफ और हवा में संगीत है
लेकिन वह अभी कुछ घंटे और इसी सभागार में रहेगा
जिसमें लटकी हैं पाँच सुंदर पेंटिग्स
मगर सब तरफ घबराहट फैली हुई है.
20. चाँद तुम्हारे साथ कुछ दूर तक
सिर के ऊपर अस्सी डिग्री पर खिला है चाँद
आसपास इक्के-दुक्के तारे हौसला रखते हैं
नीचे पसरे हुये खेत, दूर पहाड़ी, एक खण्डहर
बीच में से गुजरती सड़क जिसका कोलतार
चमकता है चाँदनी में स्निग्ध
पेड़ निश्चल हैं और पत्तियों में से हवा
ऐसे बहती है कि कहीं वे जाग न जायें
तुम्हें क्या याद आता है
आधी रात से ठीक पहले के इस दृश्य में ?
एक सुबह पर गिरती हुई दूसरी सुबह
एक रात पर दूसरी रात
जो घुलती जाती है चाँदनी की धूसर चमक में
अभी यह दृश्य है जो सबके लिए खुला है
इस पर नहीं है अभी किसी की कुटिल निगाह
यह जो हर बार आबादी से बस थोड़ी-सी दूरी पर है
मुझे यहाँ याद आता है अपना बचपन
और वह वक्त जिसमें कुछ सोचा जा सकता है
इस चाँदनी की, इतने खुले की जरूरत मुझे हमेशा रहेगी
इन सबके बीच, ठीक चाँद के नीचे, इस उजास में
झाड़ी किनारे पेशाब करना किस कदर आह्लादकारी है
तमाम दबावों से धीरे-धीरे मिलती है मुक्ति
फूटते हैं बुलबुले
भीगती मिट्टी से उठती है गंध
एक दूधिया रहस्य तुम्हें घेरता है
जिसे भेदने के लिये
तुम एक और कदम आगे बढ़ाते हो
चुप्पी दृश्यों को करती जाती है मुखर
हर चीज तुम्हें अपने पास बुलाती है
यह सड़क है, यह पत्थरों की मेड़
यह पगडंडी
ये सब तुम्हें तुम्हारा मनुष्य होना याद दिलाते हैं
चाँद तुम्हारे साथ चलता है कुछ दूर तक।
21. मुश्किल तो मेरी है
सड़कों पर, चैंबरों में,
टी.वी. पर, ट्रेनों में, अखबारों में,
हर तरफ हैं धर्म की ध्वजाएँ
उनको क्या मुश्किल होना, मुश्किल तो मेरी है
मैं जो रिक्शा चलाता हूँ
मैं जो बीड़ी बनाता हूँ
मैं जो गन्ना उगाता हूँ
मैं जो ट्रैफिक में फँस जाता हूँ
मैं जो उधारी में पड़ जाता हूँ
मैं जो शहनाई बजाता हूँ
मैं जो भूख से बिलबिलाता हूँ
उनका क्या, मुश्किल तो मेरी है
मैं जो बच्चों की फीस नहीं चुका पाता हूँ
मैं जो कचहरी के चक्कर लगाता हूँ
मैं जो हाट-बाजार में घिर जाता हूँ
मैं जो ठंडे फर्श पर सो जाता हूँ
मैं जो निरगुनियाँ गाता हूँ
पड़ोसी से एक कटोरी शकर लाता हूँ
और आसपास के सुख-दुख में शामिल होते हुए
आखिर अपना हिन्दू होना भूल जाता हूँ।
22. आकस्मिक मृत्यु
बच्चे साँप-सीढ़ी खेल रहे हैं
जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी मांगेंगे
उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं
वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं
जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं
किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही
अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे
रोना होगा, रोयेंगे
अचानक खिलखिला उठेंगे या ज़िद करेंगे
तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे
और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे
23. यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है
यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है
आँधियाँ चलती हैं और मेरी रेत के ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं
यह मेरी अनश्वरता है
यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूँ
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चात्ताप
वासना और दिसंबर। वसंत और धुआँ
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूँ
तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाओं के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमकभर दिखती है
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूँ किसी ब्लैक होल में से
और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूँ
इस संसार में मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है अलौकिक
इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं
बहती है नीली नदियाँ और वाष्पित होती हैं
जो मिलती हैं समुद्र में
गिरती हैं फिर बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए
इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियाँ
पुकार है और चुप्पियाँ
यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है
यहीं घेर लेती हैं खुशियाँ
और एक दिन बुखार में बदल जाती हैं
यह सूर्यास्त की तस्वीर है
देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहाँ से थाम लो वहीं शुरूआत
जहाँ छोड़ दो वहीं अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है
रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएँ, संकेत और भाषाएँ
चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चाँदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक
तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया
जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को नक्षत्रों में बदल देती है।
24. पुश्तैनी गाँव के लोग
वहाँ वे किसान हैं जो अब सोचते हैं मजदूरी करना बेहतर है
जब कि मानसून भी ठीक-ठाक ही है
पार पाने के लिए उनके बच्चों में से कोई
गाँव से दो मील दूर मेन रोड पर
प्रधानमंत्री के नाम पर चालू योजना में कर्ज ले कर दुकान खोलेगा
और बैंक के ब्याज और फिल्मी पोस्टरों से दुकान को भर लेगा
कोई किसी अपराध के बारे में सोचेगा
और सोचेगा कि यह भी बहुत कठिन है
लेकिन मुमकिन है कि वह कुछ अंजाम दे ही दे
पुराने बाशिंदों में से कोई न कोई
कभी-कभार शहर की मंडी में मिलता है
सामने पड़ने पर कहता है तुम्हें सब याद करते हैं
कभी गाँव आओ अब तो जीप भी चलने लगी है
तुम्हारा घर गिर चुका है लेकिन हम लोग हैं
मैं उनसे कुछ नहीं कह पाता
यह भी कि घर चलो कम से कम चाय पी कर ही जाओ
कह भी दूँ तो वे चलेंगे नहीं
एक – दूरी बहुत है और शाम से पहले उन्हें लौटना ही होगा
दूसरे – वे जानते हैं कि शहर में उनका कोई घर हो नहीं सकता।
25. था बेसुरा लेकिन जीवन तो था
‘ध’
दिनों में धूप थी और धूल
रातें भरी हुईं थी धुएँ से
दिनचर्या बाणरहित धनुष थी
धप् धप् थी और धक्का
धमकियाँ थीं और धीरज
इसी सबके बीच में से उठती थी
हरे धनिये की खुश्बू!
‘रे’
सबसे ज्यादा वह अरे! अरे! में था
फिर मरे! मरे! में
जितना पूरे में उससे कम अधूरे में नहीं
रंग भूरे में और घूरे में भी
ठहरे में कुछ गहरे में
अकसर ही वह मुट्ठी में से
रेत की तरह झरता था
‘स’
वह सबमें था
समझ में, नासमझी में
इसलिए आदि में और अंत में भी
मुस्कराहट और हँसी में
समर्थ में, असहाय में, सत् में, असत् में
इस समय में
और हमारे आधे-अधूरे सपनों में.
