Poem On Mela In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ मेला पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
मेला पर कविता, Poem On Mela In Hindi
1. मेला पर कविता
जब जब भी है आता मेला
हमको खूब लुभाता मेला,
इसे देख मन खुश हो जाता
नई उमंगें लाता मेला।
मेले में सजती दूकानें
सर्कस दिखता तम्बू ताने,
मेले में मिलते हैं हमको
लोग कई जाने अनजाने।
दृश्य कई भाते मेले में
चीज कई खाते मेले में,
झुंड बना ग्रामीण लोग तो
गीत कई गाते मेले में।
मेले में हैं चकरी झूले
बच्चे फिरते फूले – फूले,
रंग – बिरंगी इस दुनिया में
आ सब अपने दुःख को भूले।
मेले की है बात निराली
तिल रखने को जगह न खाली,
लगता जैसे मना रहे हैं
लोग यहाँ आकर दीवाली।
मेलों से अपनापन बढ़ता
रंग प्रेम का मन पर चढ़ता,
मानव सामाजिक होने का
पाठ इन्हीं मेलों से पढ़ता।
जब जब भी है आता मेला
हमको खूब लुभाता मेला,
इसे देख मन खुश हो जाता
नई उमंगें लाता मेला।
2. Poem On Mela In Hindi
ताऊ की गोदी में चढ़ कर मेला जाएंगे!
मेले से हम खूब खिलौने लेकर आएंगे!
चाट-जलेबी-पापड़-डोसा-गुझिया खाएंगे!
आइसक्रीम-कुरारी भुजिया चट कर जाएंगे!
गप्प-गप्प करके रसगुल्ले चार उड़ाएंगे!
ताऊ की गोदी में चढ़ कर मेला जाएंगे!
सभी तरह के झूलों में हम चक्कर खाएंगे!
ऊपर-नीचे होने वाली नाव चलाएंगे!
फिर बैठेंगे मिनी ट्रेन में मौज मनाएंगे!
ताऊ की गोदी में चढ़ कर मेला जाएंगे!
गुब्बारे पर बैठा बंदर खूब नचाएंगे!
ठुमक-ठुमक कर चलने वाला घोड़ा लाएंगे!
कंधे पर बंदूक लाद कर रौब जमाएंगे!
ताऊ की गोदी में चढ़ कर मेला जाएंगे!
चुन्नी-कंगन-बिंदी-गुड़िया-भोंपू लाएंगे!
रंग-रंगीली फिरकी लाकर उसे उड़ाएंगे!
मन करता है मेले में ही हम रह जाएंगे!
ताऊ की गोदी में चढ़ कर मेला जाएंगे!
रावेंद्रकुमार रवि
3. गाँव का मेला
गाँव का मेला कोई फिर से दिखाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा और बाबू का मेला घुमाना रे
लकड़ी के खिलौने को जिद कर जाना रे
दोस्तों को खिलाना और दोस्तों का खाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा – दादी, अम्मा – बाबू से रूपया कमाना रे
रूपया कई -कई बार गिनना सबको दिखाना रे
गट्टा, लाई, पेठा, कचालू घर पर लाना रे
गट्टा -लाई -पेठा सुबह उठ कर खाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बुढ़िया कचालू वाली कभी-कभी दिखती है
बिक्री हो गयी कम है चंद सिक्के गिनती है
उसके कचालू के पैसा अब भी है चुकाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा खिलौने वाले लढ़िया न बनाते हैं
कब बनेगी लढ़िया सुन हल्का मुस्कुराते हैं
बाबा का दिलाया लढ़िया बल भर चलाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
नए बच्चे आजकल के इन सबसे
अनजान हैं
चार दिन को गाँव आते ,घर पे बने
मेहमान हैं
आदमी को दिखता केवल पैसा कमाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
गाँव के मेले में गुम है बचपन सुहाना रे
मैं खो गया हूँ मुझे कोई ढूंढ के लाना रे
गाँव के मेले खातिर कोई ढूंढो बहाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
-सिद्धार्थ गोरखपुरी
4. मेरी बिटिया का नाम घसिटिया
मेरी बिटिया का नाम घसिटिया
चली देखने मेला
मेला क्या था, एक झमेला
जिसमें ठेलमठेला
बोली दद्दा ले लो गद्दा
ठंड बहुत पडती है
बरसों से सोते धरती पर
पत्थर सी गड़ती है
मेरी बैया दैया दय्या
भला खरीदू कैसे
जैसे तैसे पेट पल रहा
नहीं जेब में पैसे
ओले पानी से खेतों की
फसल हो गई स्वाहा
पर फिर भी, घर के मुखिया का
मैंने फर्ज निबाहा
देख रही है घास फूस की
जर्जर हुई मडैया
कैसे आगे करे पढ़ाई
बिटिया तेरे भैया
दिया न दगा अगर खेती ने
रही नहीं मजबूरी
तेरी मनोकामना बिटिया
होगी बिलकुल पूरी
केवल गद्दा नहीं रजाई
तकिया भी लाऊंगा
अगले बरस तुझे छकड़े से
मेला ले जाऊंगा
अश्वनी कुमार पाठक
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