Paramjeet Kaur Reet Poem in Hindi : परमजीत कौर ‘रीत’ का जन्म श्री मुक्तसर साहिब पंजाब में हुआ था. इनके पिता जी का नाम श्री हरनेक सिंह और माता जी का नाम श्रीमती मनजीत कौर हैं. इनके द्वारा लिखी गई रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.
साहित्य सृजन : कुण्डलिया संचयन (कुण्डलिया-संकलन, सं- त्रिलोक सिंह ठकुरेला), मानक कुण्डलिया ( कुण्डलिया-संकलन, सं- रघुविन्द्र यादव), कथारंग (लघुकथा संकलन), शब्द की तलाश (काव्य संकलन) सृजन-सोपान(साहित्य-संकलन ,शिक्षा विभाग)
हिंदी कविता – परमजीत कौर ‘रीत’ (Hindi Poetry – Paramjeet Kaur Reet)
माहिया छंद (टप्पे)
कठपुतली क्या बोले
डोरी खींचे जब
ऊपर वाला हौले
जो श्वास खजाना है
क्या तेरा मेरा
इक दिन लुट जाना है
हैं लेख लकीरों के
मिलन-बिछड़ जाना
सौदे तकदीरों के
सुख के, दिन-रातों में
पंख लगें बीते
जीवन बस बातों में
दुख के हालातों में
पल-पल भी भारी
लगता दिन-रातों में
क्या मौज फकीरी की
सरल हवाओं को
कब फिक्र असीरी की
मन का ताना-बाना
चिंता तागे में
उलझाये मत जाना
खामोशी है कहती
बन यादें सावन
आँखों से है बहती
वो आँगन, फूलों की
याद सदा आये
बाबुल-घर झूलों की
मैया की बाहों को
भूल नहीं पाये
माँ-तकना राहों को
खोना क्या, क्या पाना
जीना अपनों बिन
क्या जीना, मर जाना
नदिया सा मन रखना
रज या कंकर हो
हँस-हँसकर सब चखना
नित रूप बदलता है
वक्त के पहिये पे
किसका वश चलता है
कूजागर जाने है
दीपक जीवन में
क्या ठेस मायने है
कूजे पर आन तने
कूजागर हाथों
डोरी तलवार बने
अहसासों के मोती
मन-आँखें-सीपी
धर-धर कर हँस-रोती
मुस्कान बताये हैं
घर में अच्छे दिन
अब वापस आये हैं
है फूल कि चेहरा है
रंग गुलाबों का
गालों पर ठहरा है
पल खुशियों के चुनकर
लाल-गुलाबी दूँ
घर-गुलदस्ते में भर
घर-बार सजाना है
फूल बहाना हैं
पि रूठे मनाना है
गुनगुन से चहका है
आहट है किसकी
घर महका-महका है
ग़ज़ल -1
जुगनू कहीं से आ गये जैसे ख़्याल में
उम्मीदें जगमगाई नये सर्द साल में
धीरज के साथ हौसला और फर्ज़ ओढ़कर
जलने लगे चिराग़, हवाओं के थाल में
संकल्प जो लिये हैं नये साल में तो अब
अंगारे कम न हों कभी भी इस मशाल में
ऐ ताज़ा साल! तूं ये बीते से न पूछना
रक्खा था उसने कब किसे याँ कैसे हाल में