‘ग’
भगदड़ में से भागते हुए रास्ते में गाय थी
मण्डियों ने उसे गजब गाय बना दिया था
गमलों में फूल खिल रहे थे
और मुरझा रहे थे गमलों में ही गुमसुम
जो गया वह चला ही गया था
गुलजार थे गपशप के चौराहे
सबको अपना अपना गाना गाना था
लेकिन गला था कि भर आता था
इस तरह संगीत में गमक थी
‘म’ ‘प’ नहीं थे
जैसे कभी कम्बल नहीं था
कभी पानी
बाजार में उपलब्ध थे
मगर मेरे पास न थे
बच्चे थे मगर माँ-बाप नहीं थे
जीवन में संगीत था बेसुरा
लेकिन जीवन तो था
‘नी’
वह नीड़ में था
जिसे पाना या बनाना सबसे मुश्किल था
फिर वह ऋण की किश्तों में था
फिर कहीं नहीं में
सुनसान में, वीरानी में
नीरवता में और नीरसता में
अंत में वह मुझे
थककर चूर हो गये शरीर की नींद में मिला
और फिर आधी रात में नींद तोड़ देनेवाली
चीख में
विविध कविताएं – कुमार अंबुज
1. अकुशल
बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुजरना होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ
जहां पैर कांपते हैं और चला नहीं जाता
चलना पड़ता है उन रास्तों पर भी
जो कहते है: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था
जीवन रीतता जाता है और भरी हुई बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलकता है कमीज और पेंट की संधि पर गिरता हुआ
छोटी सी बात है लेकिन
गिलास से पानी पिये लंबा वक्त गुजर जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता है
जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि फिर एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है।
2. अन्त का जीवन
खिड़की से दिखती एक रेल गुज़रती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाना चाहती हैं अन्धेरे से
उसकी आवाज़ थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज़ है
उसकी सीटी की आवाज़ बाक़ी सबको ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुज़रती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुज़रते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आख़िर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग ज़िन्दा रहने लगते हैं
बल्कि ख़ुश रहकर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं
पीछे छूट गई बारीक़, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टँगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं, उसे ढक लेता है कुहासा,
उसकी ओट में मकड़ियाँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर डॉक्टर कहता है इन दिनों आंसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई आजकल दवा भी नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं : प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता
धीरे-धीरे इस बात की आपसी समझ बन जाती है
कि रोज़-रोज़ मेल-मुलाक़ात मुमकिन नहीं
सारे विस्थापित जान चुके हैं
अब वे किसी गाँव-क़स्बे के निवासी नहीं
कुछ ही दूरी पर जो एक बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स है
गूगल-अर्थ में शहर के नाम पर दिखती है इसी इमारत की तस्वीर
अब यही गगनचुम्बी इमारत है इस शहर का पर्यायवाची
लाँग शॉट में हज़ारों प्रकाशमान खिड़कियों से आलोकित
यह किसी उज्ज्वल द्वीप की तरह दिखाई देती है
अलबत्ता इसी शहर में ऐसी भी खिड़कियाँ हैं असँख्य
जिनके भीतर भी रहे चले आते हैं जीवित मनुष्य
लेकिन उधर से कोई रोशनी नहीं आती
बस, दिखता हुआ खिड़कियों के आकार का अन्धेरा है
जिसे आसपास की रोशनियाँ और ज़्यादा गाढ़ा करती हैं ।
3. अधूरी इच्छाएँ : वर्गानुक्रम
कथा-कहानियों में और इधर के जीवन में भी
आसपास कोई न कोई हमेशा मिलता है जो सोचता है
कि कभी बैठ सकूँगा हवाई-जहाज़ में
एक शाम फ़ाइव स्टार होटल में पी जाएगी चाय
कि इन सर्दियों में ख़रीद ही लूँगा प्योरवूल का कोट
एक स्त्री सोचती है वह लेगी चार बर्नर का चूल्हा
एक आदमी करता है क़रीब के हिल स्टेशन का ख़याल
इन इच्छाओं की लौ जलती है सपनों में लगातार
इसी बीच यकायक बुझ जाती है जीवन-ज्योति ही
उधर एक आदमी सपना देखता है भरपेट भोजन का
कल्पना में लगाता है मनचीते व्यंजनों का भोग
नीन्द में ही लेता है स्वाद नानाप्रकार
सपने में आ जाती है तृप्ति की डकार
ओंठों से ठोड़ी तक रिसकर फैलती है लार
भिनभिनाती हैं मक्खियाँ ।
अब हम गीत नहीं बनाते
हम बहुत दूर निकल आए हैं
सूर्योदयों, सूर्यास्तों, श्रम भरी दुपहरियों से
खेतों-खलिहानों से, नदियों से, पहाड़ों से
अलाव से और रात में चमकते सितारों से
अब हम गीत नहीं बनाते
अब कुछ दूसरे लोग हैं जो बाक़ी काम नहीं करते
सिर्फ़ गीत बनाते हैं
वे दूसरे अलग हैं जो उसे ढालते हैं संगीत में
कुछ और लोग भी हैं जो सिर्फ़ गाते हैं गीत
और फिर ढोल-ढमाके के साथ
आता है दुनिया में वह गीत
हम तो यहाँ सुदूर परदेस में
खोजते हैं रोजी-रोटी
भूल गए हैं अपना जीवन-संगीत
अब हम गीत नहीं बनाते।
4. आकस्मिक मृत्यु-2
रोज़-रोज़ की अनुपस्थिति आख़िर उसे विश्वसनीय बना देगी
आदमी कई बार उस तरह नहीं गलता
जैसे अपनी ही आँच में धीरे-धीरे पिघलती है मोमबत्ती
वह यकायक उस तरह से हो जाता है ओझल
जैसे जादू के खेल में आँखों के ऐन सामने ग़ायब होता है हाथी
फिर पता चलता है कि यह कोई जादू नहीं था, जीवन है
अब सिर्फ़ साहस चाहिए
जो एक-दूसरे का मुँह देखने से कुछ-कुछ आता है
और इसी वजह से कभी-कभी टूट भी जाता है ।
5. आदिवासी
यदि मैं पत्थर हूँ तो अपने आप में एक शिल्प भी हूँ
जैसा मैं हूँ वैसा बनने में मुझे युग लगे हैं
हटाओ, अपनी सभ्यता की छैनी
हटाओ ये विकास के हथौड़े
मैं पत्थर हूँ, पत्थर की तरह मेरी कद्र करो
ठोकर जरा सँभलकर मारना
पत्थर हूँ ।
6. आश्वस्ति
इतने बान्धों और परियोजनाओं पर
सड़कों, पुलों और इमारतों पर
कारख़ानों, संस्थानों और सितारों पर भी
लिख दिए गए हैं उनके नाम
जैसे वे आश्वस्त रहे हों कि उन्हें
उनके कामों से याद नहीं रखा जा सकता ।
7. इतनी-सी कथा
वह स्त्री स्टेशन के बाहर खड़ी थी आधी रात
घर लौटने के इंतज़ार में
अचानक हवा चली विषैली
लिखा जाने लगा त्रासदी का एक और अध्याय
प्रश्न यह नहीं था कि वह वापस कैसे लौटेगी,
सही-सलामत लौटेगी इतिहास को पारकर ?
खुल जाएगा किवाड़ ?
बेचैन दस्तकों और दरवाज़ा खुलने के युग के बीच
किन सवालों से जूझेगी ?
