Parantap Mishra Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Parantap Mishra ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. परंतप मिश्र का जन्म 1 अगस्त 1973 को उत्तरप्रदेश राज्य के भदोही जिले के इब्राहिमपुर गांव में हुआ था. इनके पिता एक बैंक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. इसलिए उनका तबादला होते रहता था. जिसकी वजह से इनकी प्रारम्भिक शिक्षा कोलकाता और उच्च शिक्षा इलाहबाद (प्रयागराज) हुआ. परंतप मिश्र जी 2004 से दुबई में व्यपार कर रहें हैं. साथ – साथ हिंदी एवं अग्रेजी में साहित्य की रचना भी करते हैं. इनकी रचनाओं को फ्रेंच, इटेलियन, स्पेनिश एवं फिनिश भाषा में अनुवादित किया गया हैं.
प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें : अंतर्यात्रा (काव्य संग्रह), विचार-प्रवाह (गद्य चिंतन) है।
अंतर्यात्रा – परंतप मिश्र (Antaryatra – Parantap Mishra)
1. नव जीवन
जीवन के पथ पर,
चलता रहा निरंतर ..
कुछ खोया कुछ पाया अनुभव
हर पल बहता हुआ
एक पवित्र नदी की तरह
हवा की भांति शीतल पर अदृश्य
फूलों की मादक गंध सा सुवासित
मैं स्वयं को इन सब में खोजता रहा
मैं कौन हूँ ?
किसकी मुझे प्रतीक्षा है ?
क्या है जीवन का उद्देश्य ?
परन्तु समय पर मेरा नहीं नियंत्रण
फिर भी समय और मेरा जीवन चिर मित्र रहे हैं
उनमें एक सम्बन्ध है
दोनों एक साथ रहते हैं और एक दूसरे के पूरक हैं
समय के पलों में मेरा जीवन पूर्ण होता रहा
अतः मेरे जीवन ने समय को अपना मित्र मान रखा था
पलों के साथ जीवन का कर्म अबाधित चलता रहा
जीवन को एक एक पल में जीना
परन्तु यह क्या, पलों का आना जाना
एक पल भी पल भर के लिए न रुका
पल, पल के लिए आते और पल में चले जाते
यह कैसी मित्रता !
जीवन का समय के साथ कैसा स्थायित्व
दुःख हुआ और अश्रु बह निकले
हृदय विदीर्ण होकर हाहाकार करने लगा
मन व्यथित हो चला
सोचने लगा मेरे जीवन और समय की मित्रता
मैंने कहा “मित्र समय !
तुम बड़े ही निष्ठुर और कठोर हृदय हो
मेरा जीवन तुम्हारा मित्र रहा और तुमने
उसकी जरा भी परवाह न की
समय ने कहा “मित्र ! मैं स्वयम् प्रतिपल परिवर्तित हो रहा हूँ
मैं तो स्वयम स्थिर नहीं हूँ,
जो आज हूँ वह कल न रह हूँ
और जो कल था वह आज नहीं हूँ
मेरे मित्र ! जैसे साँसों की निरंतरता को तुम जीवन मानते हो
उसी तरह पलों की निरंतरता ही मेरा जीवन है
यह जीवन नहीं यह तो निरंतरता का प्रतिफल है
साँस और पल हम दोनों के जीवन का आभास है
तुम धड़कनों में जीते हो और मैं पलों में
मेरे पास तो अपना कोई आकार, शरीर और मन भी नहीं
तुम्हारे जीवन का तो एक अंत है, यात्रा की एक सीमा है
मेरी यात्रा तो अंतहीन है कालातीत है
मेरी और तुम्हारी मित्रता, कैसे संभव है ?
कुछ पलों का साथ हो सकता मात्र अहसास सहभगिता का
जिसे तुमने मित्रता मान लिया होगा
मैं स्तब्ध हो गया उत्तर सुनकर ।
जीवन में यह कैसा परिवर्तन
विचार की गहराइयों में उतरने लगा
मुझे अवसर मिला स्वयं से मिलने का
स्वयं की प्रतिमूर्ति मेरे अंतस में
शांत, प्रकाशित आनंदित मेरी प्रतीक्षा में
मैं भयभीत हुआ, भाग जाना चाहता था।
उसने मुझे रोका और कहा,
कहाँ जा रहे हो ?
अब आ ही गए हो तो ठहर जाओ
और कितनी यात्राएँ करते रहोगे स्वयं से दूर होकर
इस नश्वर संसार में,
तृष्णा, दुःख और अनिश्चितता के सिवा कुछ भी नहीं है
इस जीवन में यह सब तुमने देख लिया
अब स्वयं को और मुझे पहचान लो
मैं तुमसे भिन्न नहीं हूँ, तुम्हारा अस्तित्व हूँ
कितने वर्षों से तुम्हारे भीतर बैठकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ
अब न जाओ, मुझे पहचान लो
जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाओ
अंतहीन यात्रा, जीवन की यात्रा का अंत कर दो
कितनी यात्रा, कितने जन्म
और कितना कष्ट भोगना चाहते हो ?
सुनता रहा विस्मृत सा, स्व – बोध के शब्द
मैं समाप्त होने लगा, स्व अंत का प्रारम्भ हो चुका था
पल भर में सब कुछ समाप्त हो गया
अब मैं एक प्रकाश पुंज मात्र था – मेरी आत्मा
अब मैं अपनी आत्मा के साथ आनंदित रहता हूँ
सभी कुछ पूर्ववत् है दैनिक जीवन में
पर आसक्त नहीं हूँ, निष्काम कर्म करता हूँ
यह मेरे शरीर की समाप्ति का अनुभव रहा
मेरे लिए नया जीवन शरीर से परे
सर्वमुक्त ।
2. प्रेम धारा
आज बहुत दिनों के बाद
समुद्र के किनारे बैठ कर देर तक,
आती – जाती हुई लहरों को देखता रहा
सोचता रहा, कौन हैं ये लहरें
क्या है मेरा और इनका सम्बन्ध
पहले भी अक्सर मैं
अकेले होने पर इनसे मिलने आता रहा हूँ।
मेरे आने पर पर ये लहरें
मुझे देखकर बहुत आनंदित होकर
मेरा स्वागत करती थीं ।
बहुत सारी बातें हम आपस में करते थे,
मुझे अच्छा लगता था
उनका बाहें फैलाकर कर दौड़ते हुए आना,
सुंदर संगीत, स्नेह और आत्मसात का आमंत्रण,
मुझे भी लहरों से असीम प्रेम था ।
यह मेरे जीवन का आवश्यक और अनिवार्य अंग था।
मुझे बहुत प्रिय था वह क्षण
जाती हुई लहरें मुझे उदास कर जाती थी,
परन्तु पुनर्मिलन का वचन देकर
हम दोनों दुखी मन से विदा लेते थे
यह उनका और मेरा प्रेम था।
मैं सबसे अपनी प्रेम कहानी कहता था।
एक दिन किसी ने मुझसे कहा
तुम लहरों से प्रेम करते हो ?
तुम सोचते हो
लहरों का आना और जाना तुम्हारे लिए है ?
यह तुम्हारी नादानी है
लहरों का आना जाना तो एक क्रम है
जो निरंतर चलता रहता है
वो लहरें तुम्हारे न होने पर भी उसी तरह चलती हैं।
मैं स्तब्ध रह गया,
जैसे किसी ने आसमान से जमीन पर ला दिया हो
सुनकर अच्छा न लगा
उस पर विश्वास भी न हुआ
सोचा लहरों को छुपकर देखूं, क्या
वे सचमुच मेरे बिना भी खुश रह सकती हैं
पाया, यह सत्य था
उनका अनवरत और अबाधित क्रम किसी के लिए नहीं,
बल्कि यह तो उनका कार्य है
निश्चित रूप से यह मेरा भ्रम था
पर मुझे यह भ्रम बेहद प्रिय रहा है
आज भी जब मुझे उनका प्रेम याद आता है
आँखों से आंसुओं की धारा बह निकलती है
क्योंकि मेरा उन लहरों से अटूट प्यार था
इसमें लहरों का कोई दोष नहीं
3. मेरे विचार मेरे मित्र
मैं अक्सर मिलता रहता हूँ
अपने विचारों के साथ
ये मेरे सच्चे मित्र रहे हैं
जब भी मुझे अकेलेपन का आभास होता है
ये मुझसे मिलने चले आते हैं
साहचर्य की अनुभूति प्रतीत होती है
ह्रदय की गहराईयों से मैं उनका स्वागत करता हूँ
मेरे विचारों का और मेरा अटूट आत्मिक सम्बन्ध है
हम एक दूसरे के पूरक जो हैं
ये हमेशा मेरे साथ रहते हैं
एक दिन मैं नितांत अकेला बैठा था
मेरे विचार मुझसे मिलने आये
मैंने बहुत खुश होकर उनका स्वागत एवम अभिन्दन किया
कुशल – क्षेम औपचारिक संवाद पश्चात्
एक विचार ने मुझसे कहा-
“मित्र ! क्या तुम स्वयं से भी कभी मिलते हो ?
तुम्हें नहीं लगता की तुम कितने बदल चुके हो
तुम्हारा जीवन कितना नकली और कृत्रिम हो गया है
भौतिक विकास की अंतहीन दौड़ में
क्या तुम स्वयं को भूल गए हो ?”
मैंने कहा -“हम विकास के पथ पर हैं,
सतत विकसित हो रहे हैं ?”
अत्यंत समीप आकर अन्य विचार ने बड़े प्रेम से कहा –
“मेरे मित्र ! तुमने अपना बाहरी विकास तो बहुत कर लिया
पर अंदर से उतने ही खाली और शक्तिहीन हो गए हो
आन्तरिक विकास शून्य है।
अब तो तुम केवल कृत्रिम वस्तु रह गए हो
तुम्हारे सभी क्रिया-कलाप दिखावा मात्र हैं
बहुत दूर हो चुके हो स्वाभाविकता से, प्रकृति से
तुम्हारी ‘दया, प्रेम, करुणा और विश्वसनीयता मात्र भ्रम है
जो कुछ भी तुम करते हो उसका यथार्थ से कोई मतलब नहीं
तुम्हारे होंठ हँसने का झूठा क्रम करते हैं
अत्यंत निराशा निमग्न, फिर भी खुश दिखने की कुचेष्टा
हृदय से अलग थलग तुम्हरी हँसी विष की तरह है
यहाँ तक की तुम्हारा प्रेम भी एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं।
तुम्हरी दया एक औपचारिकता से अधिक नहीं
करुणा को तुमने मात्र अभिव्यक्ति तक सीमित कर दिया है
विश्वसनीयता मृतप्राय हो चुकी है
अब तो कुछ भी तुम हृदय से नहीं करते
कृत्रिमता के बोझ तले वास्तविकता दम तोड़ रही है
फिर भी देखो मनुष्यों के विचार और विकास की ललक
कैसा विकास किया तुमने मेरे मित्र !
पृथ्वी को सीमा रेखाओं में विभाजित कर कितने भाग कर दिए
मनुष्यता को तुमने धर्म, भाषा, रंग, जाति में बाँट दिया
इस पर भी क्या तुम संतुष्ट रह सके ?
कभी देखा है प्रकृति का रमणीय सौन्दर्य
सुवासित पवन, सूर्य का आलौकिक प्रकाश, कल कल करती नदियाँ,
गर्व से उन्मत्त पर्वत, झूमते वृक्ष, इठलाती कलियाँ, भौरों का गुंजन
चिड़ियों की चहचहाहट, शीतल चंद्रमा
यह सभी देश, काल, भाषा, रंग और जाति से परे हैं
तुम्हारी असमर्थतता है कि तुम इसे बाँट न सके
तभी यह सब कृत्रिम होने से बच सके
और प्राकृतिक आनंद से सराबोर नैसर्गिक जीवन जी रहे हैं
इन्होंने कोई भेद या सीमा-रेखा नहीं निर्धारित की
इन्होंने अपने आपको बनावट से परे रखा है
उनके लिए सब समान हैं
इसलिए वे अंदर और बाहर से संतुष्ट हैं।
बाहरी विकास एक छलावे से अधिक कुछ भी नहीं
प्रकृति की सुन्दरता सभी के लिए समान है
सुगन्धित पुष्पों से सुरभित वायु किसी एक के लिए नहीं
सूर्य का जीवन दाई प्रकाश चराचर जगत के लिए है
लहराती नदियों का जीवन संगीत सबका है
वृक्षों का अमृत फल
आसमान में तैरते हुए पक्षी सीमा-रेखा से विभाजित नहीं
जबकि तुमने सबकुछ कई भागों में विभाजित कर लिया है।
तो तुमने स्वयं को भी बांटने से नहीं चूके
अब जब कुछ भी न बचा
अब तुम, तुम नहीं रह गए
भौतिक विकास का एक कृत्रिम संयंत्र मात्र रह गए
जीवन की मृगतृष्णा और अंतहीन दौड़ का हिस्सा हो
बनावट, दिखावा, प्रचार एवं आत्मप्रशंसा के अभिशाप से युक्त
उपकरण में मेरे मित्र ! कुछ भी स्वाभाविक नहीं होता
केवल एक ढाँचा, प्राकृतिक गुणों से वंचित
जिसको केवल परिष्कृत और परिमार्जित किया जाता रहा है।”
मैं थोड़ा असहज हो चला था
मेरी स्थिति को भाँपते हुए उन्होंने कहा-
“सोचो, क्या मानव और यन्त्र में कोई भेद रह गया है ?
