Umashankar Joshi Poem in Hindi – यहाँ पर Umashankar Joshi Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. उमाशंकर जोशी गुजराती साहित्यकार हैं. इनका जन्म 21 जुलाई 1911 को साबरकांठा जिले के एक गांव में हुआ था.
उमाशंकर जोशी को 1967 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. फिर 1973 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (गुजराती) से सम्मानित किया गया. कविता के साथ उन्होंने साहित्य के अन्य अंगों को भी अपनी लेखन से पोषित किया हैं. जैसे – निबंध, आलोचना, उपन्यास, नाटक, कहानी आदि. उमाशंकर जोशी जी गुजरात विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर के पद पर भी कार्य किया. इनको 1979 में शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय के कुलपति के लिए नियुक्त किया गया था.
आइए अब यहाँ पर Umashankar Joshi ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसको पढ़ते हैं.
गुजराती कविता हिन्दी में – उमाशंकर जोशी
निशीथ
1
हे निशीथ, रुद्ररम्य नर्तक !
कंठ में शोभित स्वर्गंगा का हार
बजता है कर में झंझा-डमरू
घूमता हुआ धूमकेतु है तेरे शीश का पिच्छ-मुकुट
तेजस्-मेघों के हैं तेरे दुकूल फहराते दूर,
सृष्टिफलक पर, हे भव्य नटराज !
भूगोलार्ध पर दे रहा पाँव की थाप
व्याप्त करता विश्वान्तर के गहरे गत्तों को
प्रतिक्षण घूमती इस पृथ्वी की पीठ पर पाँव रखकर छटा से
ले रहा ताली तू दूरवर्ती तारकों के साथ !
फैलाकर दोनों भूजाएँ ब्रह्माण्ड के गोलार्धों में
हिल्लोल ले रहा घूमती धरा के संग
घूमता ही रहता है चिरन्तन नर्तन में
रहती है फिर भी पदगति लयोचित
वसुन्धरा की मृदु रंगभूमि पर
बजते हैं जहाँ मंद मृदंग सिन्धु के !
2
पैरों से तेरे पृथ्वी दबती है मधुर
स्पर्श से तेरे होता है तेज-रोमांच द्यौ को
प्रीति-पिरोये दम्पती-ह्रदय में उठता है
आवेग का बवंडर, तेरे स्निग्ध सहारे।
3
खेलता तू नीहारिका-नीर में
लेता थाह अथाह खगोल की
तू उतरता हमारे रंक-आँगन में।
देखा तुझे स्वच्छन्द विहरते व्योम में
उझकते झोंपड़ी में अगस्त्य की
या खदेड़ते व्योमान्त तक अकेले
उस मृग-लुब्ध श्वान को,
या देखा खेलते ध्रुव के साथ
जो सप्तर्षि को चढ़ाता है ऊँचा पतंग-सा,
या लेकर पुनर्वसु की नाव
रिझाते हुए उर को तनिक नौका-विहार से,
या झूलते हुए देवयानी में जाकर,
तुझे देख पाया हेमन्त में
मघा का हँसिया लिये निरन्तर
नभक्षेत्र के सुपक्व तारक-धानकणों को
मेहनत से पाटते,
और देखा वर्षा में लेटे अभ्र ओढ़कर।
रूपों-रूपों में रमते, हे नव्य योगी !
4
हे निशीथ, हे शान्तमना तपस्वी !
तजकर अविश्रान्त विराट ताण्डव
बैठ जाता है तू कभी आसन लगा
हिमाद्रि-सी दृढ़ पालती जमाकर।
धू-धू जलती धूनी उत्क्रान्ति की
दिगन्त में उड़ते उडु-स्फुलिंग
वहाँ निगूढ़ अमा-तमान्तर में
करता तू गहन सृष्टि-रहस्य-चिन्तन।
और जैसे ही हम मानव, जलाकर मन्द दीप
निकलते हैं निरखने तुझे
देखकर जृं भाविकसित चंडमुख तेरा
दृगों से घेर लेते हैं अपनी नन्हीं-सी गृहदीपिका को
और करते हैं प्रयत्न भूल जाने का
व्योम में खिला तेरा रुद्र रूप !
5
हे सन्यासी, उर्ध्वमूर्धा अघोर !
अर्चित है अन्धकार तेरे कपोल-भाल पर
अंगो पर लेपी है कौमुदी-श्वेत भस्म।
लेकर कमंडलु बंकिम अष्टमी का
या पूर्णिमा के छलकते चन्द्रमा का
छिड़कता है रस चतुर्दिक्
तू जो विचरता है स्वयं निस्पृह आत्मलीन,
घूमघूम कर ठोकता है द्वार-द्वार पर भेखधारी।
प्रसुप्त किसी प्रणयी युगल के
उन्निद्र ह्रत्कमलों में मधुरतम महकाता है
चेतना का पराग;
कर के मत्त चंचल दूसरों के ह्रदय
स्वयं रहकर निश्चंचल
पाता है प्रमोद,
हे शान्त ताण्डवों के खिलाड़ी !