जो जली-सी गंध आएगी
सोचेगी क्षमा और प्रेम और करुणा के बारे में
गुस्से में तोहमतें लगाएगी ?
जो कुछ हुआ
वह उसका साक्ष्य है या विषय
पता नहीं धर्मसंसद के निष्कर्ष
कुल जमा इतनी-सी थी यह कथा
पीढ़ियों के सामने
पहला-ईसापूर्व छठी शती का एक भिखु
दूसरा-प्रचारक नवजागरण काल का
तीसरा-सफाई अभियान से बच निकला किशोर
तीनों के सामने विचित्र अंतर्विरोध
ज्ञान की निरीह उजास से बाहर जाकर
चुनौती बनने और खड़े होने का
8. इसलिए आशा
सख़्त सर्दियाँ धीरे-धीरे दाख़िल हो ही जाती हैं फाल्गुन में
शनिवार मुण्डेर पकड़कर कूद जाता है इतवार के मैदान में
एक दृश्य की धुन्ध में से प्रकट होता है एक कम धुन्धला दृश्य
कभी विस्मय की तरह, कभी महज विषयान्तर
अनुभव का आसरा यह है कि धूल और लू भी
आखिर बारिश में घुल जाती है
और बारिश शरद की तारों भरी रात में
नेत्रहीन कहता है मैं ध्वनि से
और स्मृति से देखने की कोशिश करता हूँ
और पत्तों में हवा गुज़रने की आवाज़ से
पुकार लेता हूँ वृक्षों के नाम ।
इस सदी में जीवन अब
विशाल शहरों में ही संभव है
अब यह अनंत संसार एक दस बाई दस का कमरा
जीवित रहने की मुश्किल और गंध से भरा
खिड़की से दिखती एक रेल गुजरती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाती हैं अॅंधेरे से
उसकी आवाज थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज है
उसकी सीटी की आवाज बाकी सबको ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुजरती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुजरते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आखिर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग जिंदा रहने लगते हैं
बल्कि खुश रह कर, नाचते-गाते जिंदा रहने लगते हैं
बचपन का गॉंव अब शहर का उपनगर है
जहॉं बैलगाड़ी से भी जाने में दुश्वाारी थी अब मैट्रो चलती है
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टॅंगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं, उसे ढॅंक लेता है कुहासा
उसके पीछे मकडि़याँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर चिकित्सक कहता है इन दिनों आँसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई डॉक्टर दवा भी नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं: प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता
खिड़की से गुजरती रेल दिखती है
और देर तक के लिए उसकी आवाज फिर आधिपत्य जमा लेती है
अनवरत निर्माणाधीन शहर की इस बारीक, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
लेकिन जीवन चलता है।
9. उत्तर-कथा
नौदुर्गों की साँझ में गली के छोर से आती थी
विह्नल करती चौपाई-गायन की आवाज़
सोरठे तक आते-आते गहराने लगती थी रात
जीवन खड़ा हो जाता था रँगमँच के आगे
रास्तों में मिलते थे झरे हुए फूल
चितवनें, वाटिकाएँ, छली, बली, मूर्च्छाएँ
और उन्हीं के बीच उठती पुत्र-मोह की अन्तिम पुकार
नावों, जँगलों, गांवों और पुलों से होकर गुज़रते थे
राग-विराग, ब्रह्मास्त्र और वरदान के बाद के विलाप
लेकिन नहीं खेली जाती थी अश्वमेध की लीला
जो अब उत्तर-कथा में खेली जा रही है दिन-रात
जिसे कलाकार नहीं, बार-बार खेलते हैं वानर-दल
गठित हो रही हैं नई-नई सेनाएँं
रोज़ एक नाटक खड़ा हो जाता है जीवन के आगे ।
10. एक अधूरी कहानी
हम कौन हैं की तरह यह एक जटिल सवाल है
कि आखिर कहाँ है इनकी जमीन, कितना है इनका रकबा
क्या ये इस घर में, इस पेड़ के नीचे, इस नदी किनारे
इस तलहटी में जीवन भर रह सकते हैं
या तुम्हारे द्वारा खींच दिए घेरे के निशान से बाहर
ये एक कदम भी रख देंगे तो हो जाएँगे निर्वासित
जैसे वस्तुओं को, जानवरों को नहीं पता होता
वे कहाँ के लिए ले जाए जाते हैं
इन लोगों को भी नहीं पता वे किस सफर में हैं
उन्हें बस अंदेशा है, जिसमें नये अंदेशे जुड़ते जाते हैं
वे आशंका की सवारी में ही कर रहे हैं यात्रा
और जान चुके हैं कि जब तक सफर में हैं
बस, तब तक ही वे शरणार्थी नहीं हैं
यह समय भी हो गया है कुछ अजीब
इसमें शीत, धुएँ, धुंध, बादल के कई परदे हैं
मशक्कत के बाद कभी झीनी-सी धूप झाँकती हैं
तो इनकी परछाईं भी ठीक से नहीं बनती
जबकि कल तक इन सबका एक घर था
आग थी, पानी था, बिस्तर था,
इंतजार था, एक खुली जगह थी, आसमान था
फैली हुई बाहें थीं, उगते हुए पौधे थे और तारे
एक देह थी जिसमें छिप सकते थे
एक कोना था जहाँ सुबक सकते थे
इन्हें अंदाजा है जो पीछे छूट गए वे मारे जा चुके हैं
जो आगे जा रहे हैं मरने के लिए जा रहे हैं
जो अभी जिंदा हैं, खुश दिखते हैं या नाराज
इनमें बस एक समानता हैः
ये सभी मौत को पीछे छोड़कर आए हैं
और जानते हैं उनके लिए हर शब्द का,
हर चेष्टा, हर चीज का पर्यायवाची मृत्यु है
वे बताएँगे किस तरह हर चीज में से झाँकती है मृत्यु
पेड़ से, खिड़की से, टूटी दीवार से, अँधेरे से, रोटी से,
सहानुभूति से, कुर्सी और हथेली की ओट से
वे तर्जनी से दिखा देंगे हर जगह मृत्यु हैः
सड़क पर, आकाश में, हँसी में, तुम्हारी आँखों में,
चाय की केतली में, कचहरी में, इस किताब में,
इन कपड़ों में, पाताल में, इस सवाल में
सब जगह मृत्यु है और हमलावर है
जिससे भी कहा जाता है तुम जिंदा रहोगे
सुबह उसकी ही लाश सबसे पहले मिलती है
ये लोग जिंदा होकर भी इकट्ठा नहीं होते
एक-एक करके मरते चले जाते हैं
यही पुरातन कहानी है जो हर बार नयी हो जाती है
विस्थापन और अनिश्चितता ने इन्हें पूरी तरह बदल दिया है
अब इनमें से इनका कुछ भी पुराना बरामद नहीं किया जा सकता
याददिलाही का कोई निशान नहीं बचा, माथे की चोट वैसी नहीं रही,
जो नये घाव हैं उनका कोई जिक्र पहचान पत्र में नहीं
तसवीर खींचों तो किसी दूसरे ही आदमी की तसवीर निकलती है
पसीने की गंध बदल गई है इतनी कि अंतरंग क्षणों में
इनका प्रिय इन्हें किसी और नाम से पुकारने लगता है
तब विश्वास हो जाता है कि अजनबीयत ही इनका हासिल है
अपनी जगह से उजड़े निष्कासित आदमी को
आप किसी भी नाम से पुकारें, वह चौंककर
इस तरह देखेगा जैसे वही उसका नाम रहा हो
और जब उससे कभी कोई दुलार से कहता है कि आओ,
यह मेरा घर है लेकिन इसे तुम अपना ही समझो
तो याद आता हैः हाँ, उसका तो अब कोई घर नहीं है
उसी वक्त बगल से ठसाठस भरी एक रेलगाड़ी गुजरती है
हर डिब्बे से उठती है रुदन की आवाज
मातम है कि कभी खत्म ही नहीं होता
रेल की सीटी और धड़-धड़ की आवाज भी
उसी मातम का हिस्सा हो जाती है
टूट चुके हैं आँसुओं के नियम
अवसाद एक नैतिक सूचना भी नहीं देता
और जुट जाता है भीतर की तलाशी में
उदासी अपने सूनेपन में सब देखती रहती है चुपचाप
कि लोहे और सोने पर जंग लग रहा है एक साथ
गुम हुई चीजें कहीं मिलती भी हैं तो पहचान में नहीं आतीं
आदमियों के बारे में यह बयान पहले ही दिया जा चुका है
अंत में वे बच्चों को
अपनी त्रासदियाँ किसी कहानी की तरह सुनाते हैं
और उसे अधूरा छोड़ देते हैं क्योंकि यह अधूरी ही है
वे कहते हैं- यह अब उस तरह पूरी होगी
जैसे मेरे बच्चो, हम चाहेंगे और तुम चाहोगे।
11. एक कम है
अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं
एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना
मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी
मैं इस एक की परवाह करता हूँ
12. एक सर्द शाम
(एक बुजुर्ग के साथ कुछ समय बिताने के बाद)
संग-साथ की सीमाएँ होती हैं
लेकिन अकेलेपन की कोई सीमा नहीं
वह है अन्तरिक्ष की तरह
रोज़ बढ़ाता अपनी परिधि
एक काला विशाल खोखल
जिसमें अनगिन ग्रह हैं और तारे
मगर सब एक-दूसरे से लाखों मील दूर
