Naushad Ali Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Naushad Ali ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. नौशाद अली का जन्म 25 दिसम्बर 1919 को लखनऊ में हुआ था. इनको नौशाद लखनवी के नाम से भी जाना जाता हैं. यह हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार थे. मात्र 17 वर्ष की आयु में ही यह अपनी किस्मत आजमाने मुंबई आ गए थे. इनकी रचना आठवा सुर के नाम से प्रकाशित हुई. इनकी वह प्रमुख फिल्मे जिनमे इन्होने गीत संगीत दिए हैं – मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, अंदाज, बैजू बावरा, अमर, उड़न खटोला, दीवाना, दिल्लगी, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, दर्द, दास्तान, शबाब, दुलारी, शाहजहां, लीडर, बाबुल, मुग़ल-ए-आज़म, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज आदि शामिल हैं. 5 मई 2006 में इनका निधन हो गया.
ग़ज़लें नौशाद अली/नौशाद लखनवी हिंदी कविता (Ghazals in Hindi Naushad Ali)
अपनी तदबीर न तक़दीर पे रोना आया
अपनी तदबीर न तक़दीर पे रोना आया
देख कर चुप तिरी तस्वीर पे रोना आया
क्या हसीं ख़्वाब मोहब्बत ने दिखाए थे हमें
जब खुली आँख तो ता’बीर पे रोना आया
अश्क भर आए जो दुनिया ने सितम दिल पे किए
अपनी लुटती हुई जागीर पे रोना आया
ख़ून-ए-दिल से जो लिखा था वो मिटा अश्कों से
अपने ही नामे की तहरीर पे रोना आया
जब तलक क़ैद थे तक़दीर पे हम रोते थे
आज टूटी हुई ज़ंजीर पे रोना आया
राह-ए-हस्ती पे चला मौत की मंज़िल पे मिला
हम को इस राह के रहगीर पे रोना आया
जो निशाने पे लगा और न पलट कर आया
हम को ‘नौशाद’ उसी तीर पे रोना आया
अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अभी ज़िंदगी के बहाने बहुत हैं
ये दुनिया हक़ीक़त की क़ाइल नहीं है
फ़साने सुनाओ फ़साने बहुत हैं
तिरे दर के बाहर भी दुनिया पड़ी है
कहीं जा रहेंगे ठिकाने बहुत हैं
मिरा इक नशेमन जला भी तो क्या है
चमन में अभी आशियाने बहुत हैं
नए गीत पैदा हुए हैं उन्हीं से
जो पुर-सोज़ नग़्मे पुराने बहुत हैं
दर-ए-ग़ैर पर भीक माँगो न फ़न की
जब अपने ही घर में ख़ज़ाने बहुत हैं
हैं दिन बद-मज़ाक़ी के ‘नौशाद’ लेकिन
अभी तेरे फ़न के दिवाने बहुत हैं
आग इक और लगा देंगे हमारे आँसू
आग इक और लगा देंगे हमारे आँसू
निकले आँखों से अगर दिल के सहारे आँसू
हासिल-ए-ख़ून-ए-जिगर दिल के हैं पारे आँसू
बे-बहा लाल-ओ-गुहर हैं ये हमारे आँसू
है कोई अब जो लगी दिल की बुझाए मेरी
हिज्र में रोके गँवा बैठा हूँ सारे आँसू
उस मसीहा की जो फ़ुर्क़त में हूँ रोया शब-भर
बन गए चर्ख़-ए-चहारुम के सितारे आँसू
ख़ून-ए-दिल ख़ून-ए-जिगर बह गया पानी हो कर
कुछ न काम आए मोहब्बत में हमारे आँसू
मुझ को सोने न दिया अश्क-फ़िशानी ने मिरी
रात भर गिनते रहे चर्ख़ के तारे आँसू
वो सँवर कर कभी आए जो तसव्वुर में मिरे
चश्म-ए-मुश्ताक़ ने सदक़े में उतारे आँसू
पास रुस्वाई ने छोड़ा न सुकूँ का दामन
गिरते गिरते रुके आँखों के किनारे आँसू
