Poem On Soil In Hindi : दोस्तों इस पोस्ट में कुछ बेहतरीन और लोकप्रिय मिट्टी पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. अपनी मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू सभी को आनंदित करती हैं.
अब आइए नीचे कुछ Poem On Soil In Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी मिट्टी पर कविताएं आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.
मिट्टी पर कविताएं
1. मिट्टी की खुशबू की
मिट्टी की खुशबू की
बात ही कुछ निराली है
कहीं चिकनी, कहीं रेतीली
कहीं सख्त, कहीं काली है।
हमारा बचपन क्या खूब था
जब हम
मिट्टी
के घरौंदे बनाते थे
जिसे हम फूल पत्तों और
मिट्टी के दीयों से ही सजाते थे
ना आज जैसी शहरी रौनक
ना बिजली कि चकाचौंध थी
फिर भी हम सब
बहुत खुश हो जाते थे।
कभी मिट्टी से पहाड़ बनाते
तो कभी
मिट्टी में पौधे लगाते थे
मिट्टी में खेल
हम असली खुशी पाते हैं
और आज……….….
कहीं मिट्टी ना लग जाए पैरों में
ये सोचकर पैर उठाते हैं।
-प्रतिभा तिवारी
2. मिट्टी हूं मैं अनमोल
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
बिकती हूं बिनमोल,
पैरों तले रौंदी जाऊं
वीरों के मस्तिष्क का तिलक बन इठलाऊं।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
कहीं बलुई, कहीं दोमट
है मिट्टी भिन्नतिलील भिन्न,
मिट्टी के उर से फूटें फसलें,
उर आनंदित हो जन जन का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
सौंधी सौंधी सुगंध है।मिट्टी हूं मैं अनमोल,
बिकती हूं बिनमोलमिट्टी हूं मैं अनमोल,
बिकती हूं बिनमोल,
पैरों तले रौंदी जाऊं
वीरों के मस्तिष्क का तिलक बन इठलाऊं।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
कहीं बलुई, कहीं दोमट
है मिट्टी भिन्न भिन्न,
मिट्टी के उर से फूटें फसलें,
उर आनंदित हो जन जन का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
सौंधी सौंधी सुगंध है।
बसी हूं जन जन में।
जने फल, सब्जियों से।
माटी के पुतलों में फूकती हूं प्राण।
माटी हूं अनमोल,
पानी से पनप जाऊं।
ढालों जिस आकार में ढल जाऊं
एक बीज से पालक बन पालन करूं श्रृष्टि का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
वास्तविक स्वरूप को ,
जो कहते कीचड़,गंदा,
करते मेरा नवीनीकरण,
आ जाता हैं अकाल।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
मेरे कण कण मे तृण है।
तृण से तृप्त होते कितने ही जानवर।
मिट्टी हूं मैंअनमोल,
पैरों तले रौंदी जाऊं
वीरों के मस्तिष्क का तिलक बन इठलाऊं।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
कहीं बलुई, कहीं दोमट
है मिट्टी भिन्न भिन्न,
मिट्टी के उर से फूटें फसलें,
उर आनंदित हो जन जन का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
सौंधी सौंधी सुगंध है।
बसी हूं जन जन में।
जने फल, सब्जियों से।
माटी के पुतलों में फूकती हूं प्राण।
माटी हूं अनमोल,
पानी से पनप जाऊं।
ढालों जिस आकार में ढल जाऊं
एक बीज से पालक बन पालन करूं श्रृष्टि का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
वास्तविक स्वरूप को ,
जो कहते कीचड़,गंदा,
करते मेरा नवीनीकरण,
आ जाता हैं अकाल।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
मेरे कण कण मे तृण है।
तृण से तृप्त होते कितने ही जानवर।
मिट्टी हूं मैंअनमोल,
बसी हूं जन जन में।
जने फल, सब्जियों से।
