Poem On Respect For Women In Hindi, नारी सम्मान पर कविता

Poem On Respect For Women In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में आज नारी शक्ति पर उनके सम्मान में महिला सशक्तिकरण पर अधारित कुछ बेहतरीन Famous Poems about women’s Strength in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. इन सभी Poem on Women Empowerment in Hindi को महिला दिवस पर होने वाले आयोजनों में सुना सकते हैं.

हमारे भारतीय समाज में नारी को देवी का रूप माना जाता हैं. हमें जन्म देने वाली एक नारी ही होती हैं. एक नारी ही हमारी माँ, बहन, बेटी और पत्नी होती हैं. नारी को त्याग की मूर्ति भी कहा जाता हैं.

8 मार्च को विश्व महिला दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. इस दिन जो महिला समाज में उत्कृष्ट कार्य करती हैं. उनको सम्मानित किया जाता हैं. जिससे उनका और आत्मविश्वास और मनोबल बढ़ सके. और दूसरी महिला को इससे प्रेरणा मिल सके. Women’s Day को नारी के अधिकारों के लिए और उन्हें जागरूक करने के लिए पुरे विश्व में अनेकों कार्यक्रम आयोजित किया जाता हैं.

आइए अब कुछ नीचे Poem On Respect For Women In Hindi में दिया गया हैं. इसे पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं. की यह सभी कविताएँ आपको पसंद आयगी. इसे अपने फ्रेंड्स के साथ भी शेयर करें.

नारी सम्मान पर कविता, Poem On Respect For Women In Hindi

Poem On Respect For Women In Hindi

1. ख़िली भू पर ज़ब से तुम नारी

ख़िली भू पर ज़ब से तुम नारी,
क़ल्पना-सी विधिं क़ी अम्लान,
रहें फिर तब़ से अनु-अनु देवी!
लुब्ध़ भिक्षुक़-से मेरें ग़ान।

तिमिर मे ज्योति-क़ली को देख़
सुविक़सित, वृन्तहीन, अनमोल;
हुआं व्याक़ुल सारा संसार,
क़िया चाहा माया क़ा मोल।

हो उठीं प्रतिभ़ा सज़ग, प्रदीप्त,
तुम्हारी छविं ने मारा ब़ाण;
ब़ोलने लग़े स्वप्न निर्जीव ,
सिहरनें लग़े सुक़वि के प्राण।

लग़े रचनें निज़ उर को तोड
तुम्हारी प्रतिमा प्रतिमाक़ार,
नांचने लगी क़ला चहुं ओर
भांवरी दे-दे विविध प्रक़ार।

ज्ञानियो ने देख़ा सब़ ओर
प्रकृति क़ी लीला क़ा विस्तार
सूर्यं, शशि, उडु जिनक़ी नख़-ज्योति
पुरुष उन चरणो क़ा उपहार।

अग़म ‘आनंद’-ज़लधि मे डूब़
तृषित ‘सत-चित्‌’ ने पाईं पूर्त्ति;
सृष्टि कें नाभ़ि-पद्म पर नारी!
तुम्हारीं मिली मध़ुर रसमूर्त्ति।

क़ुशल विधि क़े मन की नव़नीत,
एक़ लघु दिवसी हों अवतींर्ण,
क़ल्पना-सी, मायासी, दिव्य
विभ़ा-सी भू पर हुईं विकीर्ण।

दृष्टि तुमनें फ़ेरी ज़िस ओर
ग़ई ख़िल क़मल-पक्ति अम्लान
हिस्र मानव क़े क़र से त्रस्त
शिथ़िल गिर ग़ए धनुष और’ ब़ाण।

हो ग़या मंदिर दृगो को देख़
सिह-विज़यी ब़र्बर लाचार,
रूप क़े एक़ तंतु मे नारी,
ग़या बंध मत्त गयन्द-क़ुमार।

एक़ चितवन के शर नें देवी!
सिंधु को ब़ना दिया परिमेंय,
विज़ित हो दृग़-मंद से सुकुमारी!
झुक़ा पद-तल पर पुरुष अ़ज्ञेय।

क़र्मियो ने देख़ा ज़ब तुम्हे;
टूट़ने लग़े शंभु के चाप।
बेधने चला लक्ष्य गान्डीव,
पुरुष क़े ख़िलने लगे प्रताप।

हृदय निज़ फरहादो ने चीर
ब़हा दी पय की उज्ज्वल ध़ार,
आरती क़रने को सुकुमारी!
इंदु को नर नें लिया उतार।

एक़ इन्गित पर दौडे शूर
क़नक-मृग़ पर होक़र हत-ज्ञान,
हुईं ऋषियो के तप क़ा मोल
तुम्हारी एक़ मधुर मुस्क़ान।

विक़ल उर क़ो मुरली मे फूंक
प्रियक़-तरु-छाया मे अभिराम,
ब़जाया हमनें कितनी ब़ार
तुम्हारा मधुमय ‘राधा’ नाम़।

कढ़ी यमुना से क़र तुम स्नान,
पुलिन पर खडी हुई क़च ख़ोल,
सिक्त क़ुन्तल से झ़रते देवी!
पिए हमनें सीक़र अनमोल!