लुत्फ़ अब आया मिरी अश्क-फ़िशानी का हुज़ूर
प्यारी आँखों से किसी के बहे प्यारे आँसू
मेरी क़िस्मत में है रोना मुझे रो लेने दो
तुम न इस तरह बहाओ मिरे प्यारे आँसू
माह-ओ-अंजुम पे न फिर अपने कभी नाज़ करे
देख ले चर्ख़ किसी दिन जो हमारे आँसू
यूँ ही तूफ़ाँ जो उठाते रहे कुछ दिन ‘नौशाद’
आग दुनिया में लगा देंगे हमारे आँसू
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मिरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सैराब हो के शाद न हों रह-रवान-ए-शौक़
रस्ते में तिश्नगी का समुंदर भी आएगा
दैर ओ हरम में ख़ाक उड़ाते चले चलो
तुम जिस की जुस्तुजू में हो वो दर भी आएगा
बैठा हूँ कब से कूचा-ए-क़ातिल में सर-निगूँ
क़ातिल के हाथ में कभी ख़ंजर भी आएगा
सरशार हो के जा चुके यारान-ए-मय-कदा
साक़ी हमारे नाम का साग़र भी आएगा
इस वास्ते उठाते हैं काँटों के नाज़ हम
इक दिन तो अपने हाथ गुल-ए-तर भी आएगा
इतनी भी याद ख़ूब नहीं अहद-ए-इश्क़ की
नज़रों में तर्क-ए-इश्क़ का मंज़र भी आएगा
रूदाद-ए-इश्क़ इस लिए अब तक न की बयाँ
दिल में जो दर्द है वो ज़बाँ पर भी आएगा
जिस दिन की मुद्दतों से है ‘नौशाद’ जुस्तुजू
क्या जाने दिन हमें वो मयस्सर भी आएगा
इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
जब मिल गए हैं आप तो कुछ बात कीजिए
पहले-पहल हुआ है मिरी ज़िंदगी में दिन
ज़ुल्फ़ों में मुँह छुपा के न फिर रात कीजिए
नज़रों से गुफ़्तुगू की हदें ख़त्म हो चुकीं
जो दिल में है ज़बाँ से वही बात कीजिए
कल इंतिक़ाम ले न मिरा प्यार आप से
इतना सितम न आज मिरे साथ कीजिए
बस एक ख़ामुशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िंदगी से सवालात कीजिए
नज़रें मिला मिला के नज़र फेर फेर के
मजरूह और दिल के न हालात कीजिए
दिल के सिवा किसी को नहीं जिन की कुछ ख़बर
दुनिया से किया बयाँ वो हिकायात कीजिए
उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में
उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में
हम थे कि उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म देखते रहे
जब घर जला था मेरा वो मंज़र अजीब था
देखा नहीं जो तुम ने वो हम देखते रहे
वो साहिब-ए-क़लम न वो अब साहिबान-ए-सैफ़
क्या हो गए हैं सैफ़ ओ क़लम देखते रहे
हम तिश्ना-काम जाम-ए-तही ले के हाथ में
साक़ी का मय-कदे में भरम देखते रहे
पहुँचे सनम-कदे में तो हैरत न कम हुई
कितने बदल गए हैं सनम देखते रहे
बस देखते ही देखते ‘नौशाद’ क्या कहें
सूरज ग़ुरूब हो गया हम देखते रहे
क्यूँ मिली थी हयात याद करो
क्यूँ मिली थी हयात याद करो
याद रखने की बात याद करो
कौन छूटा कहाँ कहाँ छूटा
राह के हादसात याद करो
अभी कल तक वफ़ा की राहों में
तुम भी थे मेरे साथ याद करो
मुझ से क्या पूछते हो हाल मिरा
ख़ुद कोई वारदात याद करो
जिस दम आँखें मिली थी आँखों से
थी कहाँ काएनात याद करो
भूल आए जबीं को रख के कहाँ
कहाँ पहुँचे थे रात याद करो
दिल को आईना-गर बनाना है
आईने के सिफ़ात याद करो