माटी के पुतलों में मिट्टी हूं मैं अनमोल,
बिकती हूं बिनमोल,
पैरों तले रौंदी जाऊं
वीरों के मस्तिष्क का तिलक बन इठलाऊं।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
कहीं बलुई, कहीं दोमट
है मिट्टी भिन्न भिन्न,
मिट्टी के उर से फूटें फसलें,
उर आनंदित हो जन जन का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
सौंधी सौंधी सुगंध है।
बसी हूं जन जन में।
जने फल, सब्जियों से।
माटी के पुतलों में फूकती हूं प्राण।
माटी हूं अनमोल,
पानी से पनप जाऊं।
ढालों जिस आकार में ढल जाऊं
एक बीज से पालक बन पालन करूं श्रृष्टि का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
वास्तविक स्वरूप को ,
जो कहते कीचड़,गंदा,
करते मेरा नवीनीकरण,
आ जाता हैं अकाल।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
मेरे कण कण मे तृण है।
तृण से तृप्त होते कितने ही जानवर।
मिट्टी हूं मैंअनमोल, हूं प्राण।
माटी हूं अनमोल,
पानी से पनप जाऊं।
ढालों जिस आकार में ढल जाऊं
एक बीज से पालक बन पालन करूं श्रृष्टि का
मिट्टी हूं मैं अनमोल।
वास्तविक स्वरूप को ,
जो कहते कीचड़,गंदा,
करते मेरा नवीनीकरण,
आ जाता हैं अकाल।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
मेरे कण कण में तृण है।
तृण से तृप्त होते कितने ही जानवर।
मिट्टी हूं मैं अनमोल,
vijaya Gupta
3. हम भी मिट्टी, तुम भी मिट्टी
हम भी मिट्टी, तुम भी मिट्टी,
मिलगा हर कोई मिट्टी में।
फिर भी लगे हुए हैं सब,
चंद सिक्कों की गिनती में।
कोई ढूंढ रहा नाम यहां पर,
कोई खोज रहा माल।
मगर मिलेंगे सभी एक दिन,
इस प्यारी-सी मिट्टी में।
कोई इस मिट्टी के ऊपर जाएगा,
कोई इस मिट्टी के नीचे।
जाना सबको ही पड़ेगा,
इक मुट्ठीभर मिट्टी में।
4. हर पानी को पंचतत्व में एक रोज मिल जाना है
हर पानी को पंचतत्व में एक रोज मिल जाना है
जिसे तीर्थ की मिट्टी मिलती है, उसे परम पद पाना है
कितनो की कामना अधूरी जीवन में रह जाती है
किन्तु पुण्यतोया गंगा की बूंद नहीं मिल पाती है
पर होती है अनायास ही धन्य यही मानव काया
अंत समय पाकर गंगा की गोद हिमालय की छाया
उसे अमरता का पथ होता फिर जाना पहचाना है
जिसे तीर्थ की मिट्टी मिलती है, उसे परम पद पाना है.
अटल सत्य है यह जीवन का. जो आता वह जाता है
किन्तु सफल है जो ईश्वर का सहयोगी बन जाता है
जीवन की आखिरी साँस तक गुरु का कर्ज चुकाता है
सही अर्थ में जीवन जीना सिर्फ उसी को आता है
ऐसे मान को युग युग तक करता याद जमाना है
जिसे तीर्थ की मिट्टी मिलती, उसे परम पद पाना है.
किसी भयंकर अनहोनी को महाकाल ने टाला है,
कोई भी हो देश दीन वह सबका ही रखवाला है
देकर थोड़ी चोट, बड़ी से उसने हमें उबारा है
दिया आत्मचिंतन का उसने अवसर हमें दुबारा है
यह हम सबके परिष्कार का केवल एक बहाना है
जिसे तीर्थ की मिट्टी मिलती उसे परम पद पाना है.
शचीन्द्र भटनागर
5. मिट्टी कितने काम की
मिट्टी कितने काम की
बिन पैसे बिन दाम की
बड़े सजीले पंछी बनते
उड़ते गिरते और सम्भलते
रंग बिरंगे खेल खिलौने
चक्की चूल्हा घड़े सलोने
जीवित सी मूरत बन जाती
जोड़ी सीता राम की
मिट्टी कितने काम की
कहीं ईंट बन महल बनाती
कहीं खेत में फसल उगाती
सुंदर सुंदर फूल खिलाती
कभी धूल कीचड़ बन जाती
तरह तरह की होती है यह
कई रूप कई नाम की
मिट्टी कितने काम की
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