Nida Fazli Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Nida Fazli ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. निदा फ़ाज़ली का जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में हुआ था. इनके पिता का नाम मुर्तुज़ा हसन और माँ का नाम जमील फ़ातिमा था. निदा फ़ाज़ली हिंदी और उर्दू के प्रसिद्ध शायर, लेखक संपादक और फिल्मी गीतकार थे. उनका असली नाम मुक्त हसन था. इनको साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से समानित किया गया हैं. इनका निधन 8 फरवरी 2016 हुआ था.
निदा फ़ाज़ली की प्रमुख रचनाएँ हैं-
कविता-संग्रह – लफ़्ज़ों का पुल, मोर नाच, खोया हुआ सा कुछ, आँखों भर आकाश, सफ़र में धूप तो होगी, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, मौसम आते जाते हैं.
आत्मकथा – दीवारों के बीच, दीवारों के बाहर, निदा फ़ाज़ली.
संस्मरण – मुलाक़ातें, सफ़र में धूप तो होगी, तमाशा मेरे आगे
आँखों भर आकाश : निदा फ़ाज़ली (Aankhon Bhar Akash : Nida Fazli)
यह बात तो ग़लत है
कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो ग़लत है
वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफ़र का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रोशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो ग़लत है
है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादसा है मेरा भी तजुर्बा हो
यह बात तो ग़लत है
दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकया हो
यह बात तो ग़लत है
वे युग है कारोबारी, हर शय है इश्तहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो ग़लत है
जब भी दिल ने दिल को सदा दी
जब भी दिल ने दिल को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी…
मिट्टी तेरी, पानी तेरा
जैसी चाही शक्ल बना दी
छोटा लगता था अफ्साना
मैंने तेरी बात बढ़ा दी
सोचने बैठे जब भी उसको
सोचने बैठे जब भी उसको
अपनी ही तस्वीर बना दी
ढूँढ़ के तुझ में, तुझको हमने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी
ऐसा नहीं होता
जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता
हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में
सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता
कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता
सिखा देती है चलना
सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता
कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो
हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता
मौत की नहर
प्यार, नफ़रत, दया, वफ़ा एहसान
क़ौम, भाषा, वतन, धरम, ईमान
उम्र गोया…
चट्टान है कोई
जिस पर इन्सान कोहकन की तरह
मौत की नहर…
खोदने के लिए,
सैकड़ों तेशे
आज़माता है
हाथ-पाँव चलाये जाता है
देखा गया हूँ
देखा गया हूँ मैं कभी सोचा गया हूँ मैं
अपनी नज़र में आप तमाशा रहा हूँ मैं
मुझसे मुझे निकाल के पत्थर बना दिया
जब मैं नहीं रहा हूँ तो पूजा गया हूँ मैं
मैं मौसमों के जाल में जकड़ा हुआ दरख़्त
उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं
ऊपर के चेहरे-मोहरे से धोखा न खाइए
मेरी तलाश कीजिए, गुम हो गया हूँ मैं
बूढ़ा मलबा
हर माँ
अपनी कोख से
अपने शौहर को जन्मा करती है
मैं भी अब
अपने कन्धों से
बूढ़े मलवे को ढो-ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कुँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा।
बैसाखियाँ
(एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर देखकर)
आओ हम-तुम
इस सुलगती खामुशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गढ़े में छोड़ जाएँ
कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !
एक लुटी हुई बस्ती की कहानी
बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की
रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
–भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
–नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।
खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
मन बैरागी
मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है
औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है
जब-जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनियादारी है
ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल परी न फूल गली
यह मत पूछो, वह अच्छा है या अच्छी नादारी
जो चेहरा देखा वह तोड़ा, नगर-नगर वीरान किए
पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेज़ारी है।
फ़क़त चन्द लम्हे
बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास के लान पर बैठ जाएँ
चटखता है मेरी भी रग-रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप-चुप खड़ी हो
न मैं तुमसे वाक़िफ़
न तुम मूझसे वाक़िफ़
नई सारी बातें, नए सारे किस्से
चमकते हुए लफ़्ज, चमकीले लहज़े
फ़क़त चन्द लम्हे
न मैं अपने दु:ख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ
किताबघर की मौत
ये रस्ता है वही
तुम कह रहे हो
यहाँ तो पहले जैसा कुछ नहीं है!
दरख्तों पर न वो चालाक बन्दर
परेशाँ करते रहते थे
जो दिन भर
न ताक़ों में छुपे सूफी कबूतर
जो पढ़ते रहते थे
तस्बीह दिन भर
न कडवा नीम इमली के बराबर
जो घर-घर घूमता था
वैद बन कर
कई दिन बाद
तुम आए हो शायद?
ये सूरज चाँद वाला बूढ़ा अम्बर
बदल देता है
चेहरे हों या मंज़र
ये आलीशान होटल है
जहाँ पर
यहाँ पहले किताबों की
दुकां थी…..
खेल
आओ
कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ
मिट्टी को बादल में गूँथें
चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ
किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ
कुछ दिन इनसे जी बहलाएँ
और यह जब मैले हो जाएँ
दाढ़ी चोटी तिलक सभी को
तोड़-फोड़ के गड़-मड़ कर दें
मिली हुई यह मिट्टी फिर से
अलग-अलग साँचों में भर दें
– चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ
दाढ़ी में चोटी लहराए
चोटी में दाढ़ी छुप जाए
किसमें कितना कौन छुपा है
कौन बताए
दो खिड़कियाँ
आमने-सामने दो नई खिड़कियाँ
जलती सिगरेट की लहराती आवाज में
सुई-डोरे के रंगीन अल्फाज़ में
मशवरा कर रहीं हैं कई रोज़ से
शायद अब
बूढ़े दरवाजे सिर जोड़कर
वक़्त की बात को वक़्त पर मान लें
बीच की टूटी-फूटी गली छोड़कर
खिड़कियों के इशारों को पहचान लें
एक तस्वीर
सुबह की धूप
खुली शाम का रूप
फ़ाख़्ताओं की तरह सोच में डूबे तालाब
अज़नबी शहर के आकाश
धुंधलकों की किताब
पाठशाला में
चहकते हुए मासूम गुलाब
घर के आँगन की महक
बहते पानी की खनक
सात रंगों की धनक
तुम को देखा तो नहीं है लेकिन
मेरी तन्हाई में
ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं
वह
तुम जैसी है
तुमसे मिली नहीं है दुनिया
जितनी बुरी कही जाती है
उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद
तुमसे मिली नहीं है दुनिया
चार घरों के एक मुहल्ले
के बाहर भी है आबादी
जैसी तुम्हें दिखाई दी है
सबकी वही नहीं है दुनिया
घर में ही मत इसे सजाओ,
इधर-उधर भी ले के जाओ
यूँ लगता है जैसे तुमसे
अब तक खुली नहीं है दुनिया
भाग रही है गेंद के पीछे
जाग रही है चाँद के नीचे
शोर भरे काले नारों से
अब तक डरी नहीं है दुनिया
दो सोचें
सुबह जब अख़बार ने मुझसे कहा
ज़िन्दगी जीना
बहुत दुश्वार है
सरहदें फिर शोर-गुल करने लगीं
ज़ंग लड़ने के लिए
तैयार है
दरमियाँ जो था ख़ुदा अब वो कहाँ
आदमी से आदमी
बेज़ार है
पास आकर एक बच्चे ने कहा
आपके हाथों में जो
अख़बार है
इस में मेले का भी
बाज़ार है
हाथी, घोड़ा, भालू
सब होंगे वहाँ
हाफ डे है आज
कल इतवार है
वक़्त से पहले
यूँ तो
हर रिश्ते का अंज़ाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है
तुमसे
वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन-
शाख हो सब्ज़ तो
हस्सास फ़ज़ा होती है
हर कली ज़ख़्म की सूरत ही
ज़ुदा होती है
तुमने
बेकार ही मौसम को सताया
वर्ना-
फुल जब खिल के महक जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद
शाख से गिर जाता है
इतनी पी जाओ
इतनी पी जाओ
कि कमरे की सियह ख़ामोशी
इससे पहले कि कोई बात करे
तेज नोकीले सवालात करे
इतनी पी जाओ
कि दीवारों के बेरंग निशान
इससे पहले कि
कोई रूप भरें
माँ बहन भाई की तस्वीर करें
मुल्क तक़्सीम करें
इससे पहलें कि उठें दीवारें
खून से माँग भरें तलवारें
यूँ गिरो टूट के बिस्तर पे अँधेरा खो जाए
जब खुले आँख सवेरा हो जाए
इतनी पी जाओ!