निकलेगा चाँद उन्हीं अंधेरों से
उन से मिलने की रात याद करो
छोड़ो जाने दो जो हुआ सो हुआ
आज क्यूँ कल की बात याद करो
करना है शाइरी अगर ‘नौशाद’
‘मीर’ का कुल्लियात याद करो
ख़ुद मिट के मोहब्बत की तस्वीर बनाई है
ख़ुद मिट के मोहब्बत की तस्वीर बनाई है
इक शम्अ जलाई है इक शम्अ बुझाई है
आग़ाज़-ए-शब-ए-ग़म है क्यूँ सोने लगे तारे
शायद मिरी आँखों से कुछ नींद चुराई है
मैं ख़ुद भी तपिश जिस की सहते हुए डरता हूँ
अक्सर मिरे नग़मों ने वो आग लगाई है
जब याद तुम आते हो महसूस ये होता है
शीशे में परी जैसे कोई उतर आई है
हर-चंद समझता था झूटे हैं तिरे वादे
लेकिन तिरे वादों ने क्या राह दिखाई है
जो कुछ भी समझ ले अब मर्ज़ी है ज़माने की
शीशे की कहानी है पत्थर ने सुनाई है
माना कि मोहब्बत ही बुनियाद है हस्ती की
‘नौशाद’ मगर तुझ को ये रास कब आई है
ख़ैर माँगी जो आशियाने की
ख़ैर माँगी जो आशियाने की
आँधियाँ हँस पड़ीं ज़माने की
मेरे ग़म को समझ सका न कोई
मुझ को आदत है मुस्कुराने की
दिल सा घर ढा दिया तो किस मुँह से
बात करते हो घर बसाने की
हुस्न की बात इश्क़ के क़िस्से
बात करते हो किस ज़माने की
दिल ही क़ाबू में अब नहीं मेरा
ये क़यामत तिरी अदा ने की
कुछ तो तूफ़ाँ की ज़द में हम आए
कुछ नवाज़िश भी ना-ख़ुदा ने की
मुझ को तुम याद और भी आए
कोशिशें जितनी की भुलाने की
वो ही ‘नौशाद’ फ़न का शैदाई
बात करते हो किस दिवाने की
जहाँ तक याद-ए-यार आती रहेगी
जहाँ तक याद-ए-यार आती रहेगी
फ़साने ग़म के दोहराती रहेगी
लहू दिल का न होगा ख़त्म जब तक
मोहब्बत ज़िंदगी पाती रहेगी
भुलाएगा ज़माना मुझ को जितना
मिरी हर बात याद आती रहेगी
बजाता चल दिवाने साज़ दिल का
तमन्ना हर क़दम गाती रहेगी
सँवारेगा तू जितना ज़ुल्फ़-ए-हस्ती
ये नागिन इतना बल खाती रहेगी
जहाँ में मौत से भागोगे जितना
ये उतना बाँहें फैलाती रहेगी
तमन्नाएँ मिरी पूरी न करना
मिरी दीवानगी जाती रहेगी
ये दुनिया जब तलक क़ाएम है ‘नौशाद’
हमारे गीत दोहराती रहेगी
ज़ंजीर-ए-जुनूँ कुछ और खनक हम रक़्स-ए-तमन्ना देखेंगे
ज़ंजीर-ए-जुनूँ कुछ और खनक हम रक़्स-ए-तमन्ना देखेंगे
दुनिया का तमाशा देख चुके अब अपना तमाशा देखेंगे
इक उम्र हुई ये सोच के हम जाते ही नहीं गुलशन की तरफ़
तुम और भी याद आओगे हमें जब गुल कोई खिलता देखेंगे
क्या फ़ाएदा ऐसे मंज़र से क्यूँ ख़ुद ही न कर लें बंद आँखें
इतनी ही बढ़ेगी तिश्ना-लबी हम आप को जितना देखेंगे
तुम क्या समझो तुम क्या जानो फ़ुर्क़त में तुम्हारी दीवाने
क्या जानिए क्या क्या देख चुके क्या जानिए क्या क्या देखेंगे
होने दो अंधेरा आज की शब गुल कर दो चराग़ों के चेहरे
हम आज ख़ुद अपनी महफ़िल में दिल अपना ही जलता देखेंगे
‘नौशाद’ हम उन की महफ़िल से इस वास्ते उठ कर आए हैं
परवानों का जलना देख चुके अब अपना तड़पना देखेंगे
ठोकरें खाइए पत्थर भी उठाते चलिए
ठोकरें खाइए पत्थर भी उठाते चलिए
आने वालों के लिए राह बनाते चलिए
अपना जो फ़र्ज़ है वो फ़र्ज़ निभाते चलिए
ग़म हो जिस का भी उसे अपना बनाते चलिए