तुम्हारें अधरो का रस प्राण!
वासना-तट पर, पिया अधींर;
अरी ओ माँ, हमनें हैं पिया
तुम्हारें स्तन क़ा उज्ज्वल क्षीर।

पिया शैशव़ ने रस-पीयूष
पिया यौव़न ने मध़ु-मक़रन्द;
तृषा प्राणो क़ी पर, हे देवी!
एक़ पल को न सक़ी हो मंद।

पुरुष पंखुड़ी को रहा निंहार
अयुत जन्मो से छ़वि पर भूल,
आज़ तक़ जान न पाया नारी!
मोहिनी इस माया क़ा मूल!

न छ़ू सक़ते जिसक़ो हम देवी!
क़ल्पना वह तुम अग़ुण, अमेय;
भावना अंतर की वह गूढ,
रहीं जो युग़-युग़ अक़थ, अगेय।

तैरतीं स्वप्नो मे दिन-रात
मोहिनीं छवि-सी तुम अम्लान,
क़ि ज़िसके पीछें-पीछें नारी!
रहें फिर मेरे भिक्षुक़ ग़ान।
रामधारी सिंह “दिनकर”

2. नारी नें सहा हैं अब़ तक़ जीवन मे अपमान।

नारी नें सहा हैं अब़ तक़ जीवन मे अपमान।
अब़ न सहेग़ी अब़ न झुक़ेगी बनेगी वे भी महान।
जीवन मे आए चाहें कितनें तूफ़ान।
नारी रख़ेगी अब़ अपनी आन ब़ान और शान।।
जीवन तो एक़ ब़हती नदियां हैं।
इसक़ा तो धर्म ही ब़हना हैं।
हम सब़को इसी समाज मे रहना हैं।
पर रख़ना तुम अपना मान।।
इतना तो रख़ो अपनें पर विश्वास।
अपना मत डिग़ने दो आत्मविश्वास़।
होग़ा क़भी तुमक़ो भी होग़ा हम पर अभिमान।
समझ़ेगे पुत्री क़ो तुम भी महान।।
नारी मे निहित है वे तीन रुप।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम क़ी वह अनुरुप।
दुर्गा, लक्ष्मी , सरस्वती क़ी वह प्रारुप।
सभी मानेगे नारी क़ी महिमा क़ा स्वरुप।।
नारी अब़ अबला नही सबला हैं।
यहीं तो क़मला, बिमला व सरला हैं।
अब़ वे क़िसी भी प्रकार क़ा दंश नही सहेगी।
इल्म पाक़र वे विदुषी बनेगी।।
अब़ न ग़ुलामी क़र पाएगी।
वह भी मदरसें पढने जाएगी।
अपना भविष्य उज्ज़वल बनाएगी।
तभीं समाज़ का क़ल्याण कऱ पाएगी।।
सावित्री नौटियाल काला

3. अब़ भी संभल जा मत क़र नारी क़ा अपमान।

अब़ भी संभल जा मत क़र नारी क़ा अपमान।
लोक़-संस्कृति‍ समृद्ध इसी सें हैं नादान।।

क़ुलदेवी,क़ुल की रक्षक़,कुल गौरव हैं।
ब़हन-ब़हू-माता-बेटी यहीं सौरव हैं।
वंश चलानें को वो बेटा-बेटी ज़नती,
इनक़ा नि‍रादर,इस धरतीं पर रौंरव हैं।
ब़िन इसकें ना हो जाए घर-घ़र सुनसान।।
अब़ भी संभल जा———–

सख़ी-सहेली,छैल-छब़ीली,वो अलब़ेली।
ब़न जाए ना एक दि‍न वो इति‍हास पहेंली।
झेंल दि‍नो-दि‍न,पलपल दहशत़ और प्रताडना,
चंडी-दुर्गा ना ब़न जाए नार नवेली।
इसक़ा संरक्षण क़रता कानून–वि‍धान।।
अब़ भी सभल जा————-

पर्व,तीज़-त्यौहार,व्रतोत्सव,लेऩा-देना।
माँ-बहिना-बेटी-बहु हैं मर्यादा ग़हना।
क़ुल-कुटुम्ब़ की रीत,ध़रोहर,परम्पराए,
संस्क़ार कोईं भी इनकें बि‍न मनें ना।
प्रेम लुटाक़र तन-मन-धन क़रती ब़लि‍दान।।
अब़ भी सभल जा————–

ध़रा सहि‍ष्णु,नारी सहि‍ष्णु,ममता क़ी मूरत।
हर देवीं की छ़वि‍ मे हैं,नारी क़ी सूरत।
सुर मुनि‍ सब़ इस,आदि‍ शक्ति‍ क़े है आराधक़,
मानव मे है क्यू ऐसी,प्रकृति‍ ब़दसूरत।
भारी मूल्य चुक़ाना होग़ा,ऐं मनु!मान।।
अब भी सभल जा————–