बेख़बरी
पड़ोसी के बच्चे को क्यों डाँटती हो
शरारत तो बच्चों का शेवा रहा है
बिचारी सुराही का क्या दोष इसमें
कभी ताजा पानी भी ठण्डा हुआ है
सहेली से बेकार नाराज़ हो तुम
दुपट्टे पे धब्बा तो कल का पड़ा है
रिसाले को झुँझला के क्यों फेंकती हो
बिना ध्यान के भी कोई पढ़ सका है
किसी जाने वाले को आख़िर ख़बर क्या
जहाँ लड़कियाँ होंठ कम खोलतीं हैं
परिन्दों की परवाज़ में डोलतीं हैं
महक बन के हर फूल में बोलतीं हैं
क़ौमी एकता
यह तवाइफ़
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसीलिए
दुनिया को ज़्यादा जानती है
-उसके कमरे में
हर मज़हब के भगवान की
एक-एक तस्वीर लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तक़रीरों की तरह नुमाइशी नहीं
उसका दरवाजा
रात गए तक
हिन्दू
मुस्लिम
सिख
इसाई
हर ज़ात के आदमी के लिए खुला रहता है।
ख़ुदा जाने
उसके कमरे की-सी कुशादगी
मस्ज़िद
और
मन्दिर के आँगनों में कब पैदा होगी!
एक ही ग़म
अगर कब्रिस्तान में
अलग-अलग
कत्बे न हों
तो हर कब्र में
एक ही ग़म सोया हुआ होता है
-किसी माँ का बेटा
किसी भाई की बहन
किसी आशिक की महबूबा
तुम-
किसी कब्र पर भी
फ़ातिहा पढ़ के चले आओ
एक बात
उसने
अपना पैर खुजाया
अँगूठी के नग को देखा
उठ कर
ख़ाली जग को देखा
चुटकी से एक तिनका तोड़ा
चारपाई का बान मरोड़ा
भरे-पुरे घर के आँगन
कभी-कभी वह बात!
जो लब तक
आते-आते खो जाती है
कितनी सुन्दर हो जाती है!
बस का सफ़र
मैं चाहता हूँ
यह चौकोर धूप का टुकड़ा
उलझ रहा है जो बालो में
इसको सुलझा दूँ
यह दाएँ बाजू पर
नन्ही-सी इक कली-सा निशान
जो अबकी बार दुपट्टा उड़े
तो सहला दूँ
खुली किताब को हाथों से छीनकर रख दूँ
ये फ़ाख़्ताओं से दो पाँव
गोद में भर लूँ
कभी-कभी तो सफ़र ऐसे रास आते हैं
ज़रा सी देर में दो घंटे बीत जाते हैं
एक मुलाकात
नीम तले दो जिस्म अजाने,
चम-चम बहता नदिया जल
उड़ी-उड़ी चेहरे की रंगत,
खुले-खुले ज़ुल्फ़ों के बल
दबी-दबी कुछ गीली साँसें,
झुके-झुके-से नयन-कँवल
नाम उसका? दो नीली आँखें
ज़ात उसकी? रस्ते की रात
मज़हब उसका? भीगा मौसिम
पता? बहारों की बरसात!
भोर
गूँज रही हैं
चंचल चकियाँ
नाच रहे हैं सूप
आँगन-आँगन
छम-छम छम-छम
घँघट काढ़े रूप
हौले-हौले
बछिया का मुँह चाट रही है गाय
धीमे-धीमे
जाग रही है
आड़ी-तिरछी धूप!
सर्दी
कुहरे की झीनी चादर में
यौवन रूप छिपाए
चौपालों पर
मुस्कानों की आग उड़ाती जाए
गाजर तोड़े
मूली नोचे
पके टमाटर खाए
गोदी में इक भेड़ का बच्चा
आँचल में कुछ सेब
धूप सखी की उँगली पकड़े
इधर-उधर मँडराए
पहला पानी
छन-छन करती टीन की चादर
सन-सन बजते पात
पिंजरे का तोता
दोहराता
रटी-रटाई बात
मुट्ठी में दो जामुन
मुँह में
एक चमकती सीटी
आँगन में चक्कर खाती है
छोटी-सी बरसात!
मोरनाच
देखते-देखते
उसके चारों तरफ
सात रंगों का रेशम बिखरने लगा
धीमे-धीमे कई खिड़कियाँ सी खुलीं
फड़फड़ाती हुई फ़ाख़्ताएँ उड़ीं
बदलियाँ छा गईं
बिजलियों की लकीरें चमकने लगीं
सारी बंजर ज़मीनें हरी हो गईं
नाचते-नाचते
मोर की आँख से
पहला आँसू गिरा
खूबसूरत सजीले परों की धनक
टूटकर टुकड़ा-टुकड़ा बिखरने लगी
फिर फ़ज़ाओं से जंगल बरसने लगा
देखते-देखते
एक दिन
सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराये
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम
थकी हारी मां जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाये।
पैदाइश
बन्द कमरा
छटपटाता घुप अँधेरा
और
दीवारों से टकराता हुआ
मैं…!
मुन्तज़िर हूँ मुद्दतों से
अपनी पैदाइश के दिन का
अपनी माँ के पेट से
निकला हूँ जब से
मैं
खुद अपने पेट के अन्दर पड़ा हूँ!