कल तो आएगा मगर आज न आएगा कभी
ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में जो हैं उन को जगाते चलिए
अज़्म है दिल में तो मंज़िल भी कोई दूर नहीं
सामने आए जो दीवार गिराते चलिए
नफ़रतें फ़ासले कुछ और बढ़ा देती हैं
गीत कुछ प्यार के इन राहों में गाते चलिए
राह-ए-दुश्वार है बे-साया शजर हैं सारे
धूप है सर पे क़दम तेज़ बढ़ाते चलिए
काम ये अहल-ए-जहाँ का है सुनें या न सुनें
अपना पैग़ाम ज़माने को सुनाते चलिए
दिल में सोए हुए नग़्मों को जगाना है अगर
मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाते चलिए
रास्ते जितने हैं सब जाते हैं मंज़िल की तरफ़
शर्त-ए-मंज़िल है मगर झूमते गाते चलिए
कुछ मिले या न मिले अपनी वफ़ाओं का सिला
दामन-ए-रस्म-ए-वफ़ा अपना बढ़ाते चलिए
यूँ ही शायद दिल-ए-वीराँ में बहार आ जाए
ज़ख़्म जितने मिलें सीने पे सजाते चलिए
जब तलक हाथ न आ जाए किसी का दामन
धज्जियाँ अपने गिरेबाँ की उड़ाते चलिए
शौक़ से लिखिए फ़साना मगर इक शर्त के साथ
इस फ़साने से मिरा नाम मिटाते चलिए
आज के दौर में ‘नौशाद’ यही बेहतर है
इस बुरे दौर से दामन को बचाते चलिए
दुनिया कहीं जो बनती है मिटती ज़रूर है
दुनिया कहीं जो बनती है मिटती ज़रूर है
पर्दे के पीछे कोई न कोई ज़रूर है
जाते हैं लोग जा के फिर आते नहीं कभी
दीवार के उधर कोई बस्ती ज़रूर है
मुमकिन नहीं कि दर्द-ए-मोहब्बत अयाँ न हो
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है
ये जानते हुए कि पिघलना है रात भर
ये शम्अ का जिगर है कि जलती ज़रूर है
नागिन ही जानिए उसे दुनिया है जिस का नाम
लाख आस्तीं में पालिए डसती ज़रूर है
जाँ दे के भी ख़रीदो तो दुनिया न आए हाथ
ये मुश्त-ए-ख़ाक कहने को सस्ती ज़रूर है
दीदा-ए-अश्क-बार ले के चले
दीदा-ए-अश्क-बार ले के चले
हम तिरी यादगार ले के चले
दिल में तस्वीर-ए-यार ले के चले
हम क़फ़स में बहार ले के चले
ख़्वाहिश-ए-दीद ले के आए थे
हसरत-ए-इंतिज़ार ले के चले
सामने उस के एक भी न चली
दिल में बातें हज़ार ले के चले
हवस-ए-गुल में हम भी आए थे
दामन-ए-तार-तार ले के चले
जो मिरे साथ डूबना चाहे
मुझ को दरिया के पार ले के चले
तुम से अपना ही बार उठ न सका
हम ज़माने का बार ले के चले
हम न ईसा न सरमद ओ मंसूर
लोग क्यूँ सू-ए-दार ले के चले
भर के दामन में ख़ाक उस दर की
हम तो कू-ए-निगार ले के चले
ज़िंदगी मुख़्तसर मिली थी हमें
हसरतें बे-शुमार ले के चले
रूप नग़मों का दे के हम ‘नौशाद’
अपने दिल की पुकार ले के चले
न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
हमीं से ये तमाशा है न हम होते तो क्या होता
न ऐसी मंज़िलें होतीं न ऐसा रास्ता होता
सँभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेर-ए-पा होता
घटा छाती बहार आती तुम्हारा तज़्किरा होता
फिर उस के बाद गुल खिलते के ज़ख़्म-ए-दिल हरा होता
ज़माने को तो बस मश्क़-ए-सितम से लुत्फ़ लेना है
निशाने पर न हम होते तो कोई दूसरा होता
तिरे शान-ए-करम की लाज रख ली ग़म के मारों ने