तब तक के लिए विदा मेरे प्रिय
हम फिर मिलेंगे ”
4. स्वप्न पुष्प
जीवन का अविरल प्रवाह
हृदय की धरा में उपस्थित कुछ सुप्त बीज
पल्लवित हो चले थे मस्तिष्क की उर्वरा पर
मेरे सपनों की छाया चित्र की तरह
मनमोहक विविध रंगों की कलियाँ एवम पुष्प
मेरे विचारों की तरह अनन्त रूप लेकर
इन आकर्षक पुष्पों की शृंखला
मेरे मन की बगिया में पुष्पित हुई थी
एक कुशल माली की भाँति
मैंने यह सुंदर उद्यान बनाया था
बहुरंगी तितलियाँ नाजुक पंखुड़ियों पर थिरकती थीं’
मधु के लोभी भ्रमर दल की मादक गूँज फैली थी चारो ओर।
नवयौवना सी आत्ममुग्ध कमल पंक्तियाँ
मादक लताओं का प्रीतिकर आलिंगन पाकर
प्रति दिन आनन्द और सुवास से परिपूर्ण
मधुर एवं रोमांचित रात्रि-पल।
एक स्वप्न की अनुभूति ही थी।
कल्पना लोक में विचरण करते हुए
कई बार आकाश के अंतिम छोर तक गया
तो कई बार पाताल की गहराईयाँ भी नापीं
कभी घंटों साथ – साथ रहे
और कभी अजनबी की तरह भी।
इस तरह मिलते और बिछड़ते
खोते और पाते
चलता रहा जीवन
और मैं कर भी क्या सकता था
कल्पनाओं के लोक में एक अनजान की तरह
बह रहा था लहरों के साथ।
वे लहरें एक रमणीय नर्तकी की भाँति
इतराती और बलखाती रहीं
यह एक मेरी आँखों का भ्रम था या सपना
बड़ा ही प्रीतिकर था मेरे लिए
पर मैं कैसे इसपर विश्वास कर सकता था ?
कैसे इनके साथ जीवन जी सकता था ?
मेरा इनका क्या सम्बन्ध हो सकता था ?
नींद की गहराइयों में वे मेरे साथ होते थे
जागते ही सबकुछ एक स्वप्न हो जाता था
अचेतन में साहचर्य और चेतनता में वियोग
परन्तु मेरे लिए यह एक अनुभव रहा
जीवन का एक और पहलू
मेरी अबोधता, मेरे सपने
मेरा पाना, मेरा खोना
यथार्थ और कल्पना का जीवन
जो भी कुछ था
वो मेरा अपना ही था
मेरी प्रिय कल्पनाएँ
मेरे सपनों की
पल्लवित पुष्पित वाटिका
5. मानव विकास
स्वयं सृजित प्रतिस्पर्धा के साथ संघर्षरत
कपोल-कल्पित संभावनाओं की राह पर
स्वार्थ के बोझ तले दबा
औपचारिक संबंधों का झूठा प्रदर्शन
समृद्धि का ढोंग
झूठे ज्ञान और आत्म-प्रशंसा का आडम्बर
मात्र अहंकार का पोषण होता है जिससे
बेचारा हो गया है आज का मानव
भूल गया है वह
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के मानकों को
समाज के लिए नैतिक कर्तव्य
संभावनाओं की असलियत
सार्वजनिक व्यवहार के मानदंड।
आचरण की पवित्रता
रिश्तों की अनिवार्यता
प्रियजनों के साथ आत्मिक सम्बन्ध
श्रेष्ठ लोगों का सम्मान करना
जन कल्याण हेतु जीवन त्याग
बौद्धिक वार्ता सब के सब मूर्खता के
एक उदाहरण बन गये हैं।
यदि, यह विकास है!
तो मेरे प्रभु! मैं इस तरह की सफलता
और विकास मुझे नहीं चाहिए।
जो मुझे मेरी संस्कृति एवम् सभ्यता से वंचित कर दे।
धर्म परायणता, सदव्यवहार, समाज, प्रेम और करुणा।
को तिलांजलि देकर
नव-जागरण स्वीकार्य नहीं है,
मेरे ईश्वर, मानव होने के लिए मेरी मदद करना
सवेदना-शून्य यंत्र के लिए नहीं।
6. मेरे चंदा मामा
बचपन से ही चंद्रमा के प्रति मेरा अनुराग रहा है
इसकी शीतलता और शांति आकर्षित करती है मुझे
रोमांचित करती है मधुर धवल चाँदनी लुभावनी सुकुमारता।
मेरी प्यारी दादी मुझसेअक्सर कहा करती थी
मुझे याद है, जब मैं बहुत छोटा बच्चा था
मुझे प्रसन्न रखने के लिए
वो जो चंदा है आकाश में
वो तुम्हारे मामा हैं चंदा मामा !
वो सदा तुम्हारे साथ रहेंगें
कभी डरना नहीं
तुम अपने को कभी अकेला न समझना
मेरे बच्चे ! हो सकता है कि मैं बहुत दिनों तक
जीवित न रहुँ पर ये तुम्हारे साथ होंगे हमेशा।
मेरी दादीजी ने सत्य ही कहा था
अब वो इस दुनिया में नहीं हैं
पर यह चाँद मेरे साथ है
रोज रात मैं उनसे मिलता हूँ
मैं घंटों अपलक निहारता हूँ
मेरी दादीजी की अनमोल स्मृतियाँ जो जुड़ी हैं
मुझे अत्यंत आनंद और संतुष्टि मिलती है।
जब रातों में सब लोग सो जाते हैं
यह मेरे साथ जागता रहता है
सबकुछ भूलकर मैं उनकी गोद में आराम करता हूँ
मध्य रात्रि तक, वो मुझे सुंदर गीत सुनाते हैं
मैं मंत्रमुग्ध और बेसुध हो जाता हूँ
जब आँखें बोझिल होने लगती हैं
और मैं बड़ी मुश्किल से कहने का प्रयास करता हूँ-
मेरे प्यारे चंदा मामा, तुम कहीं चले न जाना
हमेशा मेरे साथ ही रहना
शायद ! मैं भी कल रहूँ या न रहूँ
मेरी प्यारी दादी की तरह
पर तुम सदैव रहना इसी तरह
मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए
तुम्हारी जरूरत होगी।
7. पुष्प वाटिका
मैंने बचपन में एक बगिया लगायी थी
अपने गाँव में पूर्ण समर्पण के साथ
अब मैं कई वर्षों से शहर में रहता हूँ
पर, मैं एक पल के लिए भी नहीं भूल सका उसे
इतने लम्बी समयावधि के बाद भी
उसे हृदय में सँजोये फिरता हूँ
मानो कल की ही घटना हो
बहुत सारे सुंदर फलों के पेड़ों का परिवार
विविधि रंगों के खुशबूदार, आकर्षक फूल.
नाजुक लताओं से पटा प्यारा तालाब
मधुमक्खियों के छत्तों से बहती मादक गंध
हवाओं में तैरती तितलियों और पक्षियों का कलरव
सुकुमारता के साथ प्रकृति का अल्हड़ यौवन
बड़ा करीबी रिश्ता था मेरा इनके साथ
सौभाग्य से आज उनसे मिलने का अवसर मिला
लंबे समय के बाद गाँव की ओर चल पड़ा
यात्रा यादों के साथ समाप्त हो गयी
अंततः जब मैं वहाँ पहुँचा
मैंने एक शापित भूमि और उजाड़ क्षेत्र को पाया
ऊँचे गर्वित पेड़, केवल सूखी लकड़ी के कंकाल हो गए थे
केवल अवशेष मात्र बचा था उन मनमोहक
लताओं और फूलों का।
मेरी आँखों से अश्रु धारा बह चली
एक विशाल मृतप्राय पेड़ टूटी साँसो के साथ
कुछ बोलने का प्रयास रुँधे गले से करने लगा
अंतिम शब्द में उसने कहा
“मेरे मित्र ! आखिर तुम यहाँ वापस आ ही गए
आनंदित हूँ और भाग्यशाली भी जो आखिरी साँस से पूर्व
तुमसे पुनः मिलने का अवसर पा सका
मेरी अंतिम साँसे इसी बेला की प्रतीक्षा में अटकी रहीं
क्षमा करना मित्र! हम सभी तुम्हारी ही बाट देख रहे थे
पर, अब मुझे छोड़कर सभी मृत हैं।”
स्वयं पर मेरा काबू न रहा
लिपटकर फूट-फूट कर रोता रहा
कुछ सूखी पत्तियों ने हवा में उड़कर
मेरे आसुओं को पोंछा
मृतप्राय लताएँ आलिंगनबद्ध होकर कराहती हुईं बोलीं
“मेरे प्रिय! तुम्हारे जाने के बाद कोई नहीं आया
तुम्हारा सुंदर उद्यान परित्यक्त रेगिस्तान हो गया
हमारी शाखाओं पर बच्चे झूलने नहीं आते थे
प्रेमी जोड़ों ने अपना ठिकाना कहीं और बना लिया
पक्षियों ने अपने घोसले भी न बनाये
जब तालाब सूख गया, लताएँ जल के अभाव में न बचीं
आकर्षक पुष्प असमय मृत्यु का शिकार हो गए
पर, हम सभी तुम्हें एक पल को भी भूल न सके।
तुम्हारे संग बिताये वो अविस्मरर्णी पल हमारी पूँजी हैं
जो अब इस जीवन में पुनः प्राप्त न हो सकेंगे।
हमारी एक प्रार्थना है, हम जानते हैं की यह सरल न होगा
अब तुम्हीं हमारा अंतिम संस्कार कर देना
क्योंकि तुम्हीं हमारे अभिभावक रहे हो
तभी हम इस भावनात्मक बंधन से मुक्ति पा सकेंगे
और हमें अपने अगले पड़ाव पर जाने की अनुमति दो
यह तुम्हारा उपकार होगा हम पर
लेकिन एक बात मानो मित्र ! रोना बंद करो
हम वादा करते हैं, पुनः आयेंगे तुम्हारे पास
जब तुम एक नयी बगिया में हमें बुलाओगे।”
समय जैसे ठहर सा गया कुछ समय के लिए
वातावरण अत्यंत बोझिल हो चला था
मेरे गले से आवाज तक नहीं निकल पा रही थी
साहस जुटाकर मैंने कहा-
“मुझे कसम है ! तुम्हरे साथ बिताये वसंत की
इस वर्षा ऋतु के साथ तुम सभी को वापस आना होगा
एक मधुर मुस्कान उन सभी के चेहरों पर झलकी
वो मुक्त हो चुके थे, आँखें खुली ही रह गयीं थीं
पर मेरे हृदय में सदा जीवित रहेगा
जीवन के अंतिम क्षणों तक
उनका सन्देश और
उनको दिया मेरा वचन
8. तुम्हारी ओर
कहाँ हो तुम मेरे प्रभु !