खुद की या दूसरे की रोशनी में चमकते
या अपने ही अँधेरे में गुडुप
गुरुत्वाकर्षण है अकेलेपन के इस विवर में
जो खींच ही लेता है अपने भीतर
और आप धँस जाते हैं किसी ब्लैक-होल में
अकेले रह जाना
कोई चुनाव, चाहत या इच्छा नहीं
बस, आप अकेले रह जाते हैं
जैसे किसी नियति की तरह
लेकिन सोचोगे तो पाओगे
कि यह एक बदली हुई संरचना है
जो पेश आने लगी है नियति की तरह
यह सब होता है इतने धीरे-धीरे
कि अन्दाजा भी नहीं हो पाता
एक दिन आप इस कदर अकेले रह जाएँगें
यह एकान्त नहीं, अकेलापन है ।
13. कवि की अकड़
अपनी राह चलनेवाले कुछ कवियों के बारे में सोचते हुए
यों तो हर हाल में ही
कवियों को ज़िन्दा मारने की परम्परा है
हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है
और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह ज़िन्दा है भी या नहीं
ख़बर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है ‘नॉट रीचेबल’
किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो
अचानक बीच में ही हो जाता है ग़ायब
जब वह ख़ुद ही रहना चाहता है मरा हुआ
तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित
और वह है कि हर किसी विषय पर लिखता है कविता
हर चीज़ को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में
और कहता है यही है हमारे समय का सच्चा विलाप
वह विलाप को कहता है यथार्थ
वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और कहता है वर्तमान
वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता
और हाशिए पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केन्द्र में
कि हम आई० ए० एस० या एस० पी० या गुण्डे की
और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं
लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं
और फिर क्यों करें उसे बर्दाश्त
क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़
और वह कभी लिखने लगता है कहानी कभी उपन्यास
फिर अचानक निबन्ध या कुछ डायरीनुमा
कभी पाया जाता है कला-दीर्घाओं में, भटकता है गलियों में
और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं
किसी से माँगता भी नहीं
इसी से सन्दिग्ध है वह और उसका रोज़गार
सन्दिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाज़ार
सन्दिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार
सन्दिग्ध नहीं मालिक, सम्पादक और पत्रकार
सन्दिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्कार
सन्दिग्ध नहीं पटवारी, न्यायाधीश और थानेदार
सन्दिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार
सन्दिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार
जबकि एक वही है जो इस वक़्त में भी अकड़ रहा है
जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार
जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार
जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार
तो परिषदों, संयोजकों, जलसाघरों के नहीं है कोई नियम
और मुसीबजदा होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम
लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम
तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम
वह ऐसे वक़्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब
कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाए
जहाँ बुलाया जाए वहाँ तपाक से पहुँच जाए
न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाए
बस सौ-डेढ़ सौ एम० एलओ में दोहरा हो जाए
वह दुनिया भर से करे सवाल
लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताक़त कम हो जाए
आख़िर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में
हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाए
यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाए
लेकिन एक कवि की ठसक को रहने दिया जाए
कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है
कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताक़त नहीं
कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौक़े-बेमौक़े के लिए लाठी तक नहीं
फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है
कि अकड़ना चाहिए कवियों को भी
इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह
कविता की बची-खुची अकड़ है
जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है ।
14. कहीं भी कोई कस्बा
अभी वसंत नहीं आया है
पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते
लगातार उड़ती धूल वहाँ कुछ आराम फरमाती है
एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे
जब-तब जम्हाइयाँ लेती दुकानें
यह बाज़ार है
आगे दो चौराहे
एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था
दूसरी किसी योद्धा की है
नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह
नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो
पोस्ट-मास्टर और बैंक-मैनेजर के घर का पता
चलता-फिरता आदमी भी बता देगा
उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार
जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें
ए.टी.एम. ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक
आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते
तांगेवालों की यूनियन फेल हुई
ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खाँसते-खँखारते
अभी-अभी ख़तम हुए हैं चुनाव
दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी
गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएँ
जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में
चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है
पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें
अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियाँ हैं
रात के ग्यारह बजने को हैं
आखिरी बस आ चुकी
चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास
पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,
एक किलोमीटर दूर ढाबा
और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।
15. कुछ समुच्चय
स्मृति की नदी
वह दूर से बहती आती है गिरती है वेग से
उसीसे चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ
वसंत-1
दिन और रात में नुकीलापन नहीं है
मगर कहीं कुछ गड़ता है
वसंत-2
भूलती नहीं उड़ती सूखी पत्तियाँ
अमर है उनकी उड़ान
वसंत-3
पीले, सूखे पत्तों के नीचे कुचला गया हूँ मैं
इंटरमीडियेट परीक्षा परिणाम
बच्चे युवा दिखने लगे हैं
वे अज्ञात सफर के लिए बाँध रहे हैं सामान
प्रार्थना
एक शरणस्थली
संभव अपराध के पहले या फिर उसके बाद
राष्ट्रीयता
दीवार पर लगे बल्ब को देखता हूँ मैं
और सोचता हूँ एडीसन की राष्ट्रीयता के बारे में
लोकतंत्र
आखिर एक आदमी
जनता को कर ही लेता है अपने नियंत्रण में
बाँसुरी से
वक्त आये तो बीच में ही बाँसुरी बजाना छोड़कर
उस बाँसुरी से भगाना पड़ सकता है कुत्ते को
कमाई
मैं उस तरह पाना चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम
जैसे कभी प्यासे कौए ने कमाया था घड़े में रखा तलहटी का जल
आमंत्रण
अमावस की तारों भरी रात में निष्कंप पोखर
अधेड़ावस्था
दो बच्चे धूल में खेलते, गिरते-उठते
मैं उन्हें देखता हूँ, सिर्फ देखता हूँ
कविता
वह तुम्हें मरुस्थल या सुरंग के पार ले जाती है
और अकसर छोड़ देती है किसी अज़ायबघर में.