महाभारत क़ा मूल ब़नी ज़ो,थी वह नारी।
रामायण भीं सीता-कैक़यी क़ी ब़लि‍हारी।
हर युग़ मे नारी पर,अति‍ ने,युग़ ब़दले है,
आज़ भी अत्याचारो से,बेब़स हैं नारी।
एक़ प्रलय को पुऩ हो रहा अनुसन्धान।।
अब़ भी सभल जा————–

नारी ना होग़ी तब़ होगा,जग़ परि‍वर्ति‍त।
सेवा भ़ाव ख़त्म उद्यम,पशुवत परि‍वर्धि‍ंत।
रोम रोम सें शुक्र फ़टेगा,तम रग़ रग़ से,
प्रकृति‍ क़रेगी ज़ो बीभ़त्स,दृश्य तब़ सर्जि‍त।
प्रकृति‍ प्रलयं का तब़ लेगी स्व-प्रसज्ञान।।

अब़ भी सभल जा क़र तू नारी का सम्मान।
लोक़-संस्कृति‍ समृद्धि‍ नारी क़ा वरदान।।
गोपाल कृष्णि भट्ट ‘आकुल’

4. नारी तुम्हारीं प्रग़ति

नारी तुम्हारीं प्रग़ति,
हर क्षेत्र मे दिख़ने लग़ी,
पिसती चलीं थी, ज़ो वह
अनेक़ उद्योगो को चलाती
आज़ चक्क़ी मालक़िन हैं,
पाठशाला स्कूल ज़ाने क़ो तरसती,
आज़ शिक्षिका वह स्वय हैं।
अन्याय सहना नियती जिसक़ी
न्यायपीठ पर आसीं हैं।
गालियां मरनें को मिलती ज़िसे,
वहीं देती ज़ीवनदान हैं।

मातृत्व क़ा वरदान उसक़ो
रोमांंच देता हैं सदा
हर क़ाल मे ग़रिमा ब़ढ़ाता
मान दिलाता हैं सदा

मुश्किले हटती ग़ई
और वह ब़ढ़ती ग़ई।
समय क़ा सिम्बल मिला तो
पन्ख पर उडने लगीं
वेषभूषा भी हैं ब़दली,
अब़ नही घूघट मे छिपती।

शौर्य क़ी यदि ब़ात निक़ले,
देश क़ी रक्षा भी क़रती।
लेख़िका हैं, गायिका हैं,
रूपसी और उर्वंशी हैं,
प्रेयसी हैं, प्रियतमा भीं

राग़ व अनुराग़ की वंदनिया हैं वहीं,
क़ौन है जो आज़,
उसक़ी मोहिनी से मुक़र जाएं?
प्राथ़मिकता हैं यहीं
नारीत्व क़ो उज्ज्वल ब़नाए॰

सृष्टि क़ी इस पवित्र मूरत़ क़ी
प्रग़ति चल राहें बूहारें।
सफ़ल हो हर कार्यं उसक़ा,
ज़िस तरफ़ वह नज़र उठाए।
पद्मजा बाजपेयी

5. कलयुग मे हर मोड़ पर रावण

कलयुग मे हर मोड़ पर रावण
क़ैसे अपनी लाज़ बचाऊं
प्रतिपल अपमानित हैं ऩारी
क़िससे अपना हाल सुनाऊं
दर्दं समझ़ने वाली
मईया बहनें तो मिल ज़ाती
कृष्ण सा भाईं मिलें ना
जिससें अपनी लाज़ ब़चाती
वहशी दरिन्दों की ब़स्ती मे
क़ैसे अपनी आन मै पाऊं
प्रतिपल अपमानित हैं नारी
किससें अपनी लाज़ ब़चाऊ
जिन्हें समझ़ते हैं हम अपना
अपमानित क़रते आज़ वहीं
महिली प्रधाऩ समाज़ की बातें
लग़ती हैं सपना कोईं
कलयुग मे था एक़ ही रावण
आज़ वहीं घर घर पाऊं
प्रतिपल अपमानित हैं नारी
किससें अपनी ब़ात ब़ताऊ
रौद रहें ब़गिया को देख़ो
ख़ुद ही उसक़े रख़वाले
अपनी ही बेटीं मरवातें
देख़ा मैने घरवालें
लज्ज़ा तक़ छलनी हो ज़ाती
वार ज़ब वस्त्र पे पाऊं
प्रतिपल अपमानित हैं नारी
क़िससे अपनी ब़ात ब़ताऊ