क्या न मिल सकोगे इस जीवन में
पर मेरा प्रयास चलता रहेगा, सतत
बढ़ रहा हूँ हर पग तुम्हारी ओर
तुम्हारी उपस्थिति को महसूस करता हूँ
मुझे आभास है तुम्हारी अनुभूति का
अनकही सभी बातें मैंने सुनी है
मानसिक लगाव की स्थितियों में
अहसास की प्रधानता होती है
शब्दों की आवश्यकता कम ही पड़ती है।
मेरे द्वारा कभी-कभी लिखे गए शब्द
भावनाएँ हैं जो नदी में बह जाती हैं
मैं उन्हें रोक न सकूँगा
यह तो उनका स्वाभाविक गुण है।
जैसे नदी रास्तों का परवाह नहीं करती
वह बहती जाती है सागर की ओर
जहाँ वह स्वयम् को विलीन कर सके
अपने अस्तित्व को मिटा सके।
यही तो है उसके जीवन का उत्सर्ग
स्व को नष्ट कर देने का आनन्द
उसकी एक नयी पहचान
सदा के लिए नदी नाम का त्याग
समुद्र ही हो गयी वह
अब उसे भी सागर ही कहेंगे।
वे एक हो गए
एकता का सुखद अनुभव
मार्ग की सभी पीड़ाओं को समाप्त कर देता है
मैंने भी हार नहीं मानी है
मैं प्रयासरत हूँ अपने पथ पर।
एक दिन मैं तुम्हे अवश्य पा लूँगा
स्व का अंत कर तुममें ही समा जाना है,
तुम्हारी उपस्थिति ही मेरा अस्तित्व है
सदा के लिए अपने आपको मिटा देना है
जहाँ हमें शब्दों की आवश्यकता ही न हो
मैं और तुम अब हम बन गए हैं
केवल एक, अब दो का संबोधन नहीं
तभी तो गंगा-सागर एक तीर्थ बनता है
9. मेरे चिर मित्र !!
जीवन के मधुमास का अनमोल क्षण
प्रिय ! मैं तुमसे मिलने आया हूँ
रिक्त हस्त,
प्रेमाभिव्यक्ति को पुष्प भी न ला सका
अन्य कुछ समर्थ न थे जो
मेरे हृदय के स्पंदन एवम् मन की
संवेदनाओं को तुम्हारे अन्तस् तक सहेज पाते
सुंदर पुष्पों की चाह में,
अभिमंत्रित वाटिका में पहुँचा
नयनाभिराम मंत्रमुग्ध हो अपलक
देखता रहा –
मदमस्त यौवन से उल्लासित
फूलों और सुकोमल कलियों को
गलबहियाँ डाले एक-दूसरे में लिप्त, पुष्प-गुच्छ
सुवासित वायु में मादक मकरंद की उत्तेजना
भ्रमर दल का मनमोहक साम-गान
नव सृजन की बेला का स्वागत करती प्रकृति
समस्त वातावरण, रति-समर्पित आदर्श मौन
देखकर मन रोमांचित हो उठा
एक चंचल कली को उसकी डाली से
अलग करने का लोभ संवरण न कर सका
कली ने अल्हड़ता से मुस्कुराते हुए कहा –
“प्यारे पथिक ! क्या मेरे जीवन का उत्सर्ग
तुम्हारे प्रेम की प्राण प्रतिष्ठा को चिर स्थायित्व दे सकेगा?
तुम मनुष्यों के अतिरिक्त समस्त सृष्टि में
कोई अन्य, अपने प्रेम अभिव्यक्ति के लिए
किसी का आलम्बन नहीं लेता ..
अच्छा होगा अपने प्रेम की तीव्रता एवं तपस्या को
समर्थता दो, वो तुम्हारी प्रेमिका तक पहुचे स्वयं”
निःशब्द सा, मैं अनुत्तरित पर, सजग हो चला था-
धन्य हो तुम, ऋणी हूँ तुम्हारा, हे कली !
प्रेम में किसी भी तरह की हिंसा का कोई स्थान नहीं
अपने शब्दों को बना समर्थ,
दूँगा सुमधुर सन्देश अपने प्रिय को ..
कुछ पल ठहर कर देखता रहा
विस्मृत, मोहित और अचल होकर
नन्ही कलियों का आकर्षक नर्तन
नव यौवन को सम्भालते सुरभित पुष्प
रंगीली तितलियों के चुम्बन से
शरमा कर अपनी ही डाली पर झूलते
सुकुमार मनमोहक बहुरंगी पुष्प दल
प्रतिपल जीवन के सर्वोच्च सन्देश को
समस्त वातावरण को दे रहे थे
मैं पूर्णतः उनके प्रेम में डूब चुका था
पुष्प वाटिका के आकर्षक पुष्पों को
तुम्हे भेंट करने की अभिलाषा
अब न रही
मैंने उनके जीवन के परम आनंद को
कुछ पलों में आत्मसात कर लिया था
किसी पुष्प को उसकी डाली से च्युत करना
प्रकृति के शृंगार एवं नियमों की अवहेलना
अब मैं नहीं कर सकूँगा
स्वयं के प्रेम प्रदर्शन के लिए
पुष्प की आहुति, उनके प्रेम का अंत
नवयौवना का असमय वियोग
मेरे प्रेम का प्रारम्भ कभी नही हो सकेगा
यह एक हिंसा होगी
जो मेरे समस्त जीवन का कलंक बनेगी
अतः मेरे आत्मिक मित्र !
जीवन के मधुर मकरन्द से सम्पूरित
सुगन्धित, अपनी डाली पर मदमाते
सुंदर, सजीव आकर्षक एवं स्निग्ध
वे सभी मादक कलियाँ और पुष्प
यथास्थान, मेरे शब्दों में
अर्पित करता हूँ तुम्हें ..
स्वीकार करो ..
मेरे चिर मित्र !
10. वरदान
स्वागत करता हूँ तुम्हारा
हृदय की गहराईयों से
ओ शांति के दूत!
पहले मैं तुम्हें न जान सका
नित्य नूतन और नवीन
अब मैं महसूस करता हूँ।
जैसे कि तुम मेरे सहयात्री हो
न जाने कितने जन्मों से
हमने साथ यात्राएँ की हैं
पता नहीं ऐसा क्यों लगता है
कई कारण हो सकते हैं ।
वर्षों तक साथ रहते हुए भी
कोई अपरिचित रह जाता है
और कभी सात समुद्र पार रहकर
जिसको देखा और जाना भी न हो
अपना सा लगता है
क्या यह कोई अदृश्य शक्ति है।
इतने दूर रहकर भी
आत्मीयता का प्रतिपल अनुभव
तुम्हारी ओर खींचता है
हृदय की धड़कन में तुम्हारी उपस्थिति।
मेरे प्रभु मुझमें हैं
मेरे अव्यक्त विचारों को समझते हैं
मन की अभिलाषाओं को जानते हैं
मैं भी उनकी प्रेरणा और कृपा से
जीवन के प्रत्येक पल से
उनका धन्यवाद करता हूँ ।
हम एकदूसरे में रहते हैं
शायद कभी मिल सकें
और शायद ऐसा कभी-भी न हो
मिलना और बिछड़ना केवल एक घटना है
पर, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ मेरे साथी!
आत्मिक प्रेम सुधा के सागर!
बिना मिले और बिछड़े
तुम मेरे साथ हो सदैव
और मैं, तुममें रहता हूँ
यह मेरे लिए एक वरदान ही तो है
11. अंकुरण
मुझमें एक बीज पलता है
जीवन के साहचर्य के साथ सुप्तावस्था में
जान न सका कभी उसकी उपस्थिति को
हृदय भूमि की नम उर्वरा शक्ति के साथ
पर, जब मैंने महसूस किया।
एक अंकुरण की अनुभूति
अपरिचित पीड़ा की मधुर मिठास
कुछ घटित हो रहा था नवीन।
मानो बहुप्रतीक्षित विकास की पदचाप
आलौकिक आनंद परिवर्तन के साथ,
नई कोपलें सहमी हुई सी फूटीं
अपनी उपस्थिति की घोषणा करती
मेरी भावनाओं की शीतल बौछार से
मुझमे एक नव जीवन ने
सुकुमार पौधे का रूप ले लिया
एक सहजीवन का आरम्भ
हृदय में एक सुखद हलचल
पौधे के कोमल पत्तों का स्पर्श
बहुत ही प्रिय और अव्यक्त प्रेम
जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका था
मैंने अपने लहू से सींचा था इसे
अपने साँसों को उडेला था उसकी पत्तियों में
ताजगी दी थी अपने विचारों की
प्रकाशित किया था उसे अंतरात्मा के प्रकाश से
कोमल भावनाओं का दुलार दिया था।
मन ने पूर्णतया स्वीकार किया था
कहीं सूख न जाये
बासी न हो जाए
क्योंकि अब तुम्हारी
अपनी जड़ें, पत्तियाँ और टहनियाँ मेरी पहचान हैं
मेरा जीवन सहअस्तित्व का परिणाम हैं
एक सुंदर सपना जैसा लगता है सबकुछ
अब प्रतीक्षित है
इस सहजीवन के उपहार स्वरूप
तुम्हारी टहनी पर एक सुंदर कली का आगमन
जो सम्पूर्ण जगत को सुवासित कर दे
अपनी प्राकृतिक मादक सुगंध से
12. मैं सुनता हूँ
मेरे मित्र ! शायद हमेशा की तरह
मैं तुमसे मिल नहीं सकता हूँ,
पर मेरे सहयात्री ! हताश नहीं मैं
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।
डर और अपेक्षाओं की लालसा से
बहुत दूर, पर पास तुम्हे पाताहूँ।
भोली आँखों में पलते सपने से
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।
झरते अश्रुकणों की मतवाली चाह से
जीवन – बेल की लता को सींचता हूँ
नए विहान की पहली रश्मि से
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।
पृथ्वी – स्वर्ग की सीमाओं से
मुक्त तुम्हे मैं कर जाता हूँ
पर, यह मेरा विश्वास अटल है
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।
13. अव्यक्त गीत
ऐसा क्यों होता है कि
तुम कुछ कह न सके और मैं
तुम्हारे शब्दों को तलाशता रहा,
तुम कुछ सुन न सके और मैं
प्रतिपल तुम्हे पुकारता रहा।
तुम कुछ देख न सके और मैं
सुंदर सपनों को सजाता रहा
तुम कुछ महसूस न सके और मैं
दर्द से हमेशा मुस्कुराता रहा।
तुम एक पत्र को न समझ सके और मैं
पातियों पर पातियाँ भेजता रहा,
तुम कोई गीत न गा सके और मैं
कविताओं की रचना करता गया।
तुम मित्र न बन सके और मैं
चिर मित्र की कल्पना कर बैठा,
तुम कवितायेँ न समझ सके और मैं
अक्षरों को शब्दों में पिरोता गया।
तुम आँखों में झाँक न सके और मैं
आंसुओं को छुपाता रहा,
तुम संगीत न समझ सके और मैं
ह्रदय ताल से गुनगुनाता रहा,
तुम कभी मिल न सके और मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा।
14. यात्रा
पता नहीं क्यों ?
मैं सोचता हूँ सभी कुछ एक यात्रा है
और मैं इस सतत यात्रा का यात्री
हर पल यात्रा की ओर कदम बढ़ाता
मेरी आत्मा मेरी सतत यात्रा की साक्षी रही है।
न जाने कितने जन्मों की यात्रा कर चुका
और न जाने कितने जीवन शेष है ?
आज का मेरा जीवन उसी की निरन्तरता है
इस जीवन की यात्रा में
यह भौतिक शरीर एक माध्यम बना है।
इस नश्वर संसार में
हमने अपनी साँसों से यात्रा पूर्ण की है
जबकि सूक्ष्म जगत की यात्रा
के लिए शरीर की आवश्यकता नही पड़ी
ये दोनों ही तरह की यात्रा के प्रकार हैं
एक यात्रा ही सच्ची है बाकी सब व्यर्थ।
हम अपने भौतिक शरीर से भी
अंदर और बाहर की यात्राएँ करते हैं
कुछ शारीरिक और कुछ मानसिक यात्रा
विचारों की यात्रा, भावनाओं की यात्रा
कल्पना की यात्रा और अपेक्षाओं की शृंखला
चाह, प्रेम, लगाव, स्वार्थ और लालच
सभी यात्राएँ ही तो हैं
जो हम दैनिक जीवन में करते हैं
कभी विचार किया
इस यात्रा का आरम्भ और अंत क्या है ?
क्या यही हमारी नियति है ?
यात्री की अंतहीन यात्रा !!!
15. ओढ़नी प्रेम की
आकर्षण से सम्मोहित यह जीवन
मान्यताओं के समक्ष असहाय है
जीर्ण-शीर्ण हो चुकी सामाजिक रीतियाँ,
रूढ़ियों में जकड़ी परम्पराएँ।
भोली आस्थाओं के बंधन
धर्म की कारागर से सम्पादित आचरण
विश्वास का थोथा आवरण
सृष्टि के नियम में दम तोड़ती भावनाएँ
अंधविश्वास में सड़ते तर्क
बढ़ते हुए विकास के पग पर बेड़ियाँ हैं
क्षणभंगुर इस विश्व की परिकल्पना में
ज्ञान का अहंकार समृद्धि की धड़कन
सुन पाने में अक्षम हैं।
ये सभी सार्वभौम सत्य की स्वीकार्यता
के मार्ग में बाधा मात्र है
जब तुम सामान्य ही न हो सकोगे
तो नैसर्गिक जीवन कैसे बह पायेगा ?