दुख
(चेखव के एक सौ बरस बाद)
आदमी, गाय, बैल, घोड़ा, चिड़िया, मेरे आसपास कोई नहीं
इस मोटरसाइकिल से कैसे कहूँ अपना दुख
विजेता
घर में घुसते ही गिरता हूँ बिस्तरे पर
यह एक दिन को जीत लेने की थकान है
जाहिर सूचना
प्रिय नागरिक! न्याय मुमकिन नहीं
मुआवजे के लिए आवेदन कर सकते हैं
जरावस्था
जब हमारी गवाही देने की ताकत कम होने लगती है
बचपन की आवाज
टीन की चादरों पर बारिश की कर्कश आवाज
वर्षों बाद यकायक सुनाई देती है संगीत की तरह
विकास
जो एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में भी एक सरीखा नहीं है
कवि का बीज
पाँवों, बालों, पूँछों, पक्षियों की बीट और पंखों के साथ
मैं महाद्वीपों को लाँघता हूँ
16. कुशलता की हद
यायावरी और आजीविका के रास्तों से गुज़रना ही होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
बल्कि अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ
जो कहते हैं: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं :
उन्हें इस राह पर धकेला गया था
जीवन रीतता चला जाता है और भरी बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलक जाता है कमीज़ और पैण्ट की सन्धि पर
छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिए लम्बा वक़्त गुज़र जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी है एक कुशलता
जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है ।
17. जब एक पोस्टर का जीवन
जिन चीजों के लिए हमें
एक मिनट का भी इंतजार नहीं करना चाहिए
उनके लिए हम एक साल, दस साल, बीस साल
न जाने कितने वर्षों तक इंतजार करते चले जाते हैं
जैसे प्रतीक्षा करना भी जीवन बिताने का कोई उपाय है
जब ऋतुओं के अंतराल में पतझर आता है
हम आदतन अगले मौसम का इंतजार करने लगते हैं
लेकिन देखते हैं हतप्रभ कि अरे, यह तो पलटकर
वापस आ गया है पतझर
सब कुछ नष्ट होते चले जाने के दृश्य
चारों तरफ चित्रावली की तरह दिखते हैं
मुड़कर देखने पर दूर तक कोई दिखाई नहीं देता
न किसी के साथ चलने की आवाज आती है
तो कुछ इच्छाएँ प्रकट होती हैं, कहती हैं हम अंतिम हैं
हमें एक पुराना नीला फूल खिलते हुए देखने दो
देर रात में उस लैम्पपोस्ट के नीचे से गुजरने दो
दोस्त के साथ बचपन के शहर में रात का चक्कर लगाओ
यह जानते हुए कि उस पौधे की प्रजाति खत्म हो चुकी है
लैम्पपोस्ट का कस्बा कब का डूब में आ गया
और दोस्त को गुजरे हुए बीत गया है एक जमाना
इच्छाओं से कहता हूँ: तुम अंतिम नहीं हो, असंभव हो
आगे चलते हुए वह एक अकेला बच्चा मिलता है
जो रास्ते में मरी एक चिड़िया को देखकर
इस तरह रोने बैठ जाता है
जैसे जिंदगी में पहली ही बार अनाथ हुआ हो
प्रतीक्षा भरी इस अनिश्चित दुनिया में
वह भोर के तारे को उगता हुआ देखता है
और उसे अस्त होते हुए भी
वह समझ लेता है कि यतीम होते चले जाने के
इस रास्ते से ही गुजरकर सबको निकलना है
सभ्यता की राह में फिर दिखती हैं वे दीवारें
जिन पर लगाये पोस्टर फाड़ दिए गए हैं
दरअसल, चलते-चलते हम आ गए हैं उस जगह
जहाँ एक पोस्टर तक का जीवन खतरे में है
और सबको अंदाजा हो जाता है
कि अब मनुष्यों का जीवन
और ज्यादा खतरे में पड़ चुका है।
18. जिसे ढहाया नहीं जा सका
जिसे तुमने सचमुच गोली मार ही दी थी
वह अब भी मुसकराता है तुम्हारे सामने दीवार पर
तुम्हारे छापेख़ाने उसी की तस्वीर छापते हैं
तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले
उसके समाचार पूछते हैं तब लगता है तुम्हें
कि दरअसल तुम मरे हुए हो और वह ज़िन्दा है
बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम ग़ाली देते हो मन में
लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो और फोटू खिंचाते हो
तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाए दिखता है
तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है
घोषणापत्र में तुम विवश दोहराते हो उसी की घोषणाएँ
अब तुमने ढहा दी है उसकी मूर्ति तो देखो
सब तरफ़ सारे सवाल उसी मूर्ति के बारे में हो रहे हैं
बार-बार दिखाई जा रही हैं उसी मूर्ति की तस्वीरें
उसी चौराहे पर इकट्ठा होने लगे हैं तमाम पर्यटक
जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह,
वह मूर्ति थी ।
19. तसवीरें
आधी शताब्दी पुराने इस चित्र में
दिख रहे हैं जो ये तीन लोग
ये ही थे अपनी प्रजाति के आख़िरी जन
1963 के बाद ये फिर नहीं दिखे
और यह उस तितली की तसवीर है
जो लायब्रेरी की रद्दी में मिली अचानक
लेकिन अब वह कहीं नहीं है इस संसार में
जो प्रजातियाँ इधर-उधर लुक-छिपकर
बिता रही है अपना गुरिल्ला जीवन
जारी है उनका भी सफ़ाया
विचारों का भी किया ही जा रहा है शिकार
अब तो किसी विचार की तसवीर देखकर
उसे पहचानना भी मुश्किल
कि किस विचार की है यह तसवीर आखिर !
20. दृश्य
सामूहिक रुदन, विलाप, भूख, हाय-हाय
बेबसी और छाती कूटने के कोलाज का विशाल दृश्य
शून्य काल के ब्लैक-होल में
अनायास ही हो जाता है विलीन
अब सब तरफ सब कुछ ठीक है की साँय-साँय है
मानो यह लोकप्रिय सिनेमा का कोई गद्गद् करुण दृश्य है
जनपद के विशाल सिनेमा हॉल में बैठे हैं हम विमूढ़
कभी सुबकते हुए कभी बजाते हुए तालियाँ
और फिर हँसते हुए यह सोच कर कि अरे यह तो है फिल्मी दृश्य !