फुरसत
मैं नहीं समझ पाया आज तक इस उलझन को
खून में हरारत थी, या तेरी मोहब्बत थी
क़ैस हो कि लैला हो, हीर हो कि राँझा हो
बात सिर्फ़ इतनी है, आदमी को फुरसत थी
सलीक़ा
देवता है कोई हम में
न फरिश्ता कोई
छू के मत देखना
हर रंग उतर जाता है
मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाक़ातों में मर जाता है
सहर
सुनहरी धूप की कलियाँ खिलाती
घनी शाखों में चिड़ियों को जगाती
हवाओं के दुपट्टे को उड़ाती
ज़रा-सा चाँद माथे पर उगा के
रसीले नैन कागज से सजाके
चमेली की कली बालों में टाँके
सड़क पर नन्हे-नन्हे पाँव धरती
मज़ा ले-ले के बिस्कुट को कुतरती
सहर मक़तब में पढ़ने जा रही है
धुँदलकों से झगड़ने जा रही है
दोपहर
जिस्म लाग़र, थका-थका चेहरा
हर तबस्सुम पे दर्द का पहरा
हिप्स पर पूरी बेंत की जाली
जेब में गोल मेज़ की ताली
हाथ पर रोशनाई की लाली
उड़ती चीलों का झुण्ड तकती हुई
तपते सूरज से सर को ढँकती हुई
कुछ न कुछ मुँह ही मुँह में बकती हुई
खुश्क आँखों पर पानी छपका कर
पीले हाथी का ठूँठ सुलगा कर
दोपहर चाय पीने बैठी है
चाक दामन के सीने बैठी है
म्यूज़ियम
सलाखें ही सलाखें
अनगिनत छोटे-बड़े ख़ाने
हर इक ख़ाना नया चेहरा
हर इक चेहरा नई बोली
कबूतर
लोमड़ी
तितली
हिरण, पत्थर, किरण, नागिन
क्भी कुछ रंग सा झमके
कभी शोले-सा बल खाये
कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी दरिया सा लहराए
सिमटते, फैलते, फुँकारते, उड़ते हुए साए
न जाने कौन है वह
चलता-फिरता म्यूज़ियम जैसा
शबाहत से तो कोई आदमी मालूम होता है
नक़ाबें
नीली, पीली, हरी, गुलाबी
मैंने सब रंगीन नक़ाबें
अपनी ज़ेबों में भर ली हैं
अब मेरा चेहरा नंगा है
बिल्कुल नंगा
अब!
मेरे साथी ही
पग-पग
मुझ पर
पत्थर फेंक रहे हैं
शायद वह
मेरे चेहरे में अपने चेहरे देख रहे हैं
संसार
फैलती धरती
खुला आकाश था
मैं…
चाँद, सूरज, कहकशाँ, कोह्सार, बादल
लहलहाती वादियाँ, सुनसान जंगल
मैं ही मैं
फैला हुआ था हर दिशा में
जैसे-जैसे
आगे बढ़ता जा रहा हूँ
टूटता, मुड़ता, सिकुड़ता जा रहा हूँ
कल
ज़मीं से आस्माँ तक
मैं ही मैं था
आज
इक छोटा-सा कमरा बन गया हूँ
जंग
सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद
जंग!
बे-घर बे-सहारा
सर्द ख़ामोशी की आँधी में बिखर के
ज़र्रा-ज़र्रा फैलती है
तेल
घी
आटा
खनकती चूड़ियों का रूप भर के
बस्ती-बस्ती डोलती है
दिन-दहाड़े
हर गली-कूचे में घुसकर
बंद दरवाजों की साँकल खोलती है
मुद्दतों तक
जंग!
घर-घर बोलती है
सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद
कितने दिन बाद
कितने दिन बाद मिले हो
चलो इस शहर से दूर
किसी जंगल के किनारे
किसी झरने के क़रीब
टूटते पानी को पीकर देखें
भागते-दौड़ते लम्हों से चुरा कर कुछ वक़्त
सिर्फ़ अपने लिए जी कर देखें
कोई देखे न हमें
कोई न सुनने पाए
तुम जो भी चाहे कहो
मैं भी बिला ख़ौफ़ो-ख़तर
उन सभी लोगों की तनक़ीद करूँ
जिन से मिलकर मुझे हर रोज़ खुशी होती है
रुख़्सत होते वक़्त
रुख़्सत होते वक़्त
उसने कुछ नहीं कहा
लेकिन एयरपोर्ट पर
अटैची खोलते हुए
मैंने देखा
मेरे कपड़ों के नीचे
उसने
अपने दोनों बच्चों की तस्वीर छुपा दी है
तअज्जुब है
छोटी बहन होकर भी
उसने मुझे माँ की तरह दुआ दी है।
जब भी घर से बाहर जाओ
जब भी घर से बाहर जाओ
तो कोशिश करो…जल्दी लौट आओ
जो कई दिन घर से ग़ायब रहकर
वापस आता है
वह ज़िन्दगी भर पछताता है
घर… अपनी जगह छोड़ कर चला जाता है।
आत्मकथा
किसी को टूट के चाहा, किसी से खिंच के रहे
दुखों की राहतें झेलीं, खुशी के दर्द सहे
कभी बगूला से भटके
कभी नदीं से बहे
कहीं अँधेरा, कहीं रोशनी, कहीं साया
तरह-तरह के फ़रेबों का जाल फैलाया
पहाड़ सख्त था, वर्षों में रेत हो पाया।
चौथा आदमी
बैठे-बैठे यूँ ही क़लम लेकर
मैंने काग़ज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप… के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
उस गोल दायरे के क़रीब
अपना छोटा नाम टाँक दिया
मेरे उठते ही मेरे बच्चे ने
पूरे काग़ज़ को ले के फाड़ दिया।
मुहब्बत
पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से ज़िस्म में तबदील हुई
और फिर ज़िस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको…
कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त-बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है, बिछा लेता है।
हैरत है
घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कुराती है
मुझ को हैरत है जाने क्यों दुनिया
काब-ओ-सोमनाथ जाती है।
खुदा ख़ामोश है
बहुत से काम हैं
लिपटी हुई धरती को फैला दें
दरख़्तों को उगाएँ, डालियों पर फूल महका दें
पहाड़ों को क़रीने से लगाएँ
चाँद लटकाएँ
ख़लाओं के सरों पे नीलगूँ आकाश फैलाएँ
सितारों को करें रौशन
हवाओं को गति दे दें
फुदकते पत्थरों को पंख देकर नग़्मगी दे दें
लबों को मुस्कुराहट
अँखड़ियों को रोशनी दे दें
सड़क पे डोलती परछाइयों को ज़िन्दगी दे दें
खुदा ख़ामोश है,
तुम आओ तो तख़लीक़ हो दुनिया
मैं इतने सारे कामों को अकेले कर नहीं सकता
लफ्ज़ों का पुल
मस्ज़िद का गुम्बद सूना है
मन्दिर की घण्टी ख़ामोश
जुज़दानों में लिपटे सारे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग गुलाबी
नीले
पीले
कहीं नहीं हैं
तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा ग़ार
लफ्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तन्हा
मैं भी तन्हा।
जो हुआ वो हुआ किसलिए
जो हुआ वो हुआ किसलिए
हो गया तो गिला किसलिए
काम तो हैं ज़मीं पर बहुत
आसमाँ पर खुदा किसलिए
एक ही थी सुकूँ की जगह
घर में ये आइना किसलिए
दर्द पुराना है
मेरे तेरे नाम नये हैं, दर्द पुराना है
यह दर्द पुराना है
आँसू हर युग का अपराधी
हर आँगन का चोर
कोई न थामे दामन इसका
घूमे चारों ओर
गुम-सुम हैं संसार-कचहरी, चुप-चुप थाना है
यह दर्द पुराना है
जो जी चाहे वह हो जाए
कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का
समझौता होता है
जैसे-तैसे दिन करना है, रात बिताना है
यह दर्द पुराना है
जब वह आते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
पहला-पहला प्यार हमारा, हम डर जाते हैं
तेरी बाँहों में झूमी पुरवाई
मैं कब बोली
जब जब बरखा आई तूने खेली
आँख-मिचौली
ऐसी-वैसी बातों को कब मुख पर लाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
निर्धन के घर में पैदा होना है
जीवन खोना
सूनी माँग सजाने वाले माँगें
चाँदी-सोना
हमसाए ही हमसायों के राज़ छिपाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
तुझ बिन मुझको
तुझ बिन मुझको
कैसे-कैसे छेडे काली रात
कुटिया पीछे चूड़ी खनकी
दो आवाज़ें साथ
जामुन पर
छम से आ बैठी
कोई पुरानी बात
सूने आँगन “कौन बताओ”
रेशम-रेशम हाथ
नील गगन
बादल के टुकड़े
क्या-क्या रूप बनाएँ
उड़ता आँचल
खुलता जूड़ा
लोरी गाती बाँहें
जलता चूल्हा, भरी कढ़ाई
कनी सजी बरसात