अच्छा होगा
कृत्रिमता की सलाखों से बहार निकालो
तभी प्राकृतिक प्रेम का अंकुरण संभव हो सकेगा
निरपेक्ष सत्य की अद्भुत शक्ति के समक्ष
सभी दीवारें ध्वस्त हो जाएँगी
और उस नए उजास में जीवन
अपनी समग्रता के साथ खिलेगा।
सभी कुछ प्रेम का ही परिणाम है
अगर प्रेम ही न रहा तो कुछ भी न रहेगा
जैसे असली सोना तप कर और निखर जाता है
वैसे ही सबकुछ नष्ट हो जाने पर भी
प्रेम की चमक बढ़ती ही जाएगी।
अपने प्रेम को पहचानो
इस समस्त जीवन को ढकने के लिए
प्रेम की एक ओढ़नी ही पर्याप्त है
16. नयन बसेरा
दुनिया की सबसे खूबसूरत आँखों में
मेरी अपनी एक छोटी सी दुनिया है
आकर्षक, चमकीली और सागर सी गहरी
आकाश जहाँ धरती का चुम्बन लेता है।
गर्व से खड़े पहाड़ों के मस्तक पर
विस्तृत सागर की असीमित जलराशि
अपनी मदमस्त लहरों के वेग द्वारा
किनारे पड़े पत्थरों से अठखेलियाँ करती है।
प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता जहाँ समाहित है
वहाँ मेरी एक छोटी सी कुटिया है
समस्त वातावरण अप्रतिम सौन्दर्य से सुसज्जित
मनमोहक सुगंध से झूमता पुष्प-पराग से मण्डित
समस्त गोचर एवं अगोचर प्राणी से विलसित।
प्रेम की पराकाष्ठा की अनुभूति से सम्पूरित
उल्लसित पवन, पक्षियों का प्रेमगीत
चहुँओर आनन्दानुभूति का चरमोत्कर्ष
मुदित मिलन की स्थापना का पवित्र पर्व
आयोजित है जहाँ पर।
पर्वत शिखर गलबहियाँ डाले निहार रहे हैं
पूर्ण वेग से उद्वेलित जलधारा को
जो स्वयं को अपने चिर प्रेमी सागर की
बाँहों विलीन कर देने को उत्सुक है
मैं धन्य हूँ की यहाँ मेरा बसेरा है
और भला कहाँ रहूँगा मैं इन नयनों के सिवा
अब कहीं जाना भी न चाहूँगा
जहाँ मेरे सपनों ने जन्म लिया
मैं वहीँ रहूँगा सदा के लिए।
17. एकाकीपन
आज रात्रि के अंतिम प्रहर में
मेरा चाँद अपनी यात्रा से थक गया है
मैं अपलक इस समय को
पल-पल बीतते देख रहा हूँ
जैसे कि मैं कुछ खो रहा हूँ
कल की सुबह के लिए सूर्य
अब बस निकलने को है
सबकुछ रोज की भाँति प्रायोजित है
पर कुछ ऐसा है जो कल न मिल सकेगा।
यह सब मेरे साथ घटित हो रहा है
मैं असहाय, कुछ कर भी नहीं सकता
जो बीत रहा है वह वापस न आएगा
चाँद जो रातों का मेरा साथी है
पल भर को हो न सका उसके साथ
और अब तो वह विदा लेने को है।
मेरी पीड़ा का आभास उसे है
अपने आँसुओं को उसकी आँखों में देखा है
विदा लेते हुए उसने कहा –
अब मुझे जाना होगा, मेरे चिरमित्र !
बिछड़ने का दर्द फूटकर बह निकला
मुझे स्वीकार नहीं तुम्हे खोना
सारी खुशियाँ तुम बिन अधूरी हैं।
फिर आ जाओ एक बार
नम आँखों में खुशियाँ अपार
मैं स्तब्ध देखता रहा अपना एकाकीपन
जिन पलों में मैंने जिन्दगी जिया था
वो अब मुझसे एक-एक कर दूर हो रहे थे
जो कभी मेरे अपने हुआ करते थे।
18. अद्वैत
नित्य प्रति जब मैं जागता हूँ
अपनी साँसों में तुम्हारी उपस्थिति
को महसूस करता हूँ
मेरी अंतरात्मा में तुम्हारा वास है।
सूर्य की किरणों के साथ दिन का आरम्भ
स्वच्छ कर अपने तन और मन को
बारम्बार प्रणाम करता हूँ
हे कुशल निर्माता !
कैसी है यह उत्कृष्ट देह रचना ?
दैनिक जीवन के व्यस्त दिनों में
मैंने सुना है “कर्म ही पूजा है”
तुम्हे अर्पित करता हूँ प्रतिक्षण।
शाम के आगमन के साथ
पक्षियों का समूह नीड़ों की ओर
और रात का दबे पावन प्रवेश
यही तो दिनचर्या है मेरी
पर इन सभी पलों में
मैं तुमसे कभी अलग न रहा।
हर क्षण तुम्हें साथ पाया है
सभी चीजों में और सभी जगहों पर
तुम ही तो हो मुझमें
मैं तुमसे भिन्न नहीं।
तो फिर मिलने और बिछड़ने का कैसा मोह !
प्रश्न ही नहीं रह जाता
यही अवस्था तो अद्वैत है
तुम मुझमें रहते हो और मैं
तुममें खो चुका हूँ
19. क्षितिज के पार
पर्वत और मैं
एक चिर मित्र रहे हैं, जबकि
मेरा जन्म मैदानी इलाके में हुआ
पर मुझे पहाड़ों से
बड़ा आत्मिक स्नेह रहा है।
सदा ही मुझे आकर्षित किया है
इनकी मूक वार्ता, सन्देश एवं
अपरिवर्तनीय गतिविधियों ने
कभी-कभी घाटियों में
नितांत एकांत नीरवता में
मैंने इनके आदर्श मौन
को देर तक सुना है।
प्रकृति के सर्वोत्तम उपहारों से युक्त
इनकी इन्द्रधनुषी मनोहरता को
अपलक निहारता हूँ तबतक
कि जबतक आँखों के द्वारा
हृदय तक इनका स्नेह-स्पर्श
घनीभूत होकर बह न जाये।
शरीर की धमनियों में
मनोरम दृश्यों की सुकुमारता को
आत्मसात कर लेना चाहता हूँ
मुग्ध होकर देखता हूँ इनके सौन्दर्य को
मनोरमता, निस्तब्धता के साथ व्यापकता
विस्तृत क्षेत्र, विशालता और निर्भीकता।
एकाकी होकर भी
गर्व से पृथ्वी पर तन कर खड़े
ये मेरे प्रेरणा श्रोत हैं
जो मुझे ललकारते हैं
चुनौतियों के साथ आगे बढ़ो
आओ देखो, शिखर पर आकर
क्षितिज की ओर
और क्षितिज के पार
क्या है ?????
20. स्वप्न-मीत
जिन सपनों की मैंने प्रतीक्षा की
जीवन का एक सुन्दरतम स्वप्न
वह मिला भी मुझे, एक बार
पर यह मिलना भी कैसा मिलना
औपचारिकताओं और दूरियों के मध्य
मैं आगे बढ़कर ह्रदय से न लगा सका
और वह अनकही कह न सके।
एक पल को ऐसा विश्वास नहीं हुआ
कितना प्रतीक्षा-रत रहा मैं
इस स्वप्न से मिलने को।
मेरी प्यास, तुम्हारी खोज अब भी है
कितना आनंद ! कितना प्रेम ?
मेरी आत्मा में जो बसता है
हर पल जो सृजन करता है
मिलन के अद्भुत संयोग
कितनी ही मनमोहक बातें !
पर साक्षात् मिलन की प्यास
आशा का अंत असम्भव है।
स्वप्नों में मिलना पर्याप्त नहीं
मेरे ह्रदय को शांति नहीं मिलती
विरह की यह पीड़ा है
कभी तो आ जाओ कुछ पल के लिए
महसूस कर सकूँ साँसों के प्रवाह को
अब और प्रतीक्षा शायद न हो पाए
जीवन को सहेजने के लिए
स्वप्न ने कहा –
तुम्हारा मिलन इस जीवन के पार है।
क्या यही नियति है ?
21. स्मृतियों का गाँव
स्मृतियों का एक गाँव मुझमें बसता है
मेरे अंदर कहीं गहरे में
बिना भेद-भाव सभी साथ पलती हैं
मीठी, कडवी, ममस्पर्शी, भावुक, वन्दनीय
काल्पनिक, उत्तेजक, प्रेरणादायी, और दयनीय
मेरी यादों का अपना एक संसार है
उनकी अपनी एक जीवन शैली है।
बचपन से आजतक की जीवनयात्रा की
स्मृतियाँ इस गाँव में रहती हैं
मेरे जीवन के साथ इनका जीवन जुड़ा है
कुछ नयी स्मृतियाँ भी आकर बसती जाती हैं
उस गाँव में उनका बड़े ही सम्मान
और आदर के साथ स्वागत होता है।
मेरी उम्र का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
उनकी अपनी कोई उम्र नहीं होती
और वे उम्र की सीमा के परे हैं
शरीर का अंत हो जाने पर भी वे जीवित रहेंगी
अवचेतन मन की गहरायों में इनका निवास है
जीवन की सभी यादों का यहाँ लेखा-जोखा है।
मनः स्थिति के अनुसार वो उत्पन्न होती हैं
भूली-बिसरी यादों की एक शृंखला
किसी क्षण बचपन की यादों के साथ मिली
बड़ी ही सुखद अनुभूति रही।
अपने पैरों पर चलने की चेष्टा
विद्यालय के लिए जाना
माँ का वात्सल्य और पिता की सीख
दादा-दादी का वरदहस्त
भाइयों-बहनों के साथ रूठना और मनाना
सभी कुछ जीवंत हो गया
मेरे जीवन की स्मृतियाँ
चलचित्र की तरह चलने लगती हैं
मुझे जब भी समय मिलता है
मैं स्मृतियों के गाँव में अवश्य जाता हूँ
सभी स्मृतियाँ आकर लिपट जाती हैं
वे मुझे सदैव कुछ न कुछ सिखाती हैं।
एक दिन एक स्मृति ने मुझसे कहा
हम तो तुम्हारे जीवन की मात्र स्मृतियाँ भर हैं
और इतना पर्याप्त है हमारे लिए
इससे अधिक की चाह भी न रही हमारी
बस तुम भी हमारे बीच कोई अंतर न करना
किसी प्रकार के उँच-नीच का भेद न डालना।
क्योंकि तुम्हारी सोच में विभाजन है
यह हमारा अनुभव है तुम्हारे जीवन के साथ
इस दुनिया को तुमने
अच्छे और बुरे में विभक्त कर दिया है
हमारे साथ ऐसा न करना
हममें फूट न डालना
जिससे हम सदा प्रेम से रह सकें।
मुझे बड़ी ग्लानि का आभास हुआ
मैं वहाँ से चलने लगा
वे कहने लगीं- ‘प्रिय ! हम तुम्हारे अपने हैं
आते रहा करो अच्छा लगता है हम सबको
पर तुम तो अपने गतिमान दैनिक जीवन में
बहुत व्यस्त हो चुके हो
अतः स्वयं से भी मिल नहीं पाते
तो फिर हम तो मात्र स्मृतियाँ ही हैं
पर तुम्हारी अपनी और सदा साथ रहेंगीं
चिर प्रतीक्षित तुम्हारे लिए।
22. नव प्रभात !
सूर्य की रश्मियों का मधुर स्पर्श
रजनी का अंतिम प्रहर बीत चला है
चंद्रमा ने भी सहमति प्रदान कर दी है
अब विदा लेने का क्षण है।
पुनर्मिलन के वादों के साथ
प्रिय संध्या की मादक वेला में पुनः
अब रजनी धीरे-धीरे सरक चली है
जीवन-रस परिपूर्ण उन्मादित सूर्य रश्मियाँ
प्रकृति के कण-कण को
प्रेम और दुलार से जगा रही हैं।
कोमल अधखुली नन्हीं सुकोमल कलियाँ
अधखुले नयनों से निहार रही हैं
आनन्द उत्सव में मग्न नृत्य करते
उल्लासित जल प्रपात प्रचण्ड वेग से
चट्टानों को बाँहों में भर लेते हैं।
दुर्गम रास्तों से बलखाती नदियों का
कल-कल करता कर्णप्रिय संगीत
ताज़ी हवा के आंचल में झूमते
पेड़-पौधों का सुवासित विस्तार
बेल-लताओं के मादक आलिंगनबद्ध
फूलों के पराग के प्रति आसक्त
भौरों का प्रणय-गीत
प्रकृति नटी के सभी रंगों को
आत्मसात् किये बहुरंगी तितलियाँ
पक्षियों की पंक्तिबद्ध उड़ान।
स्वागत एवं अभिनन्दन करते सब हैं
इस नए विहान का
धन्य हो तुम रश्मियाँ जो आई हो
लेकर जीवन इस भू पर
नयी चेतना के साथ।
ये मेरे प्रभात के मधुर क्षण में
इस विश्व को प्रेम, शांति और आनन्द
के अवसर दे सकें शुभकामनाओं के साथ
स्वागत है तुम्हारा पुनः पुनः
नव प्रभात !!