न होता ग़म तो इस दुनिया में हर बंदा ख़ुदा होता
मुसीबत बन गए हैं अब तो ये साँसों के दो तिनके
जला था जब तो पूरा आशियाना जल गया होता
हमें तो डूबना ही था ये हसरत रह गई दिल में
किनारे आप होते और सफ़ीना डूबता होता
अरे-ओ जीते-जी दर्द-ए-जुदाई देने वाले सुन
तुझे हम सब्र कर लेते अगर मर के जुदा होता
बुला कर तुम ने महफ़िल में हमें ग़ैरों से उठवाया
हमीं ख़ुद उठ गए होते इशारा कर दिया होता
तिरे अहबाब तुझ से मिल के फिर मायूस लौट आए
तुझे ‘नौशाद’ कैसी चुप लगी कुछ तो कहा होता
पहले तो डर लगा मुझे ख़ुद अपनी चाप से
पहले तो डर लगा मुझे ख़ुद अपनी चाप से
फिर रो दिया मैं मिल के गले अपने आप से
देखा है हाँ उसे है वो कुछ मिलता जुलता सा
मुतरिब की मीठी मीठी सुरीली अलाप से
थी बात ही कुछ ऐसी कि दीवाना हो गया
दीवाना वर्ना बनता है कौन अपने आप से
रहना है जब हरीफ़ ही बन कर तमाम उम्र
क्या फ़ाएदा है यार फिर ऐसे मिलाप से
आया इधर ख़याल उधर मह्व हो गया
कहने को था न जाने अभी क्या मैं अपने आप से
हम और लगाएँ अपने पड़ोसी के घर में आग
भगवान ही बचाए हमें ऐसे पाप से
‘नौशाद’ रात कैसी थी वो महफ़िल-ए-तरब
लगती थी दिल पे चोट सी तबले की थाप से
बहुत ही दिल-नशीं आवाज़-ए-पा थी
बहुत ही दिल-नशीं आवाज़-ए-पा थी
न जाने तुम थे या बाद-ए-सबा थी
बजा करती थीं क्या शहनाइयाँ सी
ख़मोशी भी हमारी जब नवा थी
वो दुश्मन ही सही यारो हमारा
पर उस की जो अदा थी क्या अदा थी
सभी अक्स अपना अपना देखते थे
हमारी ज़िंदगी वो आईना थी
चला जाता था हँसता खेलता मैं
निगाह-ए-यार मेरी रहनुमा थी
चलो टूटी तो ज़ंजीर-ए-मोहब्बत
मुसीबत थी क़यामत थी बला थी
न हम बदले न तुम बदले हो लेकिन
नहीं जो दरमियाँ वो चीज़ क्या थी
मोहब्बत पर उदासी छा रही है
है क्या अंजाम और क्या इब्तिदा थी
शगूफ़े फूटते थे दिल से ‘नौशाद’
ये वादी पहले कितनी पुर-फ़ज़ा थी
मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के
मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के
आँखों पे होंट रख दिए जाम-ए-शराब जान के
हश्र में ऐ ख़ुदा न ले मुझ से हिसाब-ए-ख़ैर-ओ-शर
मैं ने तो सब भुला दिया रात का ख़्वाब जान के
वक़्त ने अज़-रह-ए-करम बख़्शा था मुझ को ताज-ए-ज़र
मैं ने ही ख़ुद झटक दिया सर का अज़ाब जान के
मुंसिफ़-ए-वक़्त आख़िरश तुझ को भी चुप सी लग गई
मेरा सवाल पूछ के उन का जवाब जान के
आप को गर न याद हो अपनी जफ़ाओं का शुमार
देखिए मुझ को ग़ौर से फ़र्द-ए-हिसाब जान के
अपनी ज़बाँ से किस तरह क़िस्सा-ए-ग़म बयाँ करूँ
पढ़िए मिरी निगाह को दिल की किताब जान के
ये तो न कहिए वक़्त-ए-दीद सब थी ख़ता नसीम की
आप ने रू-ए-नाज़ पे डाली नक़ाब जान के
ये बातें आज की कल जिस किताब में लिखना
ये बातें आज की कल जिस किताब में लिखना
तुम अपने जुर्म को मेरे हिसाब में लिखना
हदीस-ए-दिल को क़लम से न आश्ना करना
कहानियाँ ही हमेशा जवाब में लिखना
मुझे समझने की कोशिश है शग़्ल-ए-ला-हासिल
जो चाहना वही तुम मेरे बाब में लिखना
वो कहते हैं लिखो नामा मगर लिहाज़ रहे