कोई नहीं है आने वाला
कोई नहीं है आने वाला
फिर भी कोई आने को है
आते-जाते रात और दिन में
कुछ तो जी बहलाने को है
चलो यहाँ से, अपनी-अपनी
शाखों पर लौट आए परिन्दे
भूली-बिसरी यादों को फिर
ख़ामोशी दोहराने को है
दो दरवाजे, एक हवेली
आमद, रुख़सत एक पहेली
कोई जाकर आने को है
कोई आकर जाने को है
दिन भर का हंगामा सारा
शाम ढले फिर बिस्तर प्यारा
मेरा रस्ता हो या तेरा
हर रस्ता घर जाने को है
आबादी का शोर शराबा
छोड़ के ढूँढो कोई ख़राबा
तन्हाई फिर शम्मा जला कर
कोई लफ़्जा सुनाने को है
बहुत मैला है ये सूरज
बहुत मैला है ये सूरज
किसी दरिया के पानी में
उसे धोकर सजाएँ फिर
गगन में चाँद भी
कुछ धुँधला-धुँधला है
मिटा के इस के सारे दाग-धब्बे
जगमगाएँ फिर
हवाएं सो रहीं हैं पर्वतों पर
पाँव फैलाए
जगा के इन को नीचे लाएँ
पेड़ों में बसाएँ फिर
धमाके कच्ची नींदों में
उड़ा देते हैं बच्चों को
धमाके खत्म कर के
लोरियों को गुनगुनाएँ फिर
वो जबसे आई है
यूँ लग रहा है
अपनी ये दुनिया
जो सदियों की अमानत है
जो हम सब की विरासत है
पुरानी हो चुकी है
इसमें अब
थोड़ी मरम्मत की ज़रूरत है
(अपनी बेटी तहरीर के जन्म-दिन पर)
रस्ते में नोकीली घाम
झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम
चाय के प्यालों में माथे की शिकनें
सिमटी हुई कुर्सियाँ
सरहद, सिपाही, गेंहूँ, कबूतर
अख़बार की सुर्खियाँ
सिगरेट की डिबिया में बन्दी सवेरा
लोकल के डिब्बों में शाम
लड़ता-झगड़ता कोई किसी से
बेबात कोई हँसे
सागर किनारे लहरों पर कोई
कंकर से हमला करे
लम्बी सी रस्सी पे कपड़े ही कपड़े
कपड़ों के कोनों में नाम
झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम
जीवन शोर भरा सन्नाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
ज़ंजीरों की लंबाई तक सारा सैर-सपाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
हर मुट्ठी में उलझा रेशम
डोरे भीतर डोरा
बाहर सौ गाँठों के ताले
अंदर कागज़ कोरा
कागज़, शीशा, परचम, तारा
हर सौदे में घाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
चारों ओर चटानें घायल
बीच में काली रात
रात के मुँह में सूरज
सूरज में कैदी सब हाथ
नंगे पैर अक़ीदे सारे
पग-पग लागे काँटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा
मौसम आते जाते हैं : निदा फ़ाज़ली (Mausam Aate Jaate Hain : Nida Fazli)
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
(पाकिस्तान से लौटने के बाद )
इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी
खूँख्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी
रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी
हिन्दू भी मज़े में हैमुसलमाँ भी मज़े में
इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
उठता है दिलो-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये ‘मीर’ का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी
(देख तो दिल कि जाँ से उठता है,
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है–‘मीर’)
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से अजनबी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे
गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे
हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो
बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
घर से बाहर की फ़ज़ा हँसने-हँसाने के लिए
यूँ लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए
अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदाद-ए-सफ़र
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए
मेज़ पर ताश के पत्तों-सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए
तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए
कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
तुम को भूल न पायेंगे हम, ऐसा लगता है
ऐसा भी इक रंग है जो करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो अपना-सा लगता है
तुम क्या बिछड़े भूल गये रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही अच्छा लगता है
अब भी यूँ मिलते हैं हमसे फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई रिश्ता लगता है
और तो सब कुछ ठीक है लेकिन कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक तनहा लगता है
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है
मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी है
औरों जैसे होकर भी हम बाइज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है
जब-जब मौसम झूमा हमने कपड़े फाड़े, शोर किया
हर मौसम शाइस्ता3 रहना कोरी दुनियादारी है
ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल-परी ना फूल-गली
ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नादारी है
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
दिल में न हो ज़ुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती
दिल में न हो ज़ुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
कुछ लोग यूँ ही शहर में हमसे भी खफा हैं
हर एक से अपनी भी तबियत नहीं मिलती
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती
हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत
रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती
निकला करो ये शम्अ लिए घर से भी बाहर
तन्हाई सजाने को मुसीबत नहीं मिलती
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी, रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुँधली-सी एक याद किसी क़ब्र का दिया
और! मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए
जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए
खोया हुआ सा कुछ : निदा फ़ाज़ली (Khoya Hua Sa Kuchh : Nida Fazli)
देर से
कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़मोशी, सदा देर से
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से
भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से
हम्द
नील गगन पर बैठ
कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे
पर्वत की ऊँची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे
आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में
कब तक
आराम करोगे
मेरा छप्पर टरक रहा है
बनकर सूरज
इसे सुखाओ
खाली है
प्रार्थना
आटे का कनस्तर
कबनकर गेहूँ
इसमें आओ
माँ का चश्मा
टूट गया है
बनकर शीशा
इसे बनाओ
चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद
इन्हें बहलाओ
शाम हुई है
चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ
काम बहुत हैं
हाथ बटाओ अल्ला मियाँ
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्ला मियाँ…!