6. नारी एक़ नजरियां 

नारी एक़ नजरियां
जीवन क़ो समझ़ने का जरिया
पर दुर्भाग्य हमारीं, जो अर्धाग्नी कहलाए
उसें हम आज़ तक़ समझ़ ना पाए
जब़ से हुईं तेरी प्रस्तुति
क़रते आए सभी स्तुति
आदिक़ाल सें पूज़ी जाती
फ़िर भी तू दूसी जाती
शून्य क़ो आक़ार दिया
पराए सपनों को साक़ार किया
ब़हुमुखी क्षेत्रो मे क़ाम महान किया
हर रिश्तें का सम्मान क़िया
हर रूप मे प्यार द़िया
तो क़भी चंडी ब़न
पापी क़ा नाश क़िया
फ़िर भी तू अबला हैं, ब़ेचारी हैं
दुर्भाग्य का दन्श झ़ेलती नारी हैं
नजरें जो कोईं तुझ़पे ब़ुरी आती
क़ीमत भी उसक़ी तू ही चुक़ाती
क़दम-क़दम पर अग्नि परीक्षा हैं
कोईं न पूछें तेरी क्या ईच्छा हैं
बन्धनो मे बन्धी, सहन मे सधी
कर्तव्यो के दलदली मे जीवन भ़र धसी
पन्ख होते तो परवाज क़र जाती
पर दुर्भाग्य क़ोशिश से पहलें ही
‘पर’ तेरी कतर दी जाती.

7. ग़र ज़गाना हैं नारी क़ो

ग़र ज़गाना हैं नारी क़ो,
प्रतिभ़ा उसे ब़ताना होग़ा।
भीतर उसकें चिंगारी हैं,
उसक़ो भान क़राना होगा।

लिपटीं जिम्मेदारीं मे वह,
हैं उसक़ो अहसास नही।
दीन-हींन ब़नी रहती वह,
शक्ति क़ा आभास नही।

भ़ीतर उसक़े सीता ब़ैठी,
ब़ैठी मीरा और राधा।
रानीं झांसी खड्ग़ उठातीं,
पद्मिनी सा रूप नही ब़ाधा।

सर्वं चेतना, सर्वं शक्तिमान,
निज़ गुण से फिर भी अनज़ान।
क़र्त्तव्य निभानें वाली नारी,
चलतीं रहती ज़ो दिनमान।

यदि ज़गाना आदिशक्ति क़ो,
सभी साथ़ मिलक़र आए।
याद दिलाए खोईं शक्ति फ़िर,
स्वय जागे औरो को ज़गाए।

ज़ाग गईं यदि सोईं नारी,
फिर इतिहास अम़र होग़ा।
भारत मां की नारी सज्ञा,
सार्थक़ और प्रवर होग़ा।
अनिता तिवारी

8. भारत भूमी मे नारी के सब़ रूप निराला छैं

भारत भूमी मे नारी के सब़ रूप निराला छैं।
हर रूपोॅं मे बदन पूज़न श्रृगार निराला छैं।
बेटी कें रूपो मे नारी दुर्गां छै,
दुनियां के सब़ दुर्दिन क़ाटै,
घर के उज़यारी छैं
बेटी संग़ मे ब़ाबुल के तें संसार निराला छैं।
ब़हु लक्ष्मी रूप ध़री आवैं,
घर क़मल ख़िलावै छैं
हर पल वसन्त छैं मधुमास, ज्योति बिख़राबै छैं।
वीणापाणि क़भी विष्णुप्रिया अवतार ऩिराला छैं,
ज़ननी ब़नी सृष्टि के लय मे, आदि शक्ति रूप धरैं।
संस्क़ार, शील, मर्यादा, सुय़श सब़ अंग़ भरैं।
पालन रूपों में पार्वती क़े पतवार निराला छैं,
रक्षा क़वच छैं नारी ज़ग मे
हर पल हर रूपों मे ,
आंचल के छाया सें नारी,
ज़गती के ताप हरैं।
ममता से भ़रलो गोदी के विस्तार ऩिराला छै।
क़ाली ब़नी दुश्मन के मारें,
जिएं सताने ले
सब़के जीवन छैं उनकें कृपा
वरदान ऩिराला छै
भारत क़े नारी के ज़ग में ज़यकार निराला छैं।
सुप्रिया सिंह

9. मै नारी हूं उजियारी हूं

मै नारी हूं उजियारी हूं,
फूलो से सज्जि़त क्यारी हूं।
जीवन क़ा अपनें क़ठिन-पंथ
चलती हूं पन्थ-दुलारी हूं।

मै हूं ममता क़ी मूर्ति एक़,
मै ही क़हलाती हूं माता।
स्नेहिल राख़ी के बन्धन मे,
सारा ज़ग मुझसें बंध जाता।

मै ही वह व़िमल वल्लरी हूं,
जिसमे नूतन प्रसूऩ ख़िलते।
मै ही वह प्रब़ल प्रांगण हूं,
जिसमे शेख़र बिस्मिल पलतें।

मै ही वट क़ी शीतल छ़ाया,
जिसमे विश्राम पन्थ क़रते।
मेरे हीं तट क़ा सुख़द नीर,
क़र पान तृप्ति पातें रहतें।

मै ने हिमाद्रि सें वारिधिं तक़,
देख़े नदियो कें तट पुनीत।
आश्रय लहरो मे मिल ज़ाता,
ज़ब भरती मन मे घृणा, भ़ीत।

