Poem on Air in Hindi : दोस्तों इस पोस्ट में कुछ हवा पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं. की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
हवा पर कविता, Poem on Air in Hindi
1. हवा पर कविता
तेज धूप से जब धरती जलती है,
परिश्रम पसीना बनकर निकलती है,
जीवन का कितना सुखद आनंद होता है
जब मंद-मंद शीतल हवा चलती है.
तेज धूप जब सिर पर चढ़ जाता है,
तब हवा बड़ा ही गर्म हो जाता है,
जीवन का कर्म हमेशा चलता रहता है
यह तो मौसम है जो हरदम बदलता रहता है.
विद्युत से चलने वाले उपकरण भी हवा देते है,
लेकिन ये बीमारी को सिर्फ बढ़ावा देते है,
इनसे पर्यावरण को प्रदूषित बनाते है,
और खुद को बड़ा बुद्धिमान बताते है.
ऑक्सीजन को प्राणवायु कहा जाता है,
यह भी सबको हवा से ही मिल पाता है,
अगर हवा इतनी तेजी से प्रदूषित होगा,
बताओ यहाँ पर जीवन कैसे सम्भव होगा।
हवा जब गुब्बारें में समाती है,
तो बच्चों के चेहरे पर खुशियां लाती है,
हवा हमारे जीवन में बहुत उपयोगी है,
यह कविता हमें यही बतलाती है.
2. Poem on Air in Hindi
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए है
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो धरा की बसंती
सुसंगीत मीठा गुंजाती फिरी हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसन जिलाए हुई हूँ
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी–
अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला। न
हीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं –
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’,
उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची –
वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी –
हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुधबुध रही कुछ,
बसंती नवेली भरे गात में थी
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया, न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा-
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
केदारनाथ अग्रवाल
3. Hindi Poem On Air
प्राण वायु की अहमियत अब पता चल रही है,
कोरोना से हर गली जल रही है।
बड़े-बड़े दरख्तों को,
काट कर जो गलती की है।
अपनी आंखों से खुद देख,
इसी की सजा आज हमें मिलती है।
देश में आक्सीजन की कमी खल रही है,
कोरोना से हर गली जल रही है।
हे मानव तू तो बहुत बलवान था,
अब बता बौना क्यों हो गया है।
अपनी औकात देख,
प्रकृति के आगे
बौना क्यों हो गया है
तेरी हर ख्वाहिस तुझे छल रही है।
कोरोना से हर गली जल रही है।
आक्सीजन सिलेंडर की होड़ मची है,
पाने के लिए दौड़ मची है।
काला बाजारी पल रही है,
कोरोना से हर गली जल रही है।
हे मानव अभी समय है,
खूब पेड़ो को लगायें,
आक्सीजन से जान बचायें।
आशायें अभी भी उछल रहीं हैं,
कोरोना से हर गली जल रही है।
प्रकृति की छत्र छाया में यदि रहेगें,
सच कहता हूं
तभी जीवित बचेंगे।
जिन्दगी बर्फ की तरह गल रही है,
कोरोना से हर गली जल रही है।
गाड़ी,बंगला,एसी,कार,
इस समय सब हैं बेकार।
जांन बच जाय किसी तरह,
मनुष्य कितना है लाचार।
सारी हिकड़ी पिघल रही है,
कोरोना से हर गली जल रही है।
दुर्गा शंकर वर्मा “दुर्गेश”
4. गरम हवा
ऐसी गरम हवा
जैसे तवा गरम
शीतल शीतल जल के छींटे
ऊपर ठंडक गर्मी नीचे
जैसे दवा गरम
हुए पराजित सभी जतन
फिर भी कम ना हुई तपन
हो गई सवा गरम
झुलसाने वाला इक झौंका
लगा गाल पर पाकर मौका
जैसे तवा गरम
गर्मी ऐसी गई लंबूट
पहन लिया हो ऊनी सूट
ऐसी हवा गरम
जैसे तवा गरम
5. Short Poem On Air In Hindi Language
ऊपर नीचे दाएं बाएँ
हवा चली सायं सायं
मुन्नी को छोडकर
चढ़ गई पेड़ पर
हाथ नहीं आउंगी
दूर मैं उड़ जाउंगी
दूर मैं उड़ जाऊँगी
मुन्नी बोली हंस कर
हवा रानी बस कर
पकड़ तुझे मैं लाऊंगी
फुग्गों में ले जाऊँगी
6. ठंडी ठंडी चली हवा
ठंडी ठंडी चली हवा
लगे बर्फ की डली हवा
चुभती है तीरों जैसी
कल की वो मलखाती हवा
बाहर मत आना भइया
लिए खड़ी दो नली हवा
दादी कहती मफलर लो
चलती है मुंहजली हवा
स्वेटर, कम्बल, कोट हवा
नहीं किसी से टली हवा
गर्मी में सबको भाई
अब ठंडी में खली हवा
7. बोल हवा तू आती कैसे
बोल हवा तू आती कैसे
पेड़ों को ललचाती कैसे?
हाथ पाँव ना दिखते तेरे
करती रहती फिर भी फेरे
रंग रूप को हम लोगों से
कुछ तो बता, छिपाती कैसे?
मीठी मीठी और नरम सी
ठंडी ठंडी कभी नरम सी
बोली बदल बदल के अपनी
सबको रोज छकाती कैसे
आँधी बन के आ जाती हो
सारे जग पर छा जाती हो
धूल धुंए का जादू बनकर
अपना रंग जमाती कैसे?
पुरवाई, पछुआ, बासंती
नामों की कोई न गिनती
सच कहना तुम इतने सारे
नाम याद रख पाती कैसे?
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