कहीं-कहीं से
कहीं-कहीं से हर चेहरा
तुम जैसा लगता है
तुमको भूल न पायेंगे हम
ऐसा लगता है
ऐसा भी इक रंग है जो
करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो
अपना-सा लगता है
तुम क्या बिछड़े भूल गये
रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही
अच्छा लगता है
अब भी यूँ मिलते हैं हमसे
फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई
रिश्ता लगता है
और तो सब कुछ ठीक है लेकिन
कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक
तन्हा लगता है
गरज-बरस
गरज-बरस प्यासी धरती पर
फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को
गुड़धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला
फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर
चारों ओर बिखर जा
फिर मन्दिर को कोई मीरा
दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की
जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
आसानी दे मौला
रौशनी के फ़रिश्ते
हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं…
नदी में स्नान करके सूरज
सुनहरी मलमल की पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं…
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओ के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्ते को जगा रही हैं
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं…!
फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल-सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहा हैं…!
सफ़र को जब भी
सफ़र को जब भी किसी
दास्तान में रखना
क़दम यकीन में, मंज़िल
गुमान में रखना
जो सात है वही घर का
नसीब है लेकिन
जो खो गया उसे भी
मकान में रखना
जो देखती हैं निगाहें
वही नहीं सब कुछ
ये एहतियात भी अपने
बयान में रखना
वो ख्वाब जो चेहरा
कभी नहीं बनता
बना के चाँद उसे
आसमान में रखना
चमकते चाँद-सितारों का
क्या भरोसा है
ज़मीं की धुल भी अपनी
उड़ान में रखना
सवाल तो बिना मेहनत के
हल नहीं होते
नसीब को भी मगर
इम्तहान में रखना
मैं जीवन हूँ
वो जो
फटे-पुराने जूते गाँठ रहा है
वो भी मैं हूँ
वो जो घर-घर
धूप की चाँदी बाँट रहा है
वो भी मैं हूँ
वो जो
उड़ते परों से अम्बर पात रहा है
वो भी मैं हूँ
वो जो
हरी-भरी आँखों को काट रहा है
वो भी मैं हूँ
सूरज-चाँद
निगाहें मेरी
साल-महीने राहें मेरी
कल भी मुझमे
आज भी मुझमे
चारों ओर दिशाएँ मेरी
अपने-अपने
आकारों में
जो भी चाहे भर ले मुझको
जिनमे जितना समा सकूँ मैं
उतना
अपना कर ले मुझको
हर चेहरा है मेरा चेहरा
बेचेहरा इक दर्पण हूँ मैं
मुट्ठी हूँ मैं
जीवन हूँ मैं
दिन सलीके से उगा
दिन सलीके से उगा
रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ
रोज़ ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं
मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो
तसवीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो
ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमअ
जलाने से रही
फ़ासला, चाँद बना देता है
हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो
आने से रही
शहर में सबको कहाँ मिलती है
रोने की जगह
अपनी इज्जत भी यहाँ
हँसने-हँसाने में रही
चरवाहा और भेड़ें
जिन चेहरों से रौशन हैं
इतिहास के दर्पण
चलती-फिरती धरती पर
वो कैसे होंगे
सूरत का मूरत बन जाना
बरसों बाद का है अफ़साना
पहले तो हम जैसे होंगे
मिटटी में दीवारें होंगी
लोहे में तलवारें होंगी
आग, हवा
पानी अम्बर में
जीतें होंगी
हारें होंगी
हर युग का इतिहास यही है-
अपनी-अपनी भेड़ें चुनकर
जो भी चरवाहा होता है
उसके सर पर नील गगन कि
रहमत का साया होता है
उठके कपड़े बदल
उठके कपड़े बदल, घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल
जो हुआ सो हुआ
जब तलक साँस है, भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल, खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ
खून से तर-ब-तर, करके हर रहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह, फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ
जो मरा क्यों मरा, जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम, इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ
मन्दिरों में भजन मस्जिदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ?
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ
यहाँ भी है वहाँ भी
इंसान में हैवान
यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान
यहाँ भी है वहाँ भी
खूंख्वार दरिंदों के
फक़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान
यहाँ भी है वहाँ भी
रहमान की क़ुदरत हो
या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान
यहाँ भी है वहाँ भी
हिन्दी भी मज़े में है
मुसलमाँ भी मज़े में
इंसान परेशान
यहाँ भी वहाँ भी
उठता है दिलो जाँ से
धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये मीर का दीवान
यहाँ भी वहाँ भी
छोटा आदमी
छोटा आदमी
तुम्हारे लिए
सब दुआगो हैं
तुम जो न होगे
तो कुछ भी न होगा
इसी तरह
मर-मर के जीते रहो तुम
तुम्ही हर जगह हो
तुम्ही मस्अला हो
तुम्ही हौसला हो
मुसव्वर के रंगों में
तस्वीर भी तुम
मुसन्निफ के लफ़्ज़ों में
तहरीर भी तुम
तुम्हारे लिए ही
खुदा बाप ने
अपने इकलौते बेटे को
कुर्बां किया है
सभी आसमानी किताबों ने
तुम पर!
तुम्हारे अज़ाबों को आसाँ किया है
खुदा की बनाई हुई इस ज़मीं पर
जो सच पूछो,
तुमसे मुहब्बत है सबको
तुम्हारे दुखों का मुदावा न होगा
तुम्हारे
दुखों ज़रूरत है सबको
तुम्हारे लिए सब दुआ गो हैं
ये ज़िंदगी
ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन कि छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से
चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से
निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में
ढल रही है
ये ज़िन्दगी…..!
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है
बदलती शक्लों
बदलते ज़िस्मों में
चलता फिरता ये इक शरारा
जो इस घडी
नाम है तुम्हारा!
इसी से साड़ी चहल-पहल है
इसी से
रौशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो
या घर बसाओ
अलम उठाओ
या सर झुकाव
तुम्हारी आँखों कि रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दोबारा
मौसम आते जाते हैं
नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहाँ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।
शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।
चलती-फिरती धूप-छाँव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।
आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।
इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।
दिल में न हो जुर्रत
दिल में न हो जुर्रत तो
मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी
दौलत नहीं मिलती
कुछ लोग यूँ ही शहर में
हमसे भी खफ़ा हैं
हर एक से अपनी भी
तबीयत नहीं मिलती
देखा था जिसे मैंने
कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी
सूरत नहीं मिलती
हँसते हुए चेहरों से है
बाज़ार की ज़ीनत
रोने की यहाँ वैसे भी
फुर्सत नहीं मिलती
निकला करो ये शमा लिए
घर से भी बाहर
तन्हाई सजाने को
मुसीबत नहीं मिलती
अपनी मर्ज़ी से कहाँ
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
धूप में निकलो
धूप में निकलो घटाओं में
नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है, किताबों को
हटाकर देखो
सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया
नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई
बनाकर देखो
पत्थरों में भी ज़बाँ होती है
दिल होते हैं
अपने घर के दरो-दीवार
सजाकर देखो
वो सितारा है चमकने दो
यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म
बनाकर देखो
फ़ासला नज़रों का धोका भी
तो हो सकता है
चाँद जब चमके तो ज़रा हाथ
बढाकर देखो
(बीनाई=ज्योति)
देखा हुआ सा कुछ
देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी, रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया
कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है
रोता हुआ सा कुछ
धुँधली-सी एक याद किसी
क़ब्र का दिया
और! मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ
बेसन की सोंधी रोटी
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी-जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा, फुकनी जैसी माँ
बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी आधी जागी
थकी दोपहरी-जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार में गूँज़े
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी-जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी-सी सब में
दिनभर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी-जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा
आखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
दो-चार गाम
दो-चार गाम राह को
हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नयी
दीवार देखना
आँखों की रौशनी से है
हर संग आइना
हर आईने में खुद को
गुनाहगार देखना
हर आदमी में होते हैं
दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो
कई बार देखना
मैदाँ की हार-जीत तो
क़िस्मत की बात है
टूटी है जिसके हाथ में
तलवार देखना
दरिया के उस किनारे
सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो
उस पार देखना
अच्छी नहीं है शहर के
रस्तों की दोस्ती
आँगन में फैल जाए न
बाज़ार देखना…..!