23. आँसू मेरी लहरों के
कल की शाम बड़ी प्रिय रही
सागर के विशाल जलराशि के एक छोर पर
पूर्णतः शांत वातावरण
मैं अकेला झूमती लहरों के साथ
उनका प्रणय-गीत और उन्मत्त नृत्य
रेत के नर्म आवरण पर
कोमल स्पर्श सा मधुर आलिंगन
जानी-पहचानी अपनत्व भरी छुवन ने
मुझे भाव-विभोर कर दिया।
उनके मधुर संगीत के बहाव में
मेरी भावनाएँ भी तैरने लगीं
हृदय के स्पंदन और लहरों के आवर्तन में
एक तारतम्यता स्थापित हो चली
गीली रेत पर कुछ अक्षर उकेरने लगा
सुंदर शब्दों को चुनकर रचना की
उसके मादक यौवन के वक्षस्थल पर
अंतर्मन की अभिव्यक्ति, विचारों का प्रवाह
आदर्श मौन, नीरवता और अभिमंत्रित
लहरों ने आकर मेरे शब्दों को
पूर्णतः आत्मसात कर लिया
यह एक अविस्मरणीय क्षण रहा
हमारी मौन वार्ता का।
इठलाती मधुर मुस्कान युक्त लहरों ने कहा
यह तुम्हारा मदहोश करता साहचर्य
हम कभी न भूल पायेंगें
अतिरेक के वे क्षण और तुम्हारी भोली प्रीति
तुम्हारे सभी शब्द अत्यंत प्रिय रहे हैं
सुवासित पुष्प की तरह सच्चा प्रेम
जैसे सूर्य की नव रश्मियों का कोमल स्पर्श
बीज की तरह तुम्हारे एक-एक शब्द
मेरे अंतस की गहराईयों में बस गए है
गर्भ में पल रहे हैं
बहुत धन्यवाद तुम्हारा इस आत्मिक
आनन्दातिरेक अनुभव के लिए, मेरे प्रिय !
हमारा मिलन सफल और हम धन्य हुए
मैं अपलक निहारता रहा
आकाश की व्यापकता और सागर से भी गहरे
शब्दों की सीमा के परे अनमोल कथन पर
स्वयम को व्यक्त कर पाने में असमर्थ पाया
मुझे अब भी याद है मैं कुछ कहना चाहता था
उसने मेरी आखों में झांकते हुए कहा-
‘तुम्हारे स्नेह पत्र एक-एक शब्द
मेरे लिए अमूल्य रत्न हैं
भले ही वो मेरी कलाई में नहीं सजे
पर ये मन-मस्तिष्क पर अमिट हैं’
मैं स्वम को रोक न सका और बोला –
‘क्या मादक वसंत ऋतु के रस में सराबोर
मेरे शब्दों के गहनों से सज तुम आ सकोगी
अथवा वो सभी तुम्हारी कुक्षि में समाहित रहेंगे
पहले भी न जाने कितने गर्भ अब तक
प्रस्तुत न हो सके
तुम्हारी गोद सदा सूनी ही पायी है, मैंने
हमारे पवित्र प्रेम-पुष्प अब तक न खिले
मुझे अब तक उनकी प्रतीक्षा रही है’
मातृत्व मुखर हो उठा, उसने कहा –
‘मेरे प्रिय !! तुम्हारी उर्जा का प्रवाह
आह! वह प्रथम प्रसव की पीड़ा
सब हुए अंकुरित, पल्लवित मुझमें
हैं सभी सुरक्षित, पलते साथ मेरे
हमारे प्यारे मोती, माणिक और रत्न
हैं आकर्षक, सुंदर, शांत और कोमल
अमूल्य, सम्मोहक, और चमकदार
यह सभी तुम्हारी सम्पत्ति
सम्भाल कर रखा है मैंने –
इस दुनिया के मानव के लिए
उपहार स्वरूप हमारा प्रेम-पुष्प
हमें अमर कर देगा
जब हम न रहेंगे यहाँ
सभी की भावनाओं में
हमारा प्रेम बहेगा।
अब मैं चलती हूँ मेरे चिरमित्र !
कृपा करके गलत न समझना मुझे
मैं तुम्हारी हूँ सदा ही
दौड़ती हूँ तुम्हारी नसों में रक्त बनकर
प्रत्येक क्षण तुममें ही है मेरा अस्तित्व
कभी आँखों से बह निकलूँगी तब जानोगे’।
वो लहरें आज भी मुझमें बहती है,
मेरे अंदर बड़े गहरे में
आती हैं कभी-कभी आँसू बनकर
यह उनका वादा जो था।
24. मेरे शब्द – मेरे बच्चे
मेरे शब्द मुझे सदा प्रिय रहे हैं
इनमें ही मैं इनकी माँ की झलक पाता हूँ
ये मेरे सुख और दुःख को भली-भांति समझते हैं
मेरा हँसना, बोलना, विचार एवं भावनाएँ
कुछ भी नहीं छुपा है उनसे
शायद जानते हैं वे मुझे, मुझसे भी अधिक
जब कभी मैं विचलित, निराश
और अकेला होता हूँ
वो मेरे साथ होते हैं, अश्रुपूरित
बहुत समय बाद एक दिन
एक प्यारे शब्द ने कहा –
“हम जानते हैं कि आप हमारे जनक हैं
पर हमारी माँ कहा हैं
हम उन्हें बहुत याद करते हैं
मिलना चाहते हैं।”
मैंने कहा –
“तुम्हारी उपस्थिति माँ की ही देन है
तुम्हारी प्रेरणा और सम्बन्ध
तुम्हारी सुन्दरता, सुकुमारता और सुशीलता
सभी कुछ माँ की तरह ही है, तभी तो
तुम सब मुझे उसकी तरह अत्यंत प्रिय हो
बहुत कुछ न कर सका
मात्र सहयोग की एक मधुर पीड़ा
बच्चों ने कहा, “अब चलते हैं
अपनी माँ से मिलने। ”
आनन्द अतिरेक और माँ के मिलन ने
जैसे उनमें एक नयी स्फूर्ति और उमंग दे दी
सभी गले से लिपट गए
ख़ुशी से झूमते हुए नाचने लगे
कितने समय बाद यह पल मिला था
माँ का मातृत्व और साहचर्य
माँ को पाकर अत्यंत सतुष्ट हुए
तब एक दिन माँ ने कहा-
“अब तुम्हें अपने पिता के पास जाना होगा”
वो लौटना नहीं चाहते थे,
चकित थे, मना कर दिया
अब न जा सकेंगे इस प्रेम सुधा को छोड़।”
माँ ने कहा, – “इस दुनिया की यही रीति है
बच्चे अपने पिता के द्वारा ही जाने जाते हैं
मैं तो एक प्रेरणा का माध्यम ही हूँ
यह सच है कि मैंने तुम्हे जन्म दिया है
पर तुम पर मात्र मेरा ही अधिकार नहीं।”
मेरे शब्द निराशा से भर गए
मेरे पास आकर सब कुछ सुनाया
मुझे बड़ा दुःख हुआ
मैंने अपनी संवेदनाओं को स्वयं से
अधिक प्रेम किया था
लगा जैसे ये सभी मृतप्राय हो गए है
जीवन के कोई लक्ष्ण ही शेष न रहे
आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी, मेरी आँखों
के समक्ष मेरे निष्प्राण शिशु।
स्तब्ध गहरी सम्वेदना में असहाय शब्द
मैंने कहा, “मेरे बच्चों
अब आजाद हो जाओ निराशा से
सदा के लिए बन्धनों से मुक्त
पर, मै अब भी बँधा हुआ हूँ
शायद! मुक्त न हो सकूँगा
मुझे अब भी तुम्हारी माँ से
उतना ही प्रेम है
क्योंकि वह मेरे जीवन की प्रेरणा है
तुम इसे मानो या न मानो
यह सत्य है, यही सत्य है
25. कसक
मैं मानता हूँ
तुम एक दरिया हो
अपने सीने में दर्द का गुबार
छुपाकर, बह तो सकती हो
कहीं भी, किसी भी तरफ
कभी विशाल चट्टानों को फाड़कर
कभी बागों के बीच से भी
लेकिन अंत में
तुम मिलोगी अपने प्यार के साथ
सागर है तुम्हारे इन्तजार में
जहाँ वह तुम्हारे एक-एक आँसुओं को
अपनी पलकों पर सजा लेगा
मोती की तरह
पर मेरा क्या ?
मैं क्या करूँ
कहाँ बहूँ, कहाँ ले जाऊँ मेरी पीड़ा
मेरे दर्दों की टीस
किसे जाकर कहूँ ?
