Poem On Newspaper In Hindi : दोस्तों इस पोस्ट में कुछ बेहतरीन और लोकप्रिय अखबार पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. कुछ लोगों को तो अखबार पढ़ने की आदत होती हैं. सुबह में उन्हें और कुछ मिले न मिले अखबार अवश्य मिलना चाहिए.
अब आइए नीचे कुछ Poem On Newspaper In Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी अखबार पर कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
अखबार पर कविता
1. आज फिर मैंने अख़बार पढ़ी
आज फिर मैंने अख़बार पढ़ी
थोड़ी सी तकलीफ थोड़ी उदासी बढ़ी
आज फिर मैंने अख़बार पढ़ी
कहीं एक नन्हा इनक्यूबेटर में जल कर स्वाहा हुआ
कहीं स्कूल कहीं दुकान में बच्चियों संग अनचाहा हुआ
किसी बहु ने अपनी सास की ले ली जान
किसी आतंकवादी के हाथ वीर हुआ कुर्बान
मैंने खुद से आखिर किया अंतिम इकरार
इतने दिन बिना अख़बार कितने थे मज़ेदार
अब मैं फिर सोचती हूँ खड़ी खड़ी
अफ़सोस मैंने आज क्यों अखबार पढ़ी
-अनुष्का सूरी
2. मैं हूँ अख़बार
मैं हूँ अख़बार
भाई मैं हूँ अख़बार
पढ़लो मुझे सुबह सुबह
तो पता लगे समाचार
मैं हूँ अख़बार
भाई मैं हूँ अख़बार
जब मैं पुरानी हो जाती
तब भी मेरा है कारोबार
मैं हूँ अख़बार
भाई मैं हूँ अख़बार
मुझपे भेल पूरी सजती
चना जोर गर्म मुझमें बिकती
मैं हूँ अख़बार
भाई मैं हूँ अख़बार
मुझको पढ़ना है अगर
तो बनो पहले साक्षर
मैं हूँ अख़बार
भाई मैं हूँ अख़बार
– अनुष्का सूरी
3. हाँ जी मैं हूँ अखबार
हाँ जी मैं हूँ अखबार
रोज आपके घर
लाऊ खबरों का भंडार,
कहीं हो रेप कहीं हो चोरी
सारी खबरें सुर्खियां बना कर,
आप तक लाऊ कभी मैं आपकी आवाज बन
लोगो तक आपका संदेश पहुंचाऊं
आपको सीधा जनता से जोड़ जाऊ,
जो अफसर गहरी नीद में सो
गुनाह को देख ना पाए
उन्हें नीद से मैं जगाऊ,
सरकार के काले चिट्ठे भी खोल
जनता तक पहुंचा जनता को आइना दिखाऊं,
बच्चो के लिए मैं नई-नई कहानियां लाऊ
यहां तक कि पहेली से उनको नई सीख मैं सिखाऊँ,
मैं हूं लोकतन्त्र का चौथा सतंभ
जनता की ताक़त हूं
बुराई पर हावी हूँ
हाँ जी मैं हूँ अखबार!
4. अख़बार भी वही है
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
कहीं फेंका गया तेज़ाब, कहीं लूटा गया हिजाब,
अफ़सोस जताने को मोमबत्तियां जल रही हैं,
कहीं दहेज़ की आग में जल गयी सुहागिन,
कहीं कचरे के ढेर में नवजात मिल रही है,
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
फसल हुयी तबाह है, मानसून है राह भटक रहा,
कर्ज के नीचे दबा हुआ, फांसी पर कृषक है लटक रहा,
खाना न खाता वो, डर बेटी के दहेज़ का उसको खता है,
धूप में तपता वो है, मुस्कानें कहीं और खिल रही हैं,
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
पढ़े-लिखे भी धरने करते, सड़कों और चौराहों पर मरते,
किसी से कर्ज़ा मांग-मांग कर परीक्षाओं के शुल्क हैं भरते,
चिंता और बेरोजगारी साथ-साथ ही बढ़ रही है,
नौकरी तो मिलती नहीं बस दिलासा ही मिल रही है,
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
रुपया गिरा मजबूत है डॉलर
पकड़े है रईस मजदूर का कालर,
न जाने इस देश में कैसी हवाएँ चल रही हैं,
सम्मान गिर रहा है नेताओं का और महंगाई बढ़ रही है,
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
न जाने कब खबर बदलेगी, न जाने कब तस्वीरें
न जाने कब बाहर आएंगे इनक़लाबी शब्दों के ज़ख़ीरे,
थक गयी हैं आँखें ख़बरों सच्चाई खोजते-खोजते
अब तो अख़बार में खबर देने की जगह भी बिक रही है,
अख़बार भी वही है, घटना भी वही है,
कुछ बदल रहा है तो तारीख बदल रही है।
5. मायानगरी की तस्वीरे
मायानगरी की तस्वीरे
घनी बनाने की तरकीबें
वजन घटाने वाली गोली
गोरा करने वाली क्रीमें
कुछ विज्ञापन आकर्षक से
कुछ विज्ञापन है बेकार
काला चोला छोड़ छाड़कर
रंगों से सज बरखुरदार
लेकर खबरों का अंबार
कहाँ चले मिस्टर अखबार?
कैसे कर लेते हत्याओं
की खबरों को हजम मियाँ
कैसे सह लेते हो झूठों
मक्कारों को सहन मियाँ
कैसे युद्धों और दंगों की
खबरों पर चुप रहते हो
चोरों और मुनाफाखोरो
से भी कुछ नहीं कहते हो
फड़ फड़ करते बारंबार
कहाँ चले मिस्टर अखबार?
सुनो दोस्त! मुझ पर आरोपों
की बरसातें ठीक नहीं
मैं बचाव भी करता हूँ
क्या लगती बातें ठीक नहीं
साहसभरी साफ़गोई और
न्याय नीति भी लाता हूँ
शिक्षा, कला , खेलकूद
इतिहास, धर्म सिखलाता हूँ
मुझको मत समझो बेकार
सदा सहायक मैं अखबार
“बलराम अग्रवाल”
6. आता अखबार
सुबह सुबह आता अखबार
खबरों का लाता अंबार
मेरे लिए नहीं सब कुछ इसमें
यह लगता बिलकुल बेकार
आते ही लपकें दादा जी
देखें इसमें राशिफल
फिर पापा जी झटपट ढूँढे
इधर उधर की हर हलचल
मेरा जब नम्बर आता तो
मिलता सबकुछ चौपट यार
पहले इसमें रविवार को
गीत कहानी छपते थे
रंग बिरंगे कार्टून भी
मुझको इसमें दिखते थे
जिस दिन यह छुट्टी करता था
मैं हो जाता था बीमार
जाने क्या हो गया आजकल
भैया इन अखबारों को
रोक दिया क्यूँ जान बुझकर
बचपन भरी बहारों को
हे भगवान सुधारों इनको
लौटा दो मेरा संसार
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