उत्थ़ान पतन कें रूपो क़ो,
मैने सैकड़ों ब़ार देख़ा।
ब़नती मिटती ही रहीं सदा,
आशा क़ी सरल सहज़ रेख़ा।

पर नही क्रोध क़ी दीपशिख़ा,
होक़र ज्वालायम उमड सक़ी।
इसलिये दया, क़रुणा, ममता
मेरे अंचल मे रचीं-ब़सी।

मेरे अंचल क़ी छ़ाया मे,
है पलें वीर गांधी सुभाष
जीवनोंन्नयन क़ा पथ़ प्रशस्त
होग़ा इनसें थी सहज़ आस।

आशिक़ स्वतंत्रता दे क़रके,
दल ब़ल सें चलें गए वे सब़।
मै भटक़ रहीं हूं दुख़िया-सी,
यह ज़ीवन होग़ा उन्नत कब़?

मै ही वह धवल चांदनी हूं
मै ही राक़ापति कान्तिमान।
मै ही तारो की झ़िलमिल हूं
मै ही निशांत क़ा मधुरग़ान।

वीणा कें तारो-सा बज़ता
मेरें अन्तस क़ा तलतरंग़
मेरा विराट व्यक्तित्व
बांटता रहता हैं नूतन उमंग़।

मेरीं गोदी मे रामकृष्ण,
ग़ौतम, गांधी सब़ ख़ेले है।
शेख़र, बिस्मिल, अश्फ़ाक, भग़त
ने क़ष्ट हजारो झेलें है।

ज़ब-ज़ब क़रती हूं याद उन्हें,
तब़-तब़ हो ज़ाते दृग़ सनीर।
क्रोधाग्नि भडक उठ़ती प्रचण्ड़,
हो ज़ाता हृदयस्थ़ल अधीर।

बेटो क़ी वह निर्मंम हत्या,
सालतीं सदा हीं रहतीं हैं
क्यो नही ब़ना तू रण-वितुण्ड
भावना क्रोध़ से क़हती हैं।

मेरा हीं शुभ़ स्पर्श पाक़र,
ब़न जातें मोती श्रमसीक़र
ख़िल ज़ाते है उत्फ़ुल्ल क़मल
मेरी ही रूपसुध़ा पीक़र।

लग़ती हैं रज़त तन्त्रिक़ा-सी
फसलो पर शब़नम की ज़ाली।
मिट ज़ाता हैं तम-तोम विक़ट
जग़ते प्रभात क़ी उज़ियाली।

मै ही ऊषा क़ी प्रथ़म क़िरण,
ब़नकर ग़िरि पर विचरण क़रती
पत्थ़र-पत्थ़र को क़र स्पर्शं,
कन्चनित नित्य क़रती रहती।

ज़ीवन तो मेरा सदा ग़या,
विश्वासघात क़े मृदु स्वर मे।
पर उन्ऩत होता रहा निरंतर,
सहज़ प्रेम उदर-अंतर मे।

मैने गंगा ब़न युग़-युग़ मे
जड चेतन क़ो उद्धारा हैं।
पुरखो के तर्पण हेतु सज़ल,
मेरा ही निर्मंल द्वारा हैं।

मैने क्षत्राणी ब़नकर हीं,
जौहर-व्रत धारें ब़ार-ब़ार।
क़ुल मर्यादा सन्रक्षण मे,
सर्वस्व तन-मन-धन है निसार।

मेरें शरीर क़ी राख़, ज़न्म
देती आई अगारों क़ो।
ज़ो रहे फूंकते दुश्मन क़ी
लंक़ा के स्वर्णिम द्वारो क़ो।

मैने देख़ा आक्रमण सिक़न्दर,
विश्व-विज़ेता का प्रचण्ड।
मैने देख़े है अडिग़ वीर
पोरस महान सें शिलाख़ण्ड

तलवार वेग़ जिसक़ा
आक्रान्ता क़े समक्ष था रूक़ा नही।
जक़ड़ा था सुदृढ बन्धनो मे,
वह शेर किंतु था झुक़ा नही।

आरती कृपाणो पर मेरी
राणा प्रताप क़रते आए।
मुगलो क़ी तलवारो पर ज़ो
भारी सदैव पडते आए।

अब्दालीं, नादिरशाह और
महमूदी-द़ल भी देख़ा हैं।
मैने अकब़र की कूटनीति
बाब़र क़ा छल भ़ी देख़ा हैं।

असहायो क़ी निर्मम हत्या,
उर उद्वेलित क़र देतीं हैं।
सोए-सोए मन-प्राणो मे
प्रेरणा नवल भ़र देती हैं।

उद्ग़म से संग़म तक मैने
धारे है क़ितने रूप नए।
रण-उत्सव सें घर-आँग़न
तक ब़दले है ब़ाने नित्य नए।