चारो तरफ दीवारों से घिरा जो हूँ
मेरे लिए ये आसान न होगा
दर्द को पिघलाकर
उड़ेल दूँ अपनी पीड़ा को
मेरे लिए, कोई सागर भी तो नहीं
क्योंकि मैं तुम्हारी तरह
दरिया तो नहीं
दर्द का तालाब हूँ।
26. यात्रा के पड़ाव
बर्फ के दो टुकड़े
साथ – साथ रहते थे
आपस के आकर्षण ने उन्हें
बहुत नजदीक ला दिया था
मिलते थे वो अक्सर
अपनी बाहरी सीमाओं के साथ
भौतिक स्तर पर यह उनका लगाव था
मिलन और उत्कट होकर पुनर्मिलन को बेचैन।
क्षण भर का मधुर सयोंग
तृप्ति न दे सका अंतस को
मादक, सरस, अवर्णनीय, अकल्पनीय
शीतल, स्निग्ध, शांति की अनुभूति।
तृष्णा बढ़ती जा रही थी
मिलन की प्यास बुझ न सकी
वह परम आनंद की क्षणिक झलक
चरम अवस्था का अद्भुत साहचर्य
एक अग्नि शिखा को जन्म दे गया।
बार बार दोहराते रहे यह क्रम
पर, ठहर नहीं पाया आनंद का परम स्रोत
कभी पल तो कभी दो पल
क्षण भर को ही स्थायित्व की अनुभूति
कुछ दूरियाँ रह गयीं जैसे कुछ बच गया हो।
यह उनका दैहिक आकर्षण,
स्थायी न हो सका
चरम आनन्द की प्राप्ति का अनवरत प्रयास
अनजाने में प्रेम को अंकुरित कर गया।
मन के धरातल पर प्रेम का पौधा पनपने लगा
जीवंतता आ गयी सम्बंधो में स्थायित्व के साथ
सब कुछ ज्यादा आकर्षक हो गया।
क्योंकि प्रेम मन के स्तर पर हो रहा था
अहंकार एवं आकर धीरे-धीरे पिघलने लगा
बर्फ अब भारहीन होकर पानी हो
दोनों अब आकारहीन एक दूसरे में विलीन हो गये
जल ने जल को पूर्णतः आत्मसात् कर लिया
न मिलन की लालसा और न विछोह की पीड़ा।
पर, यह तो एक पड़ाव है मंजिल नहीं
अभी भी बहुत कुछ तिरोहित होना बाकी था
कुछ दिनों बाद मन भी विरक्त होने लगा
आकार से निराकार की यात्रा का यह आरम्भ था
जल के प्रेम की पूर्णता ने उसे वाष्प बना दिया
धरातल पर नहीं अब वे, एक होकर
अनंत की यात्रा में हवा के साथ बढ़ चले
दो शरीर अब एक आत्मा बन गये
द्वैत भाव मिट चुका था।
दो आत्माएँ अब एक हो चुकी थीं
जिनका कोई आकर एवम् भार नहीं था
आत्मा की यह एकरसता थी
अंततः आत्मा चल पड़ी अपने अंतिम लक्ष्य की ओर
उस परमसत्ता से एकाकार होने के लिए
जहाँ से आयी थी।
एक बीज के रूप में, अंकुर फूटे
वृक्ष बने और बिखर गए फूल बनकर
फिर उसी मिट्टी में,
लोग इसे जीवन कहते हैं।
पर यह तो यात्रा के पड़ाव मात्र हैं
जैसे एक बूँद का लक्ष्य महासागर में मिलकर
महासागर बन जाना ही उसकी पहचान है
बंधन से मुक्ति तक की यात्रा को मैं जीवन मानता हूँ
लक्ष्य एक है मार्ग अनेक
परमात्मा से आत्मा का मिलन ही पूर्णता है
शेष बचता है केवल परमात्मा
अनादि, अनंत, सर्वव्याप्त
सत् चित् आनन्द।
27. स्मृति
एक दुनिया बसती है मुझमें
तुम्हारी सुखद स्मृतियों की
तुम्हारे साथ बिताये हुए सभी पल
आज भी जीवित हैं
मुझे आनंदित करते हैं।
तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होता है
इसलिए एक-एक पल को रोक लेना चाहता हूँ
बीतने से पहले, जी लेना चाहता हूँ एक युग
विचरण करता हूँ तुम्हारे साथ
स्वर्ग में बनी मनमोहक बगिया में
हाथों में हाथ डाले आहिस्ता-आहिस्ता
देखता हूँ जब तुम्हारा रूप-सौन्दर्य।
मंत्रमुग्ध, चेतनाशून्य निःशब्द पाता हूँ अपने आप को
अपलक आँखों से
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य का मदिरा-पान करके
मैं मूर्तिवत् होकर स्वयं में खो जाता हूँ
पलकों के भार से बोझिल अधखुली आँखें
झील-सी गहरी आँखों में समाधिस्थ पाता हूँ
दूर पहाड़ी से गिरते हुए झरने की तरह
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी कानों में
मिसरी की तरह घुल जाती है
रक्ताभ होंठों से झाँकती धवल दन्तपंक्ति
आसमानी बिजली की तरह चमक जाती है।
मैं रोक लेना चाहता हूँ इन लम्हों को
अभी न जाओ, ठहर जाओ कुछ देर के लिए
अब तुम्हारे सौन्दर्य की अमृतवर्षा में
मेरे तन – मन पूरी तरह भीग चुके हैं
कैसे जाने दूँ तुम्हें इन पलों के साथ
संयोग के पलों को सुरक्षित कर लेना चाहता हूँ
वियोग की अग्नि से बचने के लिए।
इतना सुंदर स्वर्ग कभी नहीं लगा मुझे
धीमे कदमों से चलती हुई, दरवाजे के उस पार
तुम ओझल हो गयी और
मैं आज भी स्वर्ग की सीढ़ियों पर
प्रतीक्षारत स्वयं को पाता हूँ।
यह मेरा विश्वास है, तुम निष्ठुर नहीं
एक दिन फिर तुम आओगे मुझसे मिलने
पर, अब चलता हूँ यहाँ से
तुम्हारे बिना यह स्वर्ग वीराना सा लगता है।
और अब फर्क भी क्या पड़ता है
तुम मेरी आँखों के रास्ते
मेरे मन में बस गए हो
मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम का सागर लहराता है
जब वेदना की आग से वाष्पित होकर
एक धारा बनकर बह निकलती है।
मेरे शब्दों में उतर जाते हो तुम एक कविता बनकर
एक नदी की तरह प्रवाहित होने लगती हो
एक गीत की तरह गुनगुनाने लगता हूँ मैं तुम्हें
सब कुछ तुम्हीं हो, तुम्हारा ही है सबकुछ
कुछ भी नहीं हूँ मैं, मेरा कुछ भी नहीं है
तुम्हरी स्मृतियों के सिवा।
28. परिणति
जिस दिन से मैं, मैं न रहूँगा
सिर्फ तुम ही, तुम रह जाओगे
और तब मैं तुममें ही रहूँगा
सोचो फिर कैसे भूल पाओगे ?
तुम्हारे प्रेम गीतों से सजी सुमधुर तान
रक्ताभ होठों से झरती मादक मुस्कान
अधखिली कलियों के मदन रस से सिंचित
सुवासित उन्मादित देह में, तुम मुझे पाओगे
सुरभित मंद पवन की, मनभाती अनबोली चितवन
सर्द रात्रि की एकाकी पीड़ा, अनछुई सी सिहरन
मधुमास की असह्य वेदना हो जाये जब विरहन
आते जाते अपनी स्वाँसों में तुम मुझको अपनाओगे
जीवन के अनजाने पथ पर थक जाओ जब चलत- चलते
जन्मों के साथी जब चले जा रहे यूँ ही मिलते और बिछड़ते
कलश मंगल भीग सेजाये जब नयन नीर से झरते -झरते
संसार सिन्धु में मेरी नैया, प्रलय में अपने पास पाओगे
असरहीन जब हो जाये यौवन की अंगड़ाई
आशाओं के दीप बुझे, हो अपनी प्रीत पराई
छोड़ कभी जब साथ दे, अपनी ही परछाई
मैं तेरा चिर मित्र फिर तुम किसको और बुलाओगे
पुनः प्रयाण की तैयारी है, आना है हर बार यहाँ
हमें नहीं मालूम मरे और हम जन्मे कितनी बार कहाँ
अभी तो याद नहीं है, जाने की है डगर जहाँ
ये अनंत की अंतिम यात्रा, अब भेद नहीं कर पाओगे
29. प्रयाण
चुन – चुन कर सुंदर शब्दों को
मैं अब लिखता गीत प्रणय के
सावन की कुछ प्यासी फुहार
अलसाए पल प्रिय, वसंत के
नव – प्रभात के प्रथम प्रहर की किरणों सी
स्मृतियाँ जागृत उस महा महा मिलन की
मधुमास की प्यास में प्रकृति बनी दुल्हन सी
कली सुगन्धित झूले झूला डाली पर यौवन की
कल – कल करता लहरों का मादक नर्तन
प्रेम विवश तट पर चुम्बन लेते प्रस्तर का
बिना राग- द्वेष होते आवाहन और समर्पण
चरम शांति की होंठों से झरे बूँद निर्झर की
इस जीवन में सपने जैसे विस्तृत नील गगन के
मानव बटोरता अनुभव सारा बीते हुए लगन के
मन से करता संघर्ष निरंतर लगते दाव दमन के
मिलन और विछोह लक्षण, शाश्वत आवागमन के
30. बादल
जब मैं बादलों को देखता हूँ
हवा के झोंको के साथ उड़ते हुए
मेरा मन मयूर बन नाचने लगता है
प्रेम के आनन्द वृष्टि से तन-मन सराबोर
मेरा भावुक मन उड़ चलता है
मधुर कल्पनाओं की मादक बयार में
मेरे भावनाओं के बादलों को, और
आकांक्षाओं को पंख लग जाते हैं
तुच्छ स्वार्थ और इस भौतिक संसार से
बहुत दूर, मेरे अंतरतम उद्यान में
मादक बयार और प्रेम घन वृष्टि का स्पर्श
आनंद के रोमांच की अव्यक्त प्रतीति
स्वच्छंद विचरण के अनमोल पल
नव प्रभात की लालिमा सी सकुचाती
लरजते पुष्प गुच्छों के सौन्दर्य पर मुग्ध
ओस के मोती बन साहचर्य पाना
स्वतंत्र विचारों का पवित्र भावनाओं के साथ
अटूट अदृश्य निष्काम आलिंगन
मधुमास की मधु से टपकती
एक प्यारी कुँवारी बूँद का प्रथम समागम
तपती धरती के होठों का चुम्बन
गीली मिट्टी की हवा में तैरती सोंधी सुगंध
शब्दों में समाहित मंगल कामनाएँ
मेरी कविता की अनजान डगर
भावनाओं के आवारा बादल
कल्पना का आलम्बन लेकर
आप तक जब कभी पहुँचें
एक उत्सव की तरह
मना लेना इस आनन्द पर्व को
हृदय की मौन मुस्कान ही
मेरा प्रशस्ति ज्ञापन होगा।
तो, आओं स्वीकार करो आमंत्रण
भावनाओं की बदरी में
सभी संताप को तिरोहित कर
आनंद के प्रवाह में बहते हुए
कुछ गुनगुना लो मन से
मेरे शब्दों में तुम्हारी उपस्थिति
विचारों में कल्पना की तरह
बादलों में भावनाओं की तरह
बह जाने दो, भीग जाये अंतस
मौसम के बन्धनों से मुक्त
ओस के मोती हमारे।
31. विहान
सुदूर क्षितिज के पास
जहाँ उन्नत आकाश झुक कर
विस्तृत धरती का आँचल स्पर्श करता है
पूर्व दिशा से निकला सूर्य
अब पश्चिम दिशा में श्रमशान्त होगा
दिनभर की यात्रा पूर्ण कर
अपनी किरणों की लालिमा से
समस्त जगत को आनंदित करता हुआ
सूचित कर देता है सभी को
आज के लिए विदा का समय है।
उत्सुकता से प्रतीक्षारत संध्या सुन्दरी
पूर्ण शृंगार सुशोभित मिलन को उद्यत है
सागर, नदियों, प्रपात और झीलों के
हरे, नीले, शुभ्र और श्वेत बहते जल
सूर्य की पीली रश्मियों की अंतिम स्पर्श से
मदहोश होकर स्वर्णिम हो चलें हैं
पेड़ पौधे और लाताएँ अलसा से गए हैं
दूर देश में फैले पक्षी
अपने नीड़ की ओर लौट चले हैं
लहरों के नर्तन एवं संगीत के साथ
नीरवता को आत्मसात् करते हुए
नदी के दूसरे छोर पर कोई गीत गाता है
नवयौवना संध्या सुन्दरी अभिमंत्रित
सूर्य को निहारते हुए निःशब्द
अहा ! मधुर यह सांध्य वेला
संध्या सुन्दरी के आवाहन पर विश्रांत सूर्य
रजनी की गोद में शयन करेगा
कल पुनः नव रश्मियों के रथ पर सवार होकर
इस विश्व को नयी उर्जा से आलोकित करेगा
स्वागत है नव विहान
स्वागत।
32. जल और जीवन
जीवन के रथ पर सतत प्रवाहित
कालचक्र के पहिये में घूमता
अवस्थाओं के चरणों में विभक्त
कौन है पहला और कौन आखिरी
कहना आसन न होगा
मानव भी जन्म मरण के चक्रों को
जीता है कई चरणों में
स्वरूप तो परिवर्तित होता है पर
कुछ है जो परे है
जो कभी नष्ट नहीं होता
अविनाशी, अविभक्त, काल से मुक्त
यात्रा किया करता है
जल की ही तरह
धरती के धैर्य और आकाश के ताप से
वाष्पित हो
उड़ चलता है हवाओं के साथ
आवारा बादल बन स्वत्रंत विचरण करते
किसी पर्वत की चोटी पर मुग्ध
सर्वस्व अर्पित कर
यात्रा की थकान से मुक्ति के लिए
घनीभूत हो कुछ समय का विश्राम
पुनः पिघल कर दौड़ पड़ती है
उस विशाल जलराशि में
स्वयम् की सत्ता को तिरोहित करने
पुनः प्रयाण की प्रतीक्षा में
जीवन के कालचक्र पर आरूढ़
33. गुलदस्ता
सुंदर, मनमोहक पुष्पों का
संग्रह कर मैंने
एक गुलदस्ता बनाया है
सिर्फ तुम्हारे लिए
इनकी भोली सम्वेदनाएँ
मेरे सन्देश लेकर
बह चली हैं तुम तक
मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ
मात्र वार्ता के लिए ही नहीं
जहाँ केवल मौखिक शब्दों का
आदान-प्रदान भर हो सके
यह तो भौतिक जगत में
परिचय का आधार,
प्रथम तल है
उससे कहीं ऊपर जो
दूसरा तल है बुद्धि का
जो तर्क और वितर्क की
अंतहीन यात्रा को उपलब्ध हो
ज्ञान और अहंकार की तुष्टि
वहां भी नहीं रुक सकता
मिलना है तुमसे जहाँ
वार्ता मौन हो जाती है
बुद्धि की सीमा से परे
उस तीसरे और अंतिम
तल की गहराइयों में जहाँ है
स्पंदन की मधुर प्रतीति
हृदय की भूमि में
अनंत यात्रा के पथ पर
सुंदर बीजों का अंकुरण हो सके
आत्मा की गीली मिटटी से
जन्म ले सके नवजात कली
बिखेर दे जो ब्रह्मांड में
सुगंध, प्रेम और आनन्द का
अक्षय भंडार
हृदय से हृदय तक
34. मेरी कविताएँ
मेरी कविताएँ
निष्प्राण शब्दों का समूह नहीं हैं
भावों के शब्द संयोजन
मात्र सम्बोधन नहीं हैं
जीवन के प्रवाह का प्रमाण हैं
अव्यक्त की अभिव्यक्ति के साधन हैं
जहाँ मैं महसूस करता हूँ, तुम्हारी –
खुशबू, खूबसूरत उद्यानों में,
मुस्कान, नवजात कलियों में
गीत, मस्त हवाओं में
संगीत, झरते झरनों में
यौवन, नदियों के प्रवाह में
आमन्त्रण, सागर की लहरों में
मौसमों के परिवर्तन में
भावनाओं के बादल में
स्मृतियों के गाँव में
आती-जाती हुई साँसों में
रक्त के प्रवाह में
तुम्हीं को पाता हूँ
तुम्हारे होठों से निकलती गर्म भाप
ओस के मोती बन पत्तों पर ठहरी है
सूर्य की किरणों के स्पर्श से
इन्द्रधनुष बनाती है,
बहुरंगी विचारों के मेले में
आमंत्रित है,
हर वह व्यक्ति
जो सवेंदनशील अभिव्यक्ति की
अनुभूति कर सके
जीवन को
शब्दों के जगत से
35. पाती
लिखता हूँ कि तुम तक पहुँचा सकूँ
कुछ कहे और कुछ अनकहे विचार
कागज के इन पन्नों में सुरक्षित
शब्दों के नयनों से जो रहे निहार
भावनाओं के सागर में सीप बन
निर्मित करता रहता मोती हजार
सर्वस्व समर्पित अपना कर के
दे सकूँ विश्व को खुशियाँ अपार
बनती और बिगडती मानस पर
छायाचित्र निर्मित कच्ची दीवार
मानवता के लिए दृढ़ संकल्पित
प्रेम सृजित अपनेपन की मीनार
विश्व एक है, लक्ष्य एक है
मानव का गन्तव्य एक है
जीवन-धारा के प्रवाह में नाव एक है
चिरयात्रा के पड़ाव पर भाव एक है
36. अवतरण
तुम कहते हो
कवितायेँ लिखता रहूँ
पर मेरे प्रिय मित्र!