मैं ख़ुदा बनके
मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग.
रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ.
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में…!
मैं ही बरसात के महीने में.
मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू.
मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं,जब लोग.
मैं जमीनों को बेजिया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
मैं ख़ुदा बनके कहर ढाता हूँ.
(बेजिया=बिना रौशनी)
एक लुटी हुई बस्ती की कहानी
बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की
रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
–भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार!
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
–नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।
खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
जो थे वही रहे
बदला न अपने-आपको
जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से
मगर अजनबी रहे
अपनी तरह सभी को
किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे
दूर ही रहे
दुनिया न जीत पाओ
तो हारो न आपको
थोड़ी-बहुत तो ज़हान में
नाराज़गी रहे
गुज़रो जो बाग़ से
तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल
वो डाली हरी रहे
हर वक्त हर मुक़ाम पे
हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी
कोई बेकली रहे
नयी-नयी आँखें
नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।
मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।
हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।
दोहे
जीवन भर भटका किए, खुली न मन की गाँठ
उसका रास्ता छोड़कर, देखी उसकी बाट
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फकीर
मुझ जैसा एक आदमी, मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम
सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान
एक-ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान
पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार
मैं भी तू भी यात्री, आती-जाती रेल
अपने-अपने गाँव तक, सबका सब से मेल
सपना झरना नींद का
सपना झरना नींद का, जागी आँखें प्यास
पाना, खोना, खोजना, साँसों का इतिहास
नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम
सूरज ठेकेदार सा, सबको बाँटे काम
अच्छी संगत बैठकर, संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से, मीठी हो गई धूप
बरखा सबको दान दे, जिसकी जितनी प्यास
मोती-सी ये सीप में, माटी में ये घास
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोये देर तक, भूखा रहे फ़क़ीर
सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान
एक ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान
जीवन के दिन-रैन का, कैसे लगे हिसाब
दीमक के घर बैठकर, लेखक लिखे किताब
मुझ जैसा इक आदमी मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम
दस्तकें
दरवाज़े पर हर दस्तक का
जाना-पहचाना
चेहरा है
रोज़ बदलती हैं तारीखें
वक़्त मगर
यूँ ही ठहरा है
हर दस्तक है ‘उसकी’ दस्तक
दिल यूँ ही धोका खता है
जब भी
दरवाज़ा खुलता है
कोई और नज़र आ जाता है
जाने वो कब तक आएगा ?
जिसको बरसों से आना है
या बस यूँ ही रस्ता तकना
हर जीवन का जुर्माना है
मुँह की बात
मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन।
सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन।
जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन।
मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन।
किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।
जाने वालों से
जानेवालों से राब्ता रखना
दोस्तो, रस्मे-फातहा रखना
जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आइना रखना
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना
जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना
मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना
मिलना-जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना
उम्र करने को है पचास पार
कौन है किस जगह पता रखना
छोटी-सी हंसी
सूनी सूनी थी फ़ज़ा
मैंने यूँही
उस के बालों में गुँधी
ख़ामोशियों को छू लिया
वो मुड़ी
थोड़ा हँसी
मैं भी हँसा
फिर हमारे साथ
नदियाँ वादियाँ
कोहसार बादल
फूल कोंपल
शहर जंगल
सब के सब हँसने लगे
इक मोहल्ले में
किसी घर के
किसी कोने की
छोटी सी हँसी ने
दूर तक फैली हुई दुनिया को
रौशन कर दिया है
ज़िंदगी में
ज़िंदगी का रंग फिर से भर दिया है !
सपना ज़िंदा है
धरती और आकाश का रिश्ता
जुड़ा हुआ है
इसीलिए चिड़िया उड़ती है
इसीलिए नदिया बहती है
इसीलिए है
चाय की प्याली में
कड़वाहट
इसीलिए तो
चेहरा बनती है हर आहट
धरती और आकाश का रिश्ता
जुड़ा हुआ है
इसीलिए तो
कहीं – कहीं से कुछ अच्छा है
कुछ खोटा है
कुछ सच्चा है
सामनेवाली खिड़की
जूड़ा बांध रही है
धीमे – धीमे
सोया रस्ता जाग रहा है
उछल रही है तंग गली में
गेंद रबड़ की
उसके पीछे – पीछे
बच्चा भाग रहा है
रात और दिन के बीच
कहीं सपना ज़िंदा है
मरी नहीं है
जब तक ये दुनिया ज़िंदा है
धरती और आकाश का रिश्ता जुड़ा हुआ है
समझौता
यही ज़मीं
जो कहीं जो धूप है
कहीं साया
यही ज़मीन हो तुम भी
यही ज़मीं मैं भी
यही ज़मीन हक़ीक़त है
इस ज़मीं के सिवा
कहीं भी कुछ नहीं
बीनाइयों का धोका है
वो आसमान
जो हर दस्तरस से बाहर है
तुम्हारी
आँखों में हो
या मेरी निगाहों में
दिखाई देता है
लेकिन कभी नहीं मिलता
यही ज़मीन सफ़र है
यही ज़मीं मंज़िल
न मैं तलाश करूँ
तुममें
जो नहीं हो तुम
न तुम
तलाश करो मुझमें
जो नहीं हूँ मैं
कोई अकेला कहाँ है
शुक्रिया ऐ दरख़्त तेरा
तेरी घनी छाँव
मेरे रस्ते की दिलकशी है
शुक्रिया ऐ चमकते सूरज
तेरी शुआओं से
मेरे आँगन में रौशनी है
शुक्रिया ऐ चहकती चिड़िया
तेरे सुरों से मेरी ख़ामोशी में नग़मगी है
पहाड़ मेरे लिए ही
मौसम सजा रहा है
नदी का पानी
हवा से बादल बना रहा है
किसी की सुई से
मेरा कुरता तुरप रहा है
मेरे लिए गुलाब
धूपों में तप रहा है
कोई अकेला कहाँ है
ज़मीं के ज़र्रे से आसमाँ तक