आगे पटकथा यह है कि एक विचारवान की अहिंसा से भी
नष्ट होता जा रहा है जरूरी जीवन
लेकिन अगले अंक में तो हास-परिहास है
विद्वान उछल रहे है सुविधाओं के स्प्रिंग पर उत्तेजित
संज्ञाएँ, विशेषण, सर्वनाम और क्रियाएँ
जैसे किसी हँसोड़ के संवाद और अभिनय
अब इस दृश्य में
भाषा के वृक्ष से झर रहे हैं विचार के पत्ते
चैराहे पर बज रहा है पराक्रम का खाली कनस्तर
हर आदमी एक दूसरे आदमी की जेब में पड़ा हुआ एक रिमोट
एक छोटा-सा बटन है किसी मनुष्य की हत्या
ऐसे में किसी-कवि नागरिक की राय का
भला क्या अर्थ हो सकता है ?
अब यह दो विलाप दृश्यों के अंतराल का दृश्य नहीं है
न यह काव्यात्मक प्रस्तुति है
न संगीत भरी पुकार
न ही किसी अवश के स्यापे का री-टेक
यह समय के छोटे-से तार पर
दोनों तरफ लटके हुए केंचुए के जीवित शव को
घूरे पर फेंके जाने का दृश्य है
अब यही एक दृश्य है जो इस महादेश में
एक क्षण में एक हजार बार फिल्माया जा रहा है।
21. दिक्क़त की शुरुआत
सोचो तो आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है
वह मुश्किल से रोता-तड़पता जन्म लेता है
फिर रोज़-रोज़ बढ़ती ही जाती हैं उसकी मुश्किलें
उन्हीं सबके बीच वह हंसता-गाता है, लड़ता-झगड़ता है
और होता ही रहता है इस दुनिया से असहमत
कभी-कभी बीच में दखल देकर वह कह देता है
कि आदमी का जीवन ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए
नहीं तो आदमी ज़िन्दा रहते हुए भी मर जाता है
यह कहते ही वह घिर जाता है चारों तरफ़ से
घिरे हुए आदमी की फिर कभी कम नहीं होतीं मुसीबतें
आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आख़िर
वह मरता तो है ही एक दिन
लेकिन दिक्क़त यहाँ से शुरू होती है कि उसे हमेशा
उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर
कि आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है—
एक धायँ के अलावा ।
22. धरती का विलाप
दुख उठाने के लिए स्त्रियाँ ही बची रह जाती हैं
मानो उनका जीवनचक्र हैः सुख देना, दुख सहना
और नये दुखों की प्रतीक्षा करना
पार्श्व में संगीत गूँजता है विलाप की तरह
एकॉर्डियन और गिटार अपना काम करते हैं
बंदूकें अपना
विस्थापन की मुसीबत में नदी भी एक दिन
आदमियों, गलियों और पेड़ों को घेर लेती है
मगर बाढ़ में घिरी एक अकेली स्त्री
किसी दूसरी जमीन पर जाने से इनकार कर देती है
डूबते घर के सेहन में टूटी कुर्सी पर बैठकर
निष्कंप देखती है गूँगा हाहाकार और मृत्यु
जैसे वह जानती है कि नौकाएँ भी दुखों को
इस पार से महज उस पार ही लेकर जा सकती हैं
एक उम्रदराज़ घर प्रलय के बीच में खड़ा होकर
अपनी खिड़कियों से परदे हटाकर झाँकता है
लोगों की परछाइयाँ नदी की अतिशयोक्ति में झिलमिलाती हैं
वह देखता है घर से बाहर कदम रखते ही हर जगह
हर आदमी शरणार्थी हो जाता है
खेल के मैदान में सूखते रहते हैं कपड़े
ओस, नमी, आँसू और खून उन्हें पूरी तरह सूखने नहीं देते
रंगशालाएँ और सभागार बदल जाते हैं शरणस्थलियों में
ईर्ष्या, नफरत और क्रूरता अंतिम वक्त तक पीछा करती है
सारे पात्र अभिनय करने की कोशिश कर रहे हैं
केवल घटनाएँ हैं जो बिना अभिनय के घट रही हैं
अचानक पति का साथ छूटता है तो याद आता है बेटा बचा है
जब बेटा छूटता है तो याद आता है पति पहले ही छूट चुका है
नृशंसता के युग में हर आकांक्षा, हर जगह बरबाद हो जाती है
घरों के भीतर गृहस्थी का टूटा-फूटा सामान भी नहीं दिखता
रात में सैक्सोफोन की आवाज बारिश को स्तब्ध करती है
और औंधे मुँह गिरकर कीचड़ में सन जाती है
गिटार से वायलिन की जुगलबंदी हवा में है
लेकिन हवा में तैरती उमस
हर संगीत को विफल कर देती है
आदमी तकलीफें झेलता चला जाता है अपनी छाती पर
और बैठे-बैठे ही या धीरे से लुढ़कते हुए अकस्मात
सूचित करता हैः बस, बहुत हुआ
अब रंगमंच पर खाली कुर्सियों का सूनापन
उनकी आकांक्षा, उनका अवसाद आपके सामने है
वहीं आप संगीत की उदासी में थिरक सकते हैं
या लड़खड़ाकर गिर सकते हैं
हाथ में हाथ डालकर चलते रहने से भी
न अकेलापन खत्म हो पाता है, न निर्वासन, न भय
लैम्प की रोशनी का उजास गिरता है जीवित चेहरों पर
देख सकते हैं कि थकान और आतंक की स्याही अमर है
प्रिय चीजें अधूरे स्वेटर की तरह उधड़ती रहती हैं
सूखते सफेद चादरों पर बनते हैं उँगलियों के निशान
जैसे कोरे कैनवस पर हल्के हाथों से
लगाया जा रहा हो रक्तिम ब्रश
नेपथ्य में से रेलगाड़ी शोकाकुल सवारियाँ ढोकर लाती है
लाचारी का धुआँ पटकथा को काला कर देता है
नदी किनारे और भूरी जमीन पर बिखरी लाशें
करती हैं अपनों के रुदन का इंतजार
और अपनी उन कब्रों का जो उन्हें कभी नसीब नहीं होतीं
सुनसान पठारों पर भी गश्त जारी है जहाँ मरण का शोक
मिट्टी में मिलकर धूल-धूसरित हो गया है
दो प्रेमी, दो बच्चे, दो भाई चले जाते हैं अलग रास्तों पर
एक स्त्री की मृत्यु उन्हें कुछ देर के लिए इकट्ठा करती है
एक स्त्री अपने सन्निपात में
अपना दुख बताने की कोशिश में बार-बार होती है नाकाम
एक स्त्री उसे सांत्वना देते हुए अपने ही संताप में गिर पड़ती है
एक स्त्री का अनश्वर आर्तनाद उठता है
वही है अंत, वही है अनंत
वही बचा रहता है।
(थियो एंजेलोपोलस की फिल्म ‘द वीपिंग मीडो-2004’ के लिए आदरांजलि)
23. नमकहराम
जिस थाली में खाता है उसी को मारता है ठोकर
जिस घर में रहता है उसी में लगाता है सेन्ध
तुम याद करो,
तुमने उसकी थाली में वर्षों तक कितना कम खाना दिया
याद करो, तुमने उसे घर में उतनी जगह भी नहीं दी
जितनी तिलचट्टे, चूहे, छिपकलियाँ या कुत्ते घेर लेते हैं ।
24. मध्यवर्गीय विजयवर्गीय
उनका सपना यही था कि तनख़्वाह से चला लूँगा घर-बार
कभी सुन लूँगा संगीत, घूमूँगा-फिरूँगा, मिलूँगा-जुलूँगा सबसे