ग़मग़ीन दिख रहा है जो गड्डा वबा के बाद
डिम्पल कभी खुशी का था चंदा के गाल में
चिड़िया की चोंच टूटके तलवार हो गई
सैय्याद सोचता रहा, कमियाँ हैं जाल में
क्योंकर तलाशें ज़ीस्त का बाहर जवाब ‘रीत’
दरवेशों ने कहा था कि हल है सवाल में।
ग़ज़ल-2
ज़रा सा जागने दो इस दीये को
अँधेरा फाँकने दो इस दीये को
दिवारों में वो रस्ता ढूँढ लेगा
दम अपना नापने दो इस दीये को
तमस तो ठेलता आया युगों से
अमा भी हाँकने दो इस दीये को
रँगीली रोशनी प्रतियोगिता में
कभी मत हारने दो इस दीये को
किसी की प्रार्थना का ‘रीत’ दामन
सो मन्नत टाँकने दो इस दीये को
ग़ज़ल-3
घर की हो घर से एक मुलाकात चाय पर
आये यों कोई शाम बने बात चाय पर
मसलों का हल या कर सकें बातें जहान की
मिलते हैं कम ही ऐसे तो लम्हात चाय पर
बजते हैं घुँघरू जब भी याँ पुरवा के पाँव में
गाती है गीत यादों की बारात चाय पर
थोड़ी शरारतों या कि नाराज़गी में दोस्त
कितने ही रंग बदलते थे जज़्बात चाय पर
आकर वबा ने इनको भी सबसे जुदा किया
तन्हां से हो गये हैं अब दिन-रात चाय पर
इक रोज़ मिलके बैठे जो आँसू खुशी तो ‘रीत’
होंगे कई जवाब-सवालात चाय पर
दोहे
होली पे सब रंग हों, मिलने को तैयार
रिश्ते मीठे कर रही, गुझिया की मनुहार
तेल उबलकर कह उठा, न्याय करे सरकार
गुझिया को ही क्यों मिले, संरक्षण-अधिकार
कूद पड़ी मैदान में, गुझिया थी तैयार
संघर्षों के तेल से, किये हाथ दो-चार
चखकर गुझिया झूमते, जैसे तन-मन-गात
भाँग-ठँडाई में कहाँ, ऐसी होती बात
कहने को कुछ भी कहो, गुझिया हो या ‘रीत’
ऊपर से हैं खुरदरी, अंतस मावा मीत
किसलय लें अँगड़ाइयाँ, पुष्प पढ़ें शृंगार
पी वसंत-रस माधुरी, झूम रहा संसार
पंख बिना उड़ने लगी, पहन पीत वह चीर
कानों में ऋतु-शीत के, क्या कह गया समीर
सुरभित हैं अमराइयाँ, मीठी हुई बयार
कोयल बिरहा कूक से, छेड़ रही मन-तार
गिन-गिन बीते दिवस तब, सरसों आई गोद
ओढ पीयरी माँ धरा, निरखे होकर मोद
पीत-वर्ण जोड़ा पहन, पगड़ी फूल अनंत
ग्रीष्म-वधू को ब्याहने, देखो चला बसंत
जंगल में मंगल लगे, तब जीवन पर्यंत
सभी ओर आनंद हो, मन में अगर बसंत
रामकथा के दोहे
कमल-नयन कीजै कृपा, सब जन रहें निरोग
मंगल हो संसार में, मिटे आपदा-योग
राम अवध में अवतरित, दशरथ-सुत सुचरित्र
श्रीगुरुदेव वशिष्ठ से, विद्या पायी, मित्र!