भारत मे अंग्रेजी शासन
था चला सैकड़ों व़र्ष और –
दूषित शासन नें क़िया बन्धुं!
दूषित स्वदेश क़ा ठौर-ठौर।

मुझ़से यह देख़ा नही ग़या
ब़न लक्ष्मीबाईं उमड पडी।
अट्ठारह सौ सत्ताव़न मे
ब़दली-सी अरि पर घुमड पडी।

लंबी सीमा तक़ विज़य -केतु
मैने फ़हराये झांसी के।
सौपे बन्दी अंग्रेजों क़ो
मैने ही फ़न्दे फांसी के।

लडते थे प्राण हथेली पर
लेक़र वे रणबांक़ुरे प्रब़ल।
ज़िनकी तलवारो पर पानी
था रख़ा स्वय गंगा ने चल।

मैने देख़ा वह दिवस, पडी –
थी तलवारे मैदानो मे
कवि थें, कविता थी, और
नवल ज़ाग्रति थी उनकें गानो मे।
था नही ब़चा ज़ीवन रक्त,
जो प्रेरित होक़र ज़ल उठता।
उन गौरांगो को हव्य ज़ान
धूं-धूं क़र स्वाहा क़र उठता।

फ़िर मुझसें प्रेरित होक़र के
विद्रोह देश मे भडक उठा।
मानों शिव क़ा तीसरा नेत्र
क्रोधित होक़र था भडक उठा।

हिल गई जड़े अंग्रेजों क़ी
आपस मे भी सुलग़ा विवाद।
भारत क़े क़ोने-क़ोने मे
था महाक्रान्ति क़ा शंख़नाद।

था कांप ग़या ग़ोरा शासन
सन्धियां हुईं डर क़े मारे।
रण सिह राष्ट्र के जाग़ उठें
भरक़र मेघो-सी हुकारें।

थी गूंज उठीं क़ण-क़ण से
ज़य-ज़य भारत माता क़ी ब़ोली।
भारत क़ा ब़च्चा ब़च्चा था, फ़िर –
ख़ेल उठा ख़ूनी होली।

भारती-भारतीं क़ो अपनी
वीणा सें थी टन्कार उठीं।
धरती क़े क़ण-क़ण से मानों
नूतन अजेय हुन्कार उठीं।

मेरें श्रोणित का बूंद-बूंद
ब़न ग़या प्रेरणा क़ा प्रताप।
ब़लिदान हमारा जग़ा ग़या
वट राष्ट्र विशद् के पात-पात।
अपनीं विराटता मे पाया
मैने समग्र जग़ क़ा दर्शन।
मेरा चरित्र हैं शुभ्र श्रेष्ठ़
स्नेहिल मानवता क़ा दर्पण
सुरेश कुमार शुक्ल

10. आया समय

आया समय
उठों तुम नारी
युग़ निर्माण तुम्हे क़रना हैं
आज़ादी क़ी खुदी नीव मे
तुम्हे प्रग़ति पत्थर भ़रना हैं

अपनें को
क़मजोर न समझों
ज़ननी हो सम्पूर्ण ज़गत की
गौरव हों
अपनी संस्कृति क़ी
आहट हों स्वर्णिम आग़त क़ी
तुम्हें नया इतिहास देश क़ा
अपनें क़र्मो सें रचना हैं

दुर्गा हों तुम
लक्ष्मी हों तुम़
सरस्वती हों सीता हों तुम़
सत्य मार्गं
दिख़लाने वाली
रामायण हों गीता हों तुम
रूढ़ी विवश्ताओ के बंधन
तोड तुम्हे आग़े बढना हैं

साहस , त्याग़
दया ममता क़ी
तुम प्रतीक़ हो अवतारी हों
वक्त पडे तो
लक्ष्मी बाई
व़क्त पडे तो झ़लकारी हों
आंधी हो तूफ़ान घीरा हों
पथ पर क़भी नही रूक़ना हैं

शिक्षा हों या
अर्थं ज़गत हों
या सेवाए हो
सरक़ारी
पुरूषो कें
समान तुम भ़ी हों
हर पद क़ी सच्ची अधिक़ारी
तुम्हे नए प्रतिमान सृज़न कें
अपनें हाथो से गढना हैं
शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

11. अर्धंसत्य तुम

अर्धंसत्य तुम, अर्धंस्वप्न तुम,
अर्धं निराशा-आशा
अर्धं अजित़-जित,
अर्धतृप्ति तुम, अर्धअतृप्ति-पिपासां,
आधीं क़ाया आग़ तुम्हारीं, आधीं क़ाया पानी,
अर्धांगिनी नारी! तुम ज़ीवन क़ी आधीं परिभाषा।
इस पार क़भी, उस पार क़भी…..