लेकिन नामाकूल पैकेज देकर चलवाए जा रहे हैं उनसे
तमाम बैंक, शो-रूम, मॉल, सुपर बाज़ार
जहाँ बजता ही रहता है वह लोकप्रिय संगीत
जो परिवार में भर देता है अटपटी रफ़्तार
एक गजब का ज्वार
इस तरह विजयवर्गीय हैं एक मध्यवर्गीय बेकरार
एक अधूरे नागरिक, एक अधूरे ख़रीददार
पूरा होने के लिए आज़ाद लेकिन चाकरी है चौदह घण्टे की
वे आज़ाद हैं मगर उन्हें ऑफ़िस में ही मिलती है रोटी और चाय
वे आज़ाद हैं लेकिन इन्द्रधनुष देखे गुज़र गए ग्यारह साल
उधर बढ़ते ही जाते हैं अजीबो-ग़रीब सामान बनानेवाले कारख़ाने
इधर खिड़की से ग़ायब हो जाते हैं खेत, नदियाँ, पेड़ और पहाड़
दिखने लगता है अट्टालिकाओं का कबाड़
उनके घर में भी जुटता चला जाता है सामान-दर-सामान
इतना कि वे समझ जाते हैं यदि एक शब्द भी बोले ख़िलाफ़
तो उनके पास खोने के लिए कितना कुछ है एक साथ ।
25. मृतकों की याद
क्षमा करें, यहाँ इस बैठक में मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा
मृतकों को याद करने के मेरे पास कुछ दूसरे तरीके हैं
यों भी साँवला पत्थर, बारिश, रेस्तराँ की टेबुल, आलिंगन,
संगीत का टुकड़ा, साँझ की गुफ़ा और एक मुस्कराहट
ये कुछ चीज़ें हैं जो मृतक को कभी विस्मृत होने नहीं देतीं
विज्ञापन, तस्वीरें, लेख और सभाएँ साक्षी हैं
कि हम मृतकों के साथ नए तरीकों से मज़ाक कर सकते हैं
या इस तरह याद करते हैं ख़ुद का बचे रहना
धीमी रोशनियों में ज्यादा साफ़ दिखाई देता है
ओस और कोहरा हमारे भीतर पैदा करते हैं नए रसायन, नई इच्छाएँ
जब धूप खिलती है तो मृतकों की परछाइयाँ साथ में चलती हैं
कोई उस तरह नहीं मरता है कि हमारे भीतर से भी वह मर जाए
जान ही जाते हैं कि समय किसी दुख को दूर नहीं करता
वह किसी मुहावरे की सांत्वना भर है
जबकि स्मृति अधिक ठोस पत्थर की तरह
शरीर में कहीं न कहीं पड़ी ही रहती है
जब शिराएँ कठोर होने लगती हैं
यकृत और हृदय वजनी हो जाता है
किडनी की तस्वीर में पाए जाते हैं पत्थर
और हम देखते हैं कि गुज़र गए लोगों की स्मृतियाँ अन्तरंग हैं
धीरे-धीरे फिर हर चीज़ पर धूल जमने लगती है
कुम्हला जाते हैं प्लास्टिक के फूल भी
शब्द चले जाते हैं विस्मृति में
और सार्वजनिक जीवन में आपाधापी, दार्शनिकता,
चमक और हँसी भर जाती है
तब स्मृति एकान्त की माँग करती है जैसे कोई अन्तरंग प्रेम ।
26. मृत्युलोक और कुछ पंक्तियॉं
इसी संसार की भीड़ में दिखा वह एक चेहरा, जिसे भूला नहीं जा सकता।
तमाम मुखौटों के बीच सचमुच का चेहरा।
या हो सकता है कि वह इतने चेहरों के बीच एक शानदार मुखौटा रहा हो।
उस चेहरे पर विषाद नहीं था जबकि वह इसी दुनिया में रह रहा था।
वहाँ प्रसन्नता जैसा कुछ भाव था लेकिन वह दुख का ठीक विलोम नहीं था।
लगता था कि वह ऐसा चेहरा है जो प्रस्तुत दुनिया के लिए उतना उपयुक्त नहीं है।
लेकिन उसे इस चेहरे के साथ ही जीवन जीना होगा। वह इसके लिए विवश था।
उसके चेहरे पर कोई विवशता नहीं थी, वह देखने वाले के चेहरे पर आ जाती थी।
वह बहुत से चेहरों से मिल कर बना था।
उसे देख कर एक साथ अनेक चेहरे याद आते थे।
वह भूले हुए लोगों की याद दिलाता था।
वह अतीत से मिलकर बना था, वर्तमान में स्पंदित था
और तत्क्षण भविष्य की स्मृति का हिस्सा हो गया था।
वह हर काल का समकालीन था।
वह मुझे अब कभी नहीं दिखेगा। कहीं नहीं दिखेगा।
उसके न दिखने की व्यग्रता और फिर उत्सुकता यह संभव करेगी
कि वह मेरे लिए हमेशा उपस्थित रहे।
उसका गुम हो जाना याद रहेगा।
यदि वह कभी असंभव से संयोग से दिखेगा भी तो उसका इतना जल बह चुका होगा
और उसमें इतनी चीजें मिल चुकी होंगी कि वह चेहरा कभी नहीं दिखेगा।
हर चीज का निर्जलीकरण होता रहता है, नदियों का, पृथ्वी का और चंद्रमा का भी।
फिर वह तो एक कत्थई-भूरा चेहरा ही ठहरा।
उसे देख कर कुछ अजीवित चीजें और भूदृश्य याद आये। एक ही क्षण में:
लैम्पपोस्टों वाली रात के दूसरे पहर की सड़क।
कमलगट्टों से भरा तालाब।
एक चारखाने की फ्रॉक।
ब्लैक एंड व्हाईट तसवीरों का एलबम।
बचपन का मियादी बुखार।
स्टूल पर काँच की प्लेट और उसमें एक सेब।
एक छोटा सा चाकू।
छोटी सी खिड़की।
और फूलदान।
उस स्वप्न की तरह जिसे कभी नहीं पाया गया।
जिसे देखा गया लेकिन जिसमें रहकर कोई जीवन संभव नहीं।
कुछ सपनों का केवल स्वप्न ही संभव है।
वह किसी को भी एक साथ अव्यावहारिक, अराजक,
व्यथित और शांत बना सकता था।
वह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष है लेकिन मेरे लिए हमेशा के लिए ओझल।
कई चीजें सिर्फ स्मृति में ही रहती हैं।
जैसे वही उनका मृत्युलोक है।
27. यदि तुम नहीं माँगोगे न्याय
यह विषयों का अकाल नहीं है
यह उन बुनियादी चीज़ों के बारे में है जिन्हें
थककर या खीझकर रद्दी की टोकरी में नहीं डाला जा सकता
जैसे कि न्याय —
जो बार-बार माँगने से ही मिल पाता है थोड़ा-बहुत
और न माँगने से कुछ नहीं, सिर्फ अन्याय मिलता है
मुश्किल यह भी है कि यदि तुम नहीं माँगोगे
तो वह समर्थ आदमी अपने लिए माँगेगा न्याय
और तब सब मजलूमों पर होगा ही अन्याय
कि जब कोई शक्तिशाली या अमीर या सत्ताधारी
लगाता है न्याय की गुहार तो दरअसल वह
एक वृहत्, ग्लोबल और विराट अन्याय के लिए ही
याचिका लगा रहा होता है ।
28. यह ज़्यादा बहुत ज़्यादा है
कुछ लोगों के पास हर चीज़ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है
वे लोग ही जगह-जगह दिखते हैं बार-बार
उनमें बार-बार दिखने की सामर्थ्य ज़्यादा है
वे लोग दिन-रात बने रहते हैं अख़बारों में,
टेलिविजन में, हमारी बातचीत में, सरकारी चिन्ताओं में
अनेक रहने लगे हैं पाठ्य-पुस्तकों में और विद्यार्थियों की इच्छाओं में
घर से बाहर निकलने पर भी वे दिखते हैं
चौराहों पर, अस्पतालों में, रेस्तराँ में,