हरेक वज़ूद एक कारवाँ है
ज़मीन माँ है
हरेक सर पर
हज़ार रिश्तों का आसमाँ है
बंटी हुई सरहदों में
सब कुछ जुड़ा हुआ है
अकेलापन
आदमी की फ़ुरसत का फलसफा है
जो खो जाता है मिलकर ज़िन्दगी में
जो खो जाता है मिलकर ज़िन्दगी में
ग़ज़ल है नाम उसका, शायरी में
निकल आते हैं आँसू हँसते-हँसते
ये किस ग़म की कसक है, हर ख़ुशी में
कहीं आँखें, कहीं चेहरा, कहीं लब
हमेशा एक मिलता है, कई में
चमकती है अँधेरों में खामोशी
सितारे टूटते हैं रात ही में
गुजर जाती है यूँ ही उम्र सारी
किसी को ढूँढ़ते हैं हम किसी में
सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तश्नगी में
बहुत मुश्किल है बंजारामिजाजी
सलीका चाहिए आवारगी में
(तश्नगी=प्यास, बंजारामिजाजी=
घुम्मकड़ स्वभाव)
जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी
जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी
मिट्टी उस की पानी उस का
जैसी चाही शक्ल बना दी
छोटा लगता था अफ़साना
मैं ने तेरी बात बढ़ा दी
जब भी सोचा उस का चेहरा
अपनी ही तस्वीर बना दी
तुझ को तुझ में ढूँड के हम ने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी
मिलजुल के बैठने की
मिलजुल के बैठने की रवायत नहीं रही
रावी के पास कोई हलावत नहीं रही
हर ज़िन्दगी है हाथ में कश्कोल की तरह
महरूमियों के पास बगावत नहीं रही
मिस्मार हो रही है दिलों की इमारतें
अल्लाह के घरों की हिफाजत नहीं रही
मुल्क-ए-खुदा में सारी जमीनें हैं एक-सी
इस दौर के नसीब में हिज़रत नहीं रही
सब अपनी-अपनी मौत से मरते हैं इन दिनों
अब दश्त-ए-कर्बला में शहादत नहीं रही
(रावी=श्रुति परम्परा का निर्वाह करने वाला,
हलावत=माधुर्य, कशकोल=भिक्षापात्र,
महरूमियों=अभावों, मिस्मार=ध्वस्त,
हिजरत=प्रवास, दश्त-ए-कर्बला=कर्बला का
उजाड़,जंगल)
एक जवान याद
वक्त ने
मेरे बालों में चांदी भर दी
इधर-उधर जाने की आदत कम कर दी
आईना जो कहता है
सच कहता है
एक-सा चेहरा-मोहरा किसका रहता है
इसी बदलते वक़्त सहरा में लेकिन
कहीं किसी घर में
इक लड़की ऐसी है
बरसों पहले जैसी थी वो
अब भी बिलकुल
वैसी है
हम हैं कुछ अपने लिए
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
घर से बाहर की फ़ज़ा हँसने-हँसाने के लिए
यूँ लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए
अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदाद-ए-सफ़र
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए
मेज़ पर ताश के पत्तों-सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए
तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए
चांद से फूल से
चांद से फूल से या मेरी ज़ुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए
सबको आता नहीं दुनिया को सता कर जीना
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए
क्या ज़रूरी है कि हर पर्दा उठाया जाए
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए
मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए
कौन पढ़ सकता हैं पानी पे लिखी तहरीरें
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए
चांद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की ख़ुशी
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए
ख़ुदा ही जिम्मेदार है
हर एक जुर्म नाम है
जो नाम
संगसार है
वो नाम बेकुसूर है
कुसूरवार भूल है
जो मुद्दतों से
रायफिल है
चीख है
पुकार है
यही गुनहगार है
नहीं ये भूख तो
किसी महल की पहरेदार है
ग़रीब ताबेदार है
गुनहगार है महल
मगर महल तो ख़ुद
सियासतों का इश्तहार है
सियासतों के इर्द गिर्द भी
कोई हिसार है
अजीब इन्तिशार है
न कोई चोर
चोर है
न कोई साहूकार है
ये कैसा कारोबार है
ख़ुदा की कायनात का
ख़ुदा ही जिम्मेदार है
आख़री सच
वही है ज़िन्दा
गरजते बादल
सुलगते सूरज
छलकती नदियों के साथ है जो
ख़ुद अपने पैरों की धूप है जो
ख़ुद अपनी पलकों की रात है जो
बुज़ुर्ग सच्चाइयों की राहों में
तज्रबों का अज़ाब है जो
सुकूं नहीं इज़तिराब है जो
वही है ज़िन्दा
जो चल रहा है
वही है ज़िन्दा
जो गिर रहा है, सँभल रहा है
वही है ज़िन्दा
जो लम्हा-लम्हा बदल रहा है
दुआ करो, आसमाँ से उस पर कोई सहीफ़ा
उतर न आये
खली फ़ज़ाओं में
आख़री सच का ज़हर फिर से बिखर न जाये
जो आप अपनी तलाश में है
वोह देवता बनके मर न जाये।
एक ख़त
तुम आईने की आराइश में जब
खोयी हुई-सी थीं
खुली आँखों की गहरी नींद में
सोयी हुई-सी थीं
तुम्हें जब अपनी चाहत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी
तुम्हारे नाम की ख़ुशबू से जब
मौसम सँवरते थे
फ़रिश्ते जब तुम्हारे रात-दिन
लेकर उतरते थे
तुम्हें पाने की हसरत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी
तुम्हारे ख़्वाब जब आकाश के
तारों में रोशन थे
गुलाबी अँखड़ियों में धूप थी
आँचल में सावन थे
बहुत सौं से रक़ाबत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी
तुम्हारा ख़त मिला
मैं याद हूँ तुमको इनायत है
बदलते वक़्त की लेकिन
हरेक दिल पर हुकूमत है
वो पहले की हक़ीक़त थी
मुझे तुमसे मुहब्बत थी
मुझे तुमसे मुहब्बत थी
एक राजनेता के नाम
मुझे मालूम है!
तुम्हारे नाम से
मन्सूब हैं
टूटे हुए सूरज-
शिकस्ता चाँद
काला आस्मां
कर्फ़्यू भरी राहें
सुलगते खेल के मैदान
रोती चीख़ती माँएँ
मुझे मालुम है
चारों तरफ़
जो ये तबाही है
हुकूमत में
सियासत के
तमाशे की गवाही है
तुम्हें
हिन्दू की चाहत है
न मुस्लिम से अदावत है
तुम्हारा धर्म
सदियों से
तिज़ारत था, तिज़ारत है
मुझे मालूम है लेकिन
तुम्हें मुजरिम कहूँ कैसे
अदालत में
तुम्हारे जुर्म को साबित करूँ कैसे
तुप्हारी जेब में ख़ंजर
न हाथों में कोई बम था
तुम्हारे साथ तो
मर्यादा पुरूषोत्तम का परचम था
जो एक दर्द है सांसों में
लिखो कि
चील के पंजों में
साँप का सर है
लिखो कि
सांप का फन
छिपकली के ऊपर है
लिखो कि
मुँह में उसी छिपकली के
झींगुर है
लिखो कि
चिंउटा झींगुर की
दस्तरस में है
लिखो कि
जो भी यहाँ है किसी
क़फ़स में है
लिखो कि
कोई बुरा है
न कोई अच्छा है
लिखो कि
रंग है जो भी नज़र में
कच्चा है
जो एक दर्द है साँसों में
वो ही सच्चा है
ये एक दर्द ही
संघर्ष भी है, ख़्वाब भी है
लिखो कि
ये ही अन्धेरों का
माहताब भी है!