हमारा नाम न हरगिज़ ख़िताब में लिखना
मिटा मिटा जो रहा ज़ुल्मतों के पर्दे में
वो हर्फ़-ए-हक़ वरक़-ए-आफ़्ताब में लिखना
हमेशा जिस की हवस को थी आरज़ू-ए-बहिश्त
उसी की रूह रही थी अज़ाब में लिखना
जो बात लिखने को था मुज़्तरिब बहुत ‘नौशाद’
वही मैं भूल गया इज़्तिराब में लिखना
सब कुछ सर-ए-बाज़ार जहाँ छोड़ गया है
सब कुछ सर-ए-बाज़ार जहाँ छोड़ गया है
ये कौन खुली अपनी दुकाँ छोड़ गया है
जाते ही किसी के न वो नग़्मा न उजाला
ख़ामोश चराग़ों का धुआँ छोड़ गया है
वहशी तो गया ले के वो ज़ंजीर-ओ-गरेबाँ
इक नौहा-कुनाँ ख़ाली मकाँ छोड़ गया है
सौ क़ाफ़िले इस राह से आए भी गए भी
अब तक मैं वहीं हूँ वो जहाँ छोड़ गया है
भेजा है ये किस ने वरक़-ए-सादा मिरे नाम
क्या क्या गिले बे-लफ़्ज़-ओ-बयाँ छोड़ गया है
ता-दूर जहाँ अब से सर-ए-राह चराग़ाँ
वो नक़्श-ए-क़दम अपने वहाँ छोड़ गया है
उठ कर तिरी महफ़िल से गया है जो मुग़न्नी
नग़्मात के पर्दे में फ़ुग़ाँ छोड़ गया है
बे-सम्त सा इक आज कि माज़ी है न फ़र्दा
ये वक़्त का सैलाब कहाँ छोड़ गया है
पहलू में कहाँ दिल जो सँभाले कोई ‘नौशाद’
इक दाग़ की सूरत में निशाँ छोड़ गया है
हम दोस्तों के लुत्फ़-ओ-करम देखते रहे
हम दोस्तों के लुत्फ़-ओ-करम देखते रहे
होते रहे जो दिल पे सितम देखते रहे
ख़ामोश क़हक़हों में भी ग़म देखते रहे
दुनिया न देख पाई जो हम देखते रहे
अल्लाह-रे जोश-ए-इश्क़ कि उठती जिधर नज़र
तुम को ही बस ख़ुदा की क़सम देखते रहे
नागाह पड़ गई जो कहीं उन पे इक नज़र
ता-देर अपने आप को हम देखते रहे
हम ने तो बढ़ के चूम लिया आस्तान-ए-यार
हसरत से हम को दैर ओ हरम देखते रहे
जो साथ मेरे चल न सके राह-ए-शौक़ में
वो सिर्फ़ मेरे नक़्श-ए-क़दम देखते रहे
बरसों के बाद उन से मिले भी तो इस तरह
पहरों वो हम को और उन्हें हम देखते रहे
हर शाम एक ख़्वाब-ए-सहर में गुज़ार दी
हर सुब्ह एक शाम-ए-अलम देखते रहे
चलते ही दौर-ए-जाम जो अहल-ए-निगाह थे
किस किस की आस्तीन थी नम देखते रहे
सब कुछ वही था फिर भी गुलिस्ताँ में आज हम
क्या शय थी हो गई है जो कम देखते रहे
बस्ती में लोग ऐसे भी हैं कुछ बसे हुए
आया जिधर से तीर-ए-सितम देखते रहे
आए थे अपने चाहने वालों को देखने
कितना है किस मरीज़ में दम देखते रहे
हाए कैसी वो शाम होती है
हाए कैसी वो शाम होती है
दास्ताँ जब तमाम होती है
ये तो बातें हैं सिर्फ़ ज़ाहिद की
कहीं मय भी हराम होती है
शाम-ए-फ़ुर्क़त की उलझनें तौबा
किस ग़ज़ब की ये शाम होती है
इश्क़ में और क़रार क्या मअ’नी
ज़िंदगी तक हराम होती है
हो के आती है जब उधर से सबा
कितनी नाज़ुक-ख़िराम होती है
ये तसद्दुक़ है उन की ज़ुल्फ़ों का
मेरी हर सुब्ह शाम होती है
जब भी होती हैं जन्नतें तक़्सीम
हूर ज़ाहिद के नाम होती है
लम्हे आते हैं वो भी उल्फ़त में
जब ख़मोशी कलाम होती है
पीने वाला हो गर तो साक़ी की
हर नज़र दौर-ए-जाम होती है
हर अदा हम अदा-शनासों की
ज़िंदगी का पयाम होती है
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