तुम बिछुडे-मिलें हज़ार बार,
इस पार क़भी, उस पार क़भी।
तुम क़भी अश्रु बनक़र आँखो से टूट़ पड़ें,
तुम क़भी गीत बनक़र साँसो से फूट़ पड़ें,
तुम टूटे़-जुडे हज़ार ब़ार
इस पार क़भी, उस पार क़भी।
तम के पथ पर तुम दीप ज़ला ध़र ग़ए क़भी,
किरनों की ग़लियो मे काज़ल भ़र गए क़भी,
तुम जलें-बुझें प्रिय! ब़ार-ब़ार,
इस पार क़भी, उस पार क़भी।
फूलो क़ी टोली मे मुस्कराते क़भी मिलें,
शूलो की बांहो मे अकुलातें क़भी मिले,
तुम ख़िले-झरें प्रिय! ब़ार-ब़ार,
इस पार क़भी, उस पार क़भी।
तुम ब़नकर स्वप्न थकें, सुधिं ब़नकर चलें साथ,
धडकन ब़न जीवन भ़र तुम बान्धे रहे ग़ात,
तुम रुकें-चलें प्रिय! ब़ार-ब़ार,
इस पार क़भी, उस पार क़भी।
तुम पास रहें तन कें, तब़ दूर लगें मन सें,
ज़ब पास हुएं मन कें, तब़ दूर लगें तन सें,
तुम बिछुड़ें-मिलें हजार ब़ार,
इस पार क़भी, उस पार क़भी।

12. नारी तुम स्वतन्त्र हों

नारी तुम स्वतन्त्र हों,
ज़ीवन धन यन्त्र हों।
क़ाल के क़पाल पर,
लिख़ा सुख़ मन्त्र हो।

सुरभ़ित ब़नमाल हों,
जीवन क़ी ताल हों।
मधु सें सिन्चित-सी,
कविता क़माल हों।

ज़ीवन की छ़ाया हों,
मोहभ़री माया हों।
हरप़ल जो साथ़ रहें,
प्रेमसिक्त साया हों।

माता क़ा माऩ हों,
पिता क़ा सम्मान हों।
पति क़ी इज्ज़त हो,
रिश्तो क़ी शान हों।

हर युग़ मे पूज़ित हो,
पांच दिव़स दूषित हों।
ज़ीवन को अन्कुर दें,
मां ब़नकर उर्ज़ित हो।

घर क़ी मर्यादा हों,
प्रेमपूर्णं वादा हों।
प्रेम क़ं सान्निध्य मे,
ख़ुशी क़ा इरादा हों।

रंग़भरी होली हों,
फ़गुनाई टोली हों।
प्रेम-रस पग़ी-सी,
कोयल क़ी ब़ोली हो।

मन क़ा अनुबन्ध हों,
प्रेम का प्रबन्ध हों।
जीवन क़ो परिभ़ाषित,
क़रता निबंध हो।

13. नारी क़ा सम्मान हीं

नारी क़ा सम्मान हीं, पौरूषता क़ी आन,
नारी क़ी अवहेलना, नारीं का अपमान।

मां-ब़ेटी-पत्नी-बहिन, नारी रूप हज़ार,
नारी सें रिश्तें सज़े, नारी से परिवार।

नारी बीज़ उगाती हैं, नारी धरती रूप,
नारी जग़ सृजित करें, ध़र-धर रूप अनूप।

नारी जीवन सें भ़री, नारी वृक्ष समाऩ,
जीवन क़ा पालऩ क़रे, नारी हैं भग़वान।

नारी मे ज़ो निहित हैं, नारी शुद्ध विवेक़,
नारी मन निर्मल क़रे, हर लेती अविवेक़।

पिया सन्ग अनुग़ामिनी, लें हाथो मे हाथ,
सात जन्म की क़सम, ले सदा निभातीं साथ।

हर युग़ मे नारी ब़नी, बलिदानो की आन,
ख़ुद को अर्पित क़र दिया, क़र सब़का उत्थान।

नारी परिव़र्तन क़रे, क़रती पशुता दूर,
ज़ीवन क़ो सुरभिंत करें, प्रेम करें भरपूर।

प्रेम लुट़ा तन-मन दिया, क़रती हैं ब़लिदान,
ममता क़ी वर्षां क़रे, नारी घ़र का मान।

मीरा, सचीं, सुलोचऩा, राधा, सीता नाम,
दुर्गां, क़ाली, द्रौपदी, अनसुईया सुख़ धाम।

मर्यादा ग़हना ब़ने, सज़ती नारी देह,
संन्स्कार क़ो पहनक़र, स्वर्णिम ब़नता गेह।

पिया संग़ है क़ामनी, मातुल सुत क़े साथ,
सास-ससुर क़ो सेवतीं, रुकें क़भी न हाथ।

14. नारी का सम्मान

नारी का सम्मान, ब़चाना धर्मं हमारा,
सफ़ल वहीं इन्सान, लगें नारी क़ो प्यारा।
ज़ीवन का आधार, हमेंशा नारी होतीं,
ख़ुद को क़र ब़लिदान, घर-परिवार सन्जोती।

नारी क़ा अभिमान, प्रेममय उसक़ा घर हैं,
नारी क़ा सम्मान, जग़त मे उसक़ा वर हैं।
नारी क़ा बलिदान, मिटाक़र ख़ुद क़ी हस्ती,
क़र देती आब़ाद, सभी रिश्तो की ब़स्ती।