जनक राज-दरबार में, खींच शिव-धनुष-चाप
सिया-स्वयंबर में बने, राम सिया-वर आप
अवध पधारे वर-वधू, लीला का ही अंग
राम-सिया बनवास को, चले लखन भी संग
रावण ने सीता-हरण, किया कुटिल धर वेश
राम, सिया को ढूँढते, पहुँचे हनुमत-देश
सीता माँ को खोजकर, दिया राम-संदेश
सोने की लंका जला लौटे अपने देश
साथ विभीषण को लिया हुआ युद्ध का घोष
शक्ति पूजकर राम ने, दूर किये सब दोष
सेतु बने पत्थर सभी, राम-नाम ले ओट
वानर-सेना युद्ध कर, करे शत्रु पर चोट
लक्ष्मण हित संजीवनी, ले आये बजरंग
राम व रावण युद्ध में, विजय सत्य के संग
पूरे चौदह वर्ष का, बीता यों वनवास
लौटे राम अवधपुरी, चहुँदिस हुआ उजास
कुण्डलिया छंद
हिन्दी की महिमा परम, वैज्ञानिक है रूप।
सरल-हृदयग्राही-मधुर, विकसित कोष अनूप।
विकसित कोष अनूप, तरलता रही उदय से।
बोली-भाषा अन्य, शब्द जुड़ गये हृदय से।
भारत की है शान, भाल की जैसे बिन्दी।
सुरभाषा का अंग, ‘रीत’ है अपनी हिन्दी।
तकनीकी विस्तार ने, खूब बढाया मान।
विश्व पटल पर मिल रही, हिन्दी को पहचान।
हिन्दी को पहचान, विदेशों ने अपनायी।
लेकिन अपने देश, सुता क्यों हुई परायी।
राजभाषिका मान, सहज उपलब्धि इसी की।
बढ़ जाएगा शान, बनेगी जब तकनीकी।
निज भाषा संस्कार पर, कर न सके जो मान।
जग में हो उपहास औ’, खो बैठे सम्मान।
खो बैठे सम्मान, जाति वह सदा पिछडती।
निज भाषा उत्थान, दशा से बात सुधरती।
होता तभी विकास, बँधेगी फिर नव-आशा।
उत्तम रहें प्रयास, फले-फूले निज भाषा।
आओ मिल सारे करें, मन से यह प्रण आज।
हिन्दी में होंगे सभी, अपने सारे काज।
अपने सारे काज, राज की हिन्दी भाषा।
पायेगी सम्मान, देश की बनकर आशा।
छोड विदेशी राग, इसी का गौरव गाओ।
हिन्दी पर है गर्व, शान से बोलें आओ।
आए सूरज देव हैं, सुत-घर करन निवास
काल मकर-सक्रांति में, पूजन औ उपवास
पूजन औ उपवास, कहीं माघी के मेले
दीप-दान औ’ स्नान, भीड़ के चहुँ-दिस रेले
सद्कर्मों का मास, माघ बस यह समझाए
‘रीत’ कर्म अनुरूप, चखो फल जो भी आए
फैला डोर पतंग का, आसमान में जाल
सूरज को ढँकने चला, सतरंगी रूमाल
सतरंगी रूमाल, झूम बोले मतवाला
नभ में है त्यौहार, पतंगों वाला आला
पल में कटे पतंग, नहीं पर मन कर मैला
डोरी दाता हाथ, जाल सिखलाता फैला
मन में जब हों दूरियाँ, हिम हो जाएँ भाव
संबंधों को तापता, तब बस नेह अलाव
तब बस नेह अलाव, तरल हिमकण को करता
गुड़-गज्जक की भाँति, मधुरता मन में भरता
मोल नेह का ‘रीत’, समझ लें यदि जीवन में
मिट जाएँ सब द्वन्द्व, सदा हों खुशियाँ मन में
डैनों में विश्वास भर, बढें क्षितिज की ओर
देती है संदेश यह, नवल वर्ष की भोर
नवल वर्ष की भोर, और अरुणाई कहती
उत्तम रहें प्रयास, सफलता मिलकर रहती
चलते रहते पाँव, सदा जो दिन-रैनों में
बना लक्ष्य विश्वास, रहे उनके डैनों में।
राहें दुर्गम हों भले, सुविधाएँ हों अल्प
फिर भी नूतन वर्ष में, करना है संकल्प
करना है संकल्प, और है बढ़ना ऐसे
गढ़ना है निजरूप, शिला गरिमामय जैसे
निश्छल रखना कर्म, मिटेंगी दुख की आहें
उजलायेंगी ‘रीत’, कभी तो अपनी राहें।
फेरी छाया धूप की, साथी सहना मौन
पतझड़ बिना बसंत को, जान सका है कौन
जान सका है कौन, यही है अनुभव कहता
प्रातकाल निर्बाध, सदा है आकर रहता
नवल वर्ष की भोर, खिलेगी खुशियाँ ढेरी
‘रीत’ सुनो हे मीत, घटेगी पतझड़ फेरी।
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