6
कैसी यह मेरे देश में शाश्वत शर्वरी ?
निद्राच्छन्न जन-जन के लोचन
मूर्च्छाग्रस्त भोलेभाले ह्रदय लोगों के
जानेंगे न क्या ये सब तेरी नृत्यताल से ?
द्यौनट, हे विराट् !
मेरे चित्त में घिरी मृत्युमय तमिस्त्रा
रक्त-स्त्रोत में दास्यं-दुर्भेद्य तन्द्रा।
चूर चूर होंगे न क्या ह्रदय के ये विषाद
पाद-प्रघात से तेरे, हे महानट !
स्फुरित नहीं होंगे क्या धमनियों में
नये संगीत, नृत्य की ताल पर?
देता है चेतना श्रान्तों को तू
प्रफुल्ल कर शोभित करता है प्रकृति-प्रिया को
और मानवों की मनोमृत्तिका में बो रहा तू
स्वप्नों के बीज अनूठे।
तू है सृष्टि की नित-नवीन आशा !
इतना न होगा क्या तुझसे ?
बोल, बोल,
निशीथ ! वैतालिक हे उषा के !
(सितम्बर 1938)
अरमान
अगण्य क्षणों में से एकाध को पकड़
समय की अनंत कुहुकिकाएँ उनमें फूंक कर
स्फुरित कर जग में, कहते हैं :
‘हमारे ये अमर सुशोभित काव्य !’
अरे, सचमुच यही क्या कवि-ज़िन्दगी ?
जीवन के हैं अनेक क्षणपुंज,
दिव्य निजानुभव के क्षण तो हैं कुछ इनेगिने ही,
कर व्यक्त उन्हें शब्द के अपूर्ण अधूरे रूप में,
जीवन की इति मान ली जाये क्या ?
यही है चिरायु ?
अथाह महाकाश में, अन्तहीन इस महाकाल में
अणु-सी अल्प इस पृथ्वी के स्फुरित होते साँस चार
उसमें नगण्य मनुष्य की
की-न-की काव्यसृष्टि कहाँ ?
कब तक वह,
इस पृथ्वी की ही भस्म जहाँ
समग्र इतिहास पर उड़कर चादर चढ़ा देगी ?
फिर भी, हदय, गा ले
रह न जायें कहीं मन में अरमान !
(नवम्बर 1933)
आत्मसंतोष
नहीं, नहीं, अब नहीं हैं रोनी हृदय की व्यथाएँ
जो जगत् व्यथा देता है, उसी जगत् को अब
रचकर गाथाएँ व्यथा की वापस नहीं देनी हैं।
दुःख से जो हमें पीड़ित करता है
बदले में उसे दुःखगीत देना क्यों?
हृदय बेचारा हो गया है ऐसा आर्द्र
सभी स्पर्शों से काँप उठता
करके चीत्कार गीत में।
गीतमय चीख़ सुनकर
अधिक के लोभ से, उत्साह से
स्पर्श कर जाते हैं सब कोई पुनः पुनः उसे।
वर्तमान वज्र का मिज़राब लेकर डट गया है
इस तंत्री में से सभी स्वर छेड़ने को;
वह नहीं समझता ज़रा भी हृदय की पीड़ा।
फिर भी मन मसोसकर ख़ूब गाना!
गाना;
भले ही कभी विषम हो उठे वर्तमान,
किन्तु कोई क़सूर नहीं
अनागत पीढ़ियों का।
(26-8-1933)
छोटा मेरा खेत
छोटा मोरा खेत चौकोना
कागज़ का एक पन्ना,
कोई अंधड़ कहीं से आया
क्षण का बीज बहाँ बोया गया ।
कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया नि:शेष;
शब्द के अंकुर फूटे,
पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।
झूमने लगे फल,
रस अलौकिक,
अमृत धाराएँ फुटतीं
रोपाई क्षण की,
कटाई अनंतता की
लुटते रहने से ज़रा भी नहीं कम होती।
रस का अक्षय पात्र सदा का
छोटा मेरा खेत चौकोना।
बगुलों के पंख
नभ में पांती बांधे बगुलों के पंख,
चुराए लिए जातीं वे मेरी आंखें।
कजरारे बादलों की छाई नभ छाया,
तैरती सांझ की सतेज श्वेत काया।
हौले – हौले जाती मुझे बांध निज माया से।
उसे कोई तनिक रोक रक्खो।
वह तो चुराए लिए जाती मेरी आंखें
नभ में पांती – बंधी बगुलों की पांखें ।
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