शिकायत
तुम्हारी शिकायत बज़ा है
मगर तुमसे पहले भी
दुनिया यही थी
यही आज भी है
यही कल भी होगी…।
तुम्हें भी
इसी ईंट-पत्थर की दुनिया में
पल-पल बिखरना है
जीना है
मरना है
बदलते हुए मौसमों की ये दुनिया
कभी गर्म होगी
कभी सर्द होगी
कभी बादलों में नहाएगी धरती
कभी दूर तक
गर्द ही गर्द होगी
फ़क़त एक तुम ही नहीं हो
यहाँ
जो भी अपनी तरह सोचता
ज़माने की बेरंगियों से ख़फ़ा है
हरेक ज़िन्दगी
इक नया तजुर्बा है
मगर जब तलक
ये शिकायत है ज़िन्दा
ये समझो ज़मीं मुहब्बत है ज़िन्दा।
मुझी में ख़ुदा था
मुझे याद है
मेरी बस्ती के सब पेड़
पर्वत
हवाएँ
परिन्दे
मेरे साथ रोते थे
हँसते थे
मेरे ही दुख में
दरिया किनारों पे सर को पटकते थे
मेरी ही खुशियों में
फूलों पे
शबनम के मोती चमकते थे
यहीं
सात तारों के झुरमुट में
लाशक्ल-सी
जो खुनक रोशनी थी
वहीं जुगनुओं की
चिराग़ों की
बिल्ली की आँखों की ताबिन्दगी थी
नदी मेरे अन्दर से होके गुज़रती थी
आकाश…!
आँखों का धोखा नहीं था
ये बात उन दिनों की है
जब इस ज़मीं पर
इबादतघरों की ज़रूरत नहीं थी
मुझी में
ख़ुदा था…!
मेरा घर
जिस घर में अब मैं रहता हूँ
वो मेरा है
इसके कमरों की
आराइश
इसके आँगन की
ज़ेबाइश
अब मेरी है
मुझसे पहले
मुझसे पहले से भी पहले
ये घर
किस-किस का अपना था
किन-किन आँखों का
सपना था
कब-कब
इसका क्या नक़्शा था?
ये सब तो
कल का क़िस्सा है,
इसका आज
मेरा हिस्सा है
आज के, कल बन जाने तक ही
मेरा भी
इससे रिश्ता है
जिस घर में
अब मैं रहता हूँ
वो मेरा है
ये ख़ून मेरा नहीं है
तुम्हारी आँखों में
आज किसके लहू की लाली
चमक रही है
ये आग कैसी दहक रही है
पता नहीं
तुमने मेरे धोके में किस पे ख़ंजर चला दिया है
वो कौन था
किसके रास्ते का चराग़ तुमने बुझा दिया है
ये ख़ून मेरा नहीं है
लेकिन तुम्हें भी शायद ख़बर नहीं थी
जहाँ निशाना लगाये बैठे थे
वो मेरी रहगुज़र नहीं थी
मैं कल भी ज़िन्दा था…
आज भी हूँ
मैं कोई चेहरा
कोई इमारत
कोई इलाका नहीं हूँ
सूरज की रौशनी हूँ
मैं ज़िन्दगी हूँ।
तुम्हारे हथियार बेनज़र हैं
तबील सदियों का फ़ासला
वक़्त बन चुका है
तलाश तुमको है जिसकी
वो अब
तुम्हारे अन्दर समा चुका है
तुम्हारी-मेरी ये दुश्मनी भी है
इक मुअम्मा
ख़ुद अपने घर को न आग जब तक
लगाओगे तुम
मुझे नहीं मार पाओगे तुम।
याद आता है सुना था पहले
याद आता है सुना था पहले
कोई अपना भी ख़ुदा था पहले
मैं वो मक़तूल जो क़ातिल न बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले
जिस्म बनने में उसे देर लगी
इक उजाला-सा हुआ था पहले
फूल जो बाग़ की ज़ीनत ठहरा
मेरी आँखों में खिला था पहले
आसमाँ, खेत, समन्दर सब लाल
खून काग़ज़ पे उगा था पहले
शहर तो बाद में वीरान हुआ
मेरा घर ख़ाक हुआ था पहले
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस-किस से गिला था पहले
एक मुस्कुराहट
चमकते बत्तीस मोतियोंवाली मुस्कुराहट
खुला हुआ बादबान जैसे
धुला हुआ आसमान जैसे
सहर की पहली अज़ान जैसे
पता नहीं
नाम क्या है उसका
ख़बर नहीं काम क्या है उसका
वो ठीक छे बज के बीस की
एक जगमगाहट
उतर के होठों से
यूँ मेरे साथ चल रही है
न छाँव कुछ कम है
रास्तों में
न धूप ज़्यादा निकल रही है
मैं जिस तरह
सोचता था
बस्ती उसी तरह से बदल रही है
ये इक सितारा
जो मेरी आँखों में
देर से झिलमिला रहा है
उसे…
समुन्दर बुला रहा है
जानता नहीं कोई
शायरी वहाँ है
जहाँ शायरी नहीं होती
रौशनी वहाँ है
जहाँ रौशनी नहीं होती
आदमी वहाँ है
जहाँ आदमी नहीं होता
शायरी-के लफ़्ज़ों में
रौशनी की शम्ओं में
आदमी के चेहरों में
जुस्तजू है
बेमानी
अब जहाँ भी जो शय है
वो…!
वहाँ नहीं होती
आग को
समन्दर में
नग़मग़ी को
पत्थर में
जंग को
कबूतर में
ढूँढ़ने का जोखम ही
आज का मुकद्दर है
जानता नहीं कोई
किसका किस जगह घर है !
हमेशा यूँ ही होता है
हमेशा यूँ ही होता है
घनी ख़ामोशियों के चुप अँधेरों में
कोई मिसरा
कोई पैकर
अचानक बेइरादा
उड़ते जुगनू-सा चमकता है
उसी की झिलमिलाहट में
कभी धुँधला
कभी रौशन
बिना लफ़्ज़ों की पूरी नज़्म का चेहरा झलकता है
वो मिसरा या कोई पैकर
छुपा रहता है जो अकसर
गुज़रते रास्तों में
गीत गाते ख़ाली प्यालों में
गली-कूचों में बिखरे
चाय ख़ानों के सवालों में
सुलगती बस्तियों
जलते मकानों के उजालों में
कभी बेमानी बहसों में
कभी छोटे रिसालों में
चिराग़ों में
नमक में
तेल में, आटे में, दालों में
वो जब भी तीरगी में
रौशनी बनकर निकलता है
खुला काग़ज
नयी तख़लीक के साँचे में ढलता है
यूँ ही मंजर बदलता है
हमेशा यूँ ही होता है
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