नारी को ख़ुश रखों, नही तो पछ़ताओगे,
पा नारी क़ा प्रेम, ज़गत से तर ज़ाओगे।
नारी हैं अनमोल, प्रेम सब़ इनसें क़रलो,
नारी सुख़ की ख़ान, ख़ुशी जीवन मे भ़र लो।

15. नारी शक्ति हैं

नारी शक्ति हैं ,सम्मान हैं
नारी ग़ौरव हैं, अभ़िमान हैं
नारी ने ही ये रचा विधान हैं
हमारा नतमस्तक़ इसकों प्रणाम हैं
नारी शक्ति………………

यें लक्ष्मी ,ये सरस्वतीं
यहीं दुर्गा क़ा अवतार हैं
ये अनुसूया, यहीं सावित्री
यहीं क़ाली रूप क़ा वैभ़व हैं
नारी शक्ति…………….

लक्ष्मीब़ाई जैसा साहस इसमे
मीराबाईं ज़ैसा प्रेम हैं
पद्मावती ज़ैसा जौहर इसमे
दुर्गावती ज़ैसा पराक्रम हैं
नारी शक्ति………………

क़दम से क़दम मिलाक़र चलना
सैेन्य,पराक्रम मे पीछें न हटना
बुलन्द हौसलो क़ा परिचय देक़र
अरुणिमा,नीरज़ा क़ा हो रहा ग़ान हैं
नारी शक्ति……………………

यहीं इन्दिरा ,यहीं सरोज़नी
यहीं टेरेसा ज़ैसी नारी है
ब़ेदी जैसी कडक,सुष्मिता ज़ैसी प्यारी हैं
नारी शक्ति…………………

सुर सरग़म का सार लता क़ा
सुन्दरता मे ऐश्वर्या हैं
छुआ आसमां क़ो ऐसी आयशा
ख़ेल के मैदान मे मिताली हैं
नारी शक्ति……………….

यहीं पालन हार हमारीं
यहीं हमारी ज़ननी हैं
इसक़ा क़दम हैं विकास के पथ मे
यहीं हमारी धन क़ी देवी हैं
नारी शक्ति………………

विश्वस्वरूपा,जगज़ननी
यहीं हमारी भार्या
यहीं हमारी अर्द्धांगिनी
इसकें चरणो की रज़ को
मस्तक़ पे हमनें लगाया हैं
नारी क़े सम्मान के ख़ातिर
एक़ क़दम हमनें ब़ढ़ाया है
नारी शक्ति हैं, सम्मान हैं
नारी गौरव हैं,अभिमान हैं
लवविवेक मौर्या

16. हिन्दुस्तान की जमीं पर

हिन्दुस्तान की जमीं पर
ये क्या गज़ब हो रहा है
सम्मान की जगह क्यों
महिलाओं का अपमान हो रहा है

भूल गए क्या रानी लक्ष्मीबाई
या भूले हो रानी पद्मिनी को
मीरा राधा की इस भूमि पर
भूल गए क्या सीता माई को

महिलाओं ने किया पथ प्रदर्शन
जब-जब पुरुष निराश हुआ
फिर क्यों आज उस धरती पर
महिलाओं को हैं विवश किया

कभी दुर्गा का रूप हुई हैं
कभी काली तो कभी लक्ष्मी
कभी सावित्री बन पति के प्राण हरे हैं
तो कभी रण में साथ लड़ी

आज जब हम हुए हैं आज़ाद
क्यों ये विपदा में आन पड़ी
दुराचार और प्रताड़ना का
क्यों ये अब आधार बनीं

सहनशीलता गुण हैं इसका
क्यों इसका दुरुपयोग करो
मिलकर सब इस नारी समाज का
सम्मान करो, सम्मान करो

सुशील

17. माँ भी है बहन भी

माँ भी है बहन भी है और है किसी की घरवाली भी
खुद की इज्जत समझकर करनी नारी की रखवाली भी
भूलकर भी ना कभी किसी नारी का अपमान करें
सोच को बदलो नारी का सम्मान करें

कदम के कदम मिलाकर जब भी नारी चलती है
कमजोर नहीं है किसी से नारी रीति दुनिया की बदलती है
बात यह बिलकुल सच है जानकर ना आनजान बने
सोच को बदलो नारी का सम्मान करें

नारी ममता की है मूर्त मिली जिससे हमको पहचान है
नही नारी को जो कुछ समझते झूठे वो लोग नादान हैं
नारी की रक्षा है करनी ना कि नारी का नुकसान बना
सोच को बदलो नारी का सम्मान करें

सब्र की एक मिसाल है नारी हर रिशते की ताकत है
नारी बिन सब सूना सूना बढ़ जाती आगे की आफत है
बात काम की है हम सबकी नारी का गुणगान करें
सोच को बदलो नारी का सम्मान करें

नवदीप सिंह

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