मैंने कभी कविता लिखी ही नहीं
और सम्भवतः कभी लिख भी नहीं सकूंगा
वह तो अवतरित होती है
निराकार से साकार की ओर प्रयाण
शब्द खोजने नहीं पड़ते
झरने लगते हैं जैसे आशीर्वाद
भोली संवेदनाओं से उपजे भाव
मन के पंख लगाकर
हृदय की धराभूमि पर
नव सृजन की अज्ञात आहट, जैसे
उन्मुक्त पहाड़ी सरिता का प्रवाह
बन बह जाती है
पत्थरों से झाँकती अविकसित प्रतिमा
प्रकट होती है
घुमड़ते हुए बादलों की अंतर्व्यथा
बरस जाती है
प्रसव पीडिता की असह्य वेदना
जन्म देती है
अंकुरित होते बीज की जीवनी-शक्ति
प्रस्फुटित होती है
जिसे तुम कविता कहते हो
37. मैं तेरे सपनों में आऊँ
सम्बन्धों की भँवर जाल में,
तुमको मैं किस नाम बुलाऊँ
मुझको जब भी याद करे तू,
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
दुनिया की आपा – धापी में,
याद करूँ, कुछ भूल न जाऊँ
मिलने और बिछड़ने जैसी-
रीत न फिर से अब दुहराऊँ
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
पलते गीत मेरे उर में जो,
तेरे होठों से जब, गाऊँ
शब्द-शब्द हो जल की धारा
तेरी आँखों से बह जाऊँ
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
जीवन के इस कठिन डगर में
पथिक तुझी को साथ मैं पाऊँ
स्वप्नों की है रीत निराली
तुझमें जागूँ, जब सो जाऊँ
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
पीर हृदय की मेरी भोली
तेरी धड़कन से बँध जाऊँ
आना-जाना लगे है फेरा
खुद को खोकर तुझमें पाऊँ
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
कौन तके दिनकर का फेरा
तेरी गोद में अब सो जाऊँ
हृदय दीप से अंतिम अर्चन
शायद फिर मैं जाग न पाऊँ
मैं तेरे सपनों में आऊँ …
38. आत्म बोध
जीवन के सफर का मध्यान्ह
वर्तमान की राह पर खड़ा
मैं अपने भविष्य की कल्पना करूँ
उससे पहले अपने भूतकाल की
स्मृतियों के आँचल में
कुछ देर के लिए ही सही
बह जाना चाहता हूँ,
जिसे पीछे छोड़ आया था
वे सारी घटनाएँ
चलचित्र की भाँति आँखों के सामने
चलने लगी, मैं मौन होकर देखता हूँ
थोड़ा और गहरे में उतर जाना चाहता हूँ
क्या पता कुछ मिल जाए
स्मृतियों के हीरे, मोती और माणिक्य
पाता हूँ स्वयम् को बचपन के अनमोल पलों में
एक अबोध सुकुमार बालक
सुंदर बगिया की सुरभित बयार में
प्रकृति की सुन्दरता पर मोहित है
हजारों नन्ही कलियाँ
जो बस खिलने को हैं
अनन्त रंगों से सजी खूबसूरत तितलियाँ
चुम्बन लेती हैं
उन्मत्त भौरे गुंजन कर रह हैं
मधु का निर्माण करतीं मधुमक्खियाँ
प्रणय के गीत सुनती हैं
पुष्प के अधखिले पत्रों पर ओस की ठहरी बूँद
आनन्द के रस से सराबोर वातावरण
नदियों की जलधारा का अविरल प्रवाह
स्वादिष्ट फलों से लदे हुए वृक्ष
पक्षियों के उत्सव का आनंद
कोयल का सुमधुर संगीत
आज भी जीवंत हैं मेरे हृदय में
मेरे दादा जी का मेरे प्रति लगाव
दादी का प्रेम एवं आशीर्वाद
माँ की भोली ममता और दुलार
पिता की शिक्षा एवं अनुशासन
भाई-बहनों का रूठना और मनाना
धन्य हैं वो मेरे बीते हुए पल
मैं उन्हें शांतचित्त होकर ध्यान में उतरकर
उन्ही का हो जाता हूँ
पर भविष्य के पथ पर
अग्रसर होने के लिए पुनः लौटता हूँ
सभी का धन्यवाद करके
एक नयी ऊर्जा, प्रेरणा, स्फूर्ति के साथ
चल पड़ता हूँ
वर्तमान के कर्म पथ पर
भविष्य का निर्माण करने
39. अमर प्रेमी
बह रही है आज भी सरिता
उन्ही कठोर प्रस्तरों के हृदय से
प्रचण्ड वेग से धरा का आलिंगन करती
संगीत के महोत्सव में
नाद पर नर्तन करती धाराएँ
गाती हैं मनमोहक अनसुने गीत
अपने किनारों के कन्धों पर डाले बाँह
उषा की रश्मियों से खेलती हुईं
बहती हुई पवन को शीतल करती
चराचर को अमृत से तृप्त करती
चल पड़ती है वीरानों में
अल्हड़ यौवना नख-शिख शृंगार किये
उस अमर प्रेमी की तलाश में
यात्रा का पड़ाव नहीं
बढ़ती ही जाती है बिना रुके
जैसे विरहन का प्रेम खो गया हो
पर मार्ग कितना भी कठिन हो
पाकर रहेगी प्रिय सागर को
सर्वस्व निछावर कर होगी विलीन
सदा के लिए
प्रेमी का कर प्रेम अमर
40. संदेश
मैंने आसमान के पन्नों पर,
शब्दों की तूलिका से,
अपने मनोभावों के रंग संजोये हैं,
जिसे कभी तुम इन्द्रधनुष कहते हो
समय के मस्तक पर सुशोभित,
हर कला-कृति की एक कहानी है,
भूत और वर्तमान की सीमा-रेखा के बीच,
सजीव-निर्जीव का मूक वार्तालाप है
झूमती हवाओं की गोद में पलती,
विचारों की खुशबू का मधुर स्पर्श,
आमंत्रित करता है सपनों के गाँव में,
बनाये-बिगाड़े हुए रेत के घरौंधों तक
जीवन के मनोहारी संगीत उत्सव में,
बजता कर्णप्रिय मधुर अनसुना गीत,
साँसों की लय पर अबाधित थिरकती
मनमोहक लहरों का आकर्षक नर्तन
हृदय की धडकनें का ताल सामंजस्य,
दे जाता है शून्य में अनन्त का बोध
41. आत्मिक मित्र
वर्षों बाद आज जब
फ़ोन की घंटी के साथ उसका नाम देखा
‘आत्मिक मित्र’,
जो शायद आज तक इसीलिए सेव रह गया
की शायद कभी उसे भी मेरी फ़िक्र हो
यही तो वह नाम था जिसे
हम एक दूसरे को बुलाया करते थे
सुखद आश्चर्य की अनुभूति में मैं
मानों देखने और सुनने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था
स्मृतियों के आँगन में उतरता जा रहा था
कभी घंटों बाते करके भी, जी नहीं भरा करता था
कितने सारे वादे आज भी दस्तक दिया करते हैं
याद है उसकी आँखों में तैरते रंग-बिरंगे सपनों को
अपलक निहारना
सहसा उसकी चिर-परिचित हँसी की खनक से जैसे जाग गया
स्वयम् को नियंत्रित करते हुए शिष्टाचार वार्ता की
उसने भी मेरे परिवार के हर सदस्य का हाल लिया
इतने दिनों के बाद जब सबकुछ बदल गया है
उसका ‘आत्मिक मित्र’ का संबोधन
ह्रदय की धराभूमि को सींच गया
नम आँखे और रुंधे गले से
बड़ी हिम्मत कर उससे मैंने कहा-
“क्या अब भी तुम्हे कुछ याद है जिसे मैं नहीं भूला”
बड़ी सहजता से उसने कहा-
“मेरे आत्मिक मित्र! आज भी कुछ नहीं बदला है
मुझे गर्व है अपने स्वार्थ रहित प्रेम पर
अब भी लिए फिरती हूँ तुम्हे अंतस की गहराइयों में
सहेज कर रखा है मधुर स्मृतियों को
तुम्हारे पत्र, संस्मरण, लेख और कहानियां
अक्सर लोगों को सुनाती हूँ
पर अब शायद
वे लोग नहीं रहे जो इनके मर्म को समझ सकें”
कितने आसानी से उसने सबकुछ कह दिया था
और मैं निःशब्द, अवाक सम्मोहित सा
मनमोहक सामगान की तरह सुनता रहा था
सोचा कितना मुश्किल होता है
नारी के मन को समझ पाना
जिज्ञाषा कुछ और तीव्र हो चली थी
मैं कह बैठा “अब क्या सोचती हो मेरे लिए ?”
उत्तर में उसने बस इतना ही कहा
“तुम सब जानते हो, अपना ख्याल रखना ”
और फिर फोन रख दिया था
मैं कुछ देर तक चुपचाप भावना में डूबता रहा
कुछ समझ न सका
शायद यही है “आत्मिक मित्र” की परिणति
जो दैहिक संबंधो के पार
आत्मा के एकीकरण तक
चलता रहेगा निरंतर
उतनी ही उर्जा और आकर्षण के साथ
42. हौसला बहोत है-
मुसाफ़िर हूँ बेशक, सफ़र लम्बा बहोत है
हमसफ़र साथ है तो हमें हौसला बहोत है
देखता नहीं अपनी कोशिशों की हार-जीत
कामयाबियों के रास्तों में इंतिहा बहोत है
यूँ तो चलता रहता हूँ, बिना थके रात-दिन
क़रीब और आओ अभी फ़ासला बहोत है
दुशवारियों से मजबूत होता है जज्बा मेरा
अंजाम के वास्ते तुम्हारा भरोसा बहोत है
नहीं लिखता की मिलें तालियाँ, शोहरतें
हो जाये खामोश नजरे इनायत बहोत है
यादों के गुलिस्तां में, ये फिज़ा की खुसबू
शाख पर जो गुलाब को इंतजार बहोत है
फ़तह करता हूँ मुश्किलों के समंदर को
हो इशारे तो खज़ाने में नजराने बहोत हैं
करता नहीं किसी से गिला अनजाने में भी
उनकी मुस्कराहट, मुझे अजीज़ बहोत है
कहती रहती हो अक्सर न कहकर भी जो,
वो कहकर देखो, मुझे भी कहना बहोत है
हैं जबाबों के सवाल में सवालों के जवाब
ज़िन्दगी जो तुमसे है तो माइने बहोत है
43. पतझड़
इस बार फिर हवा से सरकते सूखे पत्तों ने
सिसकते हुए कहा-
‘क्या तुम भी बदल गयी हो
बदलते हुए मौसम की तरह ?