और सुलभ कॉम्पलेक्स के पोस्टरों में भी
सार्वजनिक जगहें अब उनकी हैं
पार्क में उनके क्लब की मीटिंग चलती है
सड़कों पर गड़ जाते हैं उनके तम्बू
बचे हुए पेड़ों की छाया उनकी है
सूखती नदियों का पानी उनका
बच्चों के खिलौनों पर उन्हीं की तसवीरें
सस्ती से सस्ती टी-शर्ट पर भी लिखा है उनका नाम
हर विज्ञापन में उनके परफ़्यूम की ख़ुशबू
ये वे ही हैं जिनके पास सब कुछ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है
कपड़े ज़्यादा हैं, गहने और क्रॉकरी ज़्यादा,
घड़ियों-चश्मों की भरमार, जूतों की अलग अलमारियाँ,
अण्डरवियर्स और एअर कण्डीशनर्स ज़्यादा हैं
बँगले-मकान, ज़मीनें, कार-मोटर, फ़र्नीचर ज़्यादा,
शेयर्स, कम्पनियाँ, शो-रूम्स, बैंक बैलेंस ज़्यादा,
नगदी ज़्यादा, एलेडी, कम्प्यूटर, मोबाइल ज़्यादा,
मुश्किल यह नहीं कि बहुत ज़्यादा लगनेवाला यह विवरण ज़्यादा है
मुश्किल यह है कि उनका यह बहुत ज़्यादा, कानून के मुताबिक है
मुश्किल यह है कि यह नियमों के अनुसार है और बहुत ज़्यादा है ।
29. यह राख है
इसका रंग राख का रंग है
इसका वजन राख का वजन है
जब सारी गंध उड़ जाती हैं
तो राख की गंध बची रहती है
इसे मुट्ठीग में भरो
यह एक देह है
इसे छोड़ो, यह धीरे-धीरे झरेगी
और हथेली में, लकीरों में बची रहेगी
हर क्रूरता, अपमान, प्रेम और संपूर्णता के बाद
यही राख है
जो उड़कर आँखों में भरती है
इसे नदी में फेंक दो या खेतों में
इसे पहाड़ों पर फेंक दो या समुद्र में
यह हमेशा बनी रहती है
खून में, हड्डि यों में, नींद में
30. रास्ते की मुश्किल
आप मेज को मेज तरह और घास को घास की तरह देखते हैं
इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह
तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि
कुछ पुलिस अधीक्षक होकर, कुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर
और कुछ तो मुख्यमंत्री होकर, कुछ घर-गृहस्थी से निबट कर
बच्चों के शादी-ब्याह से फारिग होकर होना चाहते हैं कवि
कि जीवन में कवि न होना चुन कर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि
कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं
लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते
जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तहसीलदार भी नहीं हुए
जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए
और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफसोस जताया
कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया
और कुछ कवियों ने तो इतनी जोर से लात मारी कि कुर्सियाँ कोसों दूर जाकर गिरीं
यह सब पढ़-लिख कर, और जान कर भी, हिन्दीं में एम ए करके, विभागाध्यक्ष हो कर
या फिर पत्रकार से संपादक बन कर कुछ लोग तय करते हैं
कि चलो, अब कवि हुआ जाए
और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्यालति
कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें
फिर भी अपने एकांत में वे जानते हैं और बाकी सब तो समझते ही हैं
कि जिन्हें होना होता है कवि, चित्रकार, सितारवादक या कलाकार
उन्होंने गलती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार
या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाजार
तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है
यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं
उस रास्ते की मंजिल तक पहुँच कैसे सकते हैं।
31. वहाँ एक फूल खिला हुआ है
वहाँ एक फूल खिला हुआ है अकेला
कोई उसे छू भी नहीं रहा है
किसी सुबह शाम में वह झर जाएगा
लेकिन देखो, वह खिला हुआ है
शताब्दियों से बारिश, मिट्टी और यातनाओं को
जज्ब करते हुए
एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है
आसपास की हर चीज इशारा करती है
तालाब के किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू
दुर्दिनों के किनारे शब्द
मुझे प्यास लग आई है और यह सपना नहीं है
जैसे पेड़ की यह छाँह मंजिल नहीं
यह समाज जो आखिर एक दिन आजाद होगा
उसकी संभावना मरते हुए आदमी की आँखों में है
असफलता मृत्यु नहीं है
यह जीवन है, धोखेबाज पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं
‘मैं रोज परास्त होता हूँ’ –
इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं
यों भी एक-दो अर्थ देकर
टिप्पणीकार काफी कुछ नुकसान पहुँचा चुके हैं
गणनाएँ असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं
सतह पर जो चमकता है वह परावर्तन है
उसके नीचे कितना कुछ है अपार
शांत, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ।
32. विस्मृति
(पिता के लिए)
एक दिन गड्डमड्ड होने लगती हैं चीज़ें, क्रियाएँ,
नाम, चेहरे और सुपरिचितताएँ
फिर तुम स्मृति का पीछा करते हो
जैसे बचपन की उस नदी का जो अब निचुड़ गई है
और हाँफते हुए समझने की कोशिश करते हो
कि विस्मृति ही अन्तिम अभिशाप है या कोई वरदान
कुछ याद करना चाहते हो तो एक परछाईं-सी दिखती है
जो विलीन हो जाती है किसी दूसरी परछाईं में
इस अनुभव के आगे सारे दुख फीके हैं और बीत चुके हैं
दूर कहीं तुम उनकी तरफ़ देखकर मुस्करा सकते हो
लेकिन उनके मुखड़े याद नहीं आते
यही असहायता है, इतनी ही शेष रह गई है ताक़त
ईर्ष्याएँ याद नहीं आ रहीं, क्रोध के सूर्य अस्ताचल हुए
प्रेम के चन्द्रमा डूब गए, वासनाएँ जारी हैं
जाने कैसे बची रह गई है स्पर्श की आदिम स्मृति
किसी को न पहचानने से अब कोई अपमानित नहीं होता
अगर पहचान लो तो वह अप्रतिम ख़ुशी से भर जाता है
कोरी हो चली स्लेट पर लिखी जा रही हैं नई इबारतें
और सबक हैं कि याद नहीं रह पाते ।
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