आज भी तुम्हारा वह हमराही
जो वर्षों से है प्रतीक्षित
रोज आकर उसी पेड़ की टेक लेकर
घंटों शून्य में अपनी पथराई आँखों से
तुम्हें तलशता है ।
जहाँ तुम लोग अक्सर बैठा करते थे’
मैं भी क्या कहती ?
अब तक भी क्या अलग हो सकी हूँ उससे ?
फर्क बस इतना है कि
अब हमारे रास्ते नदी के वो दो किनारे हैं
जो साथ-साथ चलते हैं पर मिलते नहीं
पर मेरी साँसों में उसकी तपिश को
हर पल महसूस करती हूँ
कितनी बार नाकाम कोशिश भी की है
भुलाने की
पर हर बार चुपके से उसके नाम को जाकर देखा है
उसी पेड़ पर जो मैंने लिखा था कभी
आज भी अक्सर अनचाहे में
उसका नाम गीली रेत पर लिख दिया करती हूँ
हमेशा लहरें बहा ले जाया करती हैं
अब इतनी हिम्मत भी शेष नहीं कि
जाकर उसे समझा सकूँ
दूर रहकर भी उसकी कुशलता की कामना
मैंने हमेशा की है
और मेरा क्या ? जी भरकर रोना तो दूर
सिसक भी नहीं सकती
खुद को दीवारों में समेटे
मुँह पर ताले लगा लिए हैं
मेरी आँखों ने उसकी आँखों से जो देखे
उन सपनों की भी पहरेदारी जो है
अब तो, कभी नहाते तो कभी प्याज काटते
और कभी धूल भरी आँधियों में
मुक्त कर देती हूँ अवरोधित अश्रु-धारा को
कुछ पल के लिए ही सही
मन हल्का हो जाता है ।
44. संतुलन
विकास के पथ पर,
दौड़ता आधुनिक मानव,
प्रकृति के नियमों की अवहेलना,
करता हुआ अग्रसर है ।
जीवन में संतुलन की अनिवार्यता का,
उपहास करता हुआ,
अस्तित्व के संकट से अनजान है ।
इसीलिए तो चल पड़ा है,
मौलिकता को त्यागकर,
मनमानी राहों पर ।
स्वभाव के विरुद्ध आचरण,
धर्म का लोप होना है ।
असंतुलन में विनाश पलता है,
और जब उसकी भयावह-
उपस्थिति साँस लेती है,
तब समस्त पर्यावरण को,
विषैली कर जाती है ।
समस्त विश्व काल की,
क्रीड़ा का ग्रास बन जाता है,
लाचार और असहाय पाता है,
स्वयं से शाप संतप्त होकर,
तब प्रकृति न्याय किया करती है ।
योग्य और अयोग्य का चयन,
पुरस्कार अथवा दण्ड देना,
उसका अधिकार है ।
सर्वोच्च सत्ता के शासन को,
पुनर्स्थापित करती है,
यही शास्वत सत्य है,
और संतुलन भी ।
45. उपलब्धि
पहाड़ों में रहना,
थोड़ा दुष्कर हुआ करता है,
पर रचनात्मक,
प्रकृति की नैसर्गिकता से सज्ज,
पृथ्वी का वरदान ।
नवयौवना के यौवन सा सुरभित,
तरुणी की अंगड़ाई सी अलसाई,
कपोल-किसलय की अरुणाई,
मन्द पवन प्रवाहित सुखदायी,
झरनों से बहता मादक संगीत,
पक्षियों के कोकिलकंठ से प्रणय गीत,
जीवन को रोमांच से भर देता है ।
प्रकृति के गोद में पलते,
जीवों का मनोहारी आकर्षण,
वनस्पतियों का स्नेह निमंत्रण,
वनसम्पदा का रमणीय आमन्त्रण,
मौन की अभिव्यक्ति में,
जीवन की पूर्णता का संदेश है ।
कभी किसी पहाड़ ने मुझसे पुछा था,
“क्या खोजते फिरते हो मुझमें,
मेरे मित्र ! कुछ पाया है अबतक ?”
मैंने कहा, “खोजता तो कुछ भी नहीं,
और कुछ खोजना भी नहीं चाहता हूँ,
पर पाया बहुत कुछ है ।
शायद शब्दों की सीमा में,
अभिव्यक्ति संभव न हो सकेगी ।
तुम्हारे चट्टानों से झाँकते
अनमोल मूर्तियों की धूल को,
साफ कर निहारा है उनका सौन्दर्य,
हर एक पत्थर के,
ह्रदय स्पन्दन को,
महसूस किया है ।
सच कहूँ तो मेरे मित्र !
स्वयं को खोकर,
तुमको पाया है ।
यह मेरी उपलब्धि है ।”
46. महामारी
मानवीय अध्यन के परिणामस्वरूप,
जगत के जीवों का विभाजन हुआ,
वनस्पति जगत और पशु जगत ।
मानव ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए,
स्वयं को पशु जगत से अलग कर लिया,
अपनी बुद्धि कौशल से जगत के परिणामों को,
अपने पक्ष में करने की क्षमता विकसित की है,
परिस्थितियों को अपने अनुकूल करने का
सतत प्रयास जारी है ।
अविभाज्य दुनिया पर,
धर्म-सम्प्रदाय, अमीर-गरीब,
विकसित-विकाशील, गोरे-काले की,
विभाजन रेखा से लोगों को,
खानों में बाँट दिया है ।
शेष पशु जगत आज भी वहीं खड़ा है
वनस्पतियों के साथ जुड़ा है,
विभाजित नही हो सका है,
पर बदलाव का साक्षी रहा है ।
मुझे याद है,
हम चिड़ियाघर जाकर,
पशुओं के निजता और स्वतंत्रता,
से परे होकर उनके जीवन का दर्शन,
मनोरंजन के लिए किया करते थे ।
और वे हमसे आँख नहीं मिला पाते थे,
कैसा होता है प्रतिबंधित होकर,
अपना जीवन जीना,
महामारी के प्रकोप से बचता,
श्रेष्ठ मानव आज स्वयं बैठा है,
स्वनिर्मित चिड़ियाघर में बेबस और उदास,
तब कुछ पशु जगत के उदार लोग,
आकर शहरों में, कैद-
परिष्कृत मनुष्यों को देखते हैं,
पर मनोरंजन की दृष्टि से नहीं ।
मानवता से, सहृदयता से पूछते हैं,
“इतना सन्नाटा क्यों है ? सबका मंगल हो”
प्रकृति की यही नियति है ।
47. गुलाब
तुम्हारे घर से निकलती,
अर्थी को देखकर,
चेतना शून्य हो गया था ।
सोचा कहीं तुम तो नहीं इस ताबूत में,
तुम्हे तो कुछ नहीं हुआ है न ?
जिन सम्बन्धों को बरसे पहले,
पीछे छोड़ आये थे हम,
अपने परिवारों के कहने पर ।
उनकी स्मृतियों की गाँठ,
खुल गई है,
वे आज फिर संदूक से निकल कर,
खिडकियों से दुनिया को झाँक रही हैं ।
और अब आज तुम भी नहीं रहे-
इस दुनिया में,
यह कैसा वादा निभाया तुमने ?
दूर से ही सही तुम्हे देख लिया करता था,
तुम उत्तर में मुस्कुरा दिया करती थी ।
सपने अपने नहीं हुए तो क्या,
हमने साथ मिलकर देखा तो था ।
देर रात हो चली थी,
तुम्हारे कब्र से घंटों बाते करता रहा था ।
जानता हूँ अब तुम उत्तर न दे सकोगी,
तुम्हारी बेबस उदासी को महसूस कर सकता हूँ ।
तुम्हे याद है न मैं तुम्हे ‘गुलाब’ कहकर बुलया करता था
आज गुलाब का ही गुलदस्ता लेकर आया हूँ,
तुम्हे अंतिम भेंट के लिए ।
दफनाते समय हिम्मत न हो सकी कि आकर,
अपने हिस्से की मिट्टी डाल सकूँ,
तुम्हारी कब्र पर ।
सुबह होने को थी,
कब्र के पास की थोड़ी मिट्टी ले आया था,
गमले में डालकर गुलाब का पौधा.
लगा दिया था ।
अब फूल बनकर तुम,
रहती हो मेरे आस-पास
बहती हवाओं में जानी पहचानी,
खुसबू से,
हमारे सम्बन्ध बोलते हैं,
स्मृतियों के द्वार खोलते हैं ।
प्यार से तुम्हारा निमन्त्रण,
उस पार आने का,
मुझे है सहर्ष स्वीकार ।
जहाँ न हो ये संसार,
न ही इसके खोखले बंधन,
न ही किसी की जीत न हार,
शीघ्र होगा एकाकार ।
मैं और मेरे गुलाब,
हम फिर एक साथ खिलेंगे,
प्रेम की धरती पर,
मानवता को सुरभित करने..
48. मैं मजदूर हूँ
कर्म की अँगीठी पर
वेदना की आग से
स्वाभिमान की रोटियाँ पकाई हैं
न लेता भीख, न अहसान किसी का
परिश्रम के पवन से
निज की साँसें चलाई हैं
पर आज रोटी को मोहताज
तजकर सब लोकलाज
मूक बचपन को निहार
झुकी नजरों से हाथ फैलाई है
कोरोना की महामारी से
बन गए बिमारी
जिन शहरों को किया आबाद
उन्हें ही है परहेज हमसे
ये जानते हुए भी कि
इन ऊँची इमारतों के नींव में
हमारे खून भी सने हैं
कल-कारखानों के धन्ना-सेठ
हमारे पसीने को बेचकर बने हैं
इनके यश-वैभव के तम्बू
हमारे साँसों पर तने हैं
और अब
रक्त मज्जा पौरुष अशेष
जब सबकुछ हूँ लुटा चुका
अपने कंधों पर शेष अस्थियों को
किसी शाप की तरह ढो रहा हूँ
हृदय की मंद होती स्पन्दनों को
हर घड़ी में खो रहा हूँ
हाय! कितना मैं अवांछित
असहाय होकर रो रहा हूँ
अन्न से निर्धन बना मैं
भूख से क्या सो रहा हूँ ?
तुम तो ठहरे धन-पिपाशु
निकालते अपने घरों से
यदि मृत्यु का ही वरण
है मेरी नियति
तो मैं कर रहा स्वीकार
गाँव अपना छोड़ आया
कौड़ियों की आस में
क्या कमाया, क्या गँवाया
हर्ष के वनवास में
स्वयं से भी दूर कितना आ गया हूँ
क्यों न जाकर स्वजनों के
प्रेम का प्रसाद पा लूँ
कुछ पलों के ही लिए मैं
स्वप्न अपने फिर सजा लूँ
जानता हूँ, मिट्टी का दिया हूँ
पर लौ की घटती रौशनी से
हाल दिल का मैं जला लूँ
हे! मानवता के ठेकेदारों
देखो हजारों मील चलते
सबकुछ लुटाकर हाथ मलते
अंगार से तपते पथ पर पैरों में
छालों से डगमग करते
अनजान डगर में गिरते-पड़ते
देखकर बिलखते नवजात शिशुओं को
निर्जन पथ पर मरणासन्न प्रसूता को
दम तोड़ती अल्हड़ जवानी को
आँखों में सूखते पानी को
नफ़े-नुक्सान से तौलते हो
सोचता हूँ, तुम कितने निरंकुश हो
मृत्यु! जो मेरे मार्ग में खड़ी हो
क्या इस जीवन से बड़ी हो ?
मैं हूँ नश्वर जानती हो ?
रार फिर क्यों ठानती हो ?
मर भी जायेंगें अगर
लौट कर आयेंगें घर
फिर धरा के प्रस्तरों की
शुष्कता से नमीं को सोखकर
अस्तित्व मेरा खिल उठेगा
आसमां को देखकर
इतिहास स्वयं को दुहराता है
विधाता भी एक कारोबारी है
आज मेरी तो कल तुम्हारी बारी है
हमारे बेबस ढुलकते आँसुओं से
सुनामी ले रही अंगड़ाई
कोई ज्यादा दिन नहीं रहता
न राजा, न ही रंक
अब वो ही देगा तुम्हें अंक
आखिरी हिसाब में मेरे भाई
साथ जाती है पुण्